दोस्ती :- एक अनोखा रिश्ता
‘दोस्ती‘-कहने को तो एक छोटा सा शब्द है, पर अगर इसके मायने देखे जाएं तो इसे सिर्फ एक शब्द तक सीमित नहीं रखा जा सकता। क्या है यह रिश्ता जो दो अनजान लोगों को एक-दूसरे के इतने करीब ले आता है मानों वे सदियों से एक-दूसरे को जानते हों। कैसा है यह रिश्ता, जो निस्वार्थ है, जिसमें दो लोग अपने सुख-दुःख बिना हिचकिचाहट के आपस में बाँट कर, दुनिया की सारी बातें भुलाकर एक दूसरे का साथ पाकर ही सुखी रहते हैं।
यूँ देखा जाए तो आज यह दुनिया इतनी व्यस्त हो चली है कि लोगों को अपने घर-परिवार के लिए भी फुर्सत नहीं है। लोगों को घर-परिवार से दूर होकर काम, पढ़ाई एवं अन्य चीजों के लिए बाहर, अलग अपने परिवार से रहना पड़ता है। तब अगर कभी हम मुश्किल में पड़ जाएं तब हमारे साथ कौन होता है ?‘दोस्त‘- यह एक ऐसा इंसान हैं, जिसके जीवन में हो तो वह सबसे धनवान होता है। कहने के लिए तो बस यह ढाई अक्षर का शब्द है, परंतु इस शब्द में छिपे व्यक्ति का कोई मोल नहीं है। वह अनमोल है। ‘दोस्त‘ से ही ‘दोस्ती‘ शुरू होती है। यह एक अनजाना, अनसुना, निस्वार्थ परंतु खास रिश्ता होता है। हम भीड़ में अकेले चल रहे होते हैं, पर वह दोस्त ही है जो हमारा हाथ थाम कर हमें हौसला देते हैं कि “सब ठीक है“, हमें अनजान दुनिया से लड़ने, उनसे तालमेल बिठाने में यह ‘दोस्त‘ ही होते हैं, जो मदद करते हैं।
लोग अक्सर कहते हैं कि “माँ-बाप से बढ़कर दुनिया में कोई नहीं है“ सत्य है। परंतु जो माँ-बाप की अनुपस्थिति में उनका काम करते हैं, क्या वे माँ-बाप से कम है ? यह दोस्त ही होते हैं जो हमारे माता-पिता की जगह हमें उसी प्रकार डाँटना, प्यार करना और सहयोग कर सकते हैं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक छोटी सी दास्तां बताना चाहती हूँ। यह दास्तां एक लड़की की है जिसे पढ़ाई की वजह से परिवार से अलग रहना पड़ा।
“ न्यू गर्ल इन द सिटी “
यह बात 2013, फरवरी की है। “अंजली “ स्कूल से खुशी-खश्ुी घर आई। वो कोरबा में पढ़ती थी। उसके पिता सरकारी नौकरी करते थे। उनका 4 साल पहले स्थानांतरण हुआ था। शुरूआत में वह बेहद दुःखी रहती थी, क्योंकि उसे अपने दोस्तों को छोड़कर इतनी दूर आना पड़ा। पर जैसे-जैसे वक्त बीता उसके यहाँ बहुत-बहुत अच्छे दोस्त बन गए। वह बहुत खुश रहती थी। और उसने मन में ठान लिया था कि वो यहाँ से अब जाना नहीं चाहती थी, हाँलाकि वह यह बात जानती थी कि उसे एक दिन यहाँ से भी जाना होगा। पर बच्चे का दिल तो नादान होता है, उसकी उमर भी कितनी थी, मात्र 13 साल। जब उसने यह तय कर लिया था कि वह अब कोरबा छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। आखिर कौन सी वो बात थी, जिसने उसे इस जगह के मोह में जकड़ रखा था। इसका सीधा-सादा जवाब है, ‘दोस्त‘! उसे वहाँ इतने अच्छे दोस्त मिले कि वह अपनी सारी परेशानियां भूल गई। उसे स्कूल में ‘दोस्तों‘ के नाम पर एक नया परिवार मिल गया था। यह ऐसा परिवार था, जिससे वो अपना दुःख-दर्द बताती थी, जो वह अपने माता-पिता से भी नहीं बोल पाती थी।
