लघुकथा-रउफ परवेज

फ़रेब


सुरेखा एक गरीब परिवार की युवती होने के कारण चार क्लास पढ़ कर ही पढ़ाई समाप्त कर चुकी थी। घर के काम काज मंे माँ का हाथ बंटाती। इस तरह घर गृहस्थी किसी हद तक सीख चुकी थी।
माँ बाप ने जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखते ही उसकी शादी एक रिक्शा चालक से कर दी। दीनू नामक रिक्शा चालक उसे हर सुख सुविधा देता और उसे खुश रहने के गुर बताते नहीं थकता। लगता वह दीगर रिक्शा चालकों से हटकर सूझबूझ वाला समझदार व्यक्ति है।
चार पांच साल अच्छी तरह बीत गये। लगा जैसे समय को पंख लग गए हों। सुरेखा ने पहले लड़के के बाद एक बच्ची को जन्म दिया था। बड़े प्यारे बच्चे थे जो माँ के लाड़ प्यार के साथ पढ़ने भी लग गए थे।
दीनू अपनी कमाई पहले तो बराबर अपनी पत्नी के हाथ में दे देता था लेकिन इधर कुछ दिनों से उसने हाथ खींचना शुरू कर दिया था। कभी 10-15 रूपये दे देता तो कभी कमाई नहीं होना बता कर पल्ला झाड़ लेता।
सुरेखा जैसे तैसे उन्हीं पैसों से घर गृहस्थी चला रही थी। बताने वालों ने उसे बताया कि दीनू जुह शराब का आदी होने से जो कमाता है उसे उड़ा देता है।
फिर एक दिन ऐसा भी आया कि सुरेखा तंगहाली से परेशान होकर अपनी नसीब को कोसने लगी। पास पड़ोस के लोगों ने उसे समझाया मनाया और अपने बच्चों की तरफ़ ध्यान देने की बात कही ताकि बच्चों का किसी भी तरह बुरा हाल न हो। ममता की मारी माँ बच्चों का हर तरह ख़्याल रखती। बच्चे भी तो अपनी माँ की हर बात मानते और उस पर अपने प्यार दुलार का इज़हार करते।
उस दिन सुरेखा के हाथ बिल्कुल ख़ाली थे। दीनू देर रात तक लौटकर घर नहीं आया। घर में आटा, चावल कुछ भी नहीं था। रात के दस बज रहे होंगे। दोनों बच्चे भूख से तिलमिलाने लगे। माँ ने चूल्हे पर एक गंजी चढ़ाई। उसमें पानी डालकर कुछ पत्थर के टुकड़े डाल दिये। ढक्कन लगाकर पकने के लिये छोड़ दिया। बच्चांे से कहा खाना पका रही हूं। धीरज रखो, पक जाने पर देती हूं। बच्चे कभी गंजी का तो कभी माँ का मुंह तकते रहे। समय के साथ रात गहराती जा रही थी । भूख के साथ नींद से भी बदहाल हो रहे थे। और नींद ने भूख पर फ़तह हासिल कर ली थी। वह नींद की आग़ोश में चले गये थे और माँ सिसकियाँ भरती अपने आंसू पी रही थी। तभी मुझे अपने दोस्त का शेर याद आया कि –
‘‘पत्थर उबालती रही इक माँ तमाम रात,
बच्चे फ़रेब खाके चटाई पे सो गए।’’

वसीयत नामा


वह जिन्दगी की पच्चासी बहारें देख चुका था। इसलिये उसे हर बहार भेस बदलकर खि़ज़ाँ की शक्ल में नज़र आने लगी थी।
जिन्दगी को खै़र बाद कहने पहले वह अपनी जायदाद का वसीयतनामा बनवा लेना चाहता था।
वह काम उसने किसी से करवा भी लिया और जगदलपुर शहर के उसके मालिकाना अधिकार के चारों मकान अपने दोनों बेटों के नाम वसीयत कर देना मुनासीब समझा।
वसीयतनामा टाईप करवा कर वह सीधा एक नोटरी के दफ़तर गया और उसे वसीयतनामे को नोटरी से तसदीक़ करवाने कहा। नोटरी ने वसीयतनामा ग़ौर से पढ़ा, फिर सील लगाकर दस्तख़त कर उसे सौंप दिया। नोटरी ने वसीयत की मालियत और अहमियत को समझकर सौ रूपये फ़ीस बताई।
उसने जेब में हाथ डाला, फिर कहा कि-‘‘छुट्टे नहीं हैं, एक हज़ारी नोट है।’’ नोटरी के पास या आसपास किसी के पास एक हजार के छुटटे नहीं थे। उसने कहा कि-‘‘मैं छुटटे लेकर फ़ौरन आता हूं। उधर गया, इधर आया समझो।’’
वज़नदार, बारोब शख़्सियत, फिर वज़नदार नोट-कौन ऐतबार नहीं करेगा ? और फिर भारी भरकम जायदाद का वसीयम नामा ? वह जाकर वापस नहीं लौटा। वसीयत नामा भी ले जा चुका था।
इत्तेफ़ाक से तीसरे दिन वह सुबह के वक्त शहीद पार्क में सैर के वक्त नज़र आ गया। नोटरी साहब भी सैर के लिये गये थे। मुलाक़ात पर खैर खै़रियत पूछी, फिर कहा-‘‘मुझे आप का भी तो देना है- कहिये कहाँ आऊँ, घर या दफ़तर।’’
नोटरी साहब ने ख़ामोश रहना ही ठीक समझा। गोया ख़ामोशी ही उन का जवाब थी। वह न घर पहुंचा, न दफ़तर।
चौथे दिन फिर मुलाकात रास्ते पर हो गई। कहने लगा ‘‘मैं आप क़रज़दार हूं, देना तो है, कौन सा अभी मरा जा रहा हूँ। और फिर वसीयतनामा मरने के बाद ही तो अमल में आता है। मैं न भी रहा तो क्या हुआ बेटे तो रहेंगे।’’
जवाब में नोटरी ने फिर ख़ामोशी इख़तियार कर ली और उसकी ओर एक टक देखता रह गया।

रउफ़ परवेज़
बालाजी वार्ड
जगदलपुर
जिला-बस्तर छ.ग.
फोन-09329839250