कहानी-डॉ शुभ्रा श्रीवास्तव

सजा


समगति से चल रही आलोक की सांसो से मुझे अजीब सी वितृष्णा हो रही है। मन होेता है कि कहीं दूर भाग जाऊ जहाँ कोई भी नहीं हो सिर्फ गहरा ठण्डा पानी और उसमें सिर से पैर तक डूबी मैं, और कोई नहीं, कहीं नहीं। कभी कभी सोचती हूँ कि क्या आलोक को यह सब समझ आयेगा। नाड़ी और धमनी पर दिन रात बात करने वाला क्या दिल की धड़कनों को बायोलॉजिकल ढांचे से इतर महसूस कर पायेगा। क्या इस हार्ट स्पेशलिस्ट को इस देह से परे जो धड़कने हैं वह सुनाई देंगी, शायद कभी नहीं। मेरी सिसकियों और उनके नींद के खर्राटे की गति सम है। अब मैं अपने को इस बिस्तर पर रोक नहीं पाऊँगी। प्रिया फ्रीज से बर्फ और ठण्डे पानी की बोतलों से पानी बाल्टी में डालती है। वह यन्त्रवत हाथों से पानी शरीर पर डालती है। हाथ से क्लचर जैसे ही बालांें से हटते हैं वैसे ही लम्बे काले बाल गर्दन से होते हुए कमर तक खुल जाते हैं। प्रिया को याद आता है कि इन बालों से खेलना आलोक को बहुत पसन्द है। शादी की पहली रात आलोक पास में आते ही इन बालों को खोल देते हैं। हॉस्टल में रहते हुए जब हमारी मित्रता हुई थी तभी से वह इन बालों के दीवाने हैं पर आज शादी की पहली रात आलोक के पास इन बालांे को खोलने का अधिकार है। वह जानती है कि आलोक आज किसी सीमा में नहीं बधेंगे। आज तक शादी की बात कहकर ही वह आलोक को रोकती आयी है। वह आलोक को ध्यान से देखती है। उसका प्यारा रूप अपने भीतर सहेज कर रखना चाहती है। ये झील सी अंाखे, काले बाल और यह चौड़ा सीना जिसमें छुपकर सारे दर्द बिखर जाते है। प्रिया वहाँ छुपना चाहती है पर अपने ऊपर झुके आलोक के सीने पर निगाह पड़ते ही उसके रोंए खड़े हो जाते है, फिर वही भयावह मंजर – एक औरत पर झुके कई पुरूष उस औरत को क्षत-विक्षत करने को उद्यत, आखों में आंसू लिए एक बेबस छोटी लड़की, और चित्कार करती औरत अपने ऊपर से पुरूषों को हटाने का प्रयास करती हुई। अचानक उस औरत में मां का चेहरा दिखाई देता है और वह छोटी लड़की प्रिया बन जाती