अर्ध रात्रि का ज्ञान-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

अर्ध रात्रि का ज्ञान
पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 7.45 ए.एम. से 07.15 पी.एम. दिनांक-30 जून 2025

कवि तो फोकट में बदनाम है! (अगले जनम में भी मुझे माइक दिजो)
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

’सभी को मेरा नमस्कार! मै आपका बहुमूल्य समय ज्यादा नहीं लूंगा। बस कुछ ही शब्दों में अपनी बात रखूंगा। चूंकि कार्यक्रम के लिये संध्या सात बजे से लेकर साढ़े आठ बजे तक का ही समय निर्धारित है और कार्यक्रम भी आधे घण्टे विलम्ब से आरम्भ हुआ है अतः मैं आपका बहुमूल्य समय तनिक भी नष्ट नहीं करूंगा। मैं प्रयास करूंगा कि मैं अपनी बात कम से कम शब्दों में आप तक पहुंचा दूं। मंच पर बैठे आदरणीय संत श्री करूणा सागर जी को प्रणाम करता हूं। पास बैठे श्री ……?’ पास में खड़े मच संचालक की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखकर उन बैठे हुये महोदय का नाम जानना चाहा। मंच संचालक ने वहीं से होंटों को हिलाकर धीमे से नाम का उच्चारण किया।
’…….’
नाम समझकर नेता जी ने पुनः बोलना आरम्भ किया।
’हां, तो श्री हरीश जी जो इस तेरहंवी के कार्यक्रम के आयोजक हैं को नमस्कार करता हूं। और आखिर में बैठे सुप्रसिद्ध कवि महोदय को कौन नहीं जानता, उनका नाम ही उनकी पहचान है। मैं उनको भी यहां से प्रणाम करता हूं।
जैसा कि मैं आरम्भ में ही कह दिया था कि मैं आप लोगों का बहुमूल्य समय तनिक भी नष्ट नहीं करूंगा और अपनी बात सीमित शब्दों में ही कहूंगा।’ एक पल रूककर पुनः बोले-’सामने बैठे रज्जन भैया का मैं बड़ा आदर करता हूं। उन्होंने न जाने कितने ही युवाओं को र्का दिया है। उनकी समाजसेवा से मैं ही क्या यहां उपस्थित सभी जन प्रभावित हैं। उनकी बगल में बैठे दिलराज भाई को भी नमस्कार करता हूं।
हां, तो हम सब आज यहां इस कार्यक्रम में इसलिये एकत्रित हुये हैं क्योंकि हम सबके प्रिय सागर जी हम सबको नितांत अकेला छोड़कर परलोक सिधार गये हैं। आज उनकी तेरहवीं का कार्यक्रम हैं, श्रद्वांजलि का कार्यक्रम है। यहां चूंकि बहुत सारे वक्ता हैं अतः मैं कम से कम शब्दों में अपनी बात रखना चाहूंगा।’
दो पल रूककर कवि महोदय की ओर देखकर मुस्कराये औरतब बोलना आरंभ किया।
’चूंकि मैं उन कवि जैसा शब्दों का खिलाड़ी नहीं हूं अतः सीमित शब्दों के माध्यम से अपनी बात रखूंगा। मैंने कई मंचों से आपकी कविताएं सुनी हैं महोदय! आपकी लेखनी को प्रणाम करता हूं। आपकी वाणी में तो साक्षात माता लक्ष्मी विराजमान है।
