एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की समीक्षा
-सनत कुमार जैन
खचाखच भरे सभागार में मंचस्थ अतिथियों में पुराने और नये दोनों प्रकार के लोग दिखाई पड़ रहे थे। एक दो तो जब तब वाली स्थिति वाले थे तथापि वे मंचस्थ थे, ये उनका साहित्य के प्रति असीम अनुराग था या कि माइक के प्रति मोह उनके माइक पकड़ने के बाद समझ आना था।
खैर! कार्यक्रम उफान पर था। तभी माइक पर संचालक ने बोलना शुरू किया। बोलना शुरू क्या किया चापलूसी का नमूना पेश करने लगा। वो शायद किसी सरकारी ऑफीस का प्रभारी बड़ा बाबू था वहां मस्का पॉलिश करते करते वहीं आदत में आ गया था।
’हमारे नगर के वरिष्ठ साहित्यकार जिनको पूरा देश बल्कि पूरा साहित्य जगत भली भांति जानता है उनके ऊपर उनकी रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोध हो रहे हैं। वे आकर अपनी अमृतवाणी से आज के विमोचित ग्रंथ की गहन समीक्षा पेश करके ग्रंथ को अमर करेंगे। तो अपनी भरपूर तालियों से उनका स्वागत कीजिए श्रीमान डॉ अंगद जी का!’
सागर और मैं एक साथ पीछे की कुर्सियों में बैठे थे। सामने की कुर्सी में बैठने पर ध्यान से सुनने की मजबूरी जो रहती है। अलर्ट मोड में बैठना जो होता है।
तभी सागर मेरी जांघ में अपनी हथेली मारकर मुझसे बोला-’इस अंगद के बाप ने सही नाम रखा है इसका। देखना ये माइक पकड़ कर जो लटकेगा कि सारे आयोजन की ऐसी कम तैसी हो जायेगी। टाइम शेड्यूल बिगड़ जायेगा। मंच संचालन करने वाला बेवकूफ है क्या जो उसे पहले बुलाकर कार्यक्रम की बोहनी ही खराब कर दिया।’
मुझे सागर के कमेंट पर हंसी आ गयी। मैं हंसकर बोला-’भाई! वो तो ठीक है पर ये मंच संचालक कितना पॉलिश मार रहा है, ऐसा लग रहा है कि पूरा बटर यहीं खत्म कर देगा। ये अंगद है न इसकी लिखी पुस्तकों पर शोध क्यों हो रहा है पता भी है तुझे ? ये पहले उसी कालेज में उसी विश्वविद्यालय में एकाउंटेंट था। उसका फायदा उठा कर अपनी पुस्तकों को जबरन नये शोद्यार्थियों को थमा कर दबाव से शोध करवा रहा है। और ये चमचा संचालक उसकी तारीफ में कसीदे गढ़ रहा है। समझ नहीं आता ऐसी झूठी तारीफ करवाने पर एक लेखक को कैसे आत्मसंतुष्टि मिलती है।’
’हां, ये बात तो है ही! पर तुझे मैं एक और नयी बात बताता हूं। ये अंगद के नाम के सामने जो डॉक्टर लगा है जिसके लिये वो अपना सीना चौड़ा करके चल रहा है वो कैसे मिला उसे, पता भी है ?’ सागर की बातें सुनकर मेरी आंखें चौड़ी हो गयीं। मैंने प्रश्नवाची नजरों से पूछ लिया ’कैसे ?’
