आधुनिक कविता का शिल्प और विषय
– कौशल किशोर मिश्र “कौशलेंद्र”
आधुनिक कविता की आधुनिकता
देश, काल और वातावरण वे भौतिक घटक हैं जिनसे साहित्य ही नहीं अपितु यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रभावित होता है। भारत की विभिन्न भाषाओं में लिखी जाती रही कविताओं के साहित्यिक इतिहास को व्यवस्थित करने के लिये इन्हें विभिन्न कालखण्डों में वर्गीकृत करने का प्रयास किया जाता रहा है। यूँ तो हर कविता अपने कालखण्ड की आधुनिक ही होती है पर आधुनिक कविता नित्य-आधुनिक है। उत्तरछायावाद से प्रारम्भ होकर राष्ट्रवाद, गांधीवाद, विप्लववाद, प्रगतिवाद, यथार्थवाद, प्रयोगवाद और नवगीतवाद से होते हुये वर्तमान तक आज हम आधुनिक कविता के वर्तमान स्वरूप को देखते हैं।
आधुनिक कविता का शिल्प
कोई भी साहित्य अपने परिवेश से ऊर्जा लेकर चित्रित होता है। साहित्यकार अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को चिन्हित कर अपनी निजी प्रतिक्रिया को व्यक्त करता है। यह साहित्यकार पर निर्भर करता है कि वह अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को कितना, किस रूप में और क्यों चिन्हित करता है। वास्तव में साहित्यकार अपने कालखण्ड का एक इतिहास लिख रहा होता है जो सही, अपूर्ण, मिथ्या या विकृत भी हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि साहित्यकार की सत्य और समाज के प्रति निष्ठा कितनी और कैसी है। देश-काल-वातावरण का तत्कालीन परिवेश उसकी साहित्यिक ऊर्जा है जिसे वह शब्दों के परिधान से सुसज्जित करता है। वर्तमान काल की आधुनिक कविता ने स्वयं को काव्य के साहित्यिक एवं शास्त्रोक्त बंधनों से प्रायः मुक्त रखा है, यहाँ तक कि कुछ रचनाकारों ने तो गद्यात्मक काव्य की भी रचना की है। छंदमुक्त, अतुकांत और सीधे-सीधे प्रहार करने वाली अंबर रंजना की पेटीकोट शैली की कवितायें भी रची गयीं। भाषा में प्राञ्जलता के स्थान पर बोलचाल की भाषा को अपनाया गया जिसमें फ़ारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्दों की भरमार हुआ करती है। भाषा का यह वह तरल प्रवाह है जो वर्जनापूर्ण मर्यादा को लाँघकर अपने मार्ग में आने वाले “सब कुछ” को स्वीकार करता हुआ चलता है। यहाँ हम कविता के शास्त्रोक्त स्वरूप के स्थान पर अगढ़, निर्बंध और स्वच्छंद स्वरूप के दर्शन करते हैं। वर्तमान कालखण्ड की आधुनिक कविता के शिल्प में स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता का कोई बंधन दिखायी नहीं देता। यही कारण है कि “पेटीकोट शैली” की कविताओं के राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रशंसक और समर्थक मिलते हैं जो अश्लील और सनसनीखेज कविताओं की सामाजिक स्वीकार्यता का स्पष्ट प्रमाण है।
प्रकृति और विकृति किसी चित्रकार या रचनाकार की तूलिका या लेखनी के विषय हो सकते हैं। कोई रचनाकार अपने उद्देश्य को प्रकृति और विकृति की मर्यादाओं में रहते हुये या मर्यादाओं से परे जाकर सार्थक करने का प्रयास करता है।
आधुनिक साहित्य की विशेषतायें
आधुनिकता, वैश्विकता और वैज्ञानिकता को साहित्यविशेषज्ञ आधुनिक साहित्य की विशेषतायें मानते हैं। इस विषय में मेरा मत किंचत् भिन्न है। मुझे लगता है कि हर कविता अपने कालखण्ड की आधुनिक कविता होती है, उसमें वैश्विकता का न्यूनाधिक समावेश हो सकता है किंतु वैज्ञानिकता का समावेश तो हर कालखण्ड में अपेक्षित रहा है। यह बात अलग है कि कोई रचनाकार अपने परिवेश की प्रतिध्वनि को कितने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनी कविताओं में अनूदित कर पाता है। भारत में साहित्य ही नहीं बल्कि गणित से लेकर दर्शन, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, ज्योतिष और चिकित्साशास्त्र जैसे सभी जटिल विषयों को पद्य में भी लिखे जाने की समृद्ध, अनूठी और अद्वितीय परम्परा रही है। स्वर और चित्र हर सभ्यता के प्रारम्भिक और अपरिहार्य घटक रहे हैं, कविता भले ही बाद में लिखी गयी हो परंतु गुनगुनाना तो आदिम मनुष्य का स्वभाव रहा है। आधुनिक कवितायें अतुकांत और गद्यात्मक हो सकती हैं किंतु उनमें भी लयबद्धता का होना ही उन्हें काव्य की श्रेणी में लाता है। नृत्य लास्य हो या तांडव, लयबद्धता तो उसमें होती ही है। मुझे तो आधुनिक कविता को स्वच्छंद कविता कहना कहीं अधिक उपयुक्त लगता है।