अब उसे वहाँ चार साल हो गए थे। उस दिन वह घर आई, जैसे उसका दिन चलता था वैसा ही चला, पर जब शाम को उसके पापा घर आए मानो उस पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा हो, उसे यह पता चला कि उसके पिता का ट्राँसफर होने वाला है और इस बार पक्का है। वे शुरूवाती दिन थे उसके कक्षा बारहवीं के। वह यह सुनते ही सुन्न पड़ गई, मानो उसकी दुनिया खत्म सी हो गई हो, उसने रोना शुरू कर दिया। उसके मन में कई सवाल घूम रहे थे। पर वह उसका जवाब नहीं दे पा रही थी। आखिर कितने कठिन समय में उसे उस जगह से अलग किया जा रहा था। उसके पिता ने उसे प्यार से समझाया और बताया कि यही जीवन है। कोई भी चीज या फिर जगह को हम हमेशा जकड़ कर नहीं रख सकते। एक न एक दिन उसे छोड़ना ही होता है। यह है प्रकृति का नियम। परंतु उसके माँ-पिता, उसका दुःख नहीं समझ सकते थे। उसे पूरी दुनिया उजड़ी हुई सी दिखाई दे रही थी। कई सवाल मन में उठे- “ मैं कैसे रह पाऊँगी उनके बिना ? क्या मुझे अब ऐसे दोस्त मिल पाएँगे ? मैं उन लोगों को कैसे यह बात बताऊँगी ?’’ वगैरह-वगैरह। जितना वो अपने दोस्तों से प्यार करती थी उससे कहीं ज्यादा उसके दोस्त उसको मानते थे। किसी तरह उसने अपने आप को संभाला। पर जब वह दूसरे दिन स्कूल गई वह अपने आप को रोक नहीं पाई। वह बड़ी ही भावुक किस्म की लड़की थी। उसके दोस्तों ने उससे पूछा आखिर क्या हुआ है उसे ? उसने बड़ी धीमी आवाज, मन में बड़ा सा बोझ लिए जबाब दिया- ‘‘पापा का ट्रांसफर हो गया है। मैं जा रही हूँ अब-“ बस इतना कहते ही उसने अपनी नम आँखों से उनकी तरफ देखा, उसके दोस्त यह मानने को राजी ही नहीं थे कि वो जा रही है। उसके सारे दोस्त भी अपने आप को रोक नहीं पाए। उनकी भी आँखे नम हो गई। कितना विचित्र होता है यह रिश्ता, अपने भाई-बहन, माँ-बाप से बढ़कर लगने लगते हैं। उसने शुरूआत में कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब उसे यह जगह छोड़ते वक्त इतना कष्ट होगा। देखते-देखते समय बीतता चला गया। वो दिन आ गया जब उसे जाना था। अपने साथ यादों का पिटारा लिए वह जाने को तैयार थी। उसे कुछ भी पता नहीं था कि आगे उसके साथ क्या होने वाला है। भारत में बिछड़ने का समय बड़ा करूणापूर्ण होता है । उसके मन की स्थिति कोई बता नहीं सकता था यह वही जान रही थी कि वह किस दौर से गुजर रही थी। सबकी आँखे नम देखना, उसे और कमजोर कर रहा था। पर वह वक्त के हाथों मजबूर थी। आखिरकार जब वह जा रही थी उसे सारी यादें एक फिल्म की तरह दिखाई दे रही थी। उसके मन में सैलाब सा उठ रहा था। पर वह करती भी क्या ? वह और उसके पिता सरकार के हाथों मजबूर थे। एक कागज की चिठ्ठी ने सब इधर-उधर कर दिया। पर वह एक विश्वास लिए मन में थी कि सब कुछ ठीक होगा।
नयी जगह जाते ही उसे पता चला कि वहाँ स्कूल में जो विषय वह पढ़ रही थी, वह नहीं था। एक और मुसीबत सामने आ गई। वह दूसरे शहर में गई एडमिशन के लिए, पर वहाँ कहीं नहीं हो रहा था, क्योंकि वह पढ़ाई के सेशन के बीच में गई थी। वह सारी चीजें उसे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी। पर वह अपनी यह हालत बताये भी तो किसे, माता-पिता को बता नहीं सकती थी, क्योंकि वे खुद ही परेशान थे, वो उनको और परेशान नहीं करना चाहती थी। ऐसे हालत में उसके दोस्तों ने ही उसका मनोबल बढ़ाया, उसे हौलसा दिया, वे पल-पल उससे वहाँ की जानकारियाँ लेते रहते थे। अंजली, एक बहुत नाजुक समय से गुजर रही थी आखिरकार वह कक्षा बारहवीं में थी। पर शायद उसकी दुआ भगवान ने सुनी और उसका अच्छे स्कूल में एडमिशन राजनांदगाँव के युगांतर पब्लिक स्कूल में हुआ। एक हफ्ता भी नहीं हुआ था अपने प्रियजनों से बिछड़े, अभी तो वह उनकी यादां से निकली भी नहीं थी कि उसे अपने माँ-पिता से अलग होना पड़ा। वह अंदर से टूट गई थी। मानों उसका भगवान पर से भरोसा उठ गया हो। जब उसे माता-पिता की सबसे ज्यादा जरूरत थी तभी उसे उनसे अलग रहना पड़ा। पर एक कहावत है न “जो होता है, अच्छे के लिए होता है।“ वह बिल्कुल अकेली थी। उस नयी जगह में हाँलाकि एक बात यह अच्छी हुई की उसे वहाँ रहना पड़ा, जिन्हें वह पहले से जानती थी। वे उसके पिता के दोस्त थे।
