कहानी -आमरण अनशन -कहानीकार-सनत कुमार जैन

आमरण अनशन   

 

 

 

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’मैं बैठूंगा आमरण अनशन में!’ हरीश खड़ा होकर दृढ़ता से बोला।
उसे देखकर कुंदन के मुख में मुस्कराहट आ गयी। वह उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला।
’आमरण अनशन है कोई भंडारा नहीं। अच्छे अच्छों का तेल निकल जाता है। और कदाचित तुम्हें पूर्ण सूचना नहीं मिली है कि ये अनिश्चितकालीन अनशन है। अर्थात हमारी मांग पूरी न होने तक भूखा बैठना है। तुमको देखकर नहीं लगता कि एक दिन भी तुम भूखे रह पाओगे।’ ऐसा कहकर कुंदन उसके कंधे को दो बार थपथपा दिया।
’अवसर दोगे तब तो आपको पता चलेगा कि मैं क्या कर सकता हूं।’ हरीश ने दृढ़ता से कहा।
’भाई! आंदोलन है कोई हास्य का विषय नहीं। जब तक ये गली की सड़क नहीं बनानी शुरू होगी तब तक बैठना है भूखे प्यासे! यदि आंदोलन के बीच में तुम भाग गये तो हम सब की कितनी भर्त्सना होगी कितना अपमान होगा तुमको इस बात का ज्ञान है ? कोई परिहास का विषय नहीं। तुम समझते क्यों नही ?’ हरीश पर क्रोधित होता कुंदन वहां से हट गया और कमरे से बाहर चला गया।
हरीश भी तुरंत ही उसके पीछे चला गया। उसका हाथ पकड़ कर बोला।
’भैया! भगवान की सौगंध मैं मरण प्राप्त होने तक इस अनशन पर बैठूंगा। मुझ पर विश्वास करो।’
हरीश की बात सुनकर कुंदन तुरंत कोई प्रतिक्रिया न देकर कहा-’सबसे चर्चा करके अंतिम निर्णय लेते हैं। तुम्हारा उत्साह प्रशंसनीय है। और हां, एक बात सदैव ध्यान रखना। ये आंदोलन तुमको एक बड़ा नायक बना देगा। इसके पश्चात तुम्हारे लिये जीवन में एक नया और विशिष्ट मार्ग निर्मित होगा। जिसमें प्राप्त होने वाले मान सम्मान और धन की सीमा न होगी। जितना श्रम उतना धन!’ पुनः कुंदन ने हरीश के कंधें थपथपा दिये।
आज चौथे दिन की सुबह थी। हरीश की ये समस्त वार्तालाप उसे स्मरण आ रहा था। परन्तु शरीर उसका साथ देने में असमर्थ अनुभव कर रहा था। मुंह सूखकर छुहारे के जैसा दिखायी पड़ रहा था। जीभ को मुंह के भीतर घूमने में अत्यंत कठीनाई हो रही थी। उसे ऐसा लगता था कि न तो उसे ढंग से सुनायी दे रहा है न ही दिखायी! उसे अनुभवद होता था कि पास ही यमराज आ खड़े हैं। स्वयं के निर्णय पर अब क्रोध आने लगा। गली की एक छोटी से मार्ग के निर्माण की दो ढाई लाख की राशि के लिये अपने ये मूल्यवान प्राण यूं भूख प्यास से तड़प तड़प कर त्यागने पड़ जायेंगे। हे भगवान मैंने तो परोपकार हेतु इस अनशन को स्वीकार किया था। इसमें मेरा क्या निजी स्वार्थ था ? मार्ग का निर्माण होगा तो आपके मंदिर तक पहुंचने में भी सरलता होगी।
तभी उसका दिमाग दूसरी ओर चला गया। अनशन के अतिरिक्त अन्य उपाय भी तो हो सकते हैं अपनी बात मनवाने के। नारा लगाना, पदयात्रा, नगरबंद, क्रमिक अनशन भी तो हो सकता है।
खैर! हे भगवान! अब तू ही बचा सकता है इस स्वयं आमंत्रित संकट से। कान पकड़े, अब यूं उछलकूद न करूंगा।
तभी उसके कानों में तेज स्वर में जनसमूह का अस्पष्ट वार्तालाप सुनायी आने लगा। इसके साथ ही कुंदन भी दिखायी दिया।
कुंदन उसे अपने हाथों का सहारा देकर उसे बैठाया और कहने लगा।
