अस्तित्व का संकट
लोग परेशान हैं कि उनका और उनके धर्म का अस्तित्व ख़तरे में है और इन अस्तित्वों को बचाने के लिये क्रांति करना बहुत आवश्यक हो गया है । इस शोर में यह सत्य बड़ी चालाकी के साथ छिपा लिया जाता है कि वास्तव में जिसे वे धर्म का अस्तित्व बता रहे हैं वह धर्म का नहीं धार्मिक संस्था का अस्तित्व है जिससे कुछ लोगों के हित जुड़े हुये हैं ।
अस्तित्व की चर्चा करते समय आदिवासी और मुस्लिम हितों के लिये चिंता व्यक्त करने वाले लोग ग़रीबी और अशिक्षा की भी चर्चा करते हैं । ग़रीबी की चर्चा के साथ अनिवार्यरूप से जुड़ा हुआ एक विषय और भी है, और यह है शोषण ।
प्रायः देखा गया है कि ग़रीबों के बच्चे सुविधासम्पन्न लोगों के बच्चों की अपेक्षा कहीं अधिक लगन और तल्लीनता के साथ न केवल अध्ययन में रुचि लेते हैं अपितु शिक्षा के उद्देश्यों को भी सार्थक करते हैं । अध्ययन उनके लिये उपासना है और संघर्ष भी । यह ठीक है कि अध्ययन की सुविधायें हर नागरिक को एक जैसी मिलनी ही चाहिये किंतु निर्धनता पहचान के अस्तित्व का संकट नहीं है बल्कि एक ऐसा सामाजिक कुष्ठ है जिसका कोई संतोषजनक उपचार अभी तक खोजा नहीं जा सका । इस कुष्ठ से आदिवासी ही नहीं सामान्य जातियों के लोग भी पीड़ित हैं । निर्धनता से मुक्ति के लिये सत्ता और समाज के हर मोर्चे पर बैठे लोगों को निष्ठा और बंधुत्व भाव से आर्थिक साम्यवाद के लिये कठोर नियम बनाने के लिये तैयार होना होगा ।
शोषण मनुष्य की एक आदिम मनोविकृति है जो उसे जाति, धर्म और रक्त सम्बन्धों की सीमाओं को तहस-नहस करते हुये अनधिकृत संग्रहण और सुविधाओं के दोहन के लक्ष्य को एन-केन-प्रकारेण प्राप्त करने के लिये प्रेरित करती है । शोषण अब किसी की बपौती नहीं रहा । हर व्यक्ति शोषण के अवसरों की ताक में घात लगाये बैठा है । ग़रीबी और जाति के बन्धन टूट चुके हैं, अवसर मिलते ही शिकारी अपने शिकार को दबोच लेता है । यदि वह असफल हो गया तो ग़रीबी, जाति और धर्म की दुहायी देने लगता है किंतु यदि सफल हो गया तो सीढ़ी-दर सीढ़ी चढ़ता हुआ शोषकों की अग्र पंक्ति में खड़ा होकर ताल ठोंकने लगता है । जिस दिन ग़रीब और शोषित लोग इस अवसर का परित्याग कर देंगे उसी दिन एक युगांतकारी क्रांति की नींव पड़ जायेगी ।
मनुष्य जीवन से जुड़े सामाजिक अस्तित्वों के संकट को मैं चार कोणों से देख पा रहा हूँ – पहला है नस्लीय अस्तित्व का संकट, जैसा कि भारत में कश्मीरी पण्डितों, बलूचिस्तान में बलूचियों और सीरिया में यज़ीदियों, कुर्दिशों और शाबैकों के साथ हो रहा है; दूसरा है राष्ट्रीय मूल्यों के अस्तित्व का संकट जो धर्मांतरण के साथ एक तीव्र तूफ़ान की तरह आता है और राष्ट्रीय मूल्यों को तहस-नहस करता हुआ रक्तबीज बन जाता है; तीसरा है सांस्कृतिक आक्रमण का संकट जो विभिन्न माध्यमों से समाज को क्षरित करता जा रहा है और चैथा है चारित्रिक और नैतिक अस्तित्व का संकट जिसे पूरी दुनिया के सभी भ्रष्ट देशों की सरकारों और नागरिकों द्वारा पोषित एवं पल्लवित किया जाता रहा है… किया जा रहा है ।
समाज के चिंतकों का एक समुदाय अपने नस्लीय अस्तित्व को लेकर चिंतित है, होना भी चाहिये, क्रूरतम हिंसा के सहारे नस्लीय उन्मूलन आज एक आम समस्या हो गयी है । सीरिया, इज़्रेल, अफ़गानिस्तान और बलूचिस्तान इस संकट से जूझ रहे हैं । आदिवासी समुदायों में भी अपने अस्तित्व को लेकर छटपटाहट देखी जा रही है । अपनी सांस्कृतिक जडों के क्षरण से व्यथित आदिवासी समुदाय आधुनिकता के साथ सामंजस्य बनाये रखते हुए अपनी पहचान को लेकर चिंतित है । समाज एक निरंतर गतिमान संस्था है जिसमें अन्य संस्कृतियों की परम्पराओं, मूल्यों, भाषा, वस्त्रविन्यास, भोजन आदि तत्वों का पारस्परिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । समाज की यही गतिशीलता उसे जीवित रखती है । आधुनिकता के साथ पुरातन की रक्षा पूरे विश्व के लिये चिंता का विषय रहा है । यह सांस्कृतिक संक्रांति का काल है, पश्चिमी देशों में भी अपनी जड़ों की चिंता लोगों को व्यथित कर रही है ।
