कहानी – जहाज का पंछी -सनत कुमार जैन

जहाज का पंछी

 

मेरी नजरें उस ओर ही हैं जिस ओर मि. राज याने पिताजी की हैं।
मैं चाह कर भी अपनी नजरें दूसरी ओर घुमा नहीं पा रही हूं पता नहीं क्या हो जाता है ? टी.वी. चल रहा है उसमें आने वाला विज्ञापन भी उस ओर इशारा करता है जिस ओर हमारा समाज बोलने और देखने पर प्रतिबंध लगाता है, दो सदस्य बैठे हैं, इस ड्रांइग रूम में एक मैं और मि. राज याने मेरे पापा। ड्राइंग रूम क्या है वो तो है बॉस के रूम जैसा जहां से सभी ओर दिखता हो। ड्राइंग रूम के सोफे से किचन, बाथरूम, तीन बेडरूम और घर के अंदर आने का गेट, सब कुछ दिखता है बस एक सोफे से दूसरे सोफे पर बैठना होता है।
पापा की नजरें टी.वी. पर कम थी और रह रहकर किचन में काम करती मम्मी की ओर जा रही थीं। मम्मी रोटी बनाकर किचन झाड़बुहार कर पोंछा लगा रही थीं। पापा एक नजर टी.वी. पर मारते, मुझे देखते और मम्मी को ध्यान से देखते फिर अचानक मम्मी को देखने के बाद मुझे देखते और मेरी नजरों का पीछा करते टी.वी. देखते और मैं एक क्षण की देरी कर उनके साथ साथ चल रही थी।
उतावलापन नजर आ रहा था पापा की नजरों में। पांेछा लगाकर उठती मम्मी ने बाल हाथों से पीछे किये जो नीचे चेहरे पर आ रहे थे। तभी उनकी नजर पापा पर गई, पापा को अपनी ओर देखते देख मम्मी एक क्षण को हडबडा गई, और फिर हौले से मुस्करा दी।
पापा एक क्षण के अंदर ही अंदर मम्मी को देखे उसके तुरंत बाद मुझे देखने लगे, फिर सर झुकाया और चोरी चोरी मम्मी को देखने लगे।
आइये पहले मैं आपको अपने पापा की जानकारी दे दूं जिससे सारी बातें साफ हो जाएं।
उम्र 40 वर्ष, लंबा चेहरा, मध्यम शरीर, चेहरा लाल, बहुत सोच विचार करने वाले, समय पर काम करने और करवाने वाले, बातों से सर्वज्ञानी। ‘मैं ही सही हूं!’ पहली बार में मिलने वाला आदमी बगैर शार्गिद बने नहीं जा सकता। दुनिया के नियमानुसार उगते सूरज को प्रणाम करने वाले, न जाने कब उनको किसी की बात लग जाए और फिर वे उसका बदला निकाल लें, उनकी किसी भी चीज को छूना ज्वालामुखी का दर्शन, बैंक मैनेजर होते हुए भी पहनने ओढ़ने का ढंग सादा सिम्पल! यदि उन्हंे कोई काम नहीं करना है तो लाख सर पटकने पर भी नहीं करवा सकते।
और सबसे खास खासियत मौसी और मम्मी दोनों मेरी मम्मी हैं यानी एक म्यान में दो तलवारें, एक कानूनी दूसरी गैरकानूनी! एक घर में और दूसरी दूसरे घर में!