खैर! ये अवसर है दुख का, करूणा का और साहस का! अब आप पूछेंगे कि साहस का अवसर कैसे हुआ ? चूंकि मृत आत्मा…’ मृतक के चित्र की ओर हाथ जोड़ते हुये ’ने अपने भरे पूरे परिवार में जाने कितने जनों को दुखी करके विश्राम धारण किया है, ये पीछे रह गये परिवारजनों को इस दुख की घड़ी में जीने की जो शक्ति धारण करनी पड़ रही है वही है इनका साहस! इस साहस के पल में हमें भी उनके परिवार के संग खड़ा रहना है। ये हम सबका कर्तव्य है। मैं इस अवसर पर एक घटना स्मरण करके आपको सुनाता हूं। एक बार ऐसे किसी दुखियारे परिवार के घर गया था। उस परिवार में असमय मृत्यु हुई थी। पूरा परिवार भयंकर दुखी था। पत्नी उधर रो रोकर अधमरी सी हो गयी थी तो छोटे छोटे बालक कुछ न समझ आने के कारण रोये जा रहे थे। भाई अलग रो रो कर थक गये थे। मृतक की मां का रूदन तो देखा नहीं जा रहा था। कुला मिलाकर वातावरण अत्यंत करूणामयी था। वो परिवार ऐसी दुख की घड़ी को झेल नहीं पा रहा था। कौन सम्भाले ऐसी दुख की घड़ी में उनको! मुझे वहां पर भी शोक प्रगट करने के लिये आमंत्रित किया गया था…’ यह कहते हुये मुख मंडल पर मुस्कान विराजमान हो गयी। ’मैं उस वक्त निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं था तथापि उस परिवार ने मुझे आमंत्रित किया था। सब ईश्वर की माया है, उनके आशीर्वाद से ही मैं उस घटना के तीन चार वर्ष पश्चात आपकी सेवा में जनप्रतिनिधि बनकर आपके समक्ष खड़ा हूं। ये आप लोगों का असीम स्नेह है जो प्रत्येक परिवार वाले मुझे ऐसे श्रद्वांजलि कार्यक्रम में आमंत्रित करते रहते हैं। मुझे अटूट विश्वास है कि दो बरस पश्चात होने वाले चुनावों में भी आपका स्नेह मुझे और मेरी पार्टी को इसी प्रकार मिलता रहेगा। मैं अपनी बात सीमित शब्दों में कह रहा हूं चूंकि बहुत से वक्ता अभी अपनी बात कहना चाहते हैं। उनके लिये भी समय बचाना मेरा कर्तव्य है। हम सब यदि अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें तो देश स्वर्ग बन जायेगा, हर कोई सुख शांति और …खैर! छोड़िये….सागर जी ने अपने जीवन में पहचान बनायी है उसका ही ये प्रतिफल है कि ये भीड़ उनके तेरहवीं और श्रद्वांजलि कार्यक्रम में उमड़ी है…..’


तभी उनके पास उनका पीए आ गया उसके हाथ में मोबाइल था कदाचित किसी का फोन आया था। नेताजी माइक के पास खड़े खड़े ही बात की।
’हां जी पहुंच रहा हूं मैं। सागर जी की आत्मा की शांति के लिये श्रद्वांजलि के लिये आया था….बस्स दो मिनट….मेगी की तरह तैयार….बस बस आप फोन रखा और देखो सामने….मैं ही दिखूंगा। ओके नमस्कार!’
फोन अपने पीए को पकड़ाकर अपने हाथ जोड़े सभा के प्रत्येक सदस्य को देखते हुये अपना मुखड़ा घुमाया और बोले
’अत्यंत आवश्यक कार्य आने के कारण मुझे कार्यक्रम के मध्य में जाना पड़ रहा है मैं क्षमा चाहूंगा आप सभी विशेषकर सागर जी के परिवार से…मैं सागर जी को ढंग से श्रद्वांजलि भी नहीं दे पाया। नेतागिरी भी बड़ा ही अशिष्ट कार्य है। जब तब फोन आ जाते हैं और अपनी बात अधूरी छोड़कर जाना पड़ता है। अच्छा सभी को नमस्कार! जयहिन्द! जय भारत! जय छत्तीसगढ़! जय बस्तर! जय जगदलपुर!’ वहां से हटते हटते पुनः कुछ स्मरण आया तो रूक कर माइक पकड़ा और..
