एक और अंतिम संस्कार कथा
लेखक-सनत सागर, जगदलपुर
रचनाकाल दिनांक-01 अगस्त 2024
बुधिया प्रसव वेदना से तड़प रही थी, बाहर घीसू और माधव एक दूसरे से आंखें चुराते हुये बातें कर रहे थे।
’मर गई रे! मैं तो मर गई! कोई तो सुनो मेरी पुकार। कोई है क्या यहां ? सब के सब मर गये क्या ?’ कुछ पल चुप होकर उत्तर की अपेक्षा से प्रतीक्षा की। परन्तु बाहर से कोई उत्तर न पाकर वह पुनः तेज स्वर में चिल्लाने लगी।
’ऐसे पुत्र पैदा करना है तो निपूती ही कर दे मेरे भगवान! कष्ट सहा नहीं जाता! भगवान! कोई तो साथ नहीं है। पति तो अंग्रेजी मद्य पीकर उन्माद में पड़ा होगा, और वो बूढ़ा ससुर, वो भी उसके साथ बैठ कर चखना खा रहा होगा। श्रम तो करना नहीं है मात्र मद्यपान करने का जुगाड़ करना है। चार पैसे मिले नहीं कि चल पड़े मद्यपान करने। इतना भी उनको ज्ञान नहीं कि घर में एक स़्त्री है जो पुत्र जनने वाली है, कुछ पैसे जोड़कर रखते। किसी चिकित्सालय ले जाते। वो तो मुझे मरने के लिये छोड़ गये हैं। कुछ पैसे मैंने जोड़ रखे थे उसको भी मुझसे बलपूर्वक छीनकर ले गये। एक पैसा भी न बचाया। सप्ताह भर इतना मद्यपान किया कि उनको इतना भी ज्ञान न था कि उनके ऊपर जाने कितने ही श्वानों ने लघुशंका की थी। न तो स्नान किया और न ही मुंह धोया, ऐसे पीते रहे मानों पुनः कभी और पीने को न मिलेगी। हे भगवान कष्ट सहा नहीं जाता… इतना कष्ट उनको क्यों नहीं देते। जाने कहां मर रहे हैं….भगवान! मुझसे पहले उनको उठा ले..उनको उठा ले…’
अंतिम शब्द सुनकर घीसू ने अपने दांत पीसे। ’तेरे कारण मुझे वो स्त्री कोस रही है। यदि मुझे कुछ हो गया तो देखना तुझे भूत बन कर चैन से न जीने दूंगा। वैसे ही अब ढंग से चला नहीं जाता है। घुटने फंसने लगते हैं। कमर लटक जाती है। इससे ज्यादा और क्या भुगतना पड़ेगा भगवान! इस मूर्ख स्त्री को समझाओ प्रभु!’ हाथ जोड़कर घीसू आकाश की ओर देखा।
’माधव जैसे तैसे अपने हाथ को हिलाते हुये अपने पिता के क्रोध को हवा में उड़ा दिया।
’देख बाबा! मैं कब तुझसे बोला था कि मेरा मुंह में हल्दी लगा दे। तुझे ही तो गरम खाना खाने की इच्छा थी। मैं तो मां के मरने के पश्चात तेरे हाथ का जला भात खाकर भी खुश था।’ पूरी शक्ति संजोकर माधव ने अपने पिता को टहाना मारा।
’अभी मदमस्त है रे तू! कितनी पी गया था ? आधी आधी तो पीये थे तब तुझे इतना मदमस्त कैसे हो गया। लगता है तू मुझे पानी मिला कर पिला रहा था।’ यूं कह कर अपने निकट पड़ा एक पत्थर उस पर फेंक दिया, जो उसके निकट ही गिर गया।
इनके झगड़े के बीच झोपड़ी के भीतर से चिल्लाने का स्वर बंद हो गया। कुछ पल इनका झगड़ा रूका रहा तब इनको इस बात का भान हुआ।