’कलेक्टर साहब हमारे अनशन से पराजित हो गये हैं उन्होंने गली में निर्माण कार्य हेतु रेत और गिट्टी के दो दो ट्रक गिरवा दिये हैं। अब तुम्हारा अनशन समाप्त। तुम जीत गये। तुम्हारे जीवन की यह प्रथम विजय तुमको देखना किस ऊंचाई तक ले जायेगी। कलेक्टर साहब तुमको अपने हाथों से मौंसम्बी का रसपान करवाया कर अनशन समाप्त करवायेंगे।’
ये सब कह कर उसने हरीश को गले लगा लिया।
गली वाले कहीं से ढोल वाले को बुला लाये क्या स्त्री क्या पुरूष सभी नृत्य कर रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति हरीश से मिलने को आतुर था। किसी ने गले में गेंदा फूल की माला डाल दी तो किसी ने माथे पर सिंदूर का विजयी टीका भी लगा दिया। कुछ पत्रकार आ गये, चित्र उतारे, प्रश्न पूछे सामचार पत्र में छापने के लिये।
कुल मिला कर चार दिनों में वह जन नायक बन चुका था। भर भर कर सम्मान मिल रहा था।
सप्ताह बीत गया। माह बीत गया। मार्ग का निर्माण तो चार दिनों में ही हो गया था। सभी अपने अपने काम लग गये थे। मुहल्ले को वातावरण पुनः पूर्व की भांति हो गया था। मानों जल का स्वभाव शीतलता!
इस बीच हरीश कई बार कुंदन से मिला। तनिक देर बात होती और कुंदन अपने फोन पर आते संदेश को पाकर चला जाता।
हरीश को अब ऐसा लग रहा था मानों जन समूह उससे कटने लगा है। कुंदन भी!
जबकि वह राह चलते देखता कि समस्याओं का भंडार हर ओर फैला पड़ा है। सामान्य जन कीट पतंगों की भांति जीवन जी रहे हैं। वह समझ नहीं पाता कि वे विरोध क्यों नहीं करते हैं। उनका यूं शांत रहना उसे खलने लगा। वातावरण की शांति से उसे तनाव उत्पन्न होने लगा।
एक दिन वह सुबह सुबह कुंदन के घर पहुंच गया। कदाचित कुंदन उसी समय सो कर उठा था। हरीश को सुबह सुबह अपने घर देखकर उसे क्रोध आ रहा था। परन्तु लोक लाज के चलते वह आंखें मलता हुआ बैठक में आकर बैठ गया। अपनी पत्नी को चाय बनाने को भी कह दिया।
’भैया! अपने मोहल्ले में जिस और दृष्टि जाती है उस ओर शासन की अनुशासनहीनता दिखायी पड़ती है। कचरा यहां वहां पड़ा है, नाली नहीं बनी है, बिजली के खंबे पर लाइट नहीं हैं। वहां प्रत्येक रहवासी कष्टों से जूझ रहा है। परन्तु किसी के द्वारा भी विरोध नहीं हो रहा है। अंततः हम क्यों इस ढंग से जीने को विवश हैं। यदि आपकी अनुमति हो तो इसके लिये को अनशन-वनशन करें। सहन नहीं होता कि सामान्य जन यूं निकृष्ट जीवन जी सकें।’ यह कहते हुये हरीश ने अपनी बाहें चढ़ा लीं।
उसकी इस चेष्टा को कुंदन ने अपनी कीचड़ भरी आंखों से देखा। क्रोध तो पहले से ही भरा हुआ था इसलिये वह चिढ़कर उत्तर दिया।
’शांति से बैठो भाई! संसार में कोई भी किसी का सम्पूर्ण कष्ट दूर नहीं कर सकता है। और हर बात में टांग अड़ाना सही नहीं होता है। प्रशासन से हम सदैव लड़ाई की मुद्रा में नहीं बने रह सकते। हमें भी उनसे कभी कभार काम पड़ता ही है। और एक है कि यदि हम प्रशासन से सदैव भिड़ते रहेंगे तो प्रशासन भी हमारे पीछे लग जायेगा। हमारी दुखती रग को पकड़ कर दबायेगा इसके पश्चात हमारी सारी हेकड़ी निकल जायेगी। जिस स्थान पर आवश्यक होगा वहां हम आंदोलन करेंगे। मैं आपको सूचना दूंगा न!’