’अंत दो पंक्तियां कहूंगा-
जिसे जाना था वो तो चला गया, तू रो रो कर क्यों आंखों में रक्त भरता है
परिवार के साथ जीना है अभी तो, शक्ति बहाकर यूं क्यों अशक्त करता है।’
वहां उतरते हुये सागर जी के भाई के कंधे पर हाथ रखा और पूछा-’ठीक रहा न मेरा वक्तव्य ?’
प्रत्युत्तर में उसने अपना मस्तक स्वीकृति में हिला दिया।
नेताजी के मुख की मुस्कान ठहाके की ओर गमन करने ही वाली थी की उनको सागर के परिवार के अनेक मुडाये टकले सर दिखायी दिये तो वे चेष्टापूर्वक अपना मुख बंद कर लिये।
तभी मंच से स्वर सुनायी दिया।
’मैं अब स्वामी जी को मंच पर आमंत्रित करता हूं कि वे अल्प शब्दों में श्रद्वांजलि स्वरूप अपनी बात रखें। चूंकि समय की बाध्यता है। स्वामी जी!’
’सर्वप्रथम बोलिये परमपिता परमेश्वर की जय! सर्वशक्तिप्रदाता की जय! करूणा सागर कृपानिधान की जय! कहते हैं ऊपरवाले की मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता।
कब्र पर यूं मजमा लगा कर आंसू क्यूं बहाते हो, खुदा के कानून पर काफिर सवाल उठाते हो!
हमें ये समझना होगा कि मौत तो आनी ही है, उसके दमखम की कोई भी मलामत नहीं कर सकता। बड़े बड़े सूरमा मारे गये तो हमारी आपकी क्या औकात!
कहा भी गया है-
आदमी आसमान जीत ले तब भी उसे खुदा के पास जाना है
आदमी जमीन कब्जा ले तब भी, उसे खुदा के पास जाना है।
इसलिये हमें अपनी जिन्दगी में अपनी जिम्मेदारियों को निभाना चाहिये ताकि हमारी जिन्दगी बगैर मकसद की न रह जाये। वास्तव में हम सब ऊपरवाले के बंदे हैं जब तक हमारी डोर उसके हाथ में है तब तक हम नाचकूद रहे हैं जैसे ही डोर छोड़ी उसने हम गये सीधे ऊपर! हमें बस्ती के लोगों का ख्याल रखना चाहिये दोनों वक्त ऊपरवाले को याद करते रहना चाहिये। ये जिन्दगी ऊपरवाले की बंदगी के लिये है न कि अय्याशी के लिये। रईसों की तरह जिन्दगी जीना, शराब कवाब और शवाब में गुम होकर अपनी यह कीमती जिन्दगी यूं ही बरबाद मत कर मेरे भाई! सुबह शाम दोनो वक्त ऊपरवाले का नाम लेकर ही अपने काम की शुरूआत कर।
इस बात ऐ शेर मुलाहिजा फरमायें-
ये हस्ती बस्ती है कि मिट जाती है कब्र में समा जाने के बाद लम्हों में
यहां की दो मुट्ठी मिट्टी डालकर चले जाते लोग अपने अपने रास्ते।
हड्डियों का पिंजर भी गल जाता है खाल मांस के गल जाने के बाद
और लोग हैं कि कब्र पर नाम लिखकर इंतजार करते हैं कयामत का!
