मधु
समाचार पत्र का पन्ना यूं पलटा मानों उसे कोई बहुत आवश्यक कार्य की प्रतीक्षा हो। समाचार पत्र पर एक दृष्टि डालता फिर खिड़की से बाहर देखता, इसके पश्चात घड़ी भी देखता, शायद ही उसने एक शब्द पढ़े हों।
कम्मो झाडू लगाती हुई तिरछी दृष्टि उस पर क्षण बीतते ही डाल लेती। पोंछा लगाती हुई भी देखती। वह सोच रही थी कि सागर की कसमसाहट लगातार कई दिनों से चल रही है। तभी उसने देखा सागर रोटी का टुकड़ा पानी के गिलास में डुबो कर अपने मुंह में डाल लिया।
कम्मो यह देखकर उसे रोकना चाही पर वह जानती थी कि वह कौन है। यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है। तभी सागर ने समाचार पत्र का पन्ना पलटा। उसे यह भी नहीं पता चला कि पानी में भीगी रोटी का स्वाद अलग होता है।
तभी अचानक कम्मो को लगा कहीं वह स्वयं को दण्ड तो नहीं दे रहा है ? वह पिछले बारह साल से इस घर में झाडू पोंछा बर्तन कर रही है। इतना बोझिल वातावरण अब तक कभी नहीं हुआ था।
चार बरस पहले का दिन स्मरण आ गया उसे जब मधु इस घर में बहु बनकर आयी थी। मां से लेकर हर कोई कितना खुश था। और खुश होता भी क्यों नहीं, राम सीता की तरह इनकी जोड़ी जो थी।
अपने हाथों से सागर ने मधु को खाना खिलाया। कम्मो की खुशी का ठिकाना न था। आखिर बरसों बरस पुरानी कामवाली जो थी। दुनिया भर के नेग दस्तूर होने के बाद विवाह का माहौल भी ठण्डा पड़ गया। परन्तु मधु और सागर का प्रेम जरा भी कम न हुआ। बल्कि यूं लगता उनके बीच प्रेम गाढ़ा होकर ठोस में बदलता जा रहा हो।
लगभग ढाई साल बीतने के बाद, एक दिन की बात है बुआ जी आयी थीं घर में। मधु उस दिन सुबह सात बजे उठी थी। और बुआ जी आगमन छह बजे हो चुका था। मां ने दरवाजा खोलकर उनका स्वागत किया, चाय बनायी और बैठाया। बुआजी की आंखों में कुछ गड़ गया था।
’भाभी! बहू को इतना भी मत सर चढ़ाओ कि बाद में मुश्किल हो। ये कोई बात हुई घर में मेहमान आता है और वो महारानी की तरह बिस्तर में पड़ी हैं।’
बुआजी कहना और ठीक उसी समय मधु का बिस्तर से उठकर आना, एक साथ ही हुआ। मां की तनावग्रस्त होकर सांसें फूल गयीं। बहू को ताना मारना उनकी सोच में न था और फिर फूल सी नयी बहू। इधर कुंआ तो उधर खाई! इधर ननद बाई तो उधर बहू रानी!
उस वक्त चुप रहना उचित लगा। पर यह चुप्पी बुआ जी को खटक रही थी वह तो तुरंत जजमेंट करना चाहती थीं। सुबह से शुरू हुई ये ताना मारा मारी उनके छह दिन घर में रहने तक चलती रही। बहुरानी अपने आपको संभालती रही पर स्वयं को रोने से न रोक पायी। गोरा चेहरा लगातार आंसुओं से लाल हो गया था। आंखें भी लाल लाल!
’देखो भाभी! अब रो धो कर अपनी गलती छिपाने की नौटंकी चल रही है।’ किचन में खाना खाती मधु को बुआजी ने ताना मारा। पहला ही कौर था जो मधु ने अपने मुंह में डाला ही था कि ये ताना बाण की तरह सीने में लगा। वह स्वयं अब जरा भी रोक नहीं पायी।
’मम्मी जी! आप इनको रोक नहीं पा रही हैं ? बुआजी पिछले छह दिनों से मुझे जाने क्या क्या नहीं कह रही हैं आप जरा मेरी तरफ भी तो बोलिये। क्या मेरी गलती है ? अगर आप लोगों ने इस बात को मेरी गलती मान ही लिया है तब भी यह बताइये मुझे कि यह बात इतनी बड़ी है कि उसके लिये छह दिन भी कम पड़ गये ?’ सिसकती मधु ने जाने कैसे इतनी बातें कह दी वह स्वयं समझ नहीं पा रही थी।
उसकी सास थर थर कांप रही थी। उसके मुख से किसी भी तरह के बोल न निकले। इधर बुआजी अपने कमरे में गयी और सामान पैक करना शुरू कर दिया। मां उनको रोकती रहीं, समझाती रहीं।
’तुम रहो अपनी महारानी के संग। चार दिनों में मुझे नाकों चने चबवा दिये। मैं इतनी गयी गुजरी नहीं हूं जो उसको बांदी बन सलाम ठोंकती रहूं। तुम ही उसके पैर दबाया करो।’ जबान किसी दर्जी के हाथों में पकड़ी कैंची की तरह चल रही थी। और हाथ भी उसी गति से चल रहे थे। वो एक कपड़ा सूटकेस में रखती और दूसरा बाहर रख देती। यही करती रही लगभग बीस मिनट तक! जबकि वो तीन सेट साड़ी ही लेकर आयी थीं और यहां आने के बाद लगातार मां जी के कपड़े ही पहन रही थीं।
आखिकार मां जी हार गयीं और शाम की गाड़ी से बुआ जी वापस घर चली गयीं। ये बात अलग थी कि आज ही उनकी वापसी थी उनकी ट्रेन का आज का ही रिजर्वेशन भी था।
तनावपूर्ण वातावरण में सागर ने शाम को घर में कदम रखा और सबकुछ जानते समझते हुये भी मधु को ही समझाया।
’आखिर तुम पढ़ी लिखी हो, तुमने क्यों नहीं समझा कि बुआजी पुराने ख्यालों की हैं उनको बुरा लगना उनके जाते ही खत्म हो जायेगा। तुमने अपने आप को रोका क्यों नहीं ?’