कुछ और मिथककुछ साहित्यकार मानते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिमी देशों से भारत में आयी बयार के प्रभाव से भारत के लोगों ने जाना कि शिक्षा सबका अधिकार है। माना जाता है कि तत्कालीन समाज में आयी इस बयार ने आधुनिक कविता को भी प्रभावित किया जिसे बाद में प्रगतिशील प्रतिक्रिया के विभिन्न रूपों, यथा दलित कविता, नारी कविता आदि में देखा जाता रहा है। अर्थात् उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में शिक्षा को सबका अधिकार नहीं माना जाता था। इसे इस रूप में भी कहा गया कि भारतीय समाज में शिक्षा को केवल सवर्णों के अधिकार तक ही सीमित रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप छुआछूत, शोषण और वर्गभेद आदि का जन्म हुआ जिसकी स्पष्ट प्रतिध्वनि प्रगतिशीलवादी आधुनिक कविताओं में सुनी जाती रही है। वास्तविकता यह है कि अठारहवीं शताब्दी के भारत में साक्षरता का मान शतप्रतिशत हुआ करता था। भारत में शिक्षा के अधिकार से स्त्रियों या सवर्णेतर लोगों को कभी वंचित नहीं रखा गया। इस तरह की जो भी वंचना दिखायी देती है वह विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में शासनकाल के अनंतर होती रही है जिसके लिये भारत की जड़ों और प्राचीन परम्पराओं को दोषी नहीं माना जा सकता। प्रमाण के लिये सत्यान्वेषी जिज्ञासुओं को धर्मपाल रचित “The Beautiful Tree: Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century” का अवलोकन करना चाहिये। तथापि यह सत्य है कि पराधीनता के तत्कालीन समाज में आयी विकृतियों ने कई कुरीतियों और शोषण को जन्म दिया किंतु यह भारत की सांस्कृतिक सभ्यता का कभी अंश नहीं रहा।
दूसरा मिथक यह है कि छायावादी कवितायें तत्कालीन समाज के प्रभाव से अछूती रहीं जिसके प्रतिक्रियात्मक परिणामस्वरूप प्रगतिवाद का जन्म हुआ। साहित्य का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कोई भी कविता अपने परिवेश से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकती। रचना का यह परिवेश तत्कालीन राजसत्ता की शासनव्यवस्था, उस कालखण्ड की आवश्यकताओं, रचनाकार की अपनी व्यक्तिगत क्षमता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे कई घटकों के जटिल संयोजन से निर्मित होता है। यदि कोई परिवेश किसी कवि की रचनाधर्मिता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तो उसकी कविताओं में सीधी प्रतिक्रिया के स्थान पर विचलन का होना स्वाभाविक है। यह विचलन, प्रभावित समाज को हताशा से बचाने का काम करता है। गोस्वामी तुलसीकृत रामचरितमानस, कवितावली और विनयपत्रिका इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
आधुनिक कविता के विषय
जिस देश की शासनव्यवस्था में अभद्रता, असभ्यता, कुतर्क और हठ को सहिष्णुता मानकर स्वीकार कर लिया जाता है, पूर्वजों का अपमान किया जाता है और भारतीय महापुरुषों की अश्लीलतापूर्ण आलोचना करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानी जाती है, ऐसे परिवेश की प्रतिध्वनि भी तदनुरूप ही होगी। इसीलिये आधुनिक कविता अपने परिवेश के हर अच्छे-बुरे विषय को स्पर्श करती हुयी चलती है। इसमें आर्तनाद है, शोषण है, शोषण के विरुद्ध गालियाँ हैं, विद्रोह की अग्नि है, क्रांति का ज्वार है, कुंठा से उपजी भड़ास है, कुंठित मानस का दैहिक आकर्षण है, वंचना के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। यहाँ विषयों का कोई बंधन नहीं, कोई एक लहर नहीं, हर तरह के विषयों पर रचनाकारों ने अपनी लेखनी चलायी है। यह बात अलग है कि इनमें से कौन से विषय कितने समय तक चल पाते हैं, कौन सी कविता कालजयी हो पाती है और कौन सी मूढ़गर्भ की तरह अकालमृत्यु को प्राप्त होती है।
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