लघुकथा-पूर्णिमा सरोज

बेबस
पार्क में कहीं बच्चे अपने माता-पिता की उंगली थामें खुशी से यहां-वहां देख रहे हैं। कहीं बच्चे झूला झूल कर आनंद ले रहे हैं तो कहीं फिसलपट्टी पर फिसल-फिसल कर खुश हो रहे हैं। कुछ लोग अपने परिचितों से मिलकर खुश हो रहे हैं। माता-पिता बातों के बीच भी अपना ध्यान बच्चों पर रखे हुए हैं कि कहीं बच्चों को झूले या फिसलपट्टी से असावधानीवश चोट न लग जाये।
मुझे यह सब देखकर बड़ा आनंद आ रहा है। घूमते हुए अचानक पार्क के एक कोने में कुछ बच्चों के झुण्ड पर मेरी नजर थम गई। उनके आसपास कोई अभिभावक नहीं थे। वे आपस में ही बातें कर रहे थे और अश्लील, अजीब सी गालियों का प्रयोग अपनी बातों में कर रहे थे।
मैं और अधिक उत्सुक हुई कि आखिर ये यहां कर क्या रहे हैं ? एक बच्चे ने एक दवाईनुमा शीशी पकड़ रखी थी। एक बच्चे ने एक प्लास्टिक वाली झिल्ली हाथ में पकड़ रखी थी, जिसे वह बार-बार मुंह के पास ले जाता था। झिल्ली फुग्गे की तरह फूलती और सिकुड़ जाती थी। मुझे अपने करीब आते देख उन्होंने जो भी अपने हाथ में रखा था, छिपा लिया।
मैंने पूछा-’’बच्चों आप लोग स्कूल जाते हो ?’’
सभी का जवाब था-‘‘नहीं।’’
पुनः दूसरा प्रश्न किया मैंने-‘‘क्यों ?’’
उनमें से एक बच्चा बोला-’’मेडम जी! हम लोग दिन भर काम करते हैं, कचरा बीनते हैं, हॉटल में बरतन धोते हैं और भी कई काम जिसे हम न करें तो हम भोजन नहीं जुटा पायेंगे।’’
और वे वहां से चले गये। उनके जाने के बाद वहां पड़ी हुई कुछ चीजों पर मेरी निगाह चली गई। वहां कुछ कफ सीरप की खाली शीशियां, बोनफिक्स, क्विकफिक्स के चपटे ट्यूब पड़े हुए थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि इन चीजों से नशा किया जाता है।


श्रीमती पूर्णिमा सरोज
व्याख्याता-रसायन
मेटगुड़ा, जगदलपुर
जिला-बस्तर
पिन-494001
मो-9424283735