’आजकल मानद उपाधियां का रेट बीस हजार रूपये चल रहा है। गली गली में खुले विश्वविद्यालय अपने आपको जीवित रखने के लिये ऐसी उपाधियां खुलेआम बांट रहे हैं मतलब बेच रहे हैं। ये वैसे ही एक विश्वविद्यालय से खरीद कर लाया है।’
मैं सागर की बात सुनकर एकदम चौंक पड़ा मेरे मुख से बेसाख्ता निकला-’मैं नहीं मान सकता ये बात। तू झूठ बोल रहा है। ’मुझे तो लग रहा है तू अपना फ्रस्टेशन निकाल रहा है। तूने तो बहुत कोशिश की थी डाक्टरेट के लिये तुझे नहीं मिल पायी इसलिये तू ये आरोप लगा रहा है। ये ठीक बात नहीं है भाई! कितनी मेहनत का काम है ये डाक्टरेट की उपाधि लेना। उसके लिये हजारों पुस्तकों का अध्ययन करके नोट्स बनाने पड़ते हैं यूं ही एक दिन में थोड़ी होता है सालों की मेहनत लगती है।’
मेरी बात सुनकर सागर मुस्कराया और मेरी पीठ पर हाथ रखकर जवाब दिया।
’भाई! मैं भी यही बता रहा हूं कि डाक्टरेट की उपाधि लेने के लिये बहुत मेहनत लगती है। अच्छा तू ये बता इस अंगद को तूने कब डाक्टरेट के लिये यानी पीएचडी के लिये पढ़ते देखा है या कभी सुना था कि ये महोदय फलाने विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं!’
सागर का प्रश्न सुनकर मेरा मुंह बंद हो गया। वास्तव में ये विचार करने की बात थी कि अंगद के बारे में तो मैंने नहीं सुना था। बीते कुछ कार्यक्रमों से उसके नाम के सामने डॉक्टर लगाना शुरू कर दिया गया था मैंने भी ध्यान नहीं दिया। मैंने सोचा पढ़ने वाला है कभी पढ़ता रहा होगा और डाक्टरेट पा गया।
’बाप रे! इतना लोचा है इन भयंकर स्थापित साहित्यकारों में!’ मुझे अब तक विश्वास ही नहीं हो रहा है ऐसे फर्जीवाड़े पर।’
’तू अगर कहे तो हम दोनों के लिये एक साथ पीएचडी की ऐसी ही फर्जी उपाधि हफ्ते भर में दिलवा दूं ?’
सागर ने इस विस्फोट के साथ ही अपना मोबाइल निकाल कर नंबर दिखाया और तुरंत डायल करके बात भी करने लगा। उसकी बातों ने एक ही बार में सारा सच बता दिया।
तभी सामने बैठे दर्शक ने पीछे मुड़कर देखा, देखा क्या, घूर कर देखा। हम दोनों चुप होकर डॉ अंगद का उद्बोधन ध्यान से सुनने के लिये मजबूर हो गये।
’इस कार्यक्रम में आपने बुलाया धन्यवाद! मंचस्थ अतिथिगण सर्वप्रथम मूलचंद जी जो मेरे बचपन के सखा हैं उनको नमन करता हूं। उसके बाद उनके पास बैठे श्री अनामय जी जो जिला सहकारी बैंक के सीइओ हैं उनको प्रणाम करता हूं…..’
इस प्रकार अंगद जी ने मंच पर बैठे समस्त जनों का एक एक करके नाम लिया और सबको अलग अलग प्रणाम किया। इसके साथ ही उनकी महिमा का गुणगान करना भी न भूले। मंचस्थ अतिथियों के बाद बाहर बैठे लोगों को पहचान कर बोलने लगे- ’मुझे यहां नजर आ रहे हैं कविता के सशक्त हस्ताक्षर राम अवतार जी, श्री हुकुमचंद जी, श्री काले जी मैं इन सबको नमन करता हूं। इसके बाद अंतिम पंक्ति में बैठे सागर जी को विशेष नमन करता हूं। वे तो शहर की जान हैं। उन्होंने जाने कितने ही कार्यक्रमों का आयोजन कर शहर को जीवित किया है। इसके बाद………।’
’सागर! तुम्हारा नाम भी ले लिया है शायद इसलिये अंगद को चुपचाप झेल रहे हो।’ मैंने सागर को छेड़ा।
सागर मुझे देखकर मुस्कराया और बोला- ’देखना पुस्तक की समीक्षा में एक शब्द भी नहीं बोलेगा। सिर्फ यहां उपस्थित लोगों का नाम ले ले कर सबको नमन करेगा। अंत में कहेगा मेरे से कहीं ज्यादा अन्य विद्वान यहां बैठे हैं उनके सामने मैं क्या समीक्षा करूंगा। मुझे माफ करिये। इतना कहकर वापस अपनी कुर्सी में पसर जायेगा।’
सागर के इतना कहते कहते ही अंगद ने ज्यों की त्यों बातें कह दी। मैं हंस पड़ा। सागर का साहित्यिक कार्यक्रमों के संबंध में इतना सटीक आंकलन लाजवाब था।
अब मंच संचालक ने नये वक्ता को बुलाने के लिये पुनः चापलूसी शुरू की।
’हमारे बीच उपस्थित हैं राज्यपाल सम्मान से सम्मानित मोहन जी! आप आज विमोचित पुस्तक की समीक्षा के लिये अपना कीमती समय निकाल कर आये हैं। आपने राज्यपाल सम्मान पाकर अपने समाज को गौरवान्वित किया है…..।’
तभी सागर मेरी जांघ में थपकी मार कर बोला -’ये भी!’
