चिंता चिता के समान है!-लेखक-सनत कुमार सागर,

चिंता चिता के समान है!


लेखक-सनत कुमार सागर,
’नारा बनाओ प्रतियोगिता रखिए। चित्रकला प्रतियोगिता रखिए। बच्चों और समाज में जागरूकता आयेगी। उनके बीच वनोपज की उपयोगिता और मूल्य को लेकर प्रतियोगिता रखो तब वे समझेंगे कि वनोपज कितनी मूल्यवान और सरलता से प्राप्त होने वाली वस्तु है जो उनके जीवन में बिना श्रम के ही जीविकोपार्जन के कार्य करती है।’
मुख्य वक्ता ने एक क्षण को रूककर सामने टेबल पर रखा पानी का गिलास उठा कर मुंह से लगाया और गटागट पी गये। सामने उनको सुनने वाले अपनी कुर्सी में तब तक अपनी स्थिति बदल लिये। चंद जन गुटका फांक लिये तो चंद तम्बाकू रगड़ लिये तो चंदों ने अपान वायु का त्याग किया। इतने में ही मुख्य वक्ता पुनः प्रवचन की मुद्रा में आ गये।
’वन में लगे वृक्षों के फल, जड़ी बूटियां, वृक्षों के मूल्यवान उत्पाद जैसे कि गोंद, छाल, पत्तियां आदि यूं ही बेकार हो रहे हैं। इन वस्तुओं को कोई उठाकर लाने वाला व्यक्ति ही नहीं मिल रहा है। अरबों खरबों का उत्पाद मिट्टी में मिल जाता है। पेड़ों से गिरकर सड़ जाता है। इस स्थिति में अनेक गुना नुकसान हो रहा है। पहला तथ्य कि मूल्यवान वस्तुएं यूं ही सड़कर नष्ट हो रही हैं। दूसरा तथ्य है कि इन वनोपज के विक्रय से अरबों रूपयों का व्यापार होता उसकी आय से समाज के व्यक्तियों को धन प्राप्ति होती और उनका जीवन स्तर सुधरता था। तीसरा तथ्य यह है कि इन वनोपज के उपयोग से कितने का स्वास्थ सुधरता, किसी का पेट भरता। किन्तु इन वनोपजों को एकत्रित करने वाले व्यक्तियों के उपलब्ध न होने के कारण ये सब नहीं हो पा रहा है।’
पुनः वे रूककर सामने बैठे महानुभावों के मुख को देखने लगे कि उनके विचारों के प्रहार से कितनों की मानसिक स्थिति में तनिक भी परिवर्तन हुआ हो। उन्हें जाने क्या समझ आया वे पुनः आरम्भ हो गये।
’हम सबको मिलकर इस विनाश को रोकना है अन्यथा समाज को मसालों और आयुर्वेदिक दवाओं के लिये दूसरे देशों पर निर्भर होना होगा। ये तो हमारी मूर्खता ही कहलायेगी कि हमारे पास धन है और हम उधार लेकर गर्त में जा रहे हैं।
ये मेरे विचार हैं अब मैं आपसे निवेदन करूंगा कि आप सभी अपने विचार प्रस्तुत करें। आपने जो अब तक देखा है जो तथ्यपूर्ण है उसे सभा के समक्ष रखें।’
यह सुनते ही सभा में सुई गिरे तो बम फूटने की तरह शांति छा गयी। जैसे किसी पाठशाला के छात्रों से कोई अनचिन्हा, न पढ़ाया हुआ कोई प्रश्न पूछ लिया हो। ये देखकर वक्ता के मुख में एकाएक निराशा छा गयी। वह निश्चल हो गया। कुछ क्षणों तक ऐसी स्थिति बनी रही। तत्पश्चात वह अपनी पूरी शक्ति समेटकर पुनः खड़ा हुआ। माइक ठकठकाया और सभा की ओर देखकर पूछा।
’आप सभी वन विभाग के कर्मचारी हैं। कई वर्षों से ग्रामजीवन देख रहे हैं। उनके समाज का निकट से अध्ययन कर रहे हैं इसके पश्चात भी एक व्यक्ति ने भी कभी इस विषय में न विचार किया ? आपके समक्ष ग्रामजीवन में परिवर्तन होता रहा आप कैसे अनभिज्ञ हैं ? ग्राम परिवेश में ऐसा मूलभूत परिवर्तन हो गया आपने ध्यान ही न दिया ?’