इसलिये मेरी आप सभी से दरख्वास्त है कि अपनी कीमती जिन्दगी को पहचानिये उसे ऊपरवाले की बंदगी में लगाइये। मैं बहुत ज्यादा नहीं बोलूंगा इस श्रद्वांजलि के मौके पर अपने अलफाज से बस इतना ही कहना मेरे लिये काफी है कि मौत का इंतजार करना हिन्दू धर्म एक महत्वपूर्ण मसला है। जिसे ठीक ढंग से समझना हमारी जिम्मेदारी है। आपने इस दुनिया में देखा होगा कि आपके चाचा, चच्ची, फूफा, फूफी दादा बाबा, नाना कौन बचा है ? कोई नहीं बाकी, सारे खुदा को प्यारे हो गये। सबके हिस्से आयेगी मौत पारी पारी, आज उसकी है कल मेरी है तो परसों तेरी है। इस मौके पर वक्त की पाबंदी न होती तो मैं बहुत कुछ कहता परन्तु वक्त की नजाकत को देखते हुये मैं सिर्फ और सिर्फ ऊपरवाले का नाम जपना चाहूंगा। वही है जो ऐसे मुरिूकल वक्त में हमें हौसला दे सकता है। उसके रहम को पाना ही हमारी जिन्दगी का मकसद होना चाहिये।
आजकल मौतें जल्दी आ रही हैं। कोई भी अपनी जिन्दगी के लिये संजीदगी से नहीं सोचता है। लापरवाही से जिन्दगी जीते हैं। कुछ भी खाते हैं कुछ भी पीते हैं और कैसे भी जिन्दगी जीते हैं। हमें अपनी जिन्दगी में जानबूझकर जोखिम उठाने से बचना चाहिये। जिन्दगी को बचाने के लिये, सही तरीके से जीने के लिये कुछ कायदों को अपनाना जरूरी है। सागर भाई साहब को हर कोई जानते थे पहचानते थे और अपना खास मानते थे, क्योंकि वो थे ही ऐसे ही। रूपवान ऐसे मानों ऊपरवाले ने पहली फुरसत में उनको बनाया हो। पर ये खूबसूरती तो इस दुनिया हर चीज की तरह खत्म हो जाने वाली चीज है। सबकुछ इस मिट्टी में मिल जाना है। आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि रब ने हमें बनाया है तो हम उसके बनायी हुई चीज का सम्मान करें। उसकी सुरक्षा करें। उसे यूं ही जाया न करें। अभी आपने सुना था नेताश्री को उन्होंने कितनी साफगोई से बताया कि अपने साथ बीती घटना में। मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ नहीं वरना मैं भी कुछ बताता। श्रद्वांजलि सभा में अपने कुछ अनुभव भी बांटने चाहिये ताकि उसके माध्यम से जिन्दगी की सच्चाई समझ सकें। वास्तव में हम सब एक ऐसी सेन्टर पांइट पर घूम रहे हैं जहां से देख सबकुछ रहे हैं समझ सबकुछ रहे हैं परन्तु उसे सेंटर पाइंट से बंधे होने के कारण घूमने पर मजबूर हैं।
क्यों मजबूर हैं इसपर कभी आपने विचार किया है ?’
तभी मंच संचालक ने उनके सामने डायस पर एक पर्ची रख दी। स्वामी जी ने पर्ची पर अपनी एक नजर और वहां लिखा हुआ उनकी सोच के अनुकूल था। उन्होंने धीरे से अपना सर हिलाया और अपनी बात को निरंतर करते हुये आगे कहा।
’जिन्दगी की क्षणभंगुरता को अहसास हमें होना ही चाहिये, नहीं तो हम भटकते हुये दुनिया की खाई में गिरते ही रहेंगे। जैसे सागर जी अपने परिवार के साथ फंसे रहे, यूं ही जिन्दगी गुजार दी। वे चाहते तो जो उन्होंने जीया है वे उससे अच्छा जी सकते थे। परन्तु सही वक्त पर ये बातें याद कहां आती हैं।’
तभी मंच संचालक ने दोबारा पर्ची रख दी डायस पर। वे निर्विकार भाव से अपने कार्य पर लीन रहे।
अंत में एक बात कहूंगा कि परमपिता का नाम हमेशा हम हमेशा अपने जेहन में रखें। मेरे साथ सब मिलकर बोलिये परमपिता परमेश्वर की जय! जिसने यह दुनिया बनायी है उसकी जय!’