कुंदन ने अत्यंत कठीनाई से अपने क्रोध को रोक कर समझाया। तभी चाय आ गयी। उसने हरीश को चाय पीने कहकर स्वयं अनुमति लेकर टट्टी करने चला गया।
अनमना सा हरीश चाय पीकर विचार में डुबा हुआ निकल गया। उसे कुंदन पर अत्यंत क्रोध आ रहा था। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था मानों कुंदन स्वार्थी हो गया है। जब उसका मन होगा तब अनशन होगा। ये कौन सी बात हुयी। सामान्य जनों के कष्टों का कोई ध्यान ही नहीं! मैं यूं चुपचाप नहीं बैठ सकता। मैं आगे बढूंगा, मैं करूंगा इन समस्याओं के लिये अनशन! मैं जन जन का स्वर बनूंगा!
पर साथियों की आवश्यकता होगी, वो कहां से आयेंगे।
कई नामों का ध्यान किया परन्तु कोई भी साथ खड़े होने वाला दिखायी नहीं पड़ रहा था।
’पैसे भी तो लगेंगे।’ अचानक मन ने चीखा। वह घबरा गया।
’कितने पैसे लगेंगे। एक बेनर, एक चटाई और एक डायरी जिसमें आने वालों के विचार लिखवाने हैं।’
अपनी ही बड़बड़ाहट में समस्या का हल सुनकर उसके मुखड़े में मुस्कान आ गयी। उसके रोम रोम खड़े हो गये।
एक दिन लगे सम्पूर्ण व्यवस्था बनाने में। अगली सुबह का समय अनशन के लिये तय कर लिया। स्थान वही था जहां पिछली बार वह अनशन किया था। सबकुछ तैयारी होने के पश्चात वह आने वाले जनसमुदाय को बताने के लिये विषयवस्तु की तैयारी कर डायरी में लिख लिया।
शीघ्र ही सुबह हो गयी। शीघ्रता करते हुये स्नानादि से निवृत्त होकर सबसे पहले निकट के शिवमंदिर गया।
’हे भगवान! अपने जीवन का प्रथम आंदोलन स्वयं के दम पर कर रहा हूं। अपना आशीर्वाद देना।’ यह कहकर फूल चढ़ा दिया। गोल बाजार चौक पहुंच कर चटाई बिछाई, बेनर बांधा और बैठ गया। कुछ ही पलों में मोहल्ले में समाचार फैल गया। कुछ सज्जन और कुछ माताएं देखने आ गयीं। बेनर पर लिखा था-
’जब तक न होगीं नालियां स्वच्छ, बैठा रहेगा ये मगरमच्छ!