तभी समक्ष बैठे किसी एक व्यक्ति के अहम को शायद चोट पहुंच ही गयी, वह मुख्य वक्ता को टोककर स्वयं आरम्भ हो गया।
’आप भी महोदय, बढ़ चढ़ कर परिहास करते हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक बालक पाठशाला में पढ़लिख कर, पेंट शर्ट पहन कर नायक बनकर घूमना फिरना चाहता है। कोई क्यों वन में मारा मारा घूमेगा। कोई क्यों अनपढ़ों वाला कार्य करना चाहेगा। सर में टोकरी रखकर कोई क्यों स्वयं का अपमान करवाना चाहेगा। शासन स्वयं कहता है कि पढ़ोगे लिखोगे तो शासकीय सेवा के अधिकारी बनोगे। इसलिये सब अधिकारी बन रहे हैं। गांव के कार्य अब कोई भी नहीं करना चाहता है। खेती तो कोई करना नहीं चाहता फिर ये वनोपज बीनने को कार्य कौन करेगा। निशुल्क अर्थात बिना मूल्य लिये शासन अनाज वितरित कर रहा है तो जो भी कार्य करेगा उससे बड़ा मूर्ख कौन हो सकता है ? आप ही बताइये। आप यूं जो चिंतन व्यक्त कर रहे हैं यह भी निशुल्क है इसका कोई मोल नहीं, इसलिये तो आप भी यूं ही वितरित कर रहे हैं।’ इतना कहकर वे ठहाका लगा कर हंस पड़े। उनकी देखा देखी वहां बैठे समस्त जन भी हंस पड़े।
तभी उन महानुभाव के पास बैठा दूसरा व्यक्ति उठ गया। उठ क्या गया बोलना भी प्रारम्भ कर दिया।
’महोदय! क्या केवल बड़े जनों के बालक ही बड़े साहब बनेंगे ? छोटे व्यक्ति केवल उनका मंुह ताक कर अपने भाग्य पर रोते रहेंगे। उनको भी स्वयं की सम्मानजनक जीविका का जुगाड़ करने दीजिये महोदय! इस जग में सामूहिक लाभ देखना चाहिये न कि स्वयं का। बड़े जन क्यों नहीं वन में जाकर धूल मिट्टी में धक्के खाते हैं ? क्यों नहीं वे इस प्रकार शासन की चाकरी करना सम्मान मानते हैं ? महोदय! दोहरी मानसिकता न रखिए। वंचितों की हाय लगती है न, तो हड्डी तक गल जाती है।’
सभागार एकाएक उनके कथन के उपरांत शांत हो गया। वही सुई गिरे तो बम का धमाका!
मंच पर बैठे मुख्य वक्ता का मुख खुला का खुला ही रह गया। उनकी बुद्धि में दीमक लग गयी थी। उनका उत्तर क्या हो वे विचारमग्न हो गये थे। तभी श्रोताओं में से एक एक करके सभागार से बाहर निकलने लगे।
वन विभाग के कर्मचारी सभा से बाहर आकर आपस में वार्तालाप कर रहे थे।
’अच्छा उत्तर दिया तुमने रामकुमार! आज भी देश में ऐसे व्यक्ति सक्रिय हैं जो वंचितों को वंचित ही रखना चाहते हैं ताकि एक वर्ग विशेष बना रहे उनकी सेवा करने के लिये। स्वयं तो शासन की चाकरी करेंगे और दूसरों को मिट्टी उठाने का कार्य सौंपेंगे।’
’परन्तु तुमने कभी विचार भी किया है कि पढ़े लिखे जनों में से कितनों को शासकीय चाकरी मिलती है ?’
