विश्व धरोहर-नमक का दारोगा-मुंशी प्रेमचंद

नमक का दारोगा

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे. अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से. अधिकारियों के पौ-बारह थे. पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाज़ी करते थे. इसके दारोगा पद के लिए तो वक़ीलों का भी जी ललचाता था.
यह वह समय था जब अंगरेज़ी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे. फ़ारसी का प्राबल्य था. प्रेम की कथाएं और शृंगार रस के काव्य पढ़कर फ़ारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे.
मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फ़रहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोज़गार की खोज में निकले.
उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे. समझाने लगे,‘बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो. ऋण के बोझ से दबे हुए हैं. लड़कियां हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं. मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूं, न मालूम कब गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख़्तार हो.
‘नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए. ऐसा काम ढूंढ़ना जहां कुछ ऊपरी आय हो. मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है. वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती. ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊं.
‘इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है. मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो. गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है. लेकिन बेगरज को दांव पर पाना ज़रा कठिन है. इन बातों को निगाह में बांध लो यह मेरी जन्मभर की कमाई है.’
इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया. वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे. ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था. लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए. वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था. वृद्ध मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए. महाजन कुछ नरम पड़े, कलवार की आशालता लहलहाई. पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे.
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जाड़े के दिन थे और रात का समय. नमक के सिपाही, चैकीदार नशे में मस्त थे. मुंशी वंशीधर को यहां आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफ़सरों को मोहित कर लिया था. अफ़सर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे.
नमक के दफ़्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था. दारोगाजी किवाड़ बंद किए मीठी नींद सो रहे थे. अचानक आंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया. उठ बैठे.
इतनी रात गए गाड़ियां क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है. तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया. वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढ़ाए हुए पुल पर आ पहुंचे. गाड़ियों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी. डांटकर पूछा,‘किसकी गाड़ियां हैं?’
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा. आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा,‘पंडित अलोपीदीन की.’
‘कौन पंडित अलोपीदीन?’
‘दातागंज के.’
मुंशी वंशीधर चैंके. पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे. लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न हों. व्यापार भी बड़ा लम्बा-चैड़ा था. बड़े चलते-पुरजे आदमी थे. अंगरेज़ अफ़सर उनके इलाक़े में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते. बारहों मास सदाव्रत चलता था.
मुंशी ने पूछा,‘गाड़ियां कहां जाएंगी?’
उत्तर मिला,‘कानपुर.’
लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया. दारोगा साहब का संदेह और भी बढ़ा. कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह ज़ोर से बोले,‘क्या तुम सब गूंगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?’ जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोड़े को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला. भ्रम दूर हो गया. यह नमक के ड़ेले थे.
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पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे. अचानक कई गाड़ीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले,‘महाराज! दारोगा ने गाड़ियां रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं.’
पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था. वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है. उनका यह कहना यथार्थ ही था. न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं. लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम आते हैं. यह कहकर पंडितजी ने बड़ी निशिं्चतता से पान के बीड़े लगाकर खाए. फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले,‘बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाड़ियां रोक दी गईं. हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए.’
वंशीधर रुखाई से बोले,‘सरकारी हुक़्म.’
पंडित अलोपीदीन ने हंसकर कहा,‘हम सरकारी हुक़्म को नहीं जानते और न सरकार को. हमारे सरकार तो आप ही हैं. हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया. यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएं और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें. मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था.’
वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा. ईमानदारी की नई उमंग थी. कड़ककर बोले,‘हम उन नमकहरामों में नहीं हैं, जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं. आप इस समय हिरासत में हैं. आपको क़ायदे के अनुसार चालान होगा. बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है. जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक़्म देता हूं.’’
पंडित अलोपीदीन स्तम्भित हो गए. गाड़ीवानों में हलचल मच गई. पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं. बदलूसिंह आगे बढ़ा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके. पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था. विचार किया कि यह अभी उद्दंड लड़का है. माया-मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा. अल्हड़ है, झिझकता है. बहुत दीनभाव से बोले,‘बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएंगे. इज़्ज़त धूल में मिल जाएगी. हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा? हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं.’
वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा,‘हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते.’
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ. स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कड़ी चोट लगी. किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था. अपने मुख़्तार से बोले,‘लालाजी, एक हज़ार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं.’
वंशीधर ने गरम होकर कहा,‘एक हज़ार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते.’
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया. अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा. धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए. एक से पांच, पांच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हज़ार तक नौबत पहुंची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भांति अटल, अविचलित खड़ा था.
अलोपीदीन निराश होकर बोले,‘अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं. आगे आपको अधिकार है.’
वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा. बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियां देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा. पंडितजी घबड़ाकर दो-तीन क़दम पीछे हट गए. अत्यंत दीनता से बोले,‘बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हज़ार पर निपटारा करने को तैयार हूं.’
‘असम्भव बात है.’
‘तीस हज़ार पर?
‘किसी तरह भी सम्भव नहीं.’
‘क्या चालीस हज़ार पर भी नहीं.’
‘चालीस हज़ार नहीं, चालीस लाख पर भी असम्भव है. बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो. अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता.’
धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला. अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियां लिए हुए अपनी तरफ आते देखा. चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे. इसके बाद मूर्छित होकर गिर पड़े.
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दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी. सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुंह से यही बात सुनाई देती थी. जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया.
पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनाने वाले सेठ और साहुकार यह सब के सब देवताओं की भांति गर्दनें चला रहे थे.
जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियां, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ़ चले तो सारे शहर में हलचल मच गई. मेलों में कदाचित आंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी. भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा.
किंतु अदालत में पहुंचने की देर थी. पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे. अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख़्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चैकीदार तो उनके बिना मोल के ग़ुलाम थे.
उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ़ से दौड़े. सभी लोग विस्मित हो रहे थे. इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह क़ानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों क़ानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था.
बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वक़ीलों की एक सेना तैयार की गई. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया. वंशीधर चुपचाप खड़े थे. उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र. गवाह थे, किंतु लोभ से डांवाडोल.
यहां तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दिख पड़ता था. वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था. किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती. मुक़दमा शीघ्र ही समाप्त हो गया.
डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं. वह एक बड़े भारी आदमी हैं. यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो. यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा. हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुक़दमे की बढ़ी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया. भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए.
वक़ीलों ने यह नमक का दारोगा सुना और उछल पड़े. पंडित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले. स्वजन बांधवों ने रुपए की लूट की. उदारता का सागर उमड़ पड़ा. उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी.
जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी. चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए. किंतु इस समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था.
कदाचित इस मुक़दमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते. आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ. न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चैड़ी उपाधियां, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है.
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वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था. कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुंचा. कार्य-परायणता का दंड मिला. बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले. बूढ़े मुंशीजी तो पहले ही से कुड़बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी. सब मनमानी करता है. हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहां बस वही सूखी तनख़्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे. लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं. घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएंगे. खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया.
इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुंचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया. बोले,‘जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूं.’ बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे. क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहां से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता. वृद्ध माता को भी दुःख हुआ. जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएं मिट्टी में मिल गईं. पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुंह बात तक नहीं की.
इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया. सांध्य का समय था. बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे. इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका. हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जड़े हुए. कई नौकर लाठियां कंधों पर रखे साथ थे.
मुंशीजी अगवानी को दौड़े देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं. झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे,‘हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए. आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन सा मुंह दिखावें, मुंह में तो कालिख लगी हुई है. किंतु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुंह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान न दे.’
अलोपीदीन ने कहा,‘नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए.’
मुंशीजी ने चकित होकर कहा,‘ऐसी संतान को और क्या कहूं?’
अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा,‘कुलतिलक और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!’
पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा,‘दरोगाजी, इसे ख़ुशामद न समझिए, ख़ुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की ज़रूरत न थी. उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूं. मैंने हज़ारों रईस और अमीर देखे, हज़ारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा किंतु परास्त किया तो आपने. मैंने सबको अपना और अपने धन का ग़ुलाम बनाकर छोड़ दिया. मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूं.’
वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित. समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं. क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य सी प्रतीत हुई. पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई.
पंडितजी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा. सद्भाव झलक रहा था. गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया. शर्माते हुए बोले,‘यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं. मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए. मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूं. जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर.’
अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा,‘नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पड़ेगी.’
वंशीधर बोले,‘मैं किस योग्य हूं, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी.’
अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले,‘इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए. मैं ब्राह्मण हूं, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूंगा.’
मुंशी वंशीधर ने उस काग़ज़ को पढ़ा तो कृतज्ञता से आंखों में आंसू भर आए. पंडित अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी ज़ायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था. छह हज़ार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोज़ाना ख़र्च अलग, सवारी के लिए घोड़ा, रहने को बंगला, नौकर-चाकर मुफ़्त. कम्पित स्वर में बोले,‘पंडितजी मुझमें इतनी सामथ्र्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूं! किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूं.’
अलोपीदीन हंसकर बोले,‘मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही ज़रूरत है.’
वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा,‘यों मैं आपका दास हूं. आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है. किंतु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है. ऐसे महान कार्य के लिए एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की ज़रूरत है.’
अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले,‘न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की. इन गुणों के महत्व को ख़ूब पा चुका हूं. अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड़ जाती है. यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तख़त कर दीजिए. परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे.
वंशीधर की आंखें डबडबा आईं. हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका. एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी के काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिए.
अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया.

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