व्यंग्य – वी आई पी जी – डॉ प्रकाश मूर्ति

वी आई पी जी

वी आई पी जी को बचपन से ही वी आई पी बनने का जुनून था। इसके पीछे उनकी कौन सी कुंठा थी ये कोई नहीं जान पाया हालाँकि वी आई पी बनने की नैसर्गिक इच्छा सब में रहती है, लेकिन वी आई पी जी की बात ही अलग थी। उनकी कुंठा का रहस्य अब भी पर्दा ओढ़े हुए था, उनके जानने वाले बताते है कि वी आई पी जी का बचपन बहुत ही अपमानों से गुजरा। एक तो उनका रंग काला दूसरी उनकी बौनी कद काठी। पैदा होने के बाद कई सालों तक लोगों ने उनको अपनी हथेली मे खिलाया था। उनकी ऊंचाई चंद सालों में गाँवांे में होने वाली तररकी की तरह रुक गयी थी। इंच दर इंच बढ़ते बढ़ते कई सालों बाद वी आई पी जी फुट की कैटेगरी में पहुंचे थे।
21 साल तक पहुंचते पहुँचते वी आई पी जी की हाइट समृद्धि के सूचकांक की तरह 3 फुट के आकंड़े को छू कर रुक गयी। उनका रंग काला से डार्क काला हो गया। कान के ऊपर के गिने चुने वफादार बालों को छोड़कर बाकि बालों के समूह ने भी उनसे दगाबाजी की, और वी आई पी जी का साथ छोड़ दिया। अर्धविकसित राष्ट्र की तरह वी आई पी जी के दाँतों ने एकदूसरे से दूरी बनाकर उगना शुरू किया और वे 32 की जगह 16 की संख्या में उग कर रह गए। बचपन से लेकर जवानी तक आरी के सामान दांतों से वी आई पी जी ने भोजन इत्यादि ग्रहण किया। अपने दांतों से वी आई पी जी को कोई शिकायत नहीं थी बस एक ही गम था। वो यह कि जब भी वी आई पी जी कुछ बोलते तो उनके मुंह की हवा दांतों से होती हुई सुनने वालों के गालों को छूकर उनकी ज़ुल्फ़ों तक पहुंच जाती थी। वी आई पी जी क्या बोल रहे होते हैं ये किसी को समझ नहीं आता। उनके बेलनाकार होंठों की हरकतों से लोग अंदाज़ा लगा लेते कि वी आई पी जी क्या कहना चाह रहे हैं।
वी आई पी जी किस्मत के धनी थे, सरस्वती माता का तो पता नहीं लेकिन लक्ष्मी माता जी की उन पर विशेष मेहरबानी थी। और हो भी क्यों न क्योंकि वी आई पी जी की शक्ल लक्ष्मी जी के वाहन से मिलती जुलती जो थी। वी आई पी जी काम तो कुछ कर नहीं सकते थे इसलिए लाटरी खेलकर अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ कर लिया करते थे। अक्सर वी आई पी जी की लाटरी लग भी जाया जरती थी। पिछली दिवाली में चमत्कार हुआ। वी आई पी जी की 5 करोड़ की लाटरी निकली, जिसके बाद से वी आई पी जी की शहर में पूछ परख बढ़ गयी। हर कोई किसी न किसी कार्यक्रम के लिए चंदा लेने वी आई पी जी के पास पहुँचता, वी आई पी जी उन्हें चंदा तो देते पर उनकी शर्त रहती कि उनके कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वो ही हुआ करेंगे। आयोजकों के पास उनकी बात मनाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचता था।
वी आई पी जी का बचपन का सपना था कि वो बड़े होकर पुलिस में बड़े अधिकारी या कोई वी आई पी व्यक्ति बने। दो चार गनमैन उनको हमेशा घेरे रहें जिससे लोगों में उनका रुतबा और रौब बना रहे। पर ऐसा हो न सका इसलिए वी आई पी जी ने खुद अपना नाम वी आई पी रख लिया और चंदा देकर कार्यक्रमों में वी आई पी बनना शुरू किया। दो चार बॉडी गार्ड भी वी आई पी जी ने किराये पर कार्यक्रमों में आने जाने के लिए रख लिया और शहर के बड़े बड़े प्रभावशाली लोगों के साथ मंच साझा करने लगे।
अब तो आये दिन मीडिया समाचार पत्रों में वी आई पी जी की फीता काटते, दीप प्रज्वलन करते, पुरुस्कार देते, तस्वीरें आती रहती। ये अलग बात है कि अपने समाचार और फोटो वी आई पी जी सामचार पत्रों के कार्यालय में खुद जाकर, पत्रकार बंधुओं, संपादक महोदयों से हाथ पैर जोड़कर, निवेदन कर देकर आते थे। बदले में तीज त्योहारों में उनके यहाँ मिठाइयां, महंगे गिफ्ट आदि छोड़कर आते थे।