मच्छर भिनभिना रहे, रोगी हमको बना रहे।
आपका अपना भाई-हरीश कुमार
एक दो निकट आकर पूछताछ करने लगे। सबसे पहले मोहल्ले के बुजुर्गों ने आकर साहस प्रदान किया।
’बहुत सही बेटा! तुम वास्तविक नायक हो जो सामान्य जनों के हित में अपना समय लगा रहे हो। वरना इस स्वार्थ के संसार में कौन किसकी सोचता है। लगे रहो हम तुम्हारे साथ हैं।’ यह कहकर उसी पीठ को थपथपा दिया।
’ऐसे युवा की आवश्यकता है पार्षद के लिये। सजधज कर मटकने वाली महिला की कोई आवश्यकता नहीं। सजधज कर घूमने से यदि नालियां स्वच्छ हो जाती तो स्वच्छताकर्मियों की आवश्यकता ही क्यों पड़ती। उसे देखकर तो ऐसा लगता है मानों वो अपने लिये ग्राहक ढूंढने आती हो।’
हरीश ये सब सुनकर मन ही मन मुस्कराने लगा। समझ गया कि पार्षद महोदया की दृष्टि में दादा नहीं आ पायें हैं। उन दादा की दाल नहीं गली है और अंगूर खट्टे हैं। इसलिये अपनी भड़ास में स्तर इतना निम्न पहुंच गया है। ’अपनी आयु तो देखो।’ मन कह उठा। परन्तु प्रत्यक्ष में कैसे कह सकता था अंततः वो तो उसके विचारों का समर्थक था, जो उसके इस आंदोलन में स्वयं चलकर आया था और खुलकर समर्थन भी कर रहा था।
वह झुककर उनका पैर पड़ लिया।
बुजुर्ग ने प्रफुल्लित होकर उसे उठाकर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद देते हुये माथा चूम लिया।
’बेटा! तुम खड़े होना इस पार्षद चुनाव में मैं करूंगा तुम्हारा प्रचार प्रसार। देखना तुम ही विजय हार पहनोगे।’
दोपहर तक हरीश को विश्वास हो गया कि वह मोहल्ले का पार्षद ही है। चुनाव लड़ना तो मात्र एक प्रक्रिया है।
संध्या काल तक लगभग प्रत्येक घर से व्यक्ति आ चुके थे। मात्र नहीं आया तो कुंदन और उसका परिवार! अंततः वो आता ही क्यों, उसके नायकत्व को चुनौती दी जा रही थी वो भी स्पष्ट रूप से।
वैसे भी इस संसार में कोई कैसे अपनी अंतेष्टि में आ सकता है।
पहले तो हरीश को इस बात का तनाव था तत्पश्चात वह समझ गया कि उस कुंदन का न आना ही उसके लिये हितकारी है। उसके आते ही ये आंदोलन उसके हाथ से निकल कर कुंदन के हाथ में चला जाना था। आगंतुकों ने आने से हरीश को इस ज्ञानलाभ की प्राप्ति हो गयी। उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित किया। इस बार वह आश्चर्य से भर गया। संध्या तक ही नगर निगम के अधिकारी आकर नालियों की सफाई करवा दिये। आंदोलन उसकी अपेक्षाओं से कहीं अधिक शीघ्रता से समाप्त हो गया। न तो समाचार पत्र वाले आ पाये न ही कोई सरकारी अधिकारी आकर आश्वासन देने जैसे प्रक्रिया अपनायी गयी।
पलंग पर लेटे लेटे वह सोच रहा था कि उसका सारा श्रम व्यर्थ हो गया। नालियों के साफ स्वच्छ होने पर तनावग्रस्त हो गया। उसे गंदगी से भरी नालियां ही मोहित कर रहीं थी। ऐसा लगा कि वह अभी के अभी उठकर जाकर नालियों का निकला कचरा पुनः नालियों में ही डाल दे।
’यह भी कोई बात हुयी, एक आंदोलन को गर्भावस्था में ही मार दिया। ये तो अपराध है। ऐसे अधिकारियों कर्मचारियों को और अन्य संलिप्त जनों को तो दण्ड का विधान होना चाहिये।’
उसकी आंखों में रह रह कर मच्छरों से बजबजाती गंदी नालियां और दुर्गंध ही दिखायी पड़ रहीं थी। यूं अनुभव होता था मानों उसकी प्रिया वही हो।
अबकी बार ऐसी किसी समस्या को हाथों में लेना होगा जिसका निवारण इतनी शीघ्रता से न हो। इतने मानसिक और शारीरिक श्रम के पश्चात भी कोई अनुकूल और सार्थक परिणाम नहीं प्राप्त हुआ।
’हे ईश्वर! कैसी तेरी माया! श्रम का ये परिणाम! अबकी बार ऐसा आशीर्वाद न देना प्रभु! कुछ तो दया करो।’
ईश्वर ने उसकी रात भर की बेचैन करवट भरी थकान को कदाचित् ध्यान में ले लिया था। दया भी आ गयी थी उसकी इस परिस्थिति पर। कदाचित् उसके आंसुओं को देखकर उनकी भी आंखें भर आयीं थी। सुबह होते ही उसका मोबाइल फोन गाने लगा।
’प्रभु तेरा सहारा है, वरना इस संसार में कौन हमारा है।’
’हेलो!’