माधव किंचित चिंतित स्वर में बोला-’हे भगवान! उस स्त्री की आत्मा को शांति देना। अबकी बार किसी धनपति के घर पैदा करना। दुखियारी ने बहुत दुख पाये हैं। एक सुख न मिला उस दुखियारी को।’ ऐसा कहकर आकाश की ओर देखकर अपने हाथ जोड़ लिये। ’अंततः हम करते भी क्या ? हमारे पास है ही क्या ? ये सरकारी भूमि पर अवैध ढंग से बनी एक कमरे की झोपड़ी! पर भगवान तूने हमको हल्का होने के लिये कोई कमी नहीं की है इतना बड़ा मैदान दे दिया। जहां चाहो वहीं बैठ जाओ। सोने के भी काम आता है भगवान! मैं झूठ नहीं बोलूंगा। पर खुले आकाश के नीचे सोने का कभी मुझे दुख न हुआ। वैसे भी दो गिलास पीते ही कहां ध्यान रहता है कि कहां पड़े हैं कहां सो रहे हैं। और हां, भगवान! तेरा बनाया संसार बहुत अच्छा है, तेरे बनाये जन भी बहुत अच्छे हैं। मैं झूठ नहीं बोलूंगा। ऐसे समय कोई कैसे झूठ बोल सकता है जब पत्नी घर में मरी पड़ी हो। हां तो, भगवान! आपके बनाये जन बहुत अच्छे हैं। हमको एक दिन भी ऐसा नहीं लगा कि कोई हमारी सहायता नहीं कर रहा हो। प्रतिदिन कोई न कोई दया का सागर मिल जाता और रात के मद्यपान का जुगाड़ कर जाता। ये बात अलग है कि खाने को भले ही पैसे न दे। इसके लिये तुझको दोष नहीं दूंगा भगवान। ये तो हमारी करनी का फल है। देख भगवान! संजोग देख, मेरे पड़दादा के साथ भी ऐसा ही हुआ। वो भी ऐसे ही, ऐसी ही झोपड़ी में अपना जीवन बिता दिया। पर आपकी सौगंध, उसने कभी भी तुमको दोष नहीं दिया। तो मैं कैसे आपको दोष दे सकता हूं…….’
अचानक कहता कहता माधव चुप हो गया। कुछ देर इधर उधर देखने के पश्चात पुनः शुरू हो गया।
’हम दरिद्र अवश्य है परन्तु तुझ पर उंगली उठाने वाले बिल्कुल नहीं। हां, भगवान! हमारा भाग्य कैसी स्याही से लिख दिया है ? भगवान! भाग्य बांटने वाले को हमारा मुंह दिखता ही नहीं। संसार के सज्जन कहते हैं मद्यपान करने वाले की यही गति होती है। सत्य कहते हैं प्रभु! पर वो ये नहीं देखते कि मद्यपान करके हम ये दुख कितनी सरलता से छिपा लेते हैं। मैं आपको निमत्रंण देता हूं कि आप चार दिन हमारे जैसी दरिद्रता में जीकर दिखला दो। हम तो जनम जनम से जी रहे हैं प्रभु!’
तभी माधव को घीसू ने पकड़कर सीधा किया और उसके माथे पर प्रेमपूर्वक अपना हाथ फेरने लगा। इतना प्रेम पाकर माधव तेज स्वर में रोने लगा।
’भगवान! तुझे तो हम देख लेंगे। तूने हमको इतना तड़पाया है हम भी तुझे तड़पायेंगे। तेरे दरवाजे कभी न आयेंगे। देखना तू हमको देखने के लिये तरस जायेगा। तब तुझे पता चलेगा कि किसी के न रहने पर कैसा लगता है।’
अबकी दोनों बाप बेटा चीख चीख कर रोने लगे।
’हम क्या हर जनम में ऐसे ही दरिद्र और दुखियारे बने रहेंगे ? हमारा क्या दोष है ? न तो किसी की हानि करते हैं न ही किसी को कष्ट पहुंचाते हैं तो क्यों हम हर समय दरिद्र बने हुये हैं ? क्यों हमको दूसरों के सामने हाथ फैलाना होता है ?’ घीसू भी उसके साथ खड़ा हो गया। वह भी भगवान को भला बुरा कहने लगा।
समय बीतते ही रात से सुबह हो गयी थी। उनके मुख पर उड़ते मच्छरों का समूह गीत गाता गाता चला गया था। कुछ मच्छर पास के गढ़ढे में भरे गंदे पानी में घुस कर बैठ गये थे तो कुछ झाड़ियों के पत्तों में स्वयं को छिपा चुके थे। घीसू माधव सुबह के उजाले और सूर्य के प्रकाश की गर्मी में भी औंधे पड़े थे। एक दो कुत्ते उनके समीप आकर, वे भी सो गये थे। बीच बीच में वे कुत्ते अपना मुंह उठा कर अपने बाजू में सोये घीसू माधव को सूंघते तत्पश्चात अपना मुख दूसरी ओर कर लेते। अनुभव होता था कि उन कुत्तों को घीसू माधव के शरीर से आती दुर्गंध कष्टप्रद लग रही थी। परन्तु रात भर के जागरण और गलियों के सुरक्षा कर्तव्य निर्वहन के पश्चात नींद के झोंके में जाने कब उनका मुख घीसू माधव की ओर हो जाता उनको इसका भान ही न रहता।