इतना सबकुछ होने के बाद भी वी आई पी जी के मन के किसी कोने में असंतुष्टि का भाव था। वो चाहते थे समाज के बुद्धिजीवियों व साहित्यकारों का वर्ग उन्हें सराहे, उन्हें उनके कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनाये किन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा था, क्योंकि साहित्यिक प्रतिभा वी आई पी जी में बिलकुल भी नहीं थी। उनके लिए काला अक्षर लगभग भैंस के बराबर ही था।
किसी ने उन्हें सलाह दी, क्यों न आपकी कोई किताब प्रकाशित की जाये और उसके बाद आपको कोई अवार्ड दिया जाये। जिससे आपकी साहित्यिक जगत व समाज में आपकी बुद्धिजीवी वाली पहचान बने, वी आई पी जी को बात जमी। उन्होंने क़लम कागज़ हाथ में लिया और साहित्य की प्रत्येक विधा कविता, कहानी, लघु कथा, गीत, ग़ज़ल, छंद आदि में कागज़ काला करना शुरू किया और बिना रुके लिखते गए।
एक दिन आ ही गया जब उनकी पुस्तक का विमोचन होना था। शहर के तमाम साहित्यकार बुद्धिजीवियों को आमंत्रण दिया गया, भोजन पानी आदि की उचित व्यवस्था रखी गयी। निमंत्रण पत्र में वी आई पी जी की नयी किताब का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था किन्तु निमंत्रण पत्र में कार्यक्रम में परोसे जाने वाले भोजन का विस्तार से मीनू दिया गया था। इसके अलावा ’अन लिमिटेड भोजन’ का कैप्सन 2-3 जगह हाईलाइट किया हुआ था। वी आई पी जी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि साहित्यकारों के दिल का रास्ता उनके पेट से होते हुए ही जाता है। नयी किताब की उत्सुकता भले उन्हें कार्यक्रम स्थल तक न खींच कर ला पाए, किन्तु अन लिमिटेड भोजन वाला कैप्सन साहित्यकारों को अवश्य कार्यक्रम स्थल तक खींच कर ले आएगा।
और हुआ भी यही, पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में शहर भर के साहित्यकारों की भीड़ जमा हो गयी। प्लान के मुताबिक प्रवेश स्थल पर ही कैटरिंग वाले ने भोजन की व्यवस्था कर दी थी। प्रत्येक व्यंजन की महक साहित्यिकारों की कल्पना शक्ति को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त थी । साहित्यकार अपनी कल्पना में ही भोजन का स्वाद सहित रसपान किये जा रहे थे।
कार्यक्रम शुरू हुआ। वी आई पी जी की नई किताब पर समीक्षा शुरू होने से पहले ही आगंतुकों को स्टार्टर आदि परोसने का काम शुरू हुआ। आगंतुक चटकारे लेकर स्टार्टर का आनंद लिए जा रहे थे। समीक्षक किताब की समीक्षा किये जा रहे थे किन्तु किसी भी श्रोता का ध्यान समीक्षक की और न था।
वेटर दो तीन दफा समीक्षक के सामने से गुजरा, लेकिन उनसे स्टाटर के बारे में नहीं पूछा। समीक्षक को ये डर था कि कहीं लम्बी समीक्षा के चक्कर में स्टार्टर ख़त्म न हो जाये इसलिए उन्होंने पुस्तक को साहित्यिक जगत के लिए अमूल्य धरोहर बताते हुए पुस्तक समीक्षा तत्काल समाप्त कर की। इसके बाद वेटर को इशारे से स्टार्टर लाने को कहा।
अन्य विशेष अतिथियों ने भी किताब से ज्यादा भोजन को प्राथमिकता दी और अपने सम्बोधन में किताब के बारे में कम बोलकर उपस्थित लोगो से उनके संपर्क, ताल्लुकात आदि के बारे में बता बता कर अपनी वाणी को विराम दिया। पूरे कार्यक्रम के दौरान तालियो की गड़गड़हाट बिलकुल नहीं सुनाई थी क्योंकि श्रोताओं के एक हाथ में प्लेट और दूसरे हाथ में खाने की चमच्च जो थी।
वी आई पी जी की पहली किताब का विमोचन हो गया। अगले दिन जैसाकि सभी को मालूम था समाचार पत्रों में वी आई पी जी की नई किताब के विमोचन का ही ज़िक्र था, वी आई पी जी के करीबियों का कहना था कि वी आई पी जी की पुस्तक को बेस्ट सेलर पुस्तक बनने से कोई नहीं रोक सकता। वी आई पी जी की पहली पुस्तक को अवार्ड देने के लिए कई संस्थाओं ने अपने द्वारा दिये जाने वाले अवार्डो की रेट लिस्ट के साथ वी आई पी जी से संपर्क किया। वी आई पी जी शीघ्र ही एक राज्य स्तरीय अवार्ड से सम्मानित होने वाले है ऐसा विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है…….!

(संबंधित चित्र अंतरजाल के सौजन्य से )

डॉ बी प्रकाश मूर्ति
नयापारा जगदलपुर
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