’हरीश भैया की जय!’ उसकी हेलो के उत्तर में ये था। वह समझ नहीं पाया कि सामने कौन है।
’हां, जी कहिए।’
’भैया! आपसे मिलना है। एक अत्यंत आवश्यक कार्य है। यदि आपके पास समय हो तो अभी आपसे बात कर लूं।’ सामने वाले की व्यग्रता मोबाइल से आते स्वर से ही समझ आ रही थी।
वैसे तो सुबह सुबह उठते ही फोन आने पर उसे चिढ़ अनुभव हुयी। परन्तु वह कैसे माना कर सकता था इसलिये वह प्रत्यक्षतः कहा।
’हां.हां कहिये न!’
’भैया! मेरे घर के पास एक मांसाहारी ने दुकान खोल ली है। वहां उठती दुर्गंध से हमारा परिवार भंयकर कष्ट में है। यदि आप उसे वहां से हटवा दें तो मैं आपको एक लाख रूपये दूंगा।’
’पर मैं कैसे उसे हटवा सकता हूं।’ तुरंत ही हरीश के मुख से निकला। ’क्या भैया! आप भी न, सुबह सुबह परिहास कर रहे हो। आपके पास आंदोलन की शक्ति है आपको दो दिन लगेंगे और मेरा कार्य सिद्ध हो जायेगा। मैं उस कसाई से त्रस्त हूं।’
’कब से करना है ?’ अबकी धीरे से स्वर प्रस्फुटित हुआ उसके मुख से।
’जितनी शीघ्रता से हो उतना ही अच्छा है। हमारा जीवन व्यर्थ हुआ जा रहा है। उस कसाई को अनेक बार मना कर चुके हैं पर वह हमें ही आंखें तरेरता है। हमें ही डराता है।’
फोन करने वाले की व्यथा सुनकर हरीश बोला- ’ठीक है बेनर, टेंट, माइक और समाचार पत्र में समाचार दे दो। कल ग्यारह बजे पहुंच जाउंगा। अपना पता मुझे वाट्सएप कर दो।’
’बहुत बहुत धन्यवाद भैया! मैं आपका ये उपकार जीवन में कभी न भूल पाउंगा।’
फोनकर्ता के स्वर में प्रसन्नता का आवेग स्पष्टतः अनुभव किया जा सकता था। उससे इतनी अपेक्षा और विश्वास को देखकर हरीश का सीना फूल गया। उसे स्वयं पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वह सामान्य जनों के लिये आशा की किरण बन चुका है।
दिनभर उसने नारे बनाये और क्या क्या वहां से बोलना है उसका विवरण लिख लिया।
’दो चार व्यक्ति और हो जाते तो आनंद आ जाता। किसे कहूं, समझ नहीं आता।’ वह बड़बड़ाने लगा।
’उस बुजुर्ग को बुला लेता हूं वह अवश्य ही आ जायेगा।’ उसे अचानक उसके स्मरण में आया कि पिछले नाली वाले आमरण अनशन में एक सज्जन ने पूरा साथ देने का वचन दिया था। क्यों न उनसे बात करूं। हो सकता है वो आ जायें। अच्छा हुआ उनका फोन नंबर ले लिया था। उसने तुरंत फोन लगाया।
यूं स्मरण कर करके उसके पास पांच व्यक्तियों की भीड़ तैयार हो गयी।
’इतने बहुत हैं। कुछ तो वहीं से सम्मिलित हो जायेंगे।’
वह स्वयं से कहता हुआ मुस्कराने लगा।
प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुयीं। वह पंडाल में बैठा था। मांस विक्रेता उसे घूर कर देखता और तत्पश्चात अपना वो हथियार वहीं रखे पत्थर से धार करता। हरीश उसकी इस चेष्टा को निरंतर देख रहा था। वह समझ गया कि उसे वह डरा रहा है।
पंडाल में बैठे बैठे लगभग आधा दिन व्यतीत हो चुका था। परन्तु मोहल्ले के निवासियों का पता ठिकाना न था। कोई उसके निकट ही नहीं आ रहा था। वैसे भी हरीश चाहता था कि ये आंदोलन न्यूनतम सप्ताह भर तो चले। अंततः घर में बैठे बैठे करेगा क्या। परन्तु मोहल्ले वालों की भीड़ न पाकर मन अशांत था। भीड़ भाड़ और प्रचार के बिना आंदोलन का क्या अर्थ! वन में मोर का नृत्य किसने देखा!
