आधुनिक कविता का शिल्प एवं विषय-सनत कुमार जैन

आधुनिक कविता का शिल्प एवं विषय

लेखक-सनत कुमार जैन

जब हम आधुनिक शब्द का प्रयोग करते हैं ठीक उसी वक्त हमारे मन में आधुनिक कविता के संबंध में जानकारी आ जाती है ये बात अलग है कि हम उस जानकारी को अच्छे से व्यक्त नहीं कर पाते हैं।
कविता अपने कालखण्ड के अनुरूप आधुनिक और उत्तर आधुनिक और पुरातन में परिभाषित है।
और इसमें महत्वपूर्ण यह है कि ये कालखण्ड लगभग पांच सौ साल का ही माना जाता है। इन पांच सौ वर्षों में काव्य लेखन में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं। ये परिवर्तन सामाजिक परिवर्तनों के चलते ही लेखन में उभर कर आये हैं।
यूं समझ लीजिए कि जैसे जैसे सामाजिक खुलापन आया वैसे वैसे ही कविता (साहित्य लेखन) लेखन में भी खुलापन आता गया। और कालखण्ड के अनुसार काव्य लेखन के परिवर्तन को ही नाम संस्कारित किया गया है।
इस भूमिका से ही आधुनिक कविता के बारे में काफी कुछ समझ आ जाता है।
काव्य लेखन का अपना एक शिल्प होता है ये अलग बात है कि अलग अलग लोगों की प्रस्तुति से जरा जरा सा अलग लगे परन्तु एक ही शिल्प पर एक ही ढांचे पर लेखन होते है।
हम यदि पुराने लेखन को उद्भाषित करेंगे तो बात एकदम से साफ हो जायेगी। हम पहले छंदबद्ध लेखन करते थे जो एक सीमारेखा में बंधे होते थे। उससे पार जाना नामुमकिन था। दोहा सोरठा आदि अनेक विधाएं थीं लेखन की। ध्यातव्य है कि उस समय समाज भी एक बंधन में बंधा हुआ था। गृहस्थ जीवन के अनुशासन, समाज के अनुशासन, देश के लिए अनुशासन; उस समय हमारे लेखन में यही अनुशासन थे। इसके साथ ही नैतिकता का बोलबाला था। जो काव्य में भी स्पष्ट दृष्टव्य था। काव्य लेखन उपदेशात्मक था। परिवार, घर, समाज और देश के लिये जो श्रेष्ठ होता था वह लिखा जाता था। नीति के दोहे इसके उदाहरण हैं। लेखन का यह कालखण्ड स्वर्णकाल था। लेखन के सौन्दर्य को बढ़ाने के बहुत से प्रयोग हुये शोध हुये। अलंकारों का प्रयोग इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। शब्दों की शक्ति इस युग में बहुत ही शक्तिशाली थी।
सामाजिक बंधन के शिथिल होते ही काव्य लेखन भी शिथिलता की ओर आकर्षित हो गया। सामाजिक खुलेपन की वकालत शुरू हो गयी। इसमें सबसे अधिक स्त्रीमुक्ति, दलितमुक्ति पर कलम चली।
जब से सामाजिक विकारों पर कलम चलनी शुरू हो गयी, वह कालखण्ड आधुनिक कविता का कालखण्ड कहा जा सकता है। इस कालखण्ड में ढूंढ कर सामाजिक दोषों विकारों को कवियों ने अपनी कलम के निशाने पर लिया गया।
सरिता मुक्ता नाम की पत्रिकाएं तो इस सामाजिक सुधार की आड़ में कसम खा कर बैठी थीं कि समाज का ढांचा किस तरह तोड़ा जाए। कपोल कल्पित सामाजिक परम्पराओं का लेखन करके बहुतायत में छापा। उस दौर में ऐसा लगने लगा था कि हम एक अंधे कुंए में रह रहे हैं।
खैर! आधुनिक कविता का शिल्प कैसा होता है इस पर विचार करते हैं। आधुनिक कविता यानी अपनी मुक्ति को छटपटाते शब्द। उन शब्दों ने अब कविता में स्थान बना लिया है जिनको उच्चारित करने मात्र से तनाव उत्पन्न हो जाता है।
बिना किसी छंद का प्रयोग किये, अतुकांत और छोटी बड़ी पंक्तियों की श्रृंखला का नाम है आधुनिक कविता! अगर हम एक लघुकथा को क्रम से पैराग्राफ में न लिखकर एक के नीचे एक पंक्ति तोड़ते हुये लिखते चलें तो जो उत्पाद दिखाई देगा वह है आधुनिक कविता। किसी लय या धुन में इस कविता का चलना नामुमकिन होता है। गेयताहीन इन पक्तियों में अलंकार आदि सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग न के बराबर ही किया जाता है।
आधुनिक कविता के शिल्प में एक गठन होता है कि कविता के अंत में किसी मानवीय भाव से तमाम पंक्तियों को जोड़ देना। जिसे हम फिल्मी शब्द ’क्लाइमेक्स’ कह सकते हैं। आधुनिक कविता में यही क्लाइमेक्स ही इस विधा की जान है।
उपरोक्त शिल्प के अलावा जो भी परिवर्तन दिखायी पड़ता है वह प्रयोगधर्मी कवि का प्रयास है। परन्तु मूल शिल्प वही होता है।
शिल्प की एक विशेषता और होती है। सामान्यतः बहुत सी कविताएं किसी सामान्य सी चीज, वस्तु या जीव से शुरू होती है। फिर अपने क्लाइमेक्स में आकर एकाएक बदल जाती है।
आधुनिक कविता के विषय सामान्यतः स्त्रीमुक्ति, दलितमुक्ति, किसान वेदना और अमीरों को गरियाना।
कई बार इन कविताओं को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि ये एक तरफा लेखन हो। पीड़ित के दुख के अलावा कुछ न देखने की कसम लेखक ने खा ली हो। वह पीड़ित के दुख को इस कदर अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है कि उसका विरोधी पक्ष धरती का बोझ लगने लगता है।
इस बात को हम यूं समझ सकते हैं कि पीड़ित और पीड़ित करने वाला (जैसा कि कविता में बताया जाता है) दोनों के बीच में समन्वय की रेखा ही नहीं होती है। दोनों को एक दूसरे का जन्म जन्मांतर का दुश्मन जता दिया जाता है। जबकि साहित्य का धर्म कहता है कि समझौते की गुजाइश हमेशा होनी चाहिये।
कुछ उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं।
वो दोनों रोज मिलते थे
एक दिन दोनों न मिले,
दूसरे की दुनिया उजड़ गयी।