तभी दो चार और कुत्ते उनके निकट आकर रोने लगे। कदाचित् उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि झोपड़ी में कोई मृतक है। उनके रोने से घीसू की नींद पहले खुली। वह झपट कर उनको भगाने का उपक्रम करने लगा।
’भागो रे! यहां क्यों आये हो! मैं अभी जीवित हूं। बहुत आयु है मेरी। घुटने ही तो घिसे हैं, अवसर आने पर तेजी से चल भी सकता हूं। इतनी शीघ्रता क्यों है तुम कुत्तों को जो मुझे मरा समझ कर रोने आ गये। चलो भागो।’ शक्तिपूर्वक चिल्लाने के पश्चात भी वे ढीठ कुत्ते वहीं खड़े रहे तनिक दूर जाकर पुनः रोने लगे। अब क्रोध से भरकर घीसू उनको पास पड़े पत्थर उठाकर फेंक कर मारने लगा। इतनी समय में उसकी नींद ही चौपट हो गयी।
’अरे! करमजलों! क्यों मुझ दरिद्र के प्राण लेने को मचल रहे हो। जाओ और कहीं जाकर किसी धन्ना सेठ के घर के बाहर रोओ। या उन सुरक्षाकर्मियों के घर जाकर रोओ जो हमको मद्यपान करने पर अपने तेल पिलाये डण्डों से जब तब सोंट देते हैं। उनके प्राण त्यागने का उत्सव मनाओ। जाओ, यहां शोक मत मनाओ।’
तभी एक कुत्ता झोपड़ी के भीतर घुसने लगा। उसे देखकर अबकी बार घीसू उठने का जीतोड़ प्रयास किया किन्तु वह असफल ही रहा। उसका बूढ़ा शरीर उसके मन का साथ ही न दे पाया। खाली पेट में भरे मद्य ने उसके पेट को निचोड़ लिया था। वह पुनः प्रयास करके पास पड़े माधव को झिंझोड़कर उठाया।
’जा रे राजुकमार! जा तेरे महल में ये कुत्ते घुसे जा रहे हैं, भगा उनको। इन बूढ़ी हड्डियों में अब वो शक्ति नहीं रही। जा तेरी घरवाली भीतर सो रही है। अब तक उठी नहीं है। कैसे उठेगी वो दुखियारी पेट से जो है। ये कुत्ते कहीं उसे काट न लें। जा शीघ्रता कर।’
माधव उठकर अपनी आंखें मिचमिचाने लगा। और वहां उत्पन्न परिस्थितियों को समझने का प्रयास करने लगा। कुछ समय में उसे समझ आया कि सुबह हो चुकी है। और सूरज सर पर चढ़ने के प्रयास में लगा है। उसने कुत्तों की ओर देखा तत्पश्चात अपने पिता की ओर देखा। और झटके से उठकर झोपड़ी की ओर घुसते कुत्तों की ओर दौड़ ही पड़ा।
’हुर्र हुट! हुर्र हुट! भागो यहां से भिखमंगों! यहां तुमको क्या मिलेगा। दरिद्र का घर ही मिला तुम श्वानों को।’ यह कहते कहते वह झोपड़ी में घुस कर भीतर घुसे कुत्ते को भगाया। तभी उसकी दृष्टि बुधिया पर गयी। बुधिया का मुंह खुला हुआ था और उसके मुंह पर मक्खियां झूम रहीं थी। उसके शरीर में किसी प्रकार के जीवन के लक्षण दिखायी नहीं दे रहे थे।
माधव एक ही क्षण में समझ गया कि वो मर चुकी है। वह दौड़ कर बाहर आ गया। अपने पिता को झिंझोड़ कर बोला।
’अरे! बुधिया तो मृत्यु को प्राप्त हो गयी।’
माधव की सूचना पाकर घीसू बोला। ’ठीक हुआ दुखियारी कब तक तड़पती। चार दिनों की भूखी भी तो थी। पर अब तो उसके मृत शरीर का अंतिम संस्कार करना होगा। हे भगवान! इतना भी सता तू हमको। कहां से हम ये काम करें। खाने पीने के लाले पड़े हैं और ये अंतिम संस्कार! पांच हजार से कम न लगेंगे। लकड़ी ही चार हजार की आयेगी। तेल, कपूर और धूप! हे भगवान इतना पैसा कहां से आयेगा।’
