अस्तित्व – महेश्वर नारायण सिन्हा

अस्तित्व  (पर्यावरण और जीवन के अंतरसंबंधों के अंतरद्वंद पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण कहानी)

महेश्वर नारायण सिन्हा  

पड़ोसी राज्य की धरती सूख गयी थी। वर्षा की एक बूँद के लिए लोग तरस गए । देव कुपित थे। उस राज्य के राजा ने चिंतित होकर सभी मंत्रियों, बुद्धिजीवियों, ऋषियों और संन्यासियों को बुलाया। समाधान खोजने की कोशिशें हुईं, विचार-मंथन चला। यह आसान नहीं था, पेड़-पौधे, जंगल सब वीरान हो चुके थे। तालाब और नदियाँ लगभग सूख चुकी थीं, कुएँ और डबरे पहले ही सूख चुके थे। केवल एक ही दृश्य चारों तरफ नज़र आता था- मृत्यु ।  पक्षी या तो मर गए या उड़ गए, मवेशी या तो चल बसे या कंकाल बन गए। पुरुषों और महिलाओं के साथ भी यही हुआ; बच्चे अपनी माँ की गोद में समा गए। खेत-खलिहान सूख गए। पूरे राज्य में केवल एक ही चीज़ जीवित थी – प्यास! पानी की एक बूँद भी कहीं से मिले! एक बुद्धिमान व्यक्ति ने सुझाव दिया – ‘महाराज! यह स्पष्ट है कि प्रकृति नाखुश है। हमने अपने ही निवास इस धरती के साथ क्रूर व्यवहार किया है ।  विलासिता और अन्यायपूर्ण संबंधों ने हमारी अपार क्षति की है। हम सब ऐय्यास और लापरवाह लोग हैं। केवल एक प्रबुद्ध व्यक्ति और एक उच्च मूल्य वाला व्यक्ति ही हमारी प्रकृति को प्रसन्न कर सकता है। तभी हम अस्तित्व की एक संतुलित स्थिति प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं!’  राजा आश्चर्यचकित था – क्या वास्तव में ऐसा था! उसने उत्तर दिया – ‘हाँ, उसके राज्य में लोग पाखंडी थे, एक उन्नत सिद्धांत का दावा करनेवाले, वास्तव में, वे क्रूर उपभोक्ता थे, प्रेम और सम्मान के मूल्य से रहित! लोग मांस खाते थे और गरीबों का खून पीते थे, बेशरम इतने कि अपने कार्यों को सही ठहराने के लिए भ्रामक तर्क दिया करते थे। आवाम जो निहायत मूर्ख थी, अक्सर उन बेहूदे लोगों का अनुसरण किया करती। लेकिन माँ प्रकृति ने इसकी अनुमति नहीं दी और अपना गुस्सा दिखाया। अफ़सोस, एक अंधे के लिए दृश्य क्या और एक बहरे के लिए संगीत क्या! अब बहुत देर हो चुकी है। हमारे पास दो ही रास्ते बचे हैं- एक, या तो इस धरती को छोड़ दें या फिर जल्दी से अपना चरित्र बदल लें। और, इस राज्य को बचाने के लिए, हमें एक मूल्यवान और बुद्धिमान व्यक्ति की तलाश करनी होगी; एक चरित्रवान व्यक्ति की तलाश करनी होगी जो प्रकृति से बात कर सके। एक संन्यासी की तलाश करनी होगी जिसकी भेंट हमारी प्रकृति ग्रहण कर सके। एक सच्चा आदमी ढूँढ़ना होगा जो प्रकृति को प्रसन्न कर सके। एक युवा तपस्वी था, लेकिन उसे उस शुष्क क्षेत्र में आमंत्रित करना संभव नहीं था। राजा ने पूछा – ‘क्यों? वह कैसा साधु है जो जीवों को बचाने के लिए तत्पर नहीं!’ मंत्री ने उस युवा तपस्वी के बारे में सब कुछ बताया जो अपने पिता, जो स्वयं उसके गुरु भी थे, की सख्त निगरानी में था। इसके अलावा, उसे अपने पिता की बनाई दुनिया से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी- एक समानांतर दुनिया, वास्तव में एक गैर-स्त्री दुनिया। यहाँ तक कि पौधे और छोटे जीव भी (सेल्फ-जनरेटेड)  स्व-उत्परिवर्तन के माध्यम से प्रजनन करते थे, न कि सामान्य नर-मादा के आह्वान और मैथुन के तरीके से! ‘ऐसा क्यों?!’- राजा ने आश्चर्य व्यक्त किया. ‘ऐसा इसलिए कि उस पिता की तपस्या एक स्त्री ने भंग किया था, तब से उस पिता और गुरु ने प्रतिज्ञा की थी कि वह अपने पुत्र को स्त्री ज्ञान से ही वंचित रखेगा, इसलिए उसकी अपनी बनायी दुनिया में स्त्री तत्व था ही नहीं।’   ‘बहुत बढ़िया!’ राजा दंग रह गया। ‘लेकिन राज्य को बचाने के लिए उसे बलपूर्वक या छल से आमंत्रित करना होगा। हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है- या तो उसे अपने घर ले आएं या फिर अपनी चिता पर स्वयं जा बैठें!’ * ‘ओ! सुंदर गणिके! तनिक वस्त्रों पर ध्यान दें। हमारे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है!’ – गणिकाओं की मुखिया, जो एक प्रौढ़ा थी, आदेश के लहज़े में कहा। ‘बहन! उसे खुद को कैसे प्रदर्शित करना है, इसका अभ्यास उसे है, क्या आप उसके सुन्दर शरीर को छिपाने की कला सिखाने जा रही हैं?’ – एक सहकर्मी ने हंसते हुए कहा। ‘अपने आप को संयमित करें! यह एक गंभीर मामला है! हमारे समक्ष बड़ी चुनौती है।’ – प्रोढ़ा का अंदाज़ गंभीर था। ‘हम गणिकाएं हैं, शर्म और  हया हमारे नियंत्रण में है। हम युवा हैं- पूरी तरह से बोल्ड और नग्न।’ – वे सब हंसी उड़ा रही थी। ‘ओह, चुप रहो! जीवन हमेशा मुलायम बिछौना नहीं, आपको एक ऐसे तपस्वी को आकर्षित करना है जो कभी किसी स्त्री को जानता तक नहीं, यहां तक कि उसे ये भी नहीं मालूम कि स्त्री क्या होती है।’ ‘फिर तो उसे चुटकियों में काबू किया, समझो!’ – सबने हंसी उड़ाई। ‘ध्यान से सुनो, तुममें से एक को इस उद्देश्य के लिए चुना गया है। प्रिय गणिके, चिंता मत करो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हें हर तरह से मार्गदर्शन मिलेगा, बस धैर्य रखो और जो मैं तुम्हें कहूं, ठीक वैसा ही करो। इस कला में परिपक्व होने के लिए तुम्हें सबक सीखना होगा, जिसका पहला पाठ है- धैर्य!  हिम्मत न हारना। मेरे पास आओ, मैं तुम्हें ठीक से कपड़े पहनाऊँ; तुम प्रशिक्षण ले रही हो, ध्यान रखना। देखो, तुम्हारा पहनावा… इसे व्यवस्थित रखो, अपनी नाभि से सिर्फ़ छह अंगुल ऊपर, और निचला पहनावा उससे चार अंगुल नीचे होना चाहिए। और याद रखो! तुम्हें उसे बेचैन करना है और खुद नहीं होना है! एक तपस्वी को  बेचैन करने के लिए, तुम्हें अपनी सांसों को नियंत्रित करते रहना होगा। इसलिए, सबसे पहले अपने रूप और पहनावे के पाठ सीखो। इसे ज़्यादा खुला मत रखो, इसे पूरा ढक कर भी मत रखो। उसे जिज्ञासु बनाओ। उसे इसके लिए उकसाओ, उस अनजान सज्जन को प्रकाश में आने दो, लेकिन धैर्य के साथ। तुम्हारे बालों का गुच्छा वैसा ही होना चाहिए जैसा ऋषि धारण करते हैं। एक समझदार स्त्री सही समय पर अपनी वेणी को सर्पिणी का रूप देती है। अपने कपड़े घुटने के नीचे ही रहने दो…, तुम्हें उससे एक पुरुष की तरह मिलना है। बहुत जल्द वह तुम्हें और देखने की लालसा से भर जायेगा।’ … तुम सबके प्रेमी इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन तुम सब बेशर्म, ठीक से कपड़े पहनो। तुम्हें पता है, एक पुरुष कैसे चाहता है कि तुम बेपर्दा हो, और बेपर्दा होने के लिए तुम्हें घूंघट में रहना पड़ता है, है न? मेरी प्यारी युवा गणिके, तुम मेरे साथ चलोगी!’ *   यह पवित्र उपवन था। युवा तपस्वी के तेज़ ने ऐसे एक शाश्वत संतुलन की स्थिति प्रदान की थी। शीतल, शांत, फिर भी खिलता हुआ और उष्ण। पक्षी गा रहे थे, पानी में मछलियाँ खेल रही थीं, जानवर स्वतंत्र रूप से घूम रहे थे। पवन की सुगंध सर्वत्र फैली थी। पत्ते गाते हुए और शाखाएँ नाचती हुई लग रही थीं। वातावरण संगीतमय था। ‘अहा! एक शाश्वत आनंद!’ – गणिका ने खुद से कहा। शाम को मंत्र का जाप करते हुए, वह लीन था, ब्रह्मांड को समर्पित प्रसाद! ‘ओह! उसका रूप कितना आनंददायक है! आनंद.. आनंद! चारों ओर एक शाश्वत शांति!’ प्रकृति अचानक हिल गई। क्या हुआ! यह विक्षोभ कैसा! बागों में कंपन होने लगा; हवा थोड़ी तेज चलने लगी, वातावरण अशांत सा हो उठा। पूरी व्यष्टि के मानो रोंगटे खड़े हो गए। हल्की हलचल किन्तु अज्ञात हलचल! सूरज डूबने वाला था, मगर उसे कुछ जल्दी थी। तपस्वी ने अपनी आँखें खोलीं। सूरज बादलों से ढका हुआ था। बगीचे में पशु-पक्षी शोर मचाने लगे थे। पेड़ से कुछ पत्ते नीचे गिरे। यह इस आश्रम के लिए एक नई बात थी। उसका दाहिना हाथ फड़क उठा! इसका क्या मतलब हो सकता था? क्या उसके अस्तित्व की संतुलित अवस्था में कुछ देने या समझने की भावना थी? एक तपस्वी के लिए पाने या खोने की भावना क्या होती है, क्यों उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा था! अपने जीवन में पहली बार उसने अपने अंदर असामान्य चीजों को घटित होते महसूस किया। वह अग्नि-कुंड की परीधि से बाहर आया। उसकी छठी इंद्री ने उसे आस-पास कुछ अजीबोगरीब घटनाओं के बारे में आगाह किया। शायद कोई चेतना उससे संपर्क कर रही थी, ‘वह कौन था..? कौन उसकी तपस्या को चुनौती दे रहा था? यह कैसी शक्ति थी?’ – उसका पौरुष आहत हो रहा था। ऐसे प्रश्न उसके मष्तिस्क में पहली बार उठ रहे थे। वह सचेत था, उसने देखा कि उसके रास्ते में बदलाव आ रहे हैं। जल्द ही एक अलग, तृप्तिकर सुगंध उसके अंदर प्रवेश कर गई, जिससे वह लगभग बेहोश सा हो गया। वह इसे पाना चाहता था। उस स्वाद को और अधिक जानने को उत्सुक हो उठा, यह कहाँ से आया है? पहली बार उसे कुछ पाने की इच्छा हुई, अनजाने में ही। तभी – उसने एक इंसान को देखा। सुंदर, लुभावना, वो उसी को घूर रहा था। वह स्तब्ध, उस नवागंतुक को देखता रहा! अहा! सन्नाटा छा गया। एक क्षण बीता। तपस्वी ने पूछा, लेकिन अपनी मानसिक स्थिति से अनजान- वह क्या पूछने जा रहा था। ‘तुम कौन हो, तुम्हारी खुशबू…, तुम्हारा रूप…, तुम कौन हो? एक चमत्कार! मैंने तुम्हारे जैसा आज से पहले कभी नहीं देखा। कृपया, मेरे पास आओ और अपना परिचय दो।’ गणिका शर्म के मारे, उसकी गर्मजोशी और तेज़ का सामना करने में असमर्थ थी, एक पल के लिए भी, वास्तव में वह कहीं खो गयी, और उससे दूर जाने की कोशिश की। वह अपनी सख्त ट्रेनिंग भूल चुकी थी। वह, अपनी स्त्रीत्व की भावनाओं से उद्वेलित, उसके सामने आ गई, तपस्वी और अधिक मंत्रमुग्ध हो गया! वह भीतर से आंदोलित हो रहा था । उसकी इच्छा हुई,  काश वह उसे पकड़ ले!  ‘मेरे पास आओ, तुम क्यों दूर जा रहे हो? तुम्हारा नाम क्या है? तुम कौन हो?’- उसने सवालों की एक श्रृंखला दागी। (तपस्वी को लिंगभेद नहीं मालूम था, सुविधा के  लिए वाक्यों की रचना लिंगभेद अनुसार होगी.) गणिका उपवन के रंग में लगभग खो गई, होश खो बैठी और उसकी गोद में गिर पड़ी, लगभग बेहोश! पर वह थी…, उसे महसूस कर रही थी, उसके दिव्य स्पर्श, उसकी दिव्य साँसें और सुगंध और उसकी दिव्य आभा! वह उसके आलिंगन में एक ही बार में मर जाना चाहती थी। वह सुन रही थी और जवाब दे रही थी। हाँ, उसका नाम आनंद था – एक प्राणी जो दूर जगत से आया था, राह भूला था, पर वहाँ सब कुछ मोहक और दिव्य था! ‘नहीं, तुम इस दुनिया से परे हो। मैंने तुम्हारे जैसा व्यक्ति कभी नहीं देखा। तुम मेरा सामना करने में क्यों हिचक रही हो?  तुम्हारी भंगिमा कौतुक जगाती है, तुम एक तरफ़ मुड़ जाती हो; कभी-कभी तुम पीछे.., क्यों! मैंने कभी किसी प्राणी में यह विचित्रता नहीं देखी, यह कंपकपी कैसी और क्यों?’ ‘क्योंकि….मुझे डर है, मैं दूसरे लोक से आयी हूँ।’ ‘ओह! यह आश्रम है और यहां डर का कोई स्थान नहीं है।’ तपस्वी तालाब के किनारे बैठ गया, सूरज लगभग डूब चुका था और पक्षी अपने खोल में चले गए थे, फिर भी वे शोर कर रहे थे और उत्साहित थे। वह उसकी आँखों के समक्ष थी – वह पूछना चाहता था – ‘तुम्हें किसने बनाया। तुम्हारी आंखें मुझे क्यों लुभाती हैं, और तुम्हारी चाल इतनी टेढ़ी-मेढ़ी और धीमी! तुम ऐसे खड़ी हो मानो आधी यहां आधी वहां, तुम मुझसे बातें करते समय अपनी दृष्टि कहीं और रखती हो, चंचल नेत्र हैं तुम्हारे! आश्चर्य! तुम्हारे बालों का गुच्छा … तुम्हारा पहनावा… तुम बिल्कुल अलग हो, तुम्हारे कपोल लाल, ठोड़ी पर तितली, भौंहें झुकी हुई और होंठ नारंगी…, ग्रीवा मानो शालिग्राम! तुम हमारी दुनिया से बाहर की हो।चलो बैठते हैं।आगंतुक!  ‘सचमुच!’ – वह मुस्कुराई और अपनी काली और बड़ी आंखों से उसे देखा। ‘सचमुच, मैं कदम-दर-कदम अपनी चेतना खो रहा हूं, एक-एक करके सब कुछ भूल रहा हूं। मुझे नहीं पता क्यों!’ – तपस्वी ने अपनी आँखें उसके स्तनों पर टिकाए रखीं, उन्हें मासूमियत से देखते हुए, उसे हमेशा- हमेशा के लिए अपने पास रखने की इच्छा लिए! वास्तव में, उसे शर्माना नहीं चाहिए था, लेकिन वह शरमा गई और खुद को छिपाने की कोशिश करने लगी, इस भंगिमा पर वह मदमत्त हो चला। वह उसे देखना चाहता था, उसे और भी ज़्यादा देखना चाहता था। वह चाहता था कि काश वह समय के पहिये को रोक पाता और उसे वहीं रोक लेता! उसने उसे गले लगाने की कोशिश की। स्त्री ने खुद को थोड़ा दूर धकेल दिया। ‘मैं तुम्हारी गोद में आराम करना चाहता हूँ।’ – वह बुदबुदाया। वह अपनी जीत पर मुस्कुराई, कि, कुछ सेकंड पहले जब उसने उसे पहली बार देखा था, तो उसे भी ऐसा ही महसूस हुआ था, और अब सिक्के का दूसरा पहलू सामने आ गया था! वह दिखावा करते हुए, एक पल के लिए खुद को जकड़ने देती है। तपस्वी ने आह भरी और गहरी साँस ली। ‘तुम्हारी खुशबू मादक है।’ ‘तुम कोमल, तुम्हारे पास एक जीवन है, जो समग्र है…, इतना जीवन कि वहां से सब कुछ फूट पड़े।’ – उसने उसके बालों को जो पिन में बंधे थे, कस लिया। उसकी कोमल त्वचा पर उन्हें फैलने दिया। साधु उस घने झुंड के अंधेरे से परे उसका मुखड़ा देखा…, वह जीवित क्यों है… ! वह थोड़ा पानी पीना चाहता था। गणिका उस पल का इंतजार कर रही थी, फिर उसने उसे मीठा पेय और स्वादिष्ट व्यंजन पेश किए जो वह अपने साथ लाई थी। उसने उन्हें ले लिया। वह उन पलों का वर्णन करने में असमर्थ था- वह सुंदरता और पदार्थ, दोनों का ग्रास बन रहा था! पाकर वह और पाना चाहता था। पहली मुलाकात के लिए यह पर्याप्त था, उसने अलविदा कहा और मुड़ गई, तपस्वी पूरी तरह से तल्लीन था और उसकी पृष्ठ, उसकी घुमावदार चाल को देखता रहा! खूबसूरत नग्न और मदहोश करनेवाली मुद्रा! तपस्वी ने चाहा कि काश वह समय के पहिये को और तेजी से घुमा पाता और अपने इच्छित लक्ष्य तक पहुँच पाता –  उनका मिलन।   और, उस रात वह पूरी तरह से सो नहीं पाई। वह उससे हुई मुलाकात के पलों को भुला नहीं पा रही थी। क्या यह हकीकत थी? उसने कभी नहीं सोचा था कि इस ग्रह पर वह किस तरह के प्राणी से उसकी मुलाकात होनेवाली थी। उसकी आभा, उसकी मासूमियत, उसकी रोशनी, उसकी मुस्कान, उसकी आवाज- बस उसकी कल्पना से परे थीं ।   दूसरी तरफ, युवा तपस्वी को अपने दैनिक कार्य और पूजा हालांकि वह कर रहा था, फिर भी बिना किसी चेतना के। उसका मानसिक और चेतन अस्तित्व उसके साथ नहीं था। ‘प्यारी गणिके! आपकी शुरुआत कैसी रही?’ ‘बहन! यह उम्मीदों से बढ़कर थी!’ ‘अच्छा! शुभकामनाएँ! क्या तुम घबरा गयी?’ ‘मैं अचेत से थी!’ ‘मतलब..?’ ‘मतलब, वहाँ सब कुछ दिव्य था, और वह उस वास्तविकता का प्रतीक था, पूरी तरह से आसमानी! मैं पूरी तरह से वहां खो गयी थी। ’ ‘होश में रहो! तुम्हें उसे बेहोश करना होगा। अगर तुम अपना होश खो दोगी तो तुम उस पर कैसे नियंत्रण कर पाओगी?’ ‘मुझे नहीं पता, इसके बावजूद यह एक अच्छी शुरुआत थी!’ ‘हूँ..! सावधान रहो। तुम्हारे समक्ष एक बड़ा कर्तव्य है।’ ‘ओह! सावधान रहो…, सावधान रहो, होश में रहो…! मैं वहां लुप्त गई थी, तब कुछ नहीं जानती थी। उस समय मेरे दिमाग में कोई दिशा-निर्देश नहीं थे, जब मैं उससे मिली।’ ‘तुम्हें करना ही होगा.., मैंने तुम्हें इसके लिए चुना है…!’ ‘मुझे प्यार हो गया है!’ ‘तो क्या हुआ।’ ‘तो क्या हुआ! क्या यह मेरी ओर से धोखा नहीं होगा? मैं उसके साथ इस खेल को खेलने में असमर्थ हूँ, अगर मैं उसकी गोद में आत्मसमर्पण कर दूँ…मुझे डर है..।’ ‘नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी। तुम खुद से संपर्क नहीं छोड़ोगी। तुम कर्तव्य से बंधी हो, वह तुम्हारी गोद में आत्मसमर्पण कर देगा। मुझे पता है।’ ‘मुझे डर लग रहा है…!’ ‘अब आराम करो। कल उससे मत मिलना, शुभ रात्रि।’ * ‘मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी।’ ‘थकी हुई लग रही हो!’ ‘मेरी नींद मुझसे रुठ सी गयी है..!’ ‘बिल्कुल मेरे साथ भी..!’ ‘सच में! तुम्हारे साथ भी.., क्यों?’ ‘तुम मेरे दिमाग में थी, मेरे चित्त में..!’ शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया। ‘लेकिन तुम क्यों?’ ‘कुछ नहीं!’ ‘ओह!’ ‘क्या मैं तुमसे एक सवाल पूछ सकती हूँ?’ ‘ज़रूर।’ ‘तुम्हें परेशान किसने किया..?’ ‘तुम्हारी दिव्यता और तुम्हारे हाव-भाव, मेरी कल्पना से परे… तुम अद्भुत हो..।’ ‘मै ऐसा नहीं मानती ..!’- वह झेंप गयी और उसके गाल लाल हो गए। वह अपनी स्त्रीत्व के साथ और भी शर्मीली और सुंदर लग रही थी। उसके शरीर में एक अनजानी सिहरन पैदा हो गई। ‘तुम्हारी हर चीज़ मुझे मोहित करती है- तुम्हारा रूप, तुम्हारी आवाज़…, इतनी प्यारी! हर कण से तुम रहस्यमय हो। मैं उनका वर्णन नहीं कर सकता।’ वह हँसी! संगीत की एक शाश्वत लय चारों ओर फैल गई। पक्षियों का एक समूह सामूहिक रूप से गाने लगा – उसे लगा कि वह किसी और सपनों की दुनिया में प्रवेश कर गया है। वो दुनिया किसी समाधि से कम नहीं थी। ऐसा अनुभव, जो उसे अपने ध्यान योग के दौरान हुआ करता था। अब, एक रहस्यमयी सुंदरता उसके भीतर तैरने लगी थी। ‘तुम इतने चुप क्यों हो?’- स्त्री उसे वापस सतह पर लाने की कोशिश की। ‘मैं तुम्हारा जाप कर रहा हूँ। मैं तुम्हें पढ़ रहा हूँ। मैं तुम्हें मंत्र की तरह सुन रहा हूँ। मैं तुम्हें शेष संसार में भी ढूंढने जा रहा हूँ। प्रतीत होता है, तुम्हारे अलावा कुछ भी शेष नहीं है। सिर्फ़ तुम ही हो। मैं हर अणु में प्रवेश पाना चाहता हूँ, ताकि मेरा अस्तित्व खो जाए। मैं इस सुंदरता से बाहर नहीं आना चाहता!’ ‘तुम इस तरह बात कर रहे हो जैसे कि अचेतन अवस्था को पहुँच गए हो, और अपनी चेतना खो बैठे हो, है न?’