मम्मी, एक साधारण सी दिखने वाली औरत यानी औरत के सभी चिन्हों से सुसज्जित, पर सुन्दर औरत के सभी चिन्हों से दूर, और खास खासियत है मम्मी की सरकारी नौकरी, जो प्रमोशनों के बाद पापा की नौकरी से बड़ी हो गई है तनखा में अंतर है लगभग 5000 का।
मौसी और मम्मी में जमीन आसमान का फर्क मानों जमीन को ईश्वर रेतीला खुरदुरा बनाया है तो आसमान को कोमल, नर्म, शीतल, सुन्दर बनाया है। मौसी और मम्मी दोनों एकदम अपोजिट रंग रूप की हैं। मौसी को देखने वाला ठगा सा रह जाता है, आसपास कहीं निकल पडे़ तो एक बार जरूर नजर पड़ ही जाती है। न चाहते हुए भी नजरें फेंकने की मजबूरी हमारी मौसी।
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सप्ताह के अंत में पापा आये हैं। यह नित्यता बरसों से नहीं टूटी है न ही उनका उतावला पल घटा है। यूं ही निहारना मम्मी को और सोचना। न जाने किस बात को सोचने पर मजबूर करता है उन्हें मम्मी का चेहरा। कभी समझ आ रहा है, लगता है, तो कभी नहीं। पर पापा के आते ही मम्मी भी खुश हो जाती, यह मुझे पता है। हम तीनों भाई बहिन उनके जीवन में खानापूर्ति करते, जब उनका समय पास न हो तो बतिया लेते, खिला लेते, अब हम बडे़ हो गये तो हाल चाल पूछ लिया।
इस बात का विश्वास मुझे अमृत के घर से पहली बार भागने के बाद ही हुआ, उस वक्त पापा राजनगर में नहीं थे अपनी नौकरी बजाने जयनगर में थे। फोन पर सूचना दी गई उन्हें अमृत के भागने की, बड़ी ठण्डी प्रतिक्रिया दी उन्हांेने।
”भागने वाले को भागने दो, जैसे भागा है वैसे आ जाएगा।”
न तो कारण पूछा न ही पता लगाया, हम दो बहनों ने न जाने कैसे कैसे मेहनत की; खोजबीन की और अमृत को ढूंढ निकाला। पापा की ऐसी प्रतिक्रिया से अमृत उच्छंद हो गया, भय चला गया उसका। ऐसा लगता कि वो भी पापा की राह चल पड़ा है।
शायद मम्मी का काम खत्म हो गया और वो नहाने चले गयी। अब पापा समाचार पत्रों में खोने का नाटक करने लगे, बीच बीच में समाचार पत्र का झरोखा बनाकर मेरी ओर झांकते फिर टीवी की ओर, मैं क्या देख रही हूूं उस पर भी नजर और उन पर दृष्टि है कि नहीं, उस पर भी नजर।
”मौसी नहीं आई इस बार ?” आखिर मैंने शोर का मौन तोड़ ही दिया।
”छुटटी नहीं मिली।” संक्षिप्त जबाव पूर्ण विराम की तरह।
”छुटटी नहीं मिली, सरकारी छुटटी है न, फिर कैसे नहीं मिली पापा ?” मैंने भी जानकर कुरेदा।
”मन नहीं है तो क्या कंधे पर लाद कर लाऊं ?” समाचार पत्र जल्दी जल्दी मोड़कर सोफे पर पटका और नहाकर आती मम्मी के पीछे-पीछे चल पडे बेडरूम की ओर।
अगली सुबह शांत होगी मुझे पता था बरसों का अनुभव था, उतावलापन खत्म तो समय ही समय। मैं भी अमृता के पास अपने कमरे में चल पड़ी सोने को।
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’आखिर मैं कब तक यूं ही जिऊंगी ? इतनी बड़ी जिन्दगी है तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा ?’
मैंने पूरा दम लगाकर यह सवाल किया। कृष्णकांत चुपचाप सुनता ही रहा। वैसे भी मैंने उससे अनेक बार यह सवाल किया है और हर बार वह इस सवाल से नजरें चुराता रहता है। शुरू शुरू में तो कहता था कि -’अभी जल्दी क्या है। सारी उम्र पड़ी है।’
धीरे धीरे उसकी बातें बदलने लगीं। मेरी समझ में यह बैठ ही नहीं रहा था कि कृष्णकांत मुझसे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। जब वो मेरी दीदी के भविष्य की सुरक्षा के लिये तीन तीन बच्चे पैदा कर चुका है तो तुझे इस सुख से वंचित क्यों कर रहा है।
चुपचाप तोते की तरह अपनी आंखें मिटकाता हुआ कृष्णकांत इधर उधर देखता रहा उसके मुंह से एक शब्द भी न निकला। मेरी खीज बढ़ती ही जा रही थी।
’तुम मुझे जरा भी हाथ न लगाना। बेइमान! तुम इंसान नहीं हो सकते, तुम जानवर हो, तुम एक औरत को मां बनने से रोक रहे हो। तुम ये नहीं समझ सकते कि एक औरत बगैर बच्चे के जिन्दा लाश की तरह होती है। तुम मुझे हमेशा भोगते रहने के लिये ही मुझसे बच्चे नहीं पैदा कर रहे हो न ? तुम यही चाहते हो कि मैं बच्चे पैदा न करके अपना फिगर तुम्हारी गंदी हरकतों के लिये फिट रखूं ? आज तुम ये जान लो, अगर इस फिगर की लालसा तुम्हारे मन में बसी है तो मैं अपने इस फिगर को जला डालूंगी। फिर देखती हूं तुमको मेरे इस शरीर से क्या मिलता है।’
मेरा क्रोध धधक उठा, मैं वहां से उठी और किचन की ओर दौड़ी। कृष्णकांत अब भी चुपचाप वहीं बैठा रहा। मैं मिट्टी तेल की बोतल लेकर फिर अपने बेडरूम में आ गयी।
कृष्णकांत अब भी वैसा ही बैठा रहा। उसके चेहरे में चिन्ता की एक रेखा भी न बढ़ी।
मैंने मिट्टी तेल अपने शरीर पर डाल लिया। और फिर किचन की ओर दौड़ी। माचिस लेने के लिये।
अब मेरे एक हाथ में माचिस थी और दूसरे में उससे निकाली तीली!
