गुडदुम-पाठकों से रूबरू

गुडदुम-पाठकों से रूबरू

हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब उसका मन अपनों के प्रति भावविह्ल हो जाता है। ऐसा लगता है जिस धरती, हवा, पानी के बूते उसका वजूद है, वह उसके लिए कुछ ऐसा करे जिससे उनके प्रति स्वयं की जिम्मेदारी प्रगट हो। यही चिंतन आज आपके हाथों में गुड़दुम के रूप में प्रस्तुत है। मेरा मानना है कि शुरूआत छोटी ही होती है। हम भी आज एक ऐसी ही छोटी शुरूआत के प्रति प्रतिबद्ध होकर खड़े हैं। अपेक्षाएं और आशाएं बड़ी हैं। इस स्वांत सुखाय माहौल के शांत जल में धीमे से एक पत्थर फेंका है, देखना यह है कि लहरें कैसी उठती हैं ? कौन उन लहरों पर सवार आता है ?
वैसे बस्तर का यह क्षेत्र दुनिया की नजरों से हमेशा जरूर दूर रहा परन्तु साहित्य, कला और संस्कृति के मामले में हमेशा ही समृद्ध रहा। हिन्दी साहित्य के साथ-साथ स्थानीय बोलियों में गढ़ा साहित्य भी काफी फला फूला। पर आज यह रीता इसलिए महसूस होता है क्योंकि लिपिबद्ध नहीं है। वाचिक परंपरा और संरक्षण के प्रति अनभिज्ञता ने इस ओर से ध्यान भटकाए रखा। फिर भी गीदम के करील, जगदलपुर के पं. गंगाधर सामंत, पं. रघुनाथ महापात्र, ठा. पूरनसिंह, लाला जगदलपुरी, आदि ने अपनी कोशिशों में कोई कमी न रखी। इसके बाद नारायणपुर के रामसिंह ठाकुर ने बहुत काम किया। साहित्य को जितनी जरूरत नवीन रचना की होती है, उतनी ही जरूरत अपनी संस्कृति के संरक्षण की भी होती है। सर्वप्रथम स्थानीय बोली के मानकीकरण का प्रयास किया जाता है तत्पश्चात धरोहरों को सहेजने का प्रयास होता है। इस बीच नवीन रचनाकर्म भी चलता रहता है। सभी विद्वानों ने विभिन्न ढंग से अपने-अपने प्रयास किये। पं. गंगाधर सामंत जी के रचनाकर्म में धार्मिक झुकाव ज्यादा था। लालाजी ने स्थानीय बोलियों के शब्दों का संकलन करके शब्दाकोश बनाने में रूचि दिखाई। बोलियों को सीखने के लिए व्याकरण तैयार किया। मुहावरों का संकलन किया। ये उनका बोलियों के प्रति योगदान था। इसके बाद उन्होंने लोक संस्कृति को सहेजने की कोशिश की। इसके लिए उनके लोकगीत, लोकवाद्य, लोक जीवन, लोक कथा, लोक संस्कृति का संकलन किया। यह एक बहुत कठिन और श्रमसाध्य कार्य है जो समय और समर्पण मांगता है। उनके दिखाए रास्ते पर चलकर अनेक लोगों इस दिशा में आगे आकर काम किया। यहां के रीति-रीवाजों को लिपिबद्ध कर एक महत्वपूर्ण कार्य हरिहर वैष्णव ने किया है। इस मूलभत कार्य के उपरांत अब बचा रह गया है उन वाचिक परम्परा के साहित्य के माध्यम से शोध कार्य। इस शोध के माध्यम से यहां के इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी सामने आने की संभावना है। वैसे भी बस्तर क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व बहुत ज्यादा है, परन्तु सचेत नेतृत्व की कमी और लगाव की कमी के चलते यहां की सांस्कृतिक विरासत का शोधपरक कार्य नहीं हुआ। अब तक जो भी कार्य हुए हैं वे स्वयं के अथक प्रयास के चलते हुए हैं और जुनून का नतीजा ही है जो नजर आ रहा है। लालाजी ने अपना जीवन इसमें खपा दिया अपने पीछे इसी ज्ञान का भंड़ार छोड़ गये। हरिहर वैष्णव ने रातदिन एक कर यहां की वाचिक संस्कृति को लिपिबद्ध किया। उन्हें शासकीय प्रकाशन का साथ मिला और सबकुछ अब पुस्तकीय रूप में उपलब्ध है। वर्तमान में एक और जुनूनी व्यक्तित्व हमारे बीच है जो बड़े ही जोर-शोर से बस्तर की सांस्कृतिक विरासत को लिपिबद्ध करने के लिए लगातार लगा है, जुटा है और वह है राजीव रंजन प्रसाद!