- वह मुस्कुराई। ‘मुझे नहीं पता…’ ‘क्या तुम्हें मुझमें सत्य के तत्व मिलते हैं…, मैं जानती हूँ कि तुम सत्य की खोज में ही लगे हो?’ ‘हाँ, ज़रूर। मुझे सिर्फ़ सत्य का अनुसरण करना सिखाया गया है।’ ‘मुझे लगता है, क्या तुम खुली आँखों से, खुली सतह पर सत्य को पा सकोगे..? क्या तुम रहस्यमय सत्य को खोजने की कोशिश करना चाहोगे?’ ‘मुझे पता है कि सत्य ने सौंदर्य के रास्ते मेरे दरवाज़े पर दस्तक दी है। क्या मुझे अपनी मूर्खता से इसे नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए?’ वह हँसी, वातावरण मादक सुगंध से भर गया। वह उस हँसी को फिर से महसूस करना चाहता था…! हालाँकि, उस संस्करण में यह सिर्फ़ नारीत्व की अभिव्यक्ति थी, जब कोई पुरुष उसकी प्रशंसा करता है, और प्रेमिका इस पर भड़क उठती है जैसे कि यह झूठ हो। वास्तव में, इसका मतलब है कि वे झूठ नहीं हैं! एक संन्यासी, स्त्री और उनके व्यवहार के बारे में यह समझने में असमर्थ था कि वह उसे वास्तव में क्या बताना चाह रही थी। ‘मुझे डर है, तुम भ्रमित हो गए हो।’ – उसने उसे और अधिक वाष्पित करने की कोशिश की। ‘क्या तुम एक मायावी प्राणी हो?’- उसने सीधा सा प्रश्न किया। उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें झपकाईं और कुछ देर के लिए बंद कर लीं – मानो कह रही हो- नहीं, नहीं, नहीं…! हाँ, हाँ ,हाँ, तुम सही हो..! नहीं, तुम थोड़े गलत हो, नहीं..,थोड़े सही…! नहीं, तुम बस मुझे ढूंढो…, मै कहाँ, कब, कैसी और किस तरह की हूँ,,, ढूंढो..! वह उन आँखों को चूमना चाहता था। वह उस दृश्य को अनंत काल तक कैद करना चाहता था। वह उसका चेहरा उठाकर उसे अपने हाथों में लेने के लिए उत्सुक था। वह अभी भी खोया हुआ लग रहा था। जितना मैं तुम्हारे करीब आता हूँ, तुम उतनी ही दूर होती जाती हो। जैसे-जैसे मैं तुम्हें और अधिक पाता हूँ, तुम एक और रहस्य बन जाती हो। वास्तविकता क्या है? क्या सच्चाई परतों के नीचे छिपी है? क्या तुम्हारे पास कई वास्तविकताएँ हैं? मैं तुम्हें कैसे उजागर करूँ, और एक सच्चे ‘तुम’ को कैसे पाऊँ? तुम्हारा पहनावा कितना कसा हुआ है, तुम्हारा ऊपरी शरीर कितना उछल रहा है – तन उभरा और ढंका हुआ। और, तुम्हारी सुंदर काली वेणी ने माला पहनी रखी है, मैं पूछना चाहता हूँ- क्यों?’ उसने अपना सिर हिलाया। ‘तुम बेचैन हो।’ उसने उसे दिलासा देने की कोशिश की। ‘मुझे लगता है, हाँ मैं हूँ..।’ ‘तुम्हें आराम करना चाहिए।’ ‘मुझे ऐसा नहीं लगता।’ ‘मुझे अब जाने दो।’ ‘मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।’ ‘कुछ समय के लिए क्या मुझे भूल नहीं सकते!’ ‘नहीं..!’ ‘दूरी बनाए रखो!’ ‘मैं दूरियों को ख़त्म कर दूंगा।’ ‘और मैंने जो खुद को दूर कहीं छिपा लिया तो…?’ ‘कहीं भी रहो, मैं तुम्हे ढूँढ लूँगा!’ ‘तो यह तो खतरे की बात है।’ ‘विपत्ति, खतरा …!? अगर यह कोई संकट है तो भी बहुत सुंदर है। मुझे सुंदरता पसंद है।’ ‘तुम एक तपस्वी हो, तुम्हें सुंदरता से दूर रहनी चाहिए।’ ‘ऐसा क्यों? मैंने अपनी दुनिया बनाई है, उन्हें देखो- तालाब, पक्षी, जानवर, हरियाली… सब फल-फूल रहे हैं। क्या वे सुंदर नहीं हैं? मुझे अपनी रचना बहुत पसंद है। वर्तमान वास्तविकता यह है कि तुम मेरी सारी रचनाओं से परे हो, अद्भुत..!’ हालाँकि वह एक गणिका थी, लेकिन उसे कभी ऐसा पुरुष नहीं मिला था जो उसे इतनी लगन और ईमानदारी से चाहता हो। अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से चाहता हो! उसकी इच्छा हुई, काश वह उसके गोद पे जा गिरे और कहे –  मेरे प्रिय, मुझे अंत तक थामे रहो! लेकिन, वह रक्ताभ हो गई, होंठ थोड़ी अचरज में और खुले। वे अंधेरा होने तक साथ बैठे रहे। शांति छा गई, बातचीत उनके बीच हो रही थी, साँसों के जरिये! * वह अर्धनग्न अवस्थी में थी, एक गुंबदनुमा घास के मैदान पर अपनी पीठ के बल लेटी हुई थी। वह, बहुत करीब, अपनी तरफ थोड़ा सा करवट लेकर लेटा था ताकि उसे देख सके। किसी अज्ञात कारण या सहज प्रवृत्ति से वह आगे बढ़ा और एक तिनके से, जो नरम थी,  उसे स्पर्श करने लगा। वह अपनी पीठ के बल पर उसे अपने पैर की ओर झुकते हुए और फर के नाजुक स्पर्श को महसूस कर सकती थी। उसके रोमों ने प्रतिक्रिया की, वे खिल उठे, और वह आनंद में इसे बार-बार किया। उसने गहरी सिहरन पैदा की…उसके पैर काँपने लगे… तपस्वी अपनी चेतना विलुप्त होते महसूस किया, वह क्या हासिल करना चाहता था, उसे खुद नहीं पता था… वह शांत थी; वह भी शांत था, लेकिन अंदर से दोनों आंदोलित हो रहे थे, द्रवित! अचानक, उसने उसे गले लगाया, पकड़ा और उसके स्तनों से खेलने लगा। फिर अपना सिर उठाया, पश्चिमी पहाड़ जहाँ सूरज लुप्त हो रहा था, लेकिन वहां इतनी रोशनी थी कि यह देखा जा सके कि गुंबद के आकार के पहाड़ में एक नया सौंदर्य विधान छिपा था! लेकिन, वह एक कठोर चट्टान था, बिना किसी संवेदना के, बिना किसी गर्मी के!  वह काँप उठी, उसकी कराह से शांत नदी उद्वेलित होकर किनारों की ओर बह चली। मगर नदी की धाराएं विवश थी, उन्हें वापस लौटना पड़ा…! वह आवरण से परे जाकर चीजों को देखना चाहता था, क्षीण वस्त्र भी नागवार था, वह उन्हें फेंक देना चाहता था, उसके ऊपरी हिस्से को खोलना शुरू किया। सारे बंधन, संस्कार मिटा देने को आतुर! मगर विरोध हुआ, दोनों एक दूसरे को किसी हत्यारे की नज़रों से देख रहे थे, मार दूँ या मर जाऊं! पुरुष अपनी आँखों से, स्त्री अपने मन की आँखों से! सब कुछ ख़त्म कर दें, जैसे! आह! स्त्री को भान हुआ जैसे उसके हर कण से बारिश हो रही हो, वह अपने ही भीतर डूब जाना चाहती थी! हालाँकि, वह उसके स्तनों के सिरे को पकड़ने में कामयाब रहा और चन्द्रमा की तरह अपनी धुरी में परिक्रमा करने लगा था, धीरे-धीरे…! वह मासूम लग रहा था, मानो चीज़ों से मंत्रमुग्ध हो गया हो…! यह मौत से भी बढ़कर था। हालाँकि, उसकी त्वचा की हर रेषें उसके लिए, पूर्ण समर्पण की इच्छा कर रही थी…,लेकिन एक कर्तव्य था। एक कार्य! एक बोध जो भीतर सावधान कर रहा था। उसकी इच्छा हुई कि काश वह किसी ठंडी नदी में गोता लगा पाती…! और वह सोचता, अपनी परिक्रमा जारी रखे, वहां तैरे, डूबे.. और मर जाए! ‘तुम्हें किसने बनाया?’