संगोष्ठी-आधुनिक कविता का शिल्प व विषय
प्रत्येक साहित्य अपने काल का आधुनिक साहित्य होता है। कविता से उसके काव्य को चुरा लेना मात्र ही आधुनिक कविता नहीं है। इन महत्वपूर्ण विचारों के साथ साहित्य एवं कला समाज जगदलपुर के द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी परवान चढ़ी। उपरोक्त विचार वरिष्ठ साहित्यकार शरदचंद्र गौड़ ने प्रगट किये। उन्होंने आगे कहा कि साहित्य पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से पहुंचे इसलिये पद्यरूप में लिखा जाता था क्योंकि वह आसानी से याद हो जाता था। वर्तमान दौर की आधुनिक कविता पहले से कहीं अधिक जिम्मेदार हो गयी है।
24 जून को लाला जगदलपुरी जिला ग्रंथालय में शहर के स्थापित और नवोदित साहित्यकारों के मध्य इस विचार गोष्ठी जिसका विषय था ’आधुनिक कविता का शिल्प व विषय’ पर गंभीर चर्चा हुयी।
अपने भूमिका संभाषण में बस्तर पाति साहित्यिक पत्रिका के संपादक सनत जैन ने अपने संभाषण में कहा कि आधुनिक कविता छंदमुक्त और रसहीन हो गयी है। इसकी शब्द शक्ति भी कमजोर हो चुकी है। इसलिये वे याद नहीं रहती हैं। जबकि स्कूलों में पढ़ीं कविताएं आज भी याद हैं। आधुनिक कविता के विषय स्त्रीमुक्ति, दलित विमर्श और किसान विमर्श में ठहर से गये हैं। इन अनगढ़ शिल्प में रची कविताएं वर्तमान की मुख्यधारा की हिन्दी पत्रिकाओं के द्वारा प्रोत्साहित कर एक तरह से थोपी जा रही हैं।
मुख्य वक्ता के रूप में डॉ कौशलेन्द्र ने बताया कि आधुनिकता, वैश्वकिता और वैज्ञानिकता कविता के तीन मुख्य भाव हैं। इनके इर्द गिर्द ही कविता रहती है। वैज्ञानिकता मुख्य भाव होता है। कविता यदि तुकांत होती है तब ही कविता होती है जैसा कि हम अपने जीवन में देखते हैं कि गुनगुनाना हमेशा अच्छा ही लगता है। एक छोटा बच्चा भी गुनगुनाता है। कविता समाज को हताशा से बचाने का कार्य करती है।
आधुनिक कविता को स्वछंद कविता कहा जा सकता है। जो समाज को प्रतिबिम्बित करती है।
विचार गोष्ठी के दूसरे भाग में काव्य गोष्ठी का भी आयोजन था।
पद्श्री धर्मपाल सैनी जी ने अपनी कविता के माध्यम से अपने जीवन का रस उड़ेल दिया।
मैं कविता में जीने की कोशिश करता हूं। / अपना भाग्य बनाने लगता हूं / दोनों में क्या संबंध / यह जानने की इच्छा रखता हूं।
डॉ कौशलेन्द्र ने देश के लिये चिन्ता व्यक्त करते हुये काव्य पाठ किया।
मान सरोवर हमने खोया/ भोले का कैलाश भी खोया। / अभी और कितना खोयेंगे / आओ चलें खोलें वो ताले/ दशकों से जो बंद पड़े है।
अंचल के गजलकार ऋषि शर्मा ऋषि ने अपने गजलो ंसे शमां बांध दिया।
प्यार दर्पण से नहीं मन से भी करके देखो / सिर्फ बाहर ही नहीं अंदर भी संवर कर देखो।
गायकी और कविता में समान हस्तक्षेप रखने वाले विपिन बिहारी दाश ने बेटी पर कविता सुना कर माहौल को भावपूर्ण कर दिया।
जिस घर में बेटी न होगी/आंगन आंगन नहीं रहेगा/बेटी बिन मां की आंखों में/अंजन अंजन नहीं रहेगा।
हल्बी लेखन और मंच के सम्मानित कलाकार नरेन्द्र पाढ़ी ने हल्बी की रचना पढ़कर तालियां बटोरीं।
गोरसी चो इंगरा के कोदाउन कोदाउन/विहाव पार्टी चो ढंगनाच के सुरता करेसे।
लोकजीवन का निकट से अध्ययन करने वाले डॉ रूपेन्द्र कवि ने अपनी रोटी कविता से सभा को रोमांचित कर दिया।
पसीने से लथपथ/ बाबूजी की / रोटी के जुगाड़ वाली / मेहनत, / और याद है / आग में रोटी सेंकती / भरी दुपहरी / मां का पसीने से / तरबतर हो जाना।
अंचल के प्रसिद्ध हल्बी रचनाकर व गीतकार भरत कुमार गंगादित्य ने हल्बी में गीत प्रस्तुत किया।
जीव जतन करा रूख राई चो / रूख राई आत जिवना आमचो / नंगत जतन करा ना / दादा दीदी बूटा मंडावा न! / दादा दीदी बूटा मंडावा न!
व्यंग्य और गजल में समान रूप से अपनी पकड़ रखने वाले डॉ प्रकाश पैमाना ने अपने रचनापाठ से मनमोह लिया।
मुसीबत में तेरा दिलासा बहुत है / ये गिरते हुये को सहारा बहुत है / कमी कुछ तो रहती चाहे जो हो कोई / बड़ा है समन्दर तो खारा बहुत है।
युवा कवि राजकुमार जायसवाल ने मछलियों की व्यथा का वर्णन किया।
कांच के जार में दो चार मछलियां/ दाना है पानी है बिन धार मछलियां।
संस्कृत, हिन्दी, हल्बी और छत्तीसगढ़ी के आशुकवि अनिल शुक्ला ने सरल मानवीय मन की व्यथा सुनायी।
मैं व्यक्तियों का उपयोग करना नहीं जानता / संबंधों को भुनाना नहीं जानता / मैं भावुक हूं संवेदनशील हूं / क्योंकि मैं असभ्य हूं।
युवा कवि ओमप्रकाश ध्रुव ने अपनी कविताओं का पाठ किया।
देश भर में अपनी कविताओं से चर्चित बीजापुर से पधारी पूनम वासम ने अपनी प्रसिद्ध कविता ’कुटुमसर की अंधी मछलियां पंढुम गीत गाती हैं’ सुनाकर बस्तर और उसके प्रति अपनी चिंता जाहिर की।
कार्यक्रम शशांक श्रीधर परिचर्चा में उपस्थिति देकर आधुनिक कविता और अन्य धाराओं की कविताओं को समान रूप से महत्व दिये जाने पर जोर दिया।
कार्यक्रम में नामचीन योगशिक्षिका श्रीमती शोभा शर्मा ने भी उपस्थिति दी।
कार्यक्रम के अंत में सनत जैन ने अपनी एक कविता पढ़कर कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की।
धूल ये पड़ी / जब कदमों के तले / तब ही उसे बुरा लगा / वरना वो तो जाने कब से / यूं ही पड़ी थी / हवाओं के संग / तो वर्षा में धुली थी / एक रोज तो / आग के साथ भी / मिली थी।/ उस दिन से / बेहद मुश्किल हुआ जीना / जब कदमों तले आयी। / नियति ये औरत की / जाने कैसी लिख डाली / जिसने सबकी लिखी थी।