मैंने पूछा -’क्या ये भी ?’
’अरे ये भी जुगाड़ से पाया सम्मान है। अरे यार! तुम बताओ साहित्यिक कार्यक्रम में साहित्यिक सम्मान का उल्लेख होना चाहिये अथवा तुम्हारे कर्मक्षेत्र की उपलब्धि का! वैसे भी ये सम्मान फिक्स होते हैं। हर साल हर जिले से एक को देना ही होता है। जो ज्यादा बोली लगाता है उसके गले ये सम्मान पड़ जाता है। और क्या!’
मेरा अचरज के मारे दिमाग घूमने लगा। मोहन सर का मैं काफी सम्मान करता था। उनके लिये मेरे मन में बहुत आदर भाव उमड़ता था। उन्होंने मुझे पढ़ाया नहीं था परन्तु उनके बारे में कई मुंहों से सुन चुका था कि वे बड़े महान हैं। इसलिये मेरे मन में भी उनकी एक महान छवि बन गयी थी। तभी कहीं छन-छनाक की आवाज आयी और वो छवि टूट गयी। मैंने मन ही मन कहा-’हे भगवान! ये बेइमानी की नींव पर बैठे साहित्यकार खुद को समाज सुधार का मसीहा बताते हैं। ये क्या समाज सुधार करेंगे! स्वयं तो आकंठ नकली आभूषणों से सुसज्जित हैं दूसरों को आभूषणों का क्या महत्व सिद्ध कर पायेंगे।
तभी मोहन जी का वक्तव्य आरंभ हो गया।
’मुझे जो राज्यपाल ने दो हजार दो में राजभवन में शिक्षा के लिये सम्मान दिया था उस समय मैंने बताया कि मैं…..परन्तु….किन्तु…..बाकी फिर कभी! आज विमोचित पुस्तक की समीक्षा मैं जरूर करता परन्तु मुझे यह पुस्तक दो दिनों पूर्व शाम को ही मिली। आप ही बताइये कोई कैसे एक दो ही दिन में पढ़कर समीक्षा कर सकता है। मैं पुस्तक के लेखक धमेन्द्र जी को धन्यवाद ज्ञापित करता हूं कि मुझे मंच में बोलने का मौका दिया।
इस बीच में आपको बताना चाहूंगा कि उत्कृष्ठ मंच संचालन कर रहे राघव जी ने इस मौसम में अपने घर के जो दो किलो तीन सौ ग्राम आम भिजवाये थे, वे काफी मीठे थे। बहुत दिनों से उनको धन्यवाद देना चाहता था पर वो मौका आज ही मिला है। मैं उनका हृदय आभार व्यक्त करता हूं। अगले बरस भी याद रखेंगे इसी उम्मीद के साथ पुनः धन्यवाद देता हूं। और हां, हड़बड़ी में मंचस्थ अतिथियों को नमस्कार करना भूल गया क्षमा चाहता हूं। सर्वप्रथम मैं………!’