माधव अपने पिता बात सुनकर चिंतित मुद्रा में आ गया। ये वास्तविकता थी।
’यदि इतना पैसा होता तो हम बुधिया को अस्पताल न ले जाते। यूं मरने न छोड़ते। वैसे भी इस संसार में जिसको आना है उसको कोई रोक नहीं सकता और जिसको जाना है उसको भी कोई रोक नहीं सकता। हमारे हाथ में कुछ भी नहंी है। ये सब यदि हम कर सकते तो हमारी मूरत मंदिर में न होती।’ घीसू लगातार संभाषण करता जा रहा था उसे इस बात की कोई चिंता न थी कि उसकी बात को माधव सुन भी रहा है या नहीं। अपनी दरिद्रता पर बिना रूके गाथा बांच रहा था। वास्तव में वह करता भी क्या। यदि इस प्रकार न विचार मंथन न करे तो समाज के जन उसे ही दोष देंगे। एक प्रकार से वह उनके द्वारा पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के उत्तर देने का अभ्यास कर रहा था। यदि वह दीन हीन न बना रहे तो अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे करे। जाने कितने व्यक्तियों से मिल मिल कर अपनी समस्या बतानी पड़ेगी और रोना होगा। उनके ताने सुनने होंगे। उनकी सीख सुननी होगी। हर कोई समझाता फिरेगा कि ’कुछ काम करो। यूं निट्ठलों की जैसे न बैठे रहो। इसके अतिरिक्त भी अनेक बातें। छी, इतने ताने सुनने के पश्चात लज्जा न आयेगी। बहू! तुमने तो हमें अच्छा फंसाकर छोड़ गयी। तुम तो चली गयी और हमको कष्ट में छोड़ दिया। तुमने तो मुक्ति पा ली…..’
अपने पिता को यूं निरंतर बड़बड़ाते देख माधव उसे अचरज से देख रहा था। उसे अपने पिता द्वारा कही बातें सच के निकट ही प्रतीत हो रहीं थी। वह सेाच रहा था।
’कहां तनिक सुख की आकांक्षा में विवाह करके संकट मोल ले लिया। इससे अच्छा तो अकेला पड़ा रहता। इस बापू को तो पड़ी थी मेरे विवाह की। ये बुढऊ ही समस्त समस्याओं की जड़ है।
तभी घीसू उसे हिलाता हुआ बोला। ‘यूं चुपचाप खड़े रहने से कुछ न होगा। चलो और इसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करो। अन्यथा इस क्रूर संसार के मनुष्य हमें जीने न देंगे। इतने ताने मारेंगे कि हम यूं ही मर जायेंगे।’
’बापू! तू चुप रह मुझे सोचने दे। आजकल का ये जग दिखावे का है। कुछ लोग दिखावे और समाचार पत्र में अपने चित्र छपवाने के लिये हमारे जैसे दरिद्रों को ढूंढते रहते हैं। हमको बस उन तक ये समाचार पहुंचाना होगा कि एक दरिद्र स्त्री बच्चा जनते समय भगवान को प्यारी हो गयी। वे तत्काल ही सम्पूर्ण व्यवस्था के साथ पहुंच जायेंगे। तुम भूल गये छह माह पूर्व सुमरन की लुगाई भी ऐसे ही बच्चा जनते हुये मर गयी थी। कुछ समाज सेवक चित्र लेने वाले यंत्र के साथ एक घंटे में ही आ धमके थे। और तो और वो लोग उस पियक्कड सुमरन के घर माह भर का अनाज, चार पाच जोड़ी कपड़े, बर्तन भी दे गये थे। देखे नहीं थे तुम, वो इंद्रावती के पुराने पुल के नीचे बैठा दिनरात मद्यपान करके पड़ा रहता था।’
अपने बेटे के बात सुनते ही घीसू का मुखड़ा खिलकर गुलाब हो गया। वह दौड़कर अपने बेटे को गले लगाकर बोला।