सनत सागर

वो बीज
जिसने सपने संजोय थे
खुद के होने के
खुद के पनपने के
खुद के फैलने के,
प्रकृति के साथ
मिलकर सेवा में
लगने के,
हवाओं के संग
बच्चों के साथ
मानव के साथ
जीवन भर रहने के,
आज वो सपना टूट सा गया,

सनत सागर

ऐसा नहीं है कि मानव ने
साथ नहीं निभाया था,
पर एक ने निभाया
तो दूसरे ने रूलाया था,
मिट्टी, गोबर
और कोयले में लिपटाकर
फेंक दिया था उसे,
पर वो तो गिरा था ऐसी जगह
जहां से गिरता बहता
पानी के कंुड में ही पड़ा पड़ा
सड़ सा गया था
क्षीण पड़ गयी थी
उसकी जीवनशक्ति
उसकी आंखें अब
खुलना ही नहीं चाहती थीं
रोशनी में,
अपने जीवन की यूं दुर्गति से
वह घोर आत्महीनता के बोध में
डूबा हुआ था,
महत्वपूर्ण जीवन की
यूं अर्थहीन परिणीति देख
एक साधु की तरह
जार जार रो रहा था।

सनत सागर

धूल ये पड़ी थी
जब कदमों के तले
तब ही उसे बुरा लगा,
वरना वो तो जाने कब से
यूं ही पड़ी थी,
हवाओं के संग
तो वर्षा में धुली थीं
एक रोज तो
आग के साथ भी
मिली थी।
उस दिन से
बेहद मुश्किल हुआ जीना
जब कदमों के तले आयीं।
नियति ये औरत की
जाने कैसी लिख डाली
जिसने सबकी लिखी थी।

सनत सागर

घड़ी की टिक टिक
धीमी धीमी सुनायी दे रही है
कांटों का आपस में मिलना ही
एक मिलन था
वरना वही एकांत
और वहीं टिक टिक,
कैसी यह इबारत है
और कैसी है
ये जीवन की किताब,
मिलन एक पल का
और अलगाव हमेशा का।

सनत सागर

गुलमोहर की लाली
आज कुछ ज्यादा ही
लाल थी,
हरियाली के बीच
जूतों की धमक
आदेशों का सनक,
चक्की के पाटों सी जिन्दगी
ग्लूकोस चढ़ा हो मानों
बाह में दिखती मोटी नस में,
रात को अंधेरों का सितम
तो दिन को सूरज की गर्मी,
जूतों की धमक
बारूद की गंध
नियति,
पेड़ों की,
जो शहर की ओर नहीं बढ़ते
बल्कि दौड़ रहा है शहर
उनकी ओर,
सहमी हवा
छूने से भी डरती पेड़ों को
,पर आज
गुलमोहर के फूलों की लाली
कुछ ज्यादा ही थी
दिन के उजालों के खिलाफ
रात के अंधेरों ने
जमकर की खातिरदारी
और पगडंडी की धूल
पीली से करिया गयी
गुलमोहर की आंखें
लाल हुयी हैं,
पर कोई नहीं है देखने वाला
सागौन तो उगते ही हैं
कटने के लिये,

पतंग आज
खूब उड़ी खूब उड़ी
आसमान के सीने में,
और आग लग गयी
धरती के सीने में,

इतरा नहीं रही थी
लहरा रही थी,
घबरा रही थी,
जाने क्यों
किसी को ऐंठन लगी,
अचानक गिर पड़ी
डोर की चकरी
और
किसी ने
रख दिया उस पर
बड़ा सा पत्थर,
हवाओं में भटकने
और
किसी की आंखों में
खटकने को,
सफल हो गयी थी
खुशियां लूटने की
कोशिशें,
और तिस पर भी
पतंग
आसमान के सीने पर
लोट रही थी
ज्यों लोट रही हो
नागिन धरती के सीने पर!

सनत सागर