वास्तव में सागर जानता था कि बुआजी से उलझना यानी समाज में बदनामी। वो अपना मुंह बंद नहीं करती हैं। उनको न तो इस बात से कोई मतलब है कि इस तरह घर घर जाकर बताने से स्वयं की ही बदनामी है और न ही इस बात से मतलब है कि आखिर सब अपने ही तो हैं। वह लोगों के मुंह से आने वाले प्रश्नों के लिये तनावग्रस्त था। उन प्रश्नों का क्या उत्तर देगा उसकी समझ से बाहर था।
मधु अपने सागर से ही उम्मीद किये बैठी थी कि वह तो उसके लिये कम से कम सोचेगा, पर हुआ उल्टा। सुबह से शुरू हुआ रोना फिर शुरू हो गया।
शाम का खाना किसी ने नहीं खाया। ऐसे ही मुंह फुलाये सभी सो गये।
अलसुबह घर के दरवाजे पर घंटी बजी। सागर चौंक गया इतनी सुबह कौन आ गया! वह विचार करता दरवाजे पर पहुंचा। दरवाजे पर दृष्टि पड़ते ही सहम सा गया। सामने मधु के पापा खड़े थे। अचानक ये कैसे आ गये, सोचता हुआ उनके पैर पड़ा और नमस्कार कर भीतर आने को रास्ता दिया। उनके हाथों से सूटकेस लेकर भीतर ले आया।
तब तक मांजी भी उठकर आ गयी थीं और मधु भी। मधु अपने पापा को देखकर जोर जोर से रोने लगी। पापा उसे गले लगा कर उसकी पीठ सहलाने लगे। चार जनों के उस कमरे में होने के बावजूद खामोशी ने अपना साम्राज्य जमा रखा था। मां जी और सागर में हिम्मत ही न थी कि वे मधु के पापा से पूछते कि वे कैसे आये हैं।
नहाने धोने और मंदिर से आने के पश्चात उन्होंने कहा- ’मधु को कुछ दिनों के लिये मायके ले जाने आया हूं।’ कुछ पलों की चुप्पी ने एक ठण्डी हवा सी फैलाई। सागर को यूं लगा मानों सबकुछ शांतिपूर्वक निपट गया हो। तभी मधु के पापा ने पुनः कहा।
’जब मधु की जरूरत आप लोगों को महसूस हो तब उसके आने के बारे में विचार करेंगे।’
चाय का जो घूंट सागर के मुंह में था वह एकदम से उबलने लगा। वह बेचैन हो गया। वह घबरा कर चाय को कप में ही उगल दिया। मां जी के चेहरे में हवाइयां उड़ रही थीं। दोनों में से कोई भी कुछ न कह पाया।
मधु ने एक पल पापा को देखा और अगले पल सागर की ओर। सागर की आंखें नीचीं थी। वह चुपचाप था, उसके चेहरे के भाव समझ से बाहर थे।
हर किसी के भीतर क्रोध का भभका फटने को बेचैन था। शाम आते ही सबकुछ बिखरने को तैयार हो चुका था। सागर ने पापा का बैग उठाया तो उन्होंने कह दिया।
’नहीं रहने दो, मैं अभी भी बोझ उठाने के काबिल हूं।’
इस तरह पूर्ण विराम लग गया दोनों परिवारों की खुशियों में।
ऐसा न था कि बातें बनाने वालों ने प्रयास न किये हों समझौते के। पर समझौता तब होता न जब कोई विवाद हुआ होता। यहां तो कोई विवाद ही न था। मात्र अहम एक खलनायक बन कर खड़ा था। पहल कौन करे!