पहला दिन स्कूल का। सुबह 6 बजे वह अकेली सड़क पर यादों के ‘फ्लेशबैक‘ देखते हुए, अपने स्कूल बस का इंतजार कर रही थी। उसके दिमाग में कोई “प्लानिंग“ या “स्ट्रेटिजी“ नहीं थी कि उसे नए स्कूल, नए लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना है। उसने सब कुछ किस्मत पे छोड़ दिया। बस में चढ़ते ही उसे उसी के हम उम्र मिल गए। उन्होंने उससे उसका नाम पूछा, सब कुछ उन लोगों ने उसे स्कूल के बारे में बताया। शौम्या, श्रैया। ये दोनों उसके पहले दिन से ही सहेलियां बन गई थी और सबसे ज्यादा शौम्या। पहले ही दिन से उसने अंजली की बहुत मदद की, व्यवहार से सौम्या बातुनी, फ्रेंक थी। अंजली को उसमें एक नई दोस्त मिल गई थी। कहते हैं कि स्कूल का पहला और आखिरी दिन कभी 100 प्रतिशत अच्छा नहीं होता। पर अंजली के साथ सब कुछ अच्छा ही हुआ। पर उसे परेशानी तब हुई जब उसने स्कूल के टीचर को पढ़ाते हुए देखा। वह फिर से मायूस हो गई। क्योंकि उसे उनके पढ़ाने का तरीका पसंद नहीं आया और न ही वह कुछ समझ पा रही थी। वह हताश होकर बैठ गई। पर वह बड़ी ही आशावादी लड़की थी। वह कभी भी हिम्मत नहीं हारती थी। उसने अपने मन में ठान लिया था कि सफर बहुत कठिन है। उसे हर चीज के लिए तैयार रहना था।
अकेली शहर में वह, अपने पिता को दोषी ठहराती थी, वह अपना दुःख अपने पुराने दोस्तों से बाँटती थी। उन्होंने उसे बहुत सहारा दिया। कुछ बातें माँ-बाप कभी नहीं समझ सकते। उसने अपने पिता से बातचीत बहुत लिमिटेड कर दी थी। क्योंकि अंजली को बहुत कुछ कठिनाईयां सहनी पड़ रही थी। जो कोई नहीं समझ सकता था। पर यह ‘दोस्ती‘ बड़ी कमाल की दवा है। हर जख्म को धीरे-धीरे भर देती है। अंजली की नए स्कूल में कुछ ही दिनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी, सबसे। उसके सारे नए दोस्त उसकी बड़ी मदद करते थे। सबसे ज्यादा सौम्या, परिधी और पूजा। वह इन तीनों के बहुत करीब हो गई थी। साथ में बस से घर जाना, घूमना। हर चीजें वे सब साथ में करते थे। हर जगह उसे उन लोगों ने सहारा दिया। जब भी वह उदास होती थी। वे बिना उसके कुछ बोले ही उसे खुश करने लगते थे। वह अंजली को कभी यह महसूस नहीं होने देते थे कि वह नयी है। उसका यहाँ भी एक ‘गैंग ऑफ फ्रेन्ड्स‘ बन गया था। जिसमें उसे काफी अपनापन लगता था। अखिरकार उन लोगों ने उसे अपनापन महसूस कराया। अब उसे स्कूल जाना अच्छा लगने लगा। पर उसे पढ़ाई में बड़ी दिक्कतें हुई। आज भी वह उस समय को याद नहीं करना चाहती।
देखते ही देखते स्कूल खत्म हो गया। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे ‘युगांतर पब्लिक स्कूल‘ और यहाँ के लोगों से लगाव भी हो पाएगा। किसी भी इंसान के लिए अनजान लोगों के बीच अपनी पहचान बनाना आसान नहीं होता। हर जगह माता-पिता साथ नहीं होते। अंततः ‘दोस्त‘ ही है जो हमें सभालते हैं, हमें हौसला देते हैं।
बड़ा ही अनमोल रिश्ता होता है, ये ‘ दोस्ती‘।
कु. अंजली सिन्हा
बी.ए. कामर्स फर्स्ट ईयर
शंकराचार्य कालेज
दुर्ग, छ.ग.