’यह हम क्यों विचार करें। वंचितों को प्रयत्नशील रहना होगा अन्यथा ये बड़े व्यक्ति उनको कभी भी ऊपर नहीं आने देंगे।’
’क्या प्रत्येक व्यक्ति को चाकरी दी जा सकती है ?’ उसी व्यक्ति ने पुनः प्रश्न किया। कदाचित् उसने मन ठान रखी थी कि अपने कथन को स्वीकृति दिलवा कर ही मानना है।
’न मिले हमें क्या! परन्तु हम शासकीय चाकरी के पक्ष में ही तो रहेंगे। आज शिक्षा के कारण ही तो गांव गांव में सभी का जीवन स्तर बदल गया है। अन्यथा गांव क्या था ? मात्र अशिक्षा और निर्धनता! आज सभी खेती बाड़ी त्याग कर सुख से तो रहते हैं। प्रत्येक मौसम में नहीं तो खेतों में काम करना होता था। और मिलता क्या था मात्र और मात्र दो समय का भोजन, जीवन भर के लिये साहूकार का कर्ज! इसलिये मैं कहता हूं पढ़ाई लिखाई आवश्यक है। ग्राम जीवन में वनोपज से कमाना व्यक्ति को संतोषी बना कर दीन हीन बनकर जीने की शिक्षा देता है। सम्पूर्ण जग जब विकास की ओर अग्रसर है तो क्यों ग्रामीणजन पीछे रहें।’ इतना कह कर वह सांस लेने चुप्पी धारण कर लिया।
’तो क्या वनों में पड़ी वन सम्पत्ति को ऐसे छोड़ दिया जाये ?’
’लगाये न शासन चाकरी पर! वनोपज को चुनने बीनने वालों को शासकीय चाकरी में रखा जाये। वे एकत्र करेंगे ये प्राकृतिक धन! इसके अतिरिक्त शासन चाहे तो वनोपज एकत्रित करने के लिये ठेका भी आमंत्रित कर सकता है। प्रथम युक्ति से समाज के युवावर्ग को चाकरी भी प्राप्त होगी, वनोपज का संग्रह भी होगा।’ चट से राजकुमार के द्वारा प्रश्न का उत्तर भी आ गया।
’मेरा प्रश्न अब भी वही है कि क्या शासन सबको चाकरी पर रखने में सक्षम है या यूं पूछें कि सबको चाकरी रखना संभव है क्या ? या तनिक और स्पष्ट करूं कि जिनको चाकरी नहीं मिलती है अंततः वे करते क्या हैं ? उनका जीवनयापन किस प्रकार होता है ? रूको मैं पूर्णतः स्पष्ट रूप से समझाता हूं। मुझे लगता है कि आपको मेरा कथन समझ नहीं आया। जिनको चाकरी नहीं मिलती वे करते क्या हैं इस संबंध में कभी विचार किया भी है ? वे जब शासकीय चाकरी ढूंढ पाने में असमर्थ हो जाते हैं तब वे किसी विक्रेता के यहां कार्य करते हैं। चंद जन श्रमिक बनकर परिश्रम करते हैं जबकि वे सरलता से वनोपज संग्रहण से उतनी ही राशि प्राप्त कर सकते हैं। ग्राम में रहकर वे अपना जीवन और अच्छे से जी सकते हैं। अपने संबंधों को अच्छे से निभा सकते हैं। उनके रहने से वन की सुरक्षा भी होती है। नगर में रहकर उनका जीवनस्तर भी बिगड़ जाता है। ग्रामवासी और वन एक दूसरे के पूरक हैं……।’
’परन्तु समय के तो सबको ढलना ही होगा न! आज सारा जग इसी प्रकार से चल रहा है तो क्या हम अपनी ढफली अपना राग गा सकते हैं ? आप एक बार विचार करके देखिए आपकी कौन सी पीढ़ी खेती बाड़ी में अपने कपड़े मलिन करती थी ? आपने किसप्राकर अपना चोला बदल लिया है ? आप कैसे खेतीबाड़ी गांव छोड़कर शहर में कैसे आनंद सागर में निरंतर स्नान कर रहे हैं ?’
चंद क्षण ठहर गया वह बोलते बोलते।
’क्या यह केवल आपका ही अधिकार है ?’
प्रश्नों के समुद्र में एक बड़ी तरंग के जैसे एक बड़ा प्रश्न छोड़ दिया।