नसीम आलम ‘नारवी’ की ग़ज़लें

ग़ज़ल-1

उनसे किसे उम्मीदे-वफा है।
पत्थर में कब फूल खिला है।।

सीने में फिर दर्द उठा है,
शायद तुम ने याद किया है।।

चारागरी के दावे हैं उनको,
जिनके हाथों दर्द मिला है।।

ग़ैर पे क्या इल्ज़ाम लगाएं,
अपनों का सब किया धरा है।।

उनका करम है उनकी इनायत,
शाद किया, नाशाद किया है।।

किसने कहा था मानो दिल की,
क्यों रोते हो ग़म जो मिला है।।

सब को पड़ी है अपनी-अपनी,
किसने किस का साथ दिया है।।

फूट रही है सुब्ह ‘नसीम’ अब
रात का जादू टूट रहा है।।

ग़ज़ल-2

क़िस्सा-ए-दर्द सरे बज़्म सुना भी न सकूं।
आ पड़ी है मगर ऐसी कि छुपा भी न सकूं।।
ज़ख़्म दिखला न सकूं दर्द छुपा भी न सकूं,
चोट खाई है कुछ ऐसी कि बता भी न सकूं।।
अल्लाह अल्लाह तजल्ली की कशिश़ हुस्न का रोब,
दीद को मरता रहूं आंख उठा भी न सकूं।।
इस पसोपश का अंजाम खुदा ही जाने,
वह आने से रहे और मैं जा भी न सकूं।।
जानलेवा है तसौवर भी तग़ाफूल का तेरे,
और मायूस नहीं हूं कि मना भी न सकूं।।
हुस्ने-दस्तूर भी पासे-वफा भी है ‘नसीम’
सुबह का साथ है ऐसा कि छुड़ा भी न सकूं।

ग़ज़ल-3

आने वाला कल लेकर जो किताब आयेगा।
उसमें एक नई दुनिया का निसाब आयेगा।।
रास्ते के पेचोख़म गिन के क्या करेंगे हम,
पुख़्ता है यक़ी हमदम इन्क़लाब आयेगा।।
रात काटने वालों सुर्ख़ है उफ़क़ देखो,
चीर कर अंधेरों को आफ़ताब आयेगा।।
लुटने वाले तोड़ेंगे लूट की जहांग़ीरी,
वक़्त का तक़ाज़ा है इन्क़लाब आयेगा।।
आओ कल की राहों को इस तरह संवारे हम,
आम आदमी जिस पर कामियाब आयेगा।।
अपना ख़ून देकर भी जिस को सींचा है,
कल इसी गुलिस्ता पर फिर शबाब आयेगा।।
ऐ ‘नसीम’ उफ़क़ पर सुर्ख़ियां उभरती हैं,
चलिए ख़ैर मक़दम को इन्क़लाब आयेगा।।

ग़ज़ल-4

ग़रज़ के घेरों से बाहर निकल के देख ज़रा।
वफ़ा के प्यार के सांचे में ढल के देख ज़रा।।
बस अपने आप को पहचान आसरे मत ढूंढ,
ज़माना साथ में आएगा चल के देख ज़रा।।
न कर मलाल अगर लड़खड़ा गए क़दम,
पहुंच में है अभी मंजिल संभल के देख ज़रा।।
तक़ाज़ा वक़्त का है तर्क कर ये नर्म रवी,
फ़तह क़रीब है तेवर बदल के देख ज़रा।।
हयात बख़्श चराग़ों की लौ न हो मद्धम,
कि बढ़ते आते हैं साए अज़ल के देख ज़रा।।
यूं आस्तीन के पाले न पिंड छोड़ेंगे,
अब उनको पांव के नीचे कुचल के देख ज़रा।।
अज़ल से नूरे-सहर है ‘नसीम’ का हमदम,

ये हुस्ने-फिक्र, ये तेवर ग़ज़ल के देख ज़रा।।

ग़ज़ल-5

सफ़र ये ता-हदे मंज़िल चले चले न चले।
न जाने शाख़े-तमन्ना फले, फले न फले।।
अलमकदा तो मुन्नवर तुम्हारी याद से है,
चिराग़ मेरी बला से जले, जले न जले।।
फिर आये, आये न आये ये सांस कौन कहे,
भरोसा क्या कोई इसका चले, चले न चले।।
उसे तुम्हारा जहां रास आया खूब हुआ,
ख़ुशी हमारी गली में पले, पले न पले।।
जो हाथ आ गई थोड़ी खुशी भी कम तो नहीं,
ये दौर और ज़ियादा चले, चले न चले।।
सुरूरे सुबह तो अपनी जगह अटल है ‘नसीम’,
अलम की शाम का क्या है टले, टले न टले।।

ग़ज़ल-6

एक बुत की मुहब्बत मेरा ईमान हुआ।
लो काफ़िर इश्क़ आज मुसलमान हुआ।।
क्यों इश्क़ की रूसवाई का सामान हुआ है,
क्या बात है क्यों हुस्न मेहरबान हुआ है।।
अंगड़ाईयां लेने लगी है बर्क़ फलक पर,
तामीरे-नशेमन का जो सामान हुआ।।
जैस किसी बेरंग गुलिस्तां में बहारें,
यूं दिल में हमारे काई मेहमान हुआ है।।
अल्लाहरे इज़हार की जुरअत तेरे आगे,
मुश्किल था यही काम जो आसान हुआ है।।
सरगश्ता ही कहिए कि मुहब्बत में ‘नसीम’ आज,
तैयार लुटाने को दिलो-जान हुआ है।।