उसकी अपेक्षाओं के विपरीत संध्या से एक्का दुक्का व्यक्तियों का आना प्रारम्भ हो गया। इस बार स्त्रियों की संख्या अधिक थी। हरीश को समझ आने लगा कि ये कसाई कदाचित् मोहल्ले की लड़कियों और स्त्रियों को छेड़ता भी है। तभी स्त्रियों का संख्याबल अधिक है।
संध्या को पत्रकार भी आ गये। एक स्थानीय टीवी चैनल वाला भी उपस्थित हो गया था। हरीश की प्रसन्नता देखते ही बन रही थी। मुखमंडल चमचमा रहा था।
’मांसाहार जिसे करना है वह करे। उसका कोई विरोध नहीं परन्तु आप सार्वजनिक रूप से शाकाहारियों को कष्ट नहीं पहुंचा सकते। आप उनकी नर्म भावनाओं को चोटिल नहीं कर सकते। आप बेचिये, वहां बेचिये जहां शासन ने स्थान बनाया है। यूं सड़क पर तो नहीं।’
उसने शब्दों का संभाल संभाल कर कहा। और तो और बिना कोई त्रुटि के अपनी बात कह दी।
यूं दो दिन निकल गये। वो कसाई हरीश को अपना मुर्गे का गला काटने वाला हथियार प्रतिदिन धार करके दिखाता। अब हरीश भी उसे मुस्करा कर देखने लगा था। नागरिकों की बढ़ती भीड़ ने कसाई के हृदय में भी भय की फसल लहलहा दी थी।
जैसे जैसे अनशन के दिन बढ़ते जा रहे थे वैसे वैसे ही पत्रकारों, छुटभैये नेताओं और नागरिकों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। आत्मविश्वास कुलाचें भर रहा था।
अंततः नगरनिगम वाले आकर उस कसाई को वहां से हटा दिये। अनशन टूटा, हरीश वाहवाही लूटा। अगली सुबह उसके पास पचास हजार रूपये थे। अब तो हरीश के पास आंदोलनों का अभीष्ट उद्देश्य भी जनम ले चुका था।
सफलता के ये चरण हरीश को धरातल से बहुत ऊपर उठा दिये थे। उसे यूं ही बैठे रहना तनिक भी नहीं भाता था।
’अरे! हरीश भैया! क्या बात है आजकल समाचार पत्रों में आपको नहीं देख रहा हूं। ठण्डे पड़ गये क्या ?’ अचानक एक मित्र ने पूछा। तब वह तत्काल उत्तर दिया।
’भई! हम तो सदैव तैयार रहते हैं पर नागरिक ही अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं। वे सामने नहीं आयेंगे तो हम अकेले क्या कर लेंगे। मुझे चिढ़ होती है व्यक्तियों के व्यवहार से।’ हरीश एकाएक भड़क गया।
’भैया! आप एक काम क्यों नहीं करते। एक विजिटिंग कार्ड बनवा लीजिए। जिसमें लिखवा दीजिए कि हर प्रकार आंदोलन और अनशन के लिये सम्पर्क करें। तुरंत से तुरंत। अपनी अपेक्षा से पूर्व। आपका सेवक -हरीश!’ कहते कहते वह हंस पड़ा। हरीश का माथा तो ठनक चुका था परन्तु जाने कब वह मित्र काम आ जाये, यह सोच कर अपमान का घूंट पीकर रह गया। तभी उसका मित्र उसे पुनः कहने लगा।