- वह फुसफुसाना चाहता था, लेकिन हवा में एक अपरिचित सुगंध ने उसे चुप करा दिया था। शब्द कभी नहीं निकले! स्त्री को लगा उसका हर रोम पुलकित हो रहा है, यदि उसने उन्हें रोका तो वे सब विद्रोह कर बैठेंगे, वे सभी उसकी नसों में दौड़ रहे थे. उसे पता था कि वह ख़तरनाक चरम पर पहुँच गई है, तुरंत, वह उठी और खड़ी हुई, उसने अपने वस्त्रों को व्यवस्थित किया। वह असहाय दिख रहा था। अगर वह उसकी मदद कर सकता तो….! ‘ओह! क्या रोमांटिक विचार है, एक पुरुष, युवा और सुंदर, कभी नहीं जानता कि स्त्री क्या है! हमारे जाल में फांसने के लिए कितना उपयुक्त!’ – वह सोच रही थी, क्या सचमुच सब इतना आसान था? उसके लिए उसके पैरों की उंगलियों से लेकर उसकी जांघों की घाटी और नितंब, सब गहरी जिज्ञासा के विषय थे। वह उसे तब तक देखता रहा जब तक वह अंधेरे में गायब नहीं हो गई। * ‘बहन! मुझे माफ़ कर दो; मुझसे अब ये प्रयोग न होगा।’ ‘क्यों?’ ‘मैं कभी भी आप खो सकती हूँ, मैं आत्मसमर्पण करने वाली हूँ।’ ‘धैर्य रखो।’ ‘कितना? उसने मुझे दुलारना शुरू कर दिया है…, मुझे अनावृत करने लगा है!’ ‘ओह! बहुत सुन्दर! उसे मदहोश करती रहो…! बस इतना याद रखो, उसे सीमा पार न करने दो, उसे अंदर से उकसाने की कोशिश करो, तब- तक, जब- तक कि उसमें नारीत्व का पूरा तत्व बोध न हो जाये। उसकी रचना शक्ति तुम्हारी मोह शक्ति से पराजित हो। उसे अपनी दुनिया को पूरी तरह से भूल जाने दो, उसे सिर्फ तुम्हारी प्रवृति याद रहे। ऐसा होना तभी संभव है जब तुम उसके लिए रहस्य बनी रहोगी। पुरुष की वृत्ति तुम्हारी ओर बहुत आकर्षित होगी, रहस्यमयी बने रहो – आवरण के परे जाना एक सहज वृति  है, विशेषकर पुरुषों की, वह भी स्त्री सन्दर्भ में! पुरुष नग्नता पसंद करता है और ऐसा करने के बाद वह दूर हो सकता है। पुरुष को वास्तव में रहस्य पसंद है, तुम, उसके लिए एक रहस्य बनो, एक पूर्ण रहस्य…!’ ‘मुझे डर है कि मैं फिसल न जाऊं। मैं गीली लकड़ी की तरह हो गयी हूँ। मैं जलकर राख हो जाना चाहती   हूँ! मैं अपना अस्तित्व मिटा देना चाहती हूँ!’ ‘अच्छा है! एक अच्छा संकेत!’ – प्रशिक्षिका मुस्कुरायी – ‘क्योंकि मुझे यकीन है, वह भी उसी अवस्था से गुजर रहा होगा जिससे तुम गुजर रही हो। हमेशा याद रखो- तुम उसका लक्ष्य नहीं हो, बल्कि वह तुम्हारा लक्ष्य है।‘ ‘मुझे कब तक इंतजार करना होगा?’ ‘मुझे लगता है, मंजिल तुम्हारे करीब है। बहुत जल्द ही उसकी भावनाएं उस पर हावी हो जाएंगी। वह अपने नियमित दिनचर्या लंबे समय तक नहीं निभा सकता। ब्रह्मांड में चारों तरफ सिर्फ तुम्हारे चेहरे ही दिखेंगे। उसके पवित्र उपवन को तुम्हारे रंग में रंगने दो, सभी प्राणियों और पत्तियों को नर-नारी की इकाई बनने दो, ज्वालामुखी को फटने दो। अपनी सुगंध फैलने दो। क्योंकि, इस दुनिया में नर-नारी ही एक वास्तविकता है, इसलिए उसके बारे में चिंता मत करो, तुम्हें अपनी मंजिल मिल जाएगी, जल्दी ही! उसकी अस्वाभाविक दुनिया बहुत जल्दी खत्म होने को है।’   दो दिन तक वे दोनों एक दूसरे से नहीं मिले, हालाँकि वे दोनों आतुर थे, संन्यासी की स्थिति और भी बुरी थी।  बेचैन ह्रदय से चट्टानों में नक्काशी और आकार देना शुरू कर दिया, जो रुप उसे भेद रही थी। प्याज की सतह ने नग्न सुंदरता को मिटा दिया- उसके पावं, उसका चेहरा, उसके टखने तक…पैर की उंगलियाँ और सब कुछ…, फिर भी अंतिम सच से दूर…! उस दिन तपस्वी ने उसके शरीर को स्पर्श करने या उससे परे जाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, बल्कि उसे देखा और चट्टानों में उसका चित्रण करने लगा। वह वापस लौटी। प्रशिक्षिका ने उसके साथ हुई हर बात के बारे में पूछा।  ‘मुझे डर है कि मैं पहले ही मर न जाऊं..।’ ‘क्या तुम्हें मृत्यु का एहसास हो गया है?’ ‘मुझे लगता है, हाँ।’ ‘अच्छा, जीवन में एक मृत, एक तपस्वी अवस्था, एक शाश्वत आनंद और सुख! नहीं सुख भी नहीं, बस, शून्य! शून्य के अलावा कुछ भी मौजूद नहीं। खंड और पिंड दोनों ही शून्य! ’ ‘मैं उसके बिना अस्तित्वहीन हूँ।’ ‘वह भी।’ ‘सच में?!’ ‘मुझे यकीन है!’ * प्रशिक्षिका ने चेतावनी दी- ‘उसे रोको, उसे सुंदरता का विकल्प बनाने से रोको। मैं उसमे पूर्ण उन्माद चाहती हूँ। उसे चित्रण से रोको, क्योंकि इससे उसका जुनून पिघल जाएगा और वह तुम्हारी जगह अपनी कल्पनाओं से खेलने लगेगा। मुझे डर है कि तब तुम सफल नहीं हो पाओगी। मैं चाहती  हूँ कि वह एक उग्र प्रेमी बने – भौतिक, आध्यात्मिक सभी आयामों के साथ। जब तक वह इस अवस्था में नहीं आता, तब तक हम अपने लक्ष्य से उतने ही दूर हैं जितने हम शुरुआत में थे, इसलिए उसे ऐसा करने से रोकें और उसकी भावनाओं को और अग्नि दें। प्रिय कुंवारी लड़की! उसे उत्तेजित करती रहो…! खुद को पास और दूर दोनों जगह रखो। उसे बुलाओ… उसे अपनी आत्मा के पास बुलाओ और शरीर से दूर रखो!’ ‘बहन! तुम उसे क्यों अतिवादी बनाना चाहती हो! वह शांत प्रेमी क्यों नहीं बना रह सकता?’ ‘क्योंकि प्रेम एक शक्ति है, और यह हमारे मार्ग को सुगम बना देगा, तुम्हें पता होना चाहिए कि केवल प्रेम ही उग्रता को गले लगा सकता है, भँवर वहीं डूब सकती है जहाँ वह है। याद रखो, प्रेम कभी शांत नहीं होता, बल्कि उसके परिणाम शांत होते हैं’ * उनके बीच कुछ दिनों तक कोई मिलन नहीं हुई – प्रशिक्षिका ने ऐसा सख्त आदेश दिया था। युवा तपस्वी पागल सा हो गया। उसके साथ-साथ उसकी – रचना, एक आभासी दुनिया भी डगमगाने लगी। किसी भी स्तर पर कोई नियंत्रण नहीं था। दिन हो या रात, वह एक अनचाही मांग के दर्द से परेशान था। वह तालाब के किनारे, ढलान के ऊपर और घाटी में या तट के किनारे घूमता रहता। वह – उसके आनंद का स्रोत समझ के परे था। वह उसके साथ बीते पलों को पकड़ना चाहता था, लेकिन कैसे? यह एक बड़ा सवाल था। वे अधूरे शिल्प भी पर्याप्त नहीं थे। हालाँकि, वह अधूरा काम पूरा कर सकता था, लेकिन अभी तो वह केवल उसका साथ चाहता था। उसकी चाह, उसका आकर्षण ही उस पर राज करने लगा था। रात बहुत क्रूर हो गई। उसके बेचैन मन और शरीर के पास कोई जवाब नहीं था। उसके गुरु, (पिता) ने कभी इसके बारे में कुछ नहीं सिखाया। कुछ दिन और रात निकल गए। दर्द की इम्तहान हो गयी थी। एकांत जीवन, मगर कठोर! उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? अगर, वह एक पूर्ण इकाई था, स्वयं में सम्पूर्ण तो यह सब क्या था? क्या वह खाली था? अधूरा…? वह शून्य होना चाहता था। या, वह सब कुछ खो रहा था? वह दुविधा में था। उसका संतुलन हिल गया था। एक भँवर उत्पन्न हो गई थी. बादल गरजने और बिजली चमकने का समय आ गया था, लेकिन तपस्वी इन सारी बातों से अनभिज्ञ था। वह एक रहस्यमय, अवर्णनीय और अपरिभाषित दुनिया में था। एक रात उसने शपथ ली कि अगर भौतिक रूप में नहीं तो उससे आगे जाकर उसे आध्यात्मिक रूप से पा लेगा, एक दुनिया से परे दुनिया! एक सूक्ष्म दुनिया। आखिरकार, वह एक तपस्वी था, उसकी क्षमता अपार थी। ब्रम्हांड ने उसकी सुधि नहीं ली। उसके पास उसे बुलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था – ब्रह्मांड की तरंगों और परमाणुओं का ध्यान करते हुए! उसने ऐसा किया, उसके शाश्वत आह्वान से, अब तक प्रशिक्षिका की आज्ञाओं का पालन के परे, सीमा तोड़ दिया और उसे पाने के लिए निकल पड़ी। प्रशिक्षिका ने उसे पकड़ लिया, हालाँकि, वह खुश थी। यह एक सच्ची पुकार थी – उसने खुद से कहा। फिर भी, उसने उसे रोका और पूछा- ‘कहाँ?’ वहाँ सन्नाटा था। लेकिन वह उससे मिलने का फैसला कर चुकी थी। उसने उसे सीधे और शांत होकर देखा जैसे कि कहना चाहती हो- तुम्हारा क्या मतलब है? ‘तुम कहाँ जा रही हो? अभी आधी रात बाकी है…, खुला, खतरनाक और रहस्यमय। मैं रुक नहीं सकती…’ उसने निर्णायक ढंग से उत्तर दिया। ‘ठीक है! तुम्हें पता होना चाहिए कि मैं खुश हूँ…’ वह खुश हो गई। ‘क्यों?’ वह थोड़ा हैरान हुई। तुम्हारे दिशा-निर्देश कहाँ हैं?’ ‘मैं जिन चीज़ों के बारे में सोच रही हूँ… बढ़िया! तुम कायापलट कर चुकी हो…!’ ‘मुझे नहीं पता!’ फिर से वह थोड़ा हैरान हुई। वह हँसी, ‘अपने आप को देखो! तुम एक कठोर निर्णय ले रही हो, सिर्फ़ उसके लिए, अपना कर्तव्य, अपनी ज़िम्मेदारी और उसके लिए कुछ भी भूलकर!’ ‘हाँ! मैं कुछ नहीं कर सकती…’ ‘यही तो मैं देखना चाहती थी…, मैं मान सकती हूँ कि वह भी कायापलट कर चुका होगा।’ उसने मज़ाकिया ढंग से कहा। ‘मतलब…?’ वह फिर से चौंक गई। ‘मतलब, यह एक ऐसा प्यार है जो चमत्कार कर सकता है। क्या तुमने नहीं किया, तुम एक गणिका हो, एक पेशेवर? तुम खुद ही फैसला कर सकती हो- तुम अब क्या हो!’- फिर वह एक पल के लिए रुकी। ‘शुभकामनाएँ! तुम्हें जाना चाहिए।’ * रात बहुत कठिन थी। और, उसका दिमाग पूरी तरह शून्य, उसे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था, एक खाली दिमाग! वह जानता था, वह उसकी गोद में आयेगी, और वह उसके पास आ भी गई। उसने अपनी आँखें बंद कीं और देखा कि वह पूरी तरह उसके अधीन हो रही है। उसने अपनी आँखें बंद कीं और उन्ही बंद आँखों से इस दुनिया के सभी रंगों को देखा। यह कितना सुंदर था! यह नजारा बहुत जीवंत था। बंद आँखें इतना सजीव हो सकती थी! दोनों ने एक-दूसरे की शरण ली – बिल्कुल शांत और प्रशांत! हालांकि दोनों का अंतस प्रकम्पित था, एक सामान! उनकी वाहिकाएँ हिलोरें ले रही थीं। नीले नभ में क्षण भर के लिए अनगिनत चिंगारियाँ दिखी, जो बता रही थीं कि वहां सिर्फ चिंगारियाँ ही थीं । उन दोनों ने जो बंद आँखों से देखा, उन्हें भोगा भी। अपने चारों ओर उठाते -गिरते ज्वार के बीच वे पहुंचे। अंदर लाल रंग का एहसास हुआ। आह! उसने चाहा कि वह यहीं डूब जाए, दोनों ने एक दूसरे को कहा- यहीं डूब मरे! बा-होश और बे- होश! दोनो डूब रहे थे, तैर रहे थे, निश्छल प्रवाह! बिना रुके, बिना थके, आश्चर्य! बिना बोले खूब सारी बातें हो रही थी! एक साधारण सा तिनका कैसे किसी कुशल आदमी के हाथ आकर ब्रम्हास्त्र हो सकता था, अचूक! विध्वंसक!  उसकी शक्तिपात दोनों ओर, दोनों की ऊर्जा एक दूसरे से घुल-मिल गयी थी, एक-दूसरे में उनका अस्तित्व आत्मसात था। नहीं, वह अब नहीं रही। वह अब खुद को खो चुकी थी। वह उसमें बदल गई और बन गई। वह उसे पूरा महसूस कर सकती थी। वह उसे नए सिरे से पा सकती थी। वह समझ सकती थी कि वह कितना अथाह था। वह खुद को खो चुकी थी। वह उसे अनुभव करने लगी। एकांतप्रिय व्यक्ति। कच्चे व्यवहार वाला व्यक्ति। बेचैन व्यक्ति। एक ऐसा व्यक्ति जो बस मरना चाहता था। एक ऐसा व्यक्ति जो केवल मीठे पेय की तलाश में था। एक ऐसा व्यक्ति जिसके असंख्य परमाणु सिर्फ उत्सर्जन चाहते थे। एक ऐसा व्यक्ति जो उसके स्तनों पर लुट जानेवाला था। प्रेम ऊर्जा वाष्प बनकर वातावरण में छा गया। सब कुछ पिघल चूका था। इसीलिए पुरुष ने भी स्त्री के बारे में जानना प्रारम्भ कर दिया था, हालाकि वह स्त्री तत्व से ही अनभिज्ञ था। सभी तारे टूट चुके थे। वायु प्रवाह रुक गई। बहती नदी का भी कोई अस्तित्व नहीं था। गहरी जड़ों वाले पेड़ धरती में समाने लगे थे। समय की अवधारणा अब खत्म हो गई थी। समय रुक गया था। केवल एक निरपेक्ष स्थान और समय का अस्तित्व था। पूरा ब्रह्मांड एक में सिमट गया था – उनकी एकता में। यदि तब उन पलों में उनसे पूछा जाता कि ये संसार क्या है, तो दोनों एक-दूसरे की ओर इशारे करते! फिर कहते- हम! हम यानी जब आकाश ओस को बहा देता है और धरती अपना मैग्मा बहा देती है। उत्सर्जन एक टूटे हुए टुकड़े की तरह था जो अभी भी कुछ नया रचना बाकी था। सूरज रात्री को विस्थापित नहीं करना चाहता था। हम, यानी समस्त जगत! हम, यानी प्रकृति और पुरुष! खोज जारी रही, पुरुष और स्त्री के तरीके अलग -अलग थीं। पुरुष को आवरण प्रिय था, स्त्री को पुरुष की संवेदना! दोनों को नग्नता पसंद थीं, आवरण से परे, पर दोनों के मायने अलग थे। एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म! सूक्ष्म को अनावृत कैसे करते, वहीं पुरुष जब अनावृत रूप से मोहित हो जाता है, तो उसके भाव नग्न हो जाते हैं! स्त्री वही देखती है। सब कुछ गायब होने लगा, रंगों का विरोधाभास धीरे-धीरे चला गया, और एक चीज़ पिघल रही थी, बिना किसी छाया के…, बस एक रंग! यह चीज़ों का एक परम मिश्रण था, एक शाश्वत अंतिम इकाई…! पल थम गया था, रात तो खत्म होनेवाली थी नहीं, आस-पास का माहौल शांत हो गया था, फिर भी हवा सीटी बजा रही थी, आसमान चीख रहा था, नदी का पानी अभी भी अपने तल से प्रवाहित था, उल्लासपूर्वक अपने किनारे की ओर बढ़ता हुआ। आखिर इंद्रधनुष का उद्भव हुआ! नाव किनारे पर आ लगी। सबसे गीली लकड़ी सुलग कर राख हो गयी थी! उन्हें अपनी साँस महसूस होने लगी। उन्हें लगा कि अब वे सोच सकते हैं। उसके मन में पहला सवाल उठा – उसे किसने बनाया है? अद्भुत। यह कैसा अभिसरण था! दोनों विपरीत होते हुए भी इतना दोस्ताना! उसने उसकी भूख जगाई और उसे पूरा भी किया! धरती की तरह जो सब कुछ पैदा करती है। और, वह क्या था? एक बीज, एक पौधा जो पूरी धरती पर विजय प्राप्त करना चाहता था!?   * दो दिन बाद- ‘बेटा! तुम चिंतित लग रहे हो।’ – बूढ़ा पिता। ‘हाँ, मैं चिंतित हूँ। मैं शायद टुकड़ों में बँट रहा हूँ।’  ‘असंयम किसी भी मंजिल के लिए दुश्मन है।’ ‘मेरी चेतना विस्थापित हो रही है, जैसे इसे कहीं और प्रत्यारोपित किया जा रहा है।’ ‘इसे नियंत्रित करो; अन्यथा तुम लक्ष्य से दूर हो सकते हो।’ ‘मैं मोहग्रस्त हो गया हूँ।’ ‘यह संसार बहुत आकर्षक है। चिंता मत करो; अपनी प्रज्ञा का सहारा लो, भ्रम दूर करो, निर्भीक रहो और परम आत्मा की शरण लो।’ ‘नहीं, परम शक्ति चाहती है कि मैं वह बनूँ…एक प्रेमी!’ ‘नहीं, मेरे प्यारे शिष्य और पुत्र! परम शक्ति की कोई इच्छा या कामना नहीं है। उसकी कोई इच्छा नहीं होती, जो कुछ भी है वह तुम्हारी है।’ ‘लेकिन, मै भावुक क्यों हो रहा हूँ, क्योंकि यह संसार आकर्षण से भरा है! क्योंकि, ये इच्छाएँ हैं, सृष्टि आखिरकार मोह और आकर्षण के चुंबकत्व के कारण जो है, इसलिए आकर्षण है, और रहेगा।’ ‘क्या तुम्हें यकीन है? तुम्हें यह कैसे पता चला? मैंने तुम्हें कभी इसके बारे में नहीं बताया।’ बूढ़े साधु के मन में कई सवाल थे। उसका शिष्य एक और वास्तविकता के बारे में बात कर रहा था- क्यों और कैसे? एक व्यक्ति अपने विचलनों के बारे में बात करता है और इस ब्रह्मांड की वास्तविकता के बारे में भी। एक बार वह स्वयं विचलित हुआ था, लेकिन उसने खुद को उस पाप के लिए दोषी ठहराया था, जब वह गर्त में जा गिरा था, और अब उसका बेटा, युवा शिष्य में वही विचलन, आकर्षण और मोह के तत्व दीख रहे थे! आश्चर्य! कौन उसे इस तरह की बातें बताने की हिम्मत कर रहा है? एक स्त्री? ओह! यह कैसे संभव है? असंभव! या फिर वह किसी स्त्री को स्वप्न में देख रहा है – अवचेतन रूप से उसके भीतर सत्य का प्रकटन हो रहा है। संभावना थी। ऐसा हुआ हो, कुछ ऐसा जो गंभीर से भी ज्यादा गंभीर हो – कोई काम नहीं, कोई दिनचर्या नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई भजन नहीं, कोई प्रार्थना नहीं, कोई पूजा नहीं…! बेहतर होगा कि मैं उसे सच बता दूं, एक स्त्री की वास्तविकता! एक पुरुष-महिला इकाई की वास्तविकता! उसे झटका लगा। उसके अंदर से किसी ने पूछा-‘क्या तुम उसे एक स्त्री के बारे में बताने जाओगे, उसकी माँ के बारे में कैसे बताओगे?’ वह अचानक रुक गया – कैसे उसके अंदर एक पिता उभर आया था, और एक गुरु जो कि अभी खतरे में था! लेकिन एक पिता को तो जागना ही चाहिए। वह आगे बढ़ गया। उसके सामने वह गणिका प्रकट हुई, एक स्त्री! उसके सारे सवालों का जवाब। उसने विनम्रता से उनका अभिवादन किया। ‘चौंकिए मत, मैं जानती हूँ कि यह उपवन पवित्र है, एक स्त्री का प्रवेश इसकी पवित्रता भंग कर सकती है।’ – उसने बातचीत शुरू की। ‘तुम यहाँ क्यों हो?’ – बूढ़े साधक ने सीधे पूछा। ‘तुम्हें पराजित करने के लिए!’ – स्त्री प्राशिश्चिका ने उत्तर दिया। ‘क्या! असंभव!’ – बूढ़ा साधु आश्चर्यचकित था। ‘मैं जानती हूँ एक पुरुष के अहंकार को…।’ – महिला ने व्यंग्य किया। ‘मुझे विश्वास है, मेरा शिष्य बहुत विशेष है।’  ‘बधाई हो, वो तो है!’ ‘तुम्हारा क्या मतलब है? कोई कारण?’ ‘हाँ, कारण और परिणाम दोनों हैं; शायद तुम परिणामों से परिचित हो चुके होंगे। और, कारण सार्वभौमिकता है, स्त्रीत्व के तत्वों की सर्वव्यापकता!’ ‘ऐसी सर्वव्यापकता…? जो किसी पुरुष को अपना दास बना ले, और अंधकार की ओर ले जाए… !’ ‘सही नहीं है गुरु! जो चीज एक इकाई को बांधती है, वही पदार्थ को भी बांधती है। यह एक यात्रा है। तुम अकेले आए हो और अकेले जाओगे, लेकिन तुम्हें साथ में रहना है। यह इस ब्रह्मांड का चरित्र है। पूरी आकाशगंगा में यही सच दीखती है और इसी के गीत लिखी जा रही हैं। तुम मिस-काल्ड व्यक्ति हो, सुन नहीं सकते, देख नहीं सकते। इसके अलावा, तुम्हारी रचना आभासी, सूक्ष्म, अमूर्त है, और जमीन पर ठोस नहीं है। यह केवल पुरुष और स्त्री के प्राकृतिक संभोग के माध्यम से संभव है, तुम इस संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश क्यों करते हो? तुम, एक एकांतप्रिय व्यक्ति, एक स्त्री योनि से इतने भयभीत क्यों? सुंदरता का कोई सानी नहीं है, और सुंदरता महिला के तत्वों के सार में है, बस वह बेजोड़ है।’ ‘आह! मुझे पीड़ा न दे, स्त्री! स्त्री- सौंदर्य.., सौंदर्य विचलित करता है, और इसका कोई गंतव्य नहीं है। एक संन्यासी को लक्ष्य, एक अंतिम लक्ष्य की आवश्यकता होती है। अंतिम सत्य! और, स्त्री संसर्ग क्या है, समुद्र पर सिर्फ दोलन! और, आखिरकार, एक संन्यासी सीमाओं में नहीं बंध सकता। इस दुनिया की सीमा है, क्योंकि यह ठोस है, हमें अनंतता की खोज है, हमारा अभीष्ट वही है, जो नहीं है..!’ ‘सौंदर्य सरल है, सुलभ है और आपकी तपस्या के बारे में क्या सच है – कठिन, अवास्तविक और अप्राकृतिक, है ना?’ ‘एक आदमी को अपनी तपस्या पसंद है, देखो! मेरी दुनिया! यह मेरी तपस्या से उत्पन्न हुई है, न कि किसी महिला के गर्भ से, क्या यह सरल थी?’ ‘आप पूजनीय हैं!’ ‘कृतज्ञता, हह! परिपक्व महिला! अनंत स्वतंत्रता हमारा लक्ष्य है, अनंत के लिए, और यह आत्मा अपने लक्क्ष्य के लिए कभी भी अपने शरीर पर निर्भर नहीं रह सकता, कोई निर्भरता नहीं! यह हमारा शानदार दर्शन है। क्योंकि, आप एक महिला हैं और एक महिला की एक ही भाषा होती है – प्रेम और निर्भरता!  आप में निहित वास्तविक वृत्ति, एक पल के लिए आनंद प्राप्त करना आपको सब कुछ महसूस कराता है, आनंद का उपभोग आपकी आत्मा का एकमात्र उत्स है… क्या मैं सही हूं?’ ‘हां, लेकिन हमारे सुख और आनंद में प्रेम के तत्व मौजूद हैं, जिन्हें आप में से कोई भी इसे परिभाषित नहीं कर सकता है। और, सृजन के लिए तो आप भी निर्भर हैं।’ ‘हां, हम निर्भर हैं, लेकिन अपने ‘स्व’ पर, आपकी तरह नहीं – इस दुनिया में।’ ‘लेकिन आप भी हमारी तरह आनंद का उपभोग करते हैं; आपको स्वयं द्वारा निर्माण करने का आनंद मिलता है, कोई अंतर नहीं है। हम निर्भर हैं और आप भी, हम स्वयं द्वारा अभिप्रेत हैं, आप मस्तिष्क द्वारा मजबूर हैं – शपथ लेते हैं और फिर उसके पीछे चलते हैं, लगभग तरीके अलग-अलग हैं।’ ‘हां, लेकिन हमारे पास केवल हमारा ‘स्व’ है – बल, आपके पास कोई स्व नहीं है।’ ‘हमारा स्व हमारे प्रेम में है, और हमारा प्रेम अनंत है! क्या आपका ‘स्व’अनंत से परे जाने में सक्षम है, इस ब्रह्मांड को चुनौती दे सकता है!’ इस प्रश्न ने उसे अभिभूत कर दिया। वह परम को अपने भीतर समाहित करने, निःस्वार्थ होकर अनंत होने, इस ब्रह्मांड जितना अनंत है, चुनौती देने का साहस कर सकता था और इस महिला ने इसे सरल तरीके से बता दिया। वह मुंह फेर कर बोला – ‘प्रिय अद्भुत महिला, क्या आप मुझे अपने द्वार पर आने का उद्देश्य बताएंगी?’  ‘आदरणीय विद्वान! आपके आश्रम में तपस्या तो है, परंतु स्नेह और पूजा नहीं, आपके पास सूखा ज्ञान है, इसी प्रकार हमारा राज्य अत्यधिक उपभोग के व्यवहार से सूखा है, वहां बुद्धिवाद नहीं, तर्कपूर्ण जीवन शैली नहीं। वहां एक महिला का शरीर है, परंतु महिला के प्रति चेतना नहीं। हम लगभग रोबोट बन गए हैं। प्रदर्शन हैं, आंतरिक दर्शन नहीं, इसलिए हमारा क्षेत्र सूखा हो गया है। हमारे पास तपस्या की कोई ऊर्जा नहीं बची, कोई संवेदना नहीं।’  ‘विदुषी! मेरा बेटा भटक गया है, आप अच्छी तरह जानती हैं।’  ‘बिल्कुल नहीं, प्रिय गुरु! उसने प्रेम करना सीख लिया है; अब उसकी बुद्धि पूर्ण हो गयी है।’ ‘मुझे नहीं लगता।’ ‘मुझे लगता है कि तुम बिलकुल गलत हो। तुम्हारी तपस्या का हमें लाभ मिलेगा! हजारों प्राणी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, बस देखने की कोशिश कीजिये, अपने अहंकार की मायावी दुनिया से बाहर निकलने का प्रयास कीजिये।’ उसने सोचा – हे! सुन्दरी! तुम कैसे जान सकती हो कि एक भ्रष्ट-मार्गी उसी कारण, उसी तत्व के लिए फिर से टूट गया? यह तो केवल आकर्षण का मामला था- कितना कठोर तपस्या और मार्ग से च्युति  इतना आसान, आह! ‘भगवन्! चिंता मत करो। हम दो अलग-अलग दुनियाओं को पिघलाकर एक कर देंगे, और संतुलन बना देंगे।’ ‘देवी! मैं अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं हूँ, मुझे समग्र समीक्षा करने दीजिये।’ ‘अभी तक आपने क्या देखा नहीं …! अपने चारों ओर देखिये, परिवर्तन देखिये, चारों ओर एक भँवर बन गई है, यहाँ तक कि सूक्ष्म नाभिक भी आवेशित हो गए हैं और बेचैन हैं। वे सभी सम-भोग के लिए भूखे हैं…कृपया उन्हें देखिये।’ वह आगे बढ़ गया, लेकिन जल्द ही वापस आ गया, विचारपूर्वक, विराम के बाद बोला- ‘तो मैं देख सकता हूँ कि यह ग्रह लिंग पूजकों का स्थान बन गया है।’- स्वयं में बुदबुदाने लगा, उसने   अपने शिष्य और पुत्र को उस युवती के साथ आलिंगनबद्ध देख लिया था, अब समीक्षा की जरुरत थी ही नहीं। ‘और योनि भी इसमें जोड़ दीजिये।’- उसने उन्हें बीच में टोका। एक अंतिम प्रश्न है-  किस तरह स्त्री तत्व तुम्हारी दुनिया या हमारी दुनिया को आबाद कर सकती है।’  ‘कोमलता और आद्रता! बस यही संवेदना इस दुनिया को जीने और समझने योग्य रखती हैं. प्रकृति कठोर हो या कोमल, बस शुष्क न हो!’ समझा!- वह खुद के विचारों की भीड़ में था, अपने हार की माला पहने! सर झुकाए! वह उस महिला के करीब गया और पहली बार देखा कि वह अल्प वस्त्रों में थी और पारदर्शी थी, सौन्दर्य और सुगंध जिससे उसका बहुत पुराना रिश्ता था, उसे मदहोश करने लगी। उसने सोचा- मानो वह पल, वह स्थान और वे दोनों एक समग्र इकाई का निर्माण कर रहे थे! अगले  क्षण उसके हाथ स्त्री के कुण्डलिनी के गिर्द चक्कर लगाने लगे, दोनों की धुरियाँ जो अभी तक ब्रम्हांड के दो छोर थे, एक -दूसरे की परिक्रमा करने लगे। भौतिक अस्तित्व तो था, मगर आत्म-विस्तार की भी सीमा न रही! वे दो कहाँ थे, नहीं पता!