कम्मो ने सारे घर का पोंछा लगा लिया था। अब उसके जाने का समय हो चुका था। वह सागर को बोली।
’भैया! मैं जा रही हूं। बर्तन शाम को मांजूगीं। अभी एक जरूरी काम है। जा रही हूं।’ सागर जाने क्या सुना क्या समझा, बस हूं कह दिया। समाचार पत्र से उसकी दृष्टि हटी ही नहीं।
इधर मधु की मां ने बहुत समझाया मधु के पापा को पर वे झुकने को तैयार ही न थे। उनका कहना था।
’क्या मेरी बेटी मेरे लिये बोझ है जो मैं उनके दरवाजे जाकर सर झुकाउं ? बेटी दी थी न कि गुलामी करने को गुलाम। जिस आदमी में सही और गलत का फैसला करने का दम न हो ऐसे आदमी के जिम्मे कैसे सारे जीवन के लिये अपनी बेटी दे दूं।।
आप अपने अहम की तुष्टि के लिये अपनी बेटी के परिवार में हमेशा हमेशा के लिये कांटे बो रहे हैं। जो बात, बात करने से बन सकती है तो फिर उसे बिगाड़ने से क्या लाभ। आप नहीं कर सकते तो मैं ही कर लूं बात!’
’तुम्हें आगे आने की जरा भी जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ घर के काम देखो। ऐसे फैसले लेने की अभी तुम्हारी समझ नहीं है।’ एकाएक खड़े होकर पापा ने कहा।
ये सब मम्मी और पापा के बीच चल रहा था परन्तु मधु सबकुछ सुन देख रही थी। उसकी आंखों से आंसू गिर पड़े। वह समझ गयी कि उसकी एक गलती ने सबकुछ बिगाड़ दिया। अगर वह एक दिन और चुपचाप सुनकर बुआजी के जाने का इंतजार करती तो ये सब पचड़ा न होता। आज मैं अपने मां पिता को नहीं समझा पा रही हूं कि ये सब गलत है मेरे और सागर के बीच कोई तनाव नहीं है। तो मैं उस वक्त बुआजी को कैसे समझा पाती। बड़े लोगों के अहम के तले मैं पिस रही हूं। वहां बेचारे सागर मेरे बिना कैसे जी रहे होंगे।
ये सोचते ही वह भभक कर रोने लगी। अगले ही पल मां भीतर आ गयी। उसे अपने गले से लगा कर सांत्वना देने लगी। और स्वयं भी रोने लगी।
’मत रो बेटा मत रो। सबकुछ जल्दी ही ठीक होगा। मैं ही कुछ करूंगी ताकि तुम दोनों फिर से सुखपूर्वक रहो।’ मां का आंचल मधु के आंसुओं से पूरी तरह भीग गया था। मां की गोद में सिमटी मधु एकदम दो साल की बच्ची लग रही थी।
वह मां की बात सुनकर सोचने लगी ’ये सबकुछ मेरे कारण बिगड़ा है इसे मैं ही ठीक करूंगी। इन सबके अहम हो सकते हैं परन्तु मेरा कैसा अहम! मैं बिगड़ी बात बनाउंगी। मैं आज से ही प्रयास करती हूं।
वह मां से अलग हुयी और अपने आंसूं पोंछे। बाथरूम में जाकर चेहरा धोया। इन सब के बाद उसने कागज कलम निकाल कर पत्र लिखना आरम्भ किया।
प्रियवर,
असीम स्नेह से भरी हुई मैं यह पत्र आपको लिख रही हूं। तमाम नकारात्मक परिस्थितियों को छेद करती हुयी। अपनी सारी हिम्मत को समेट कर और तुम्हारे साथ बिताये हर एक पल को साक्षी मानकर, आशा और अपेक्षा के साथ।
उस दिन क्या हुआ, क्या नहीं हुआ, इससे मतलब न रखते हुये, या किसकी गलती थी किसकी नहीं थी, इन बातों से परे, सिर्फ और सिर्फ आपके स्नेह और समर्पण की यादों को समेटकर पुनः अपने परिवार को नये सिरे से आगे बढ़ाने के लिये आपके साथ रहना चाहती हूं। मैंने जितना भी समय आपके साथ बिताया था उसमें मैंने आपको जाना है कि आपके भीतर मेरे लिये जरा भी परायापन नहीं है। परिस्थितिवश जो क्रोध उपजा था वह भी इसलिये कि मुझे आप अपना मानकर चलते थे और बुआजी से कहीं अधिक मुझ पर अधिकार भाव से डांट रहे थे। मुझे भी उस समय यही भाव रख कर सोचना था। मैं नहीं चाहती कि हम अपना कीमती जीवन गलतफहमी में ही बिता दें। हम नये सिरे से पुनः अपना जीवन बितायेंगे इसी अपेक्षा के साथ आपके पत्र के नहीं आपकी प्रतीक्षा में सिफ आपकी
मधु
पत्र लिखा हुआ पत्र दो बार पढ़ा और लिफाफे में भर कर भगवान के सामने अपना सर झुकाया और चल पड़ी कुरियर करने।
फोटो नेट के सौजन्य से साभार