’भैया! अपने भूतिया तालाब के पांच पेड़ काटे जा रहे हैं। वह प्रयास करो हो सकता है आपके सूखे पड़े गले में मालाएं पड़ जायें।’ कहकर हंसता हुआ वह चला गया।
भले ही उसके मित्र ने हंसी ठट्ठे में ये सब कहा था पर इसमें भी उस मित्र ने एक उपाय ही सुझाया था। ’पेड़ों को बचाना तो अपना कर्तव्य है। उन पेड़ों को मैं बचाउंगा।’ वह स्वयं को वचन देने लगा।
वह तुरंत ही भूतिया तालाब पहुंच गया। वहां खड़ी दो जेसीबी दूर से ही दिखायी पड़ रही थी। वह तत्काल ही जेसीबी के सामने अपनी शर्ट खोलकर धरती पर बिछाया और बैठ गया। जेसीबी खड़े हो गये। आधे घंटे में ठेकेदार आ गया जिसे तालाब के किनारे किनारे पाट कर मार्ग निर्मित करना था। वह हरीश को समझाने लगा।
’भाई जी! ऐसे न करो मेरे काम में देर हो रही है। वैसे भी अधिक लाभ वाला काम नहीं है।’
’एक पेड़ लगाने में कितने वर्ष लगते हैं आपको पता भी है या नहीं! काटने में तो आपको एक दिन ही लगेगा। एक पेड़ से मिली आक्सीजन का खाता बही है या नहीं! और तो और तालाब को पाट कर रास्ता बना रहे हो। अर्थात आप तालाब का गला घोंट रहे हो। ये कार्य तो तत्काल ही रोका जाना चाहिये।’ हरीश ने एक ही सांस में अपनी तैयार किये भाषण का योग्यता से पाठ कर दिया। पिछले तीन चार आंदोलनों ने उसके प्रस्तुतिकरण को संवार दिया था। उसे समझ आने लगा था कि किन शब्दों के प्रयोग से सामान्य नागरिकों को सम्मोहित किया जा सकता है। उनके बीच के किसी व्यक्ति को निकट आमंत्रित कर उसे अपना बनाया जा सकता है, यह भी भली भांति समझ गया था।
दोपहर का समय था वह लगभग अकेला था। दो चार लड़के पास खड़े थे। तभी वह ठेकेदार उस ओर से दो बार निकला। हरीश समझ गया वह ठेकेदार उससे चर्चा करना चाहता है। उसे निकट खड़े लड़कों को पास बुलाकर कुछ पैसे दिये और कहा-’जाओ मित्रों! आप नाश्ता कर आओ। सुबह से खड़े खड़े थक गये होगे।’
वे लड़के तत्काल वहां से चले गये। और तत्काल ही वह ठेकेदार भी आ गया।
’भैया! बंद कर यह अनशन। इस काम के रूक जाने से मैं आर्थिक दलदल में फंस जाउंगा।’
’पर्यावरण का विचार कीजिए आप उसका क्या होगा ?’ तत्क्षण हरीश ने प्रति प्रश्न किया। ठेकेदार एकाएक चुप हो गया। उसके मुख पर चिंता की लहरें स्पष्ट देखीं जा सकती थी। उसके भीतर कुछ मंत्रणा चल रही थी मन और दिमाग के बीच।
’भैया! आप मध्यमार्ग निकालिये आप तो वरिष्ठ हैं। सब समझते हैं। मेरे से जो बन पड़ेगा मैं कर दूंगा।’ ठेकेदार ने संकोचभाव से अपना सर नीचा किये प्रार्थना की।
आश्चर्य! उसकी प्रार्थना त्तकाल स्वीकृत हो गयी।
’कितने की निविदा है ? कितने करोड़ का काम है ?’