नस्लीय उन्मूलन के हिंसक पाप का प्रतिकार कैसे किया जाय यह एक गम्भीर समस्या है जिसके समाधान के लिये उत्तरदायी लोग तनिक भी गम्भीर नहीं हैं । यहाँ हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते जब तक कि आयुध व्यापारी देश मनुष्यता और करुणा का सच्चा परिचय नहीं दे देते । जो हमारे हाथ में है वह है सांस्कृतिक, नैतिक और चारित्रिक मूल्यों की रक्षा । संस्कृति के साथ परम्पराओं और आस्थाओं को भी जोड़ कर देखा जाता है । आदिवासी समाज की व्यथा अपनी क्षरित होती परम्पराओं और आस्थाओं को लेकर है… होनी भी चाहिये । किंतु मुश्किल यह है कि अंतर-सांस्कृतिक प्रभावों की अपनी एक विशिष्ट गति होती है जिसके कई प्रेरक तत्व हमारे आसपास ही उपलब्ध रहते हैं ।
मैं मानता हूँ कि जनजातियों और आधुनिक जातियों के मध्य नदी की अंतरधारा की तरह एक विशिष्ट अंतरधारा होती है जो जनजातियों को मन्द गति से आधुनिक जातियों में रूपांतरित कर देती है । यहाँ आधुनिक जातियों से आशय उन सभी जातियों से है जो जनजातीय नहीं हैं । हम इन्हें शहरी या सभ्य जातियों की संज्ञा देने के पक्ष में नहीं हैं… क्योंकि ऐसा करना भ्रामक होगा । वास्तव में सही परिचयात्मक संज्ञा वनवासी-गिरिवासी होनी चाहिये । ये संज्ञायें गुणात्मक बोध की वाहक होने से कहीं अधिक उपयुक्त हैं । हम दिल्ली के अत्याधुनिक बंगलों में रहने वाले वनवासियों को वनवासी या गिरिवासी मानने के लिये तैयार नहीं हैं । उनकी जीवनशैली, उनका चिंतन, उनकी कार्यप्रणाली और उनके जीवन के उद्देश्य अब गिरिवासियों-वनवासियों जैसे नहीं रहे । इनका एक वर्ग ऐसा भी है जो न पूरी तरह वनवासी रह सका और न पूरी तरह आधुनिक हो सका । वहाँ मौलिक परिवर्तन जन्य तीव्र पीड़ा की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है ।
एक ओर अपने बच्चों के लिये आधुनिक शिक्षा और दूसरी ओर उनके लिये जल-जंगल-ज़मीन पर अधिकार की सुविधा की माँग को लेकर वनवासी चिंतकों के विचार सामने आते रहते हैं । दोनों अधिकारों के एक साथ उपभोग में सामंजस्य का अभाव होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों अधिकारों के लिये भिन्न-भिन्न जीवनशैलियों की माँग एक प्राकृतिक आवश्यकता है । हमें आधुनिक शिक्षा के व्यामोह और उसके दुष्प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा । अनुभवों से यह सिद्ध हुआ है कि आधुनिक शिक्षा नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित कर पाने में बुरी तरह असफल हुयी है । जब हम वनवासियों की सांस्कृतिक परम्पराओं और जीवन मूल्यों के संरक्षण की बात करते हैं तो हमें घोटुल की बात करनी होगी । जब हम आधुनिक शिक्षा के अधिकार की बात करते हैं तो हमें स्कूलों और विश्वविद्यालयों में तेजी से व्याप्त होते जा रहे नैतिक पतन और अपसंस्कृति की बात करनी होगी । घोटुल समाप्त हो गये हैं और आधुनिक शिक्षा के मन्दिर कदाचार, मूल्य हीनता और भ्रष्टाचार के केन्द्र बन चुके हैं । ऐसी स्थिति में वनवासी संस्कृति की रक्षा के सही उपायों पर गम्भीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है ।
जो लोग अपने समूह की पहचान बनाये रखने के लिये चिंतित हो रहे हैं उन्हें पहचान के मौलिक तत्वों पर भी विचार करना होगा । पहचान के लिये आवश्यक है वैचारिक परम्परा श्रृंखला, जीवनशैली, प्राचीन कृषिपरम्परा और जीवनमूल्यों की प्राचीन धरोहर । इन मौलिक तत्वों से इतर किसी अधिकार की माँग से अन्य आपूर्तियाँ तो हो सकती हैं किंतु पहचान खो जाने का संकट बना ही रहेगा ।
कई विद्वान अपने लेखों में भारत के मूलनिवासियों के अधिकारों और उनके अस्तित्व के संकट पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं । दुर्भाग्य से ये विद्वान भारत के मूल निवासियों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, दलितों, बौद्धों और मुसलमानों को ही सम्मिलित करते हैं, शेष सभी उनकी दृष्टि में विदेशी लोग हैं जो मध्य एशिया या रूस के आक्रमणकारी हैं और भारत में आकर बस गये हैं जिनके कारण भारत के मूलनिवासियों का अस्तित्व संकटपूर्ण हो गया है । हमें ऐसे तर्कहीन, वर्गभेद कारक, समाज विखण्डनकारी और राष्ट्रीय एकता के लिये घातक दुष्प्रचार से बचने की आवश्यकता है । ऐसा दुष्प्रचार कभी किसी समाधान का कारक नहीं हो सकता । हमें हमारी वास्तविक समस्यायों की पहचान करने और उनके निष्ठापूर्वक समाधान के लिये मिलजुलकर कटिबद्ध हो कर सामने आना होगा ।
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