उनके प्रयासों से उत्तर, दक्षिण, मध्य बस्तर के शोधपरक ग्रंथनुमा सांस्कृतिक विश्लेषण लगातार आ रहे हैं। उन्होंने बड़ी ही बारीकी से बस्तर को जानने का प्रयास किया है। उनका कार्य योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ रहा है। इनके अलावा भी बहुत जीवट व्यक्ति अपने अपने ढंग से इस कार्य में लगे हैं। नारायणपुर से शिवकुमार पाण्डे, कोण्डागांव से यशवंत गौतम, जगदलपुर से विक्रम सोनी, रूद्र्र नारायण पानीग्राही, डॉ. रूपेन्द्र कवि आदि शोधपरक कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं तो जोगेन्द्र महापात्र जोगी, दादा जोकाल, शकुनतला शेण्डे, नवनीत कमल, भरत गंगादित्य, नरेन्द्र पाढ़ी, उर्मिला आचार्य, सोनसिंह पुजारी, सुभाष पाण्डे, धनेश यादव, पूर्णिमा सरोज, आदि प्रमुखता से स्थानीय बोलियों में साहित्य रचना कर रहे हैं।
वर्तमान में नयी पीढ़ी को कमान देने की तैयारी करना आवश्यक हो गया है क्योंकि नई पीढ़ी अपनी भरपूर ऊर्जा का प्रयोग कर, वर्तमान के संसाधनों का, सुविधाओं का उपयोग कर तेज गति से आगे बढ़ सकती है। हमें ऐसे गुरूओं की आवश्यकता है जो अपने नये शिष्यों का स्वागत कर उन्हें आगे के कार्यों के लिए मार्गदर्शन दें। नये हाथों में बागडोर जाते ही विशेष परिणाम की उम्मीद की जा सकती है।
अब लोगों को कार्य बांटकर कार्य कराये जाने की आवश्यकता महसूस होती है। एक हाथ में स्थानीय विवाह पद्धति को समझने की जवाबदारी हो, तो एक हाथ में उनकी खेती पद्धति जानने की। ऐसे ही काम बांटकर जल्दी से यहां की लोक संस्कृति को सहेजा जा सकता है। दुनिया बड़ी ही जल्दी भाग रही है उस गति से शोध कार्य पीछे छूटता जा रहा है।
पिछले दिनों सूत्र संस्था द्वारा ‘हल्बी भाषा सूत्र सम्मान’ शुरू किया गया। जिसमें हल्बी और अन्य स्थानीय बोलियों के लिए कार्य करने वालों को प्रति वर्ष सम्मानित करने का स्वागत योग्य निर्णय लिया गया। इस प्रकार के प्रोत्साहन से यहां का साहित्य भी समृद्ध होगा और शोधकार्यों में तेजी आयेगी। इसी कार्यक्रम में बस्तर विश्वविद्यालय में हल्बी शोध-पीठ की स्थापना पर एक मतेन ज्ञापन देने पर सहमती बनी। अगर ये काम हो जाता है तो स्थानीय बोलियों एवं संस्कृति के संरक्षण में मूलभूत कार्य होगा।
वर्तमान में हिन्दी जैसी करोड़ों लोगों के द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा पर संकट आ चुका है तब स्थानीय बोलियों को सहेजने की बात करना हंसी का कारण बन सकता है, फिर भी हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर इस मुकाम को पाने का प्रयास करें। ये हमारी धरती, हवा, पानी और स्थान के प्रति श्रद्धा है, उनके प्रति हमारी कृतज्ञता का प्रदर्शन है, तो जरूरत भी है। ये हम सभी को याद रखना होगा कि आने वाला समय फिर से हमें प्रकृति की गोद में शरण लेने को मजबूर करेगा। चाहे वह मजबूरीवश होगा, चाहे वह हमारा थोथा विकास होगा। हम अपने कर्तव्य का पालन बगैर शंका के करें परिणाम सुखद होंगे। यही हमारा उद्देश्य है यही हमारा प्रयास है। समकालिन साहित्य को स्थानीय साहित्य से रूबरू कराना भी एक उद्देश्य है। आप सभी का आर्थिक और मानसिक सहयोग अपेक्षित है।