ठेकेदार ये प्रश्न सुनकर अचरज से अपना सर उठा कर हरीश की ओर फटी आंखों से देखने लगा।
’काम की चर्चा करो। शीघ्रता करो। और संगठन आ गये तो ये काम वास्तव में ही रूक जायेगा। जो इतना फैला रखा है न इन सबका पैसा लटका रह जायेगा।’
ठेकेदार की लड़खड़ाती जीभ ने जैसे तैसे उत्तर दे दिया।
’एक करोड़ तीस लाख का।’
’तो कितना दे रहे हो अभी ?’
ठेकेदार चुप ही रहा। उसकी ओर पश्पवाचक दृष्टि से देखता रहा।
’एक परसेंट दे दो। अधिक विचार मत करो। इन हवादार युवा वृक्षों का मूल्य करोड़ो रूपये है। शीघ्रता करो।’
मरता क्या न करता! इस मुहावरे ने अपना अत्यंत सुघड़ता से मंचन किया। अपने पास रखे बैग से एक छोटा बैग निकाल कर गिनती करके उसे पकड़ा दिया।
’और हां, ऐसे ये आंदोलन समाप्त नहीं होगा।’ बैग अपने पास रख कर हरीश बोला। उसकी बात सुनकर ठेकेदार चौंक गया। पैसे लेने के पश्चात अब और कौन सी बात सामने आ गयी। वह अपना बैग संभालते हुये रूक सा गया।
’अरे और कोई बात नहीं है। मेरा बस यह कहना है कि आप अनशन को बंद करते हुये मुझे पुष्पहार पहनायेंगे। बस इतना ही।’ कह कर हरीश हंसने लगा।
ये सुनकर ठेकेदार के प्राण शरीर में लौटे।
कुछ दिन ही बीते थे हरीश का रहन सहन बदल गया था। अब वह सदैव श्वेत वस्त्र ही पहनता था और माथे पर बड़ा सा टीका लगाकर ही रहता था। चारों उंगलियों में सोने की अंगूठियां इठलाती थीं। पर वह इन सबके होने पश्चात भी सरलता से जीवन जी रहा था। वह अपने सामाजिक कार्य के लिये किसी मध्यस्थ को नहीं रखा था। मिलने वालों से खुलकर ही मिलता था।
नागरिकों का क्या है जितने मुंह उतनी ही बातें होतीं थी । कुछ का कहना था अबकी बिल्ली मौसी बनकर ही रहेगी किसी को शेर को पेड़ पर चढ़ना नहीं सिखायेगी।
इन सब बातें से दूर हरीश अपनी धुन में समाजसेवा में रमा रहा। अपना जीवन इसमें ही समर्पित कर दिया। समर्थकों की सेना उसके निकट बनी रहती थी।
एक दिन उसका मित्र भूपेश आधी रात तक पीने के पश्चात उससे बोला-’भाई! हरीश कब तक ऐसे चिंदीचोर बने रहोगे। कोई बड़ा काम करो। अब सीधे विधायक या सांसद के लिये कोई बड़ा केस अपने हाथ में लो। अब तुम क्या हो तनिक स्वयं को पहचानो।’
चिंदी चोर संबोधन मखमल में जूते भर का दिया था। अपमान का घूंट आत्मसात कर मर्म को समझ हरीश किसी भारी केस के बारे में विचार करने लगा। भूपेश की बातों में हल्कापन न था बल्कि उज्जवल भविष्य का संकेत था।
अंग्रेजी दारू का सम्पूर्ण उन्माद समाप्त हो चुका था, तो मादकता हिरन हो चुकी थी। वह तत्काल ही अपने क्षेत्र की समस्याओं में से घनघोर समस्या पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगा।
तालाब पाटकर अवैध घर निर्माण, नगर से राजधानी तक की मार्ग की मांग, तो नगर से बहती नदी पर बांध, या रेलमार्ग; कौन सी गुत्थी सरल, सफल और सिद्ध होगी!
सादगी से अंग्रेजी दारू के साथ चले को मुंह में फांकता उसका मन दौड़ रहा था….दौड़ रहा था……दौड़ रहा था।