लघुकथा-बकुला पारेख

बचपन

सुड़क सुड़क कर गरमा गरम दाल पीते हुए दाल बाफलों का आनंद ले रहे थे.. लाला जी, इस पर श्रीमती सीता देवी कुछ नाराज होते हुए बोली -“कितनी बार बोला है खाते हुए आवाज मत निकाला करो!“
पता है न, विदेश से बेटी और दामाद आ रहे हैं, उनके सामने ऐसी आवाज न निकालना…!
कुछ शरारत के साथ हंसते हुए लाला जी बोले -“दाल बाटी चूरमे का मजा दाल सुड़कने में भी है भाग्यवान..दाल शरबत थोड़ी है जो यूं ही गले में उतार दें…!’’
“हंमेशा अपनी वाली बात ही मत चलाओ।“ सीता जी बोली -“दामाद जी के साथ खाना खाने बैठो तो सभ्यता से खाना आवाज मत करना…!“
’’ठीक है तुम कहती हो तो ध्यान रखूंगा….!’’
और बेटी दामाद पधारे। कुछ दिनों रिश्तेदारों के घर मिलने जुलने के बाद कुछ फुर्सत में बैठकर बतिया रहे थे।
’’खाने में क्या बनाना है ?’’ पूछने पर आशीष ने बोला ’’दाल बाटी खाने का मन हो रहा है लंबा अरसा बीत गया देशी स्वाद लिए!!’’
श्रुति ने मां के साथ मिलकर खाना बनवा कर टेबल पर खाना लगवाया…।
दामाद आशीष एम.एन.सी. कंपनी में बड़ी पोस्ट पर कार्यरत रहे। उन्होंने एक नजर टेबल पर परोसे व्यंजन पर डाली और बोले-’’पार्टियों में एक हाथ में भारी प्लेट पकड़कर खाते खाते मैं बोर हो गया हूं …आज मेरा मन कर रहा है कि हम कुर्सी कि बजाय नीचे बैठकर भोजन का आनंद लें …जैसे हम बचपन में सभी के साथ मिलकर खाया करते थे….!!’’
सीता जी की तरफ देख कर बोले -’’माफी चाहता हूं मम्मी जी! मुझे पहले ही बता देना चाहिए था।’’
और उन्होंने भी श्रुति के साथ मिलकर पूरा भोजन नीचे लगवाया….।
लाला जी यह देखकर मुस्कुराए लेकिन उनकी बढ़ती मुस्कुराहट को सीता देवी ने आंख दिखाकर रोक दिया कहीं यह ना बोल पड़े कि -दाल को सुड़क सुड़क कर पीने में जो मजा है वह…………!
भोजन को अच्छी तरह नीचे की बैठक पर लगवा दिया, घर के कपड़े बदल कर आलथी पालथी बनाकर आशीष सभी के साथ बैठे ….खाना शुरू हुआ,
भोजन समाप्त होने के बाद आशीष बोले- ’’थोड़ी गरम दाल परोस न श्रुति…।’
और उन्होंने कटोरी से दाल पी। आवाज लालाजी जितनी जोर से तो नहीं थी पर थी तो सही ! लालाजी ने आशीष के सामने आश्चर्य के साथ मुझे मुस्कुराते हुए देखा …आशीष बोले -’’आज मैंने जी भर कर बचपन जीया पापा जी…!’’


बकुला पारेख
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