मोहन जी ने वही प्रक्रिया अपनायी जो अंगद जी ने अपनायी थी। अपनी जेब से खूब बटर निकाल कर अतिथियों पर लपेटा खूब तारीफ की और ’जय हिन्द जय भारत’ कहकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये।
तभी मंच संचालक ने पुनः चमचायी का कार्य आरंभ किया और अबकी एक महिला कवियत्री को आमंत्रित किया।
’रचना जी जिस मंच पर जिस महफिल में शामिल होती हैं वो मंच और महफिल उनमें खो जाती है। ऐसी महफिलों की जान आपके सम्मुख आ रही हैं अपनी खनकती आवाज के साथ। वे जब बोलती है तक ये माहौल शांत हो कर उनको निहारने लगता है। तो आइये अब हम सुनते हैं चंदा जी को!’
इस बार आश्चर्य बरस गया संचालक ने ताली बजाने को कहा भी नहीं और तालियों से पूरा सभागार गूंज उठा।
’जी, आप सभी को मेरा प्रणाम!’ कहकर वो हद से ज्यादा झुक अभिवादन करने लगी। ’मैं इस मंच से श्री राघव जी जो धन्यवाद देना चाहूंगी कि उन्होंने मुझे कार्यक्रम की शुरूआत में ही बुलाकर उपकृत कर दिया है। वो मेरे एकदम घनिष्ठ मित्र हैं मैं उन्हें अपना सबकुछ मानती हूं पर वे कभी भी भेदभाव नहीं करते, जब उनको बुलाना होता है वे तब ही बुलाते हैं। चूंकि मुझे घर में आवश्यक कार्य है और उन्होंने मुझे बुला लिया इसलिये उनको धन्यवाद देना तो बनता ही है। समीक्षा पर तो अनेक वक्ता कहने वाले ही हैं मैं आपको अपनी बहुप्रचारित कविता सुनाना चाहूंगी। जरा तालियां बजाते जायेंगे तो अच्दा लगेगा।’ कहती हुयी चंदा जी मुस्कराने लगीं।
’मैं तुममे समा जाऊं, तुम मुझमें समा जाना।
मैं तुम्हारे पास आऊं, तुम मेरे पास आना
ये तुझे मुझे जिन्दगी मिली है जीने के लिये
ये महत्वपूर्ण बात, आपाधापी में भूल न जाना।’
तभी सभागार से आवाज आयी ’एक बार और! बहुत सुंदर पंक्तियां! एक बार और!’
मैं आवाज की ओर अपना सर उठाकर देखा, हंसी छूट गयी और मुंह से निकल गया- ’कबर में पांव लटके हैं और मन से भटके हैं।’ मुनि भाई थे। गजलकार! पैंसठ और सत्तर के बीच झूलते हुये। सींक जैसी काया, दबा कुचला सा चेहरा! उनका मन हिलोरें मार रहा था। एक बार और एक बार और; कहते हुये ही उनकी सांस फूल सी गयी थी! सागर मुझे देखकर मुस्कराने लगा।
मुस्कराकर अपनी पंक्तियां दोहराने के पश्चात कविता की अगली पंक्तियों पर पहुंच गयीं चंदा जी।
’तुम आक्सीजन हो, तो मैं हाइड्रोजन हूं
मुझसे मिलकर पानी की तरह बन जाना।
ये रसायन विज्ञान भी कितना अद्भुत है
दो इंसानों से मिलकर प्रेम रसायन बन जाना।’
घनघोर तालियों के साथ ही उनकी विदाई हुई और जैसे तैसे मछली का जाल सभागार से कुछ मछलियों को अपने आगोश में समेटने के पश्चात मंच से उतर गया।
कमोबेश यही तरीका सभी ने अपनाया और आज विमोचित पुस्तक पर किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा।
मैं आश्चर्य में पड़ा समोसे पर हाथ साफ किया और एक पेड़ा दबाया। तब तक कार्यक्रम का अगला हिस्सा काव्यगोष्ठि आरंभ हो गयी।
प्रथम कवि के रूप में श्रीकांत जी ने काव्य पाठ आरंभ किया।
’मैं पहले मंचस्थ अतिथियों को नमन करता हूं। जिसमें सर्वप्रथम राघव जी….!’