स्वामी जी के नारा लगाते ही सभा के सभी सदस्य उमंग से भरकर ’जय’ का उद्घोष किये।
’हमें हमेशा ऊपरवाले का शुक्रगुजार होना चाहिये ताकि उसकी दया पा सकें। बगैर उसकी कृपा से हम इस जिन्दगी में कभी भी खुश रहने की कल्पना नहीं कर सकते हैं। एक परमपिता से उसके बाशिन्दे ने पूछा -हे परमेश्वर! अगर ये दुनिया पल में नष्ट हो जाये तो सबका हिसाब किताब कैसे होगा ? क्या वो हिसाब किताब वाला खाता बही भी खत्म हो जायेगा ? या फिर वो हिसाब किताब इंसानों के जनम लेने के बाद फिर से सामने आयेगा ?
तब परमपिता परमेश्वर ने जवाब दिया -देखो बेटा! ऐसा है कि ये सब पूछने से अच्छा मेरे दिखाये रास्ते पर तो चलो सबकुछ पता चल जायेगा। इसका मतलब ये कदापि नहीं था कि परमपिता परमेश्वर को भी ये जानकारी नहीं थी इसलिये जवाब न दिया। वो तो सबकुछ जानता है। उसकी नजरों से कुछ नहीं छिपा है। हम नामाकूल लोग उनके ज्ञान की गहराई नापने की कोशिश करते रहते हैं। ये हमा….!’
अचानक बिजली गुल हो गयी! अब तक स्वयं को रोक रखे लोग एकाएक शांति का अनुभव करने लगे। पर स्वामी जी कदाचित शपथ ली थी कि इतने कालखण्ड तक बोलना ही है वे अंधेरे में और बिना माइक के भी अपने कार्य में लगे रहे।
’बिजली ने हमें अपनी आदत डलवा दी है। पर क्या लगता है वो हमको रोक सकती है ? सौ प्रतिशत नहीं रोक सकती है। किसी के न रहने से ये दुनिया रूकने वाली नहीं है। क्या सागर जी के चले जाने से ये दुनिया रूकेगी ? बिल्कुल नहीं।’
कड़ कड़ कड़! कांच के तड़क कर टूटने की ध्वनि सुनायी पड़ी। सबकी आंखें उस ओर ही घूम गयीं। देखा सागर जी के चित्र पर लगा कांच तड़कर टूट कर टुकड़े टुकड़े हो गिरा पड़ा था।
तभी स्वामी जी ने कहा-’दीपक की गरमी से कांच फूट गया है। चिंता की कोई बात नहीं। अब हम अपने वक्तव्य को विराम देते हैं। बोलिये परमपिता परमेश्वर की जय!’
अबकी बार सभाकक्ष से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। स्वामी जी के कुर्सी पर विराजमान होते ही सभाकक्ष की लाइट आ गयी। ऐसा अनुभव हुआ मानों किसी ने जानबूझकर लाइट बंद कर दी थी ताकि स्वामी की प्रवचननुमा श्रद्वांजलि का शीघ्रता से अंत हो वरना उनकी वाणी के आघात से नवीन तेरहवीं की तैयारी करनी पड़ सकती थी।


मंच संचालक ने कातरदृष्टि से सभा में उपस्थित लोगों को देखा और फिर वक्ताओं की ओर देखा। परन्तु वह विवश था श्रद्वांजलि कार्यक्रम को सम्पन्न कराने हेतु। उसने बड़े ही अनमने ढंग से पुकार लगायी।
’श्रद्वांजलि कार्यक्रम का समय समाप्त हो चुका है तथापि मैं बड़ा असहाय होकर श्रद्वांजलि हेतु वक्ताओं को आमंत्रित कर रहा हूं। कृपया निवेदन स्वीकार करें और समय का ध्यान रखें। अब मैं बड़े सम्मान के साथ श्रद्वांजलि अर्पण करने के लिये आमंत्रित करता हूं संत लाल संत जी को! कृपया समय का ध्यान रखेंगे इस निवेदन के साथ!’