ग़ज़ल-7

दिन अलग काटते हैं रात अलग।
पर नहीं होती ग़म की बात अलग।।
आप का बस चले तो कर देखें,
हम से ग़म और हादसात अलग।।
खेल क़ुदरत के हैं जुदागाना,
आदमी की ख़्वाहिशात अलग।।
कोई इलज़ाम उन पे कब आया,
मानी जाती है उनकी बात अलग।।
कारनामा है इब्ने आदम का,
आदमी आदमी की जात अलग।।
सारी दुनिया अमन की ख़्वाहां है,
जंगबाजों की कायनात अलग।।
सुब्हे राहत भी आ रहेगी ‘नसीम’,
जाने वाली है ग़म की रात अलग।।

ग़ज़ल-8

निगाहें-मस्त की थोड़ी इनायत और हो जाती।
तो मुझ रिन्दे-ख़राबाती की हालत और हो जाती।
ख़फा थे िंरन्द अगर मय की मज़म्मत और हो जाती,
जनाबे-शैख़ की महफ़िल में दुर्गत और हो जाती।
ज़रा सी इक झलक थी जिससे मूसा हो गये बेख़ुद,
अगर पूरी नकाब़ उठती तो नौबत और हो जाती।
जहां सौ ख़ूबियां दी थीं ख़ुदा ने हुस्न वालों को,
वहां हुस्ने वफ़ा की एक आदत और हो जाती।
हुआ अच्छा मिली तौबा की मोहलत आज रिन्दों को,
जो ऐसे में घटा उठती तो नीयत और हो जाती।
अगर बढ़ता हमारे इश्क का चर्चा जमाने में,
तुम्हारे हुस्न की दुनिया में शोहरत और हो जाती।
मेरे पज़ मुर्दा चेहरे से परेशानी हुई उनको,
अगर वो हाल-दिल सुनते तो हालत और हो जाती।
ख़िजा के दम से कायम है बहारों में कशिश वरना,
‘नसीम’ इस गुलशने-हस्ती की सूरत और हो जाती।।

ग़ज़ल-9

वह जाने इन्तेज़ार नहीं जलवागर किधर।
हैरां है शौके़ दीद उठाये नजर किधर।।
पहली नज़र का तीर लगा था यहीं कहीं,
अब है तमाम दर्द बतायें जिगर किधर।।
महफ़िल में इक हुजूम उन्हें देखता रहा,
हम देखते रहे कि है उनकी नज़र किधर।।
तीरे नज़र तो आज भी हैं उनके मुस्तइद,
क्या जाने खो गया है दिले-ख़स्ता पर किधर।।
दैरो-हरम की धुन में छुटा आस्ताने यार,
अब हो तो होगी उम्रे इबादत बसर किधर।।
वारफ़्तए-तलाश से राहों का तूल पूछ,
गर जाने इन्तेज़ार कहे बेख़बर किधर।।
ज़िन्दां हैं या चमन है वतन है यही ‘नसीम’,
जायें भी अब तो बुलबुले बे बालों पर किधर।।

ग़ज़ल-10

ग़म हो या हो ख़ुशी बराबर है।
अपना अपना मगर मुकद्दर है।।
दिल से गुज़री है शाह राहे वफ़ा,
अक़्ल इस रास्ते पर पत्थर है।।
दिल को लाज़िम है दर्द मंदी भी,
वर्ना दिल दिल नहीं पत्थर है।।
दर्दमंदी न हो जो इंसां में,
जानवर आदमी से बेहतर है।।
मौत लाज़िम है ज़िन्दगी के लिए,
ज़िन्दगी मौत का मुकद्दर है।।
दौरे-जमहूरियत मआज़ अल्लाह,
हर कोई हर किसी से बढ़कर है।।
दिल को वीरान कर रहे हैं करें,
यह भी सोचें कि आप का घर है।।
नाम गुम करदा जो ‘नसीम’ था कल,
आज इक नामवर सुख़नवर है।।

ग़ज़ल-11

ज़िन्दगी गुम थी नीमजानी में।
एक ठहराव था रवानी में।।
था गुनाहों की ज़ुल्मतों का राज़,
धुन्धलका या जहाने फ़ानी में।।
रूहे अफ़साना का वरूद हुआ,
जान सी पड़ गयी कहानी में।।
रोशनी कम थी चांद तारों से,
नूर उभरा हिरा के ग़ारों से।।
बारक अल्लाह आये ख़ैरे अनाम,
मुन्तज़िर जिनका था जहां का निज़ाम।।
जिनसे तकमीले दीन होनी थी,
हां वही सारे अबिया के इमाम।।
वो मो अल्लिम के थे जो उम्मी लक़ब,
जिनके नायेब हैं आलिमाने किराम।।
साया जिसका न था वो पैकरे नूर,
मुज़हिरे नूरे हक़ मुजस्स्म नूर।।
साहिबे हद्दे एहतराम आये,
मुज़हिरे रहमते तमाम आये।।

 

नसीम आलम नारवी