मैंने एक क्षण कृष्णकांत को देखा। वह उसे चुपचाप देखता पलंग पर बैठा ही रहा। उसने जरा भी कोशिश न करी कि मैं ये सब न करूं।
मैं किंकर्तव्यविमूढ उसे देखती रही। मेरा मन भयंकर तेजी से चल रहा था। मैं इस आदमी के लिए अपने प्राण दे दूं ? इस आदमी की नजर में मेरी जान की कीमत तो शून्य भी नहीं है।
?
दो पल के बाद मैं वहां से निकली और अपने मायके की गाड़ी पकड़ ली।
पूरी राह लोगों की नजरें मुझे घूरती रहीं। मैं बस में बैठी विचार करती रही।
क्या मेरे भाई मेरे साथ खड़े होंगे ?
क्या मेरी मां मेरे साथ खड़ी होगी ?
मैंने कहां मानी थी उनकी बातें। कितना समझाया था सबने मिलकर कि ये आदमी नहीं जानवर है, जो मेरे जीवन को बदतर कर देगा।
क्या मेरा परिवार मुझे स्वीकार करेगा ?
कई लीटर पसीना मेरे बदन पर तैर गया।
’भैया! बस रोकना मुझे यहीं उतरना है।’ मैं खड़ी हो गयी थी ड्रायवर के पास। वो मुझे अचकचा कर देखा।
’इतनी रात को ? इस जंगल में ? अभी कोई गांव शहर नहीं आया है मैडम!’
’नहीं, मुझे यहीं उतार दो।’
तब तक कई यात्री आ गये। मुझे पकड़कर मेरी सीट में जबरन बैठा दिये। तरह तरह की बातें चल रही थीं परन्तु मुझे सिर्फ कृष्णकांत की शक्ल ही रह रह कर दिख रही थी।
हर ओर अंधियारा ही अंधियारा था। उस कमीने ने मुझे जहाज का पंछी बना दिया था।
सुबह वापस कृष्णकांत की दर पर खड़ी थी।
दरवाजा खुला हुआ था। उसे पूरा विश्वास था कि मैं उसके पास आउंगी ही।
आखिर जाउंगी भी कहां, मैंने खुद ने अपने रास्ते जो बंद कर लिये थे।
भीतर बेडरूम में कृष्णकांत औंधा पड़ा सो रहा था।
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मैं कृष्णकांत शर्मा अपने जीवन में सदा के ही लिए कुछ सिद्वांतों को पहन लिया है। अपनाना नहीं कह सकते क्यांेकि गलत सही की विभाजक रेखा मैंने ही खींची है। सामाजिक ताने बाने में फिट न बैठने वाले सिद्वांत। इसलिए मैं हमेशा कहता हूं मैंने सिद्वांतों को पहना है, न कि अपनाया। ये कटुसत्य एक काल्पनिक तख्ती पर काल्पनिक अक्षरों से लिखकर मैंने अपनी नजरों के आगे काल्पनिक आसमानी कील पर लटका रखा है जो मुझे सदा दिखाई देता है। वो काल्पनिक तख्ती पारदर्शी भी है जिसके पार मैं दुनिया देखता हूं।
अपनी इस धारणा को न तो शब्दों में व्यक्त करता हूं न ही चेहरे से प्रदर्शित होता है। किसी का समझना मुमकीन नहीं, और यही बात हमेशा मुझे सालती है जिसे मैं जी रहा हूं शब्दों से नहीं कह सकता।
मुझसे हर कोई नाराज लगता है। मैं सच्चाई में जीने वाला हूं। सच कहता हूं तो इसमें किसी के बुरा मानने की क्या जरूरत है ? बुराईयां सिर्फ दुनिया भर के लोगों में ही हैं मुझमें नहीं हैं। पर उन्हें एक सीमा में ही रहनी चाहिए, सीमा खत्म तो सब खत्म। हर किसी को तकलीफ है मुझसे। मेरा जीवन है। मैंने दो शादियां की हैं, उससे किसी को क्या तकलीफ। पर सबकी नजरें अजीब होती हैं मानों मैं मंगल ग्रह का हूं। जिसके ऊपर बीतती है वो मंगल ग्रह का ही हो जाता है।