’मैं मां सरस्वती को प्रणाम करता हूं। उपस्थित जनों को प्रणाम करता हूं। मैं सागर जी को प्रणाम करता हूं। सागर जी के परिवार वालों को प्रणाम करता हूं। मंच संचालक जी को नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। वे महत्वपूर्ण आयोजन में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। मंच संचालन का कार्य अत्यंत ही कठीन और दुसाध्य होता है। मैं आप सभी को वचन देता हूं कि अत्यंत अल्प शब्द खर्च करूंगा। मैं मां सरस्वती का उपासक हूं। नित उनकी सेवा में कुछ पंक्तियां रचता हूं। यदि आपकी अनुमति हो तो अपनी चंद पंक्तियों से आपका ध्यान चाहूंगा।
रचता हूं मां ज्ञानी, वरदानी, आशीष से तेरे कविता और कहानी
तेरे चरणों में आकर शीश झुकाता, आशीष से न बनूं अभिमानी,
मैं हूं कलम घिसता कागज पर, ज्यों किसान करे खेती किसानी
मैं करूं तेरी हरदम अगवानी, ज्यों सैनिक नारा लगाये जय भवानी।
अब मैं सागर जी के लिये कुछ पंक्तियां कहता हूं।
इसे लिख दिया है भगवान ने, तेरे संसार में आने के साथ ही
न जाने कितने ही मारे गये, लाख कोशिशों के बाद भी।
देख तेरी मौत तो आनी ही है, इसकी रस्में तो निभानी ही है।
मानव को ये गति तो पानी ही है चेहरे पर खुशी लानी ही है।
यदि आपकी अनुमति हो तो इस बरसा ऋतु पर चंद पंक्तियां गुनगुना लूं।’
किसी ने अनुमति दी या नहीं पर संत लाल संत शुरू हो गये। सभा अपनी कुर्सियों बैठी बैठी पहलू बदलती रही। और संत लाल संत जी अपनी कविताओं की कापी से कविता छांटने लगे। एक पृष्ठ पर रूक कर कविता पढ़ना शुरू किया।
बारिश का पानी गिर नहीं रहा धरती पर
बल्कि गिर रहा है वो धधकती छाती पर।
पिया का मन तो लगा है उसकी याद में
ढूंढ रही वो चेहरा रह रह कर पाती पर।
बरसा का हाल बुरा है चढ़ी ज्यों जवानी
डूब जाये वो भी बैठा इतरा रहा हाथी पर।
उजाला हैरान खड़ा बरसते बादल बीच
दीपक की आंखें चौड़ी साहसी बाती पर।
किसान की बाहों में ताकत भरी बरसा ने
खेता का राजा बन नाच रहा थाती पर।
सभी को पहली बारिश की हार्दिक बधाई देना चाहूंगा ये जानते हुये कि सागर जी का अंतिम संस्कार किये बारह दिन ही बीते हैं।’
तभी बिजली गुल हो गयी। सागर की फोटो के समक्ष जल रहा दीपक जोर से भभका और दीवार पर लगे टेंट के परदे को अपनी चपेट में ले लिया। एक तो अंधेरा ऊपर से ऊपर से बंद हॉल पल में धुंआ भर गया। दम घुटने लगा।
पर अचरज की बात थी कि वहां उपस्थित सभी जनों के मुख पर राहत भरी शांति छा गयी थी।
माइकरोगी चिंता में गुम थे। ये लाइट अचानक गुल क्यों हो रही थी ? प्रश्न मस्तक में घूम रहा था। सागर जी की आत्मा के अतृप्त होने या असंतोष से भरने की संभावनाओं से हर कोई चिंतित लग रहा था। शेष वक्ताओं के मुख पर सुख की आभा साफ साफ झलक रही थी।