लघुकथा-गोविन्द शर्मा

भूख


गांव के उस सरकारी स्कूल में माली के लेकर जमींदार तक के बच्चे पढ़ते थे। अध्यापक ने मौखिक परीक्षा लेते समय शर्त रखी कि-‘‘जिस बच्चे का जवाब सबसे अच्छा होगा उसे पांच अंक बोनस के भी दूंगा। सब बच्चे बारी बारी से ‘लगती’ और ‘मिटती’ शब्दों को वाक्य में प्रयोग करके बताओ।‘‘
अध्यापक को किसी का जवाब पसंद नहीं आ रहा था। हल्दू माली के बेटेे को देने पड़े बोनस अंक, कांपते हाथांे से । उसका जवाब था- ’’मेरे पिता के मालिक जमींदार के घर के लोगों को कभी लगती है कभी नहीं, पर हमारे घर में यह कभी किसी की पूरी मिटती नहीं- भूख।’’
रोटी


प्लेटफार्म पर वह मुझसे कुछ ही दूर बैठा था। हर आने जाने वाले से रोटी मांग रहा था। कह रहा था -‘‘दो दिन से भूखा हूँ। खाने के लिए कुछ दे दो। एक बार मैंने सोचा, कुछ दे दूं, फिर यह सोचता रह गया कि नाटक कर रहा है । भला कोई दो दिन कैसे भूख रह सकता है ? मैं खुद एक वक्त भी भूखा नहीं रह सकता। अचानक हवा का एक झोंका आया। उड़ता हुआ एक अखबार उसके पास आ गया। उसने अखबार उठा लिया । अखबार का एक कोना फाड़ा, उसे मुंह में डाल कर चबाया, थूका, बाकी अखबार वहीं छोड़कर चला गया । मैंने सोचा अखबार के इस कोने पर जरुर किसी नेता, अभिनेता या सेठ की फोटो होगी। हवा के दूसरे झोंके ने वह अखबार मेरे पास पहुंचा दिया। यह तो वही अखबार था, जो मेरे पास भी है। मैंने अपना अखबार खोल कर देखा, उसने जो कोना चबाया, वहां एक बड़ी सी तस्वीर थी – रोटी की…।
आचरण


मैंने उसे गली में देखा, वह भिखारी तो नहीं लगा, पर उसके शरीर पर एक पाजामा ही था बाकी का उसका नंगा शरीर सर्दी से सिकुड़ रहा था। मैंने उसे रोका, उसके लिए भीतर से कमीज लेने गया। उसे देने लायक एक मेरी पहनी हुई, फुटपाथ से खरीदी हुई, जिस पर कुछ लिखा था, पुरानी टी शर्ट मिल गई। उसे दी तो उसने उसे अच्छी तरह से देखा और फिर वापस करते हुए बोला- ’’सॉरी सर, मैं इसे पहन नहीं सकूंगा।’’ मुझे गुस्सा आ गया टी शर्ट वापस लेते हुए मैंने व्यंग्य से कहा- ’’तो जनाब को नई शर्ट चाहिए ?’’
वह बोला-‘‘नहीं साहब, आप मेरा पाजामा देखिये, कितना पुराना है, इसके साथ नई शर्ट की क्या जरूरत है। मना इसलिए कर रहा हूँ कि मैं शराब पीने पिलाने का विरोधी हूँ। इस पर लिखा है- बियर मुझे खुशी देती है। आप भी खुशी हासिल करें। मैं बियर का प्रचार बैनर नहीं बन सकता।’’
‘‘अरे! शराब का तो मैं भी विरोधी हूँ। मैंने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया…।’’
खौफ


तब उस जंगल में जानवर ही जानवर थे। थोड़े से ताकतवर थे, बाकी सब कमजोर। वही होता था कि ताकतवर कब कमजोर को चबा जायेगा, इसका पता नहीं चलता था इस वजह से वहां खौफ पसरा रहता।
उस जंगल में एक दिन एक आदमी आ गया। उसने कमजोरों को आश्वस्त किया कि- ‘‘मैं ताकतवर शेर, बाघ, चीता को चबा जाऊंगा और तुम सब को बेखौफ कर दूंगा।’’
एक खरगोश ने पूछ लिया- ‘‘तुम इन्हें कैसे चबाओगे?’’
आदमी ने उसी खरगोश को पकड़ा और सबके सामने उसे चबा डाला। फिर ‘‘कैसे-क्यों’’ के प्रश्न करने की किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई। उस आदमी को लेकर सब जंगल में चले गये। आदमी ने ताकतवर जानवरों को चबा डाला या उन्हें छिपने को मजबूर कर दिया। बेचारे कमजोर जानवर, इसके लिये ताली भी नहीं बजा पाये थे कि समझ गये कि आदमी ज्यादा खतरनाक है। उस आदमी से ज्यादा ताकतवर आदमी भी वहां आ गये। सब एक दूसरे को अपनी ताकत दिखाने में लग गये। इस खेल में खौफ विस्तार पाता रहा औैर इतिहास रचता रहा, रच रहा है और रचता रहेगा।


गोविंद शर्मा,
ग्रामोत्थान विद्यापीठ,
संगरिया-335063
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