’वाह बेटा! तुझ जैसा बेटा पाकर मैं तो धन्य हो गया। मैं तो चिंता के मारे मर ही जाता। तूने तो मेरी आयु ही बढ़ा दी। आने दे बेटा समाज सेवकों को, बहुत दिन हुये महंगी अंग्रेजी दारू का स्वाद ही विस्मृत हो गया। और बिना चखने के दारू पी पीकर आंतें ही जल गयी हैं। अबकी बार काजू के साथ पीकर आनंद लेना है। मरने के पहले ये इच्छा भी पूरी हो जाये।’
अपनी बाहों में पकड़े पकड़े घीसू ने अपनी बात कह ही दी। उसकी बातों में उसकी आंखों में इस इच्छा के बारे में कहते हुये एक रस की अनुभूति अनुभव की जा सकती थी।,
वे दोनों झोपड़ी में जूट की फट्टी का परदा लगाकर निकट की चाय दुकान में चले गये।
’देख बेटा! अपना मुखड़ा यूं उतार कर रखना मानों जग के सारे दुख एक साथ गले पड़ गये हों। मैं चाय वाले को सारी बातें बता दूंगा। तू चुप ही रहना। क्योंकि तुझे तो दुखी रहना है।’ इतना कह कर उसकी ओर मुस्करा कर देखा घीसू तो माधव भी मुस्करा उठा।
संध्या होते होते उनकी इच्छाओं के अनुरूप सबकुछ हो गया। कुछ चित्र खीचंने वाले आ गये और उनको लेकर आने वाले सारा क्रियाक्रम निपटा गये। उपनी अपेक्षा से कहीं अधिक मिला उनको।
सबके जाने के पश्चात माधव अपने पिता को देख कर बोला।
’हो गया न जुगाड़ दो माह का।’
’मैं तो कहता हूं न्यूनतम तीन माह तक ये अनाज चलेगा। और ये पुराने कपड़े तो कई वर्षों तक काम आयेंगे।’ घीसू के मुखड़े पर प्रसन्नता नाच रही थी। दोनों की खुशियां बता रहीं थी कि उनको जग का सबकुछ मिल गया हो।
’आज रात चलेंगे बापू! अभी हम सो जाते हैं। इतना श्रम करके थकान अनुभव हो रही है। इतना श्रम तो आज से पहले कभी न किया था।’ अपने माथे से स्वेदकणों को अपने मैले कुर्ते की बाह से पोंछते हुये माधव बोला। तो झट से घीसू ने अपने समर्थन की मुहर लगा दी।
जमीन पर लेता घीसू सोच रहा था। उसकी आंखों में नींद का पता न था।
उसे लगा उसका शरीर हवा में उड़ता जा रहा है। वह स्वयं को बचाने के लिये नीचे कुछ पकड़ने का प्रयास कर रहा है। परन्तु उसे कुछ न मिला। तभी उसकी दृष्टि नीचे पड़ी नीचे वह स्वयं पड़ा था उसे तत्काल बात समझ आ गयी। वह मृत्यु को प्राप्त कर लिया था। नीचे उसकी काया मात्र पड़ी थी। वह उड़ते उड़ते एक स्त्री के शरीर में समा गया। वह स्त्री का मुख देखने का प्रयास कर रहा था। वह स्त्री उसे देखी पहचानी लग रही थी।
’अरे! ये तो अपनी बुधिया है। तो क्या वह मृत्यु को प्राप्त कर अगले जनम में बुधिया बन गया है!
अचानक उसे स्मरण आया। मंदिर के पास प्रसाद के लिये बैठा बैठा पंडित जी का प्रवचन सुन रहा था। पंडित जी कह रहे थे।
’तुमने अपने जीवन में जो कुछ किया है उसका भुगतान करना ही होगा। चाहे इस जनम में करो या अगले जनम में। एक एक अपराध का दण्ड सुनिश्चित है। इसलिये अच्छे कर्म किया करो।’
तब वह माधव से कह रहा था। ’हम तो जनम जनम से दरिद्र हैं।’
’तो क्या अब मुझे भी बच्चा जनते जनते मरना होगा ?’
अचानक बच्चे की रोने के स्वर के साथ ही घीसू की आंखों में प्रकाश दिखायी देने लगा और उसका सबकुछ विस्मृत हो गया।