लघुकथा-करमजीत कौर

चबूतरा
भाई जान ने नया घर बनवाया। गृहप्रवेश पर हम सब उनके घर गये। आलीशान, खूबसूरत! एक बड़ा हॉल, खूबसूरत डायनिंग हॉल, दो बेडरूम, अंदर की ओर एक छोटा सुंदर आंगन। सब कुछ सुंदर था। अटपटा लगा तो बस आंगन में बना एक चबूतरा, आंखों में खटक रहा था वो। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ ही लिया-‘ये किस लिए?’
भाईजान ठहाका मार कर हंसे और बोले-‘जिस दिन मैं इस दुनिया से रूखसत होऊंगा, यहीं तो मेरा
बेटा मुझे नहलाकर तैयार करेगा। मैं मूक रह गई।
आज उस चबूतरे पर भाईजान भरी आंखों से अपने बेटे को नहला रहे थे अंतिम रूखसती के लिए।
अंतिम विदाई
वो लड्डू बांट रही थी। मेरे हाथ में भी जबरदस्ती पकड़ाते हुए कहने लगी-‘खा न! खाती क्यों नहीं?’ और मैंने आंखों में बरबस भर गये आंसुओं को जबरदस्ती दबाते हुए लड्डू उनके ही हाथ में वापस कर दिया।
‘नहीं दीदी! मुझसे नहीं खाया जायेगा। ये मौत की खुशी है या दुख!’ अजीब रिवाज है। इनके साथ खुशी के किसी भी मौके पर मैंने इतने मनुहार से तो कभी कुछ नहीं खाया और आज इस तरह लड्डू बांटा जाना।’
मैं भरे मन और भरी आंखों से लौट आई। काश भैया के जीते जी भी ये मंजर देखा होता।
आदत
परीक्षाओं का दौर देर रात तक पढ़ाई करना। हमारी खुली किताबों के साथ मां की आंखों का खुला रहना जरूरी होता था। वो नहीं जागेंगी तो हमें नींद आ जायेगी। फिर पढ़ाई कैसे होगी। इस तरह एक नहीं कई रातें जागते बीती उनकी। पर कभी किसी से भी शिकायत की हो याद नहीं आता। आज पहली बार पीठ में तेज दर्द की शिकायत से उन्हें अस्पताल लाना पड़ा। डॉक्टर ने एडमिट कर लिया। किसी को तो रात भर रूकना होगा। पर सबके अपने मसले, किसी को बीपी है जाग नहीं सकता तो कोई सुबह से थका है तो किसी को अस्पताल में टॉयलेट जाने की समस्या। मां बिस्तर पर लेटी हुई सब सुनती है अधखुली आंखों से और होंठों पर मुस्कुराहट लाकर सभी को जाने का इशारा करती है। कहती है-’मैं ठीक हूं, मुझे तो जागने की आदत है।’


करमजीत कौर
शिक्षिका
अशोका पाक के सामने, धरमपुरा
जगदलपुर जिला-बस्तर छ.ग. 494001
मो. 9425261429