तमाम तारीफ करने के बाद आगे बढ़े।
’आज जो पुस्तक विमोचित हुयी है मैं उसकी समीक्षा कुछ कहना चाहता हूं। जरा गौर फरमायेंगे। पुस्तक का कवर पेज बढ़िया है। पन्ने तो खूबसूरत हैं ही, छपायी भी उच्च क्वालिटी की हुयी है। सुना है निन्यानबै पेज हैं। मैंने तो पुस्तक देखी नहीं है। अगली बार सौ पेज ही रखें सौ से कम न रखें। मेरी शुभकामनाएं हैं लेखक महोदय के लिये। अगर वे मुझे पुस्तक देते हैं तो मैं और गहन समीक्षा करना चाहूंगा। और अब सुनिये मेरी पहली कविता……….!’
मैं सागर का हाथ पकड़ कर उसे खींच खांच कर सभागार से बाहर लाया और अपनी जेब से बाम की शीशी निकाल कर सर पर लगाया।
’यार सागर! आगे से फिर कभी किसी विमोचन कार्यक्रम में मत लाना, मैं तेरे पांव पड़ता हूं। मुझे तो समझ नहीं आता कि ये तथाकथित पढ़े लिखे लोग, साहित्यकार इनको समय का जरा भी मोल नहीं पता है ? हर वक्ता आकर मंच पर बैठे और बाहर बैठे लोगों की तारीफ करके आखिर क्या जताना चाहता है ? सभागार में उनका नाम लेकर उनको खुश करता है ? आखिर ये चमचागिरी वाला काम क्यों ? क्या श्रोताओं का समय फालतू है ? और वो मंच संचालक जिसका काम कार्यक्रम को बांध कर समय से पूरा करना होता है वह स्वयं भी चमचागिरी में फंस कर कार्यक्रम की ऐसी कम तैसी ज्यादा करने भिड़ गया था।’
’भई! आजकल यह फैशन है। मंच में पहुंचते ही वहां से सभा में उपस्थित जनों को पहचान कर उनकी तारीफ में दो शब्द कहने से उनको ऐसा महसूस होता है कि हम भी कुछ हैं भाई। तब तो हमारा नाम मंचस्थ ले रहा है। ये मानव की सम्मान ग्रंथि को सहलाने का काम है। इससे जिसका नाम लिया गया है वह वक्ता के संभाषण के अंत में ताली जरूर बजाता है। ये ’एक हाथ दे एक हाथ ले’ वाली नीति है। तुमने तो अभी यही देखा है। यहां तो मंच पर आकर लोग समीक्षा छोड़कर अपनी तारीफ करने लग जाते हैं कि मैंने ये सम्मान पाया, मैं विदेश गया, मुझे फलानी जगह बुलाया गया था। कुछ बड़े कवियों का नाम मंच में लेकर स्वयं को पढ़ा लिखा जानकार बताने की कोशिश करते हैं। जैसे वे बतायेंगे कमलेश्वर जी की रचना मैंने पढ़ी थी जिसमें कमलेश्वर जी ने यह कहा था। या फिर कहेंगे मेरे दादा जी मुंशी प्रेम चंद की गांव गये थे। एक ने तो यहां तक कह दिया कि महादेवी जी हमारे घर आयी थी। और क्यों आयी थी पता है तुम्हें ? सागर ने मुझसे पूछा। मुझे क्या पता था जो बताता। न में सर हिला दिया। तब सागर ने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुये कहा कि ’वो उनके चाचाजी से अपनी एक कविता संपादित करवाने आयी थी।’ मतलब किसी नामचीन साहित्यकार से नजदीकी बता कर स्वयं को ज्ञानवान बताने की असफल कोशिश!’
मैंने सर पकड़ लिया! ये साहित्यकार न हुये ये तो बेइमानी के चलते फिरते पुतले हो गये।
तभी मंच संचालक उनके करीब आता हुआ दिखाई दिया तो हम चुप हो गये। वह पास आकर सागर के कंधे पर हाथ रखकर पूछा-’और कैसा रहा कार्यक्रम ?’
सागर ने पल भर भी न लगाये जवाब देने में और कहा-’जबरदस्त कसावट से भरा हुआ। सारगर्भित!’
’चलो, आओ, पान खाते हैं।’ कहकर मंच संचालक राघव हमें खींचकर पान की दुकान ले आया।
चित्र अंतरजाल के सौजन्य से