आखिर मेरी बहन का इंसाफ कौन करेगा मुझे ही तो कुछ करना होगा न! उस बेचारी का कुसूर सिर्फ इतना ही कि वो बेचारी सीधी सादी, जवाब न देने वाली। हम रिश्ता मांगने नहीं गए थे मेरी बहिन की सुन्दरता के चर्चे ने उन्हंे खुद भेजा था हमारी चौखट पर। पैसा ही सब कुछ नहीं होता है। हर बार पैसे का रोना लिए घर पहुंच जाती, कभी गाड़ी, तो कभी खेत की बाडी, कभी कोर्ट कचहरी का रोना तो कभी किसी का। मानों सब कुछ का ठेका हमारा परिवार लिया है। धीरे धीरे लगने लगाा कि बहन की शादी करके हमने गलती कर दी है।
एक रोज स्कूटर लेने की बात पर मायके आ गई कृष्णा मेरी बड़ी बहिन। मेरी नौकरी लगाने के लिये दी जाने वाली रिश्वत कृष्णा के घर पहुंच गई ओर मैं फिर से जूता घिसाई में लग गया।
ये समस्या जब तब मुंह बाये खड़ी हो जाती। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती समस्या का स्थाई हल ढूंढना अति आवश्यक हो गया था एक तरह से जीवन मरण का प्रश्न हो गया था, सब काम छोड़कर हर कोई इस समस्या का हल ढूंढ रहे थे। कोई कहता बार बार इस प्रकार पैसा देना स्वयं को लुटाना है उससे अच्छा लड़की को वापस बुला लो। कोई सलाह देता पुलिस की मदद लो एक बार में ही अकल ठिकाने आ जायेगी। कोई किन्हीं गुण्डों का पता बताता। परेशानी के उलझे जाल में एक दिन खुशी का आ ही गया। मेरी नौकरी बैंक में लग गई और परेशानी का हल जो मैंने सोचा था वो भी व्यवहार में आ गया।
आखिर बैंक की नौकरी रूतबा ही कुछ अलग होता है। मैंने कृष्णा की ननद विभा को अपने लिए पसंद किया। भंयकर विरोध हुआ था समाज की मान्यताओं के अनुसार लड़की ले जाने वाला पूज्यनीय होता है इसलिए वो कैसे उनके पैर पड़ेगा, जहां से लड़की लाया है वो। ना नुकूर के बाद हो ही गया रिश्ता।
चैन की सांस लेते परिवार को देख सुकून मिलता था। कृष्णा की सुरक्षित और आदरणीय जिन्दगी से, मां का स्वास्थ्य भी ठीक होने लगा। हर तरफ से बचत ही बचत। यह तो रास्ता था उस समस्या से निपटने का, घर की पूंजी बचाने का, पर सजा क्या होगी ?
कृष्णा की ननद शोभा मेरी बाहांे में थी भविष्य के सुनहरे सपनों को नजरों में सजाये। कुठाराघात लग गया कृष्णा के ससुराल वालों के सपनों में, जब खुद शोभा ने खुद जाकर कहा मैं शादी करूंगी तो कृष्णाकांत से।
एक बार फिर तूफान आया था कृष्णा के ससुराल में, पर अबकी बार उनकी कश्ती डुबाने पर उतारू था वह तूफान। मेरे इशारों पर नाचती शोभा ने सबकुछ अच्छे से संभाल लिया। शोभा के घर वालों की नजरों में शोभा की जान की कुछ कीमत थी पर समाज की मान्यताएं आड़े आ रही थीं इसलिए वे आखिर तक विरोध करते रहे। उनका विरोध निष्फल ही रह गया जब शोभा दूसरी बनने को तैयार होकर मेरे घर आ गयी। उस दिन से आज तक कृष्णा के ससुराल वालों ने नजरें उठाकर हमारी चौखट की दिशा में भी नहीं देखा।
सजा की पराकाष्ठा तो यह है कि शोभा अब तक मां नहीं बन सकी है जबकि विभा की गोद मे मेरे तीन तीन बच्चे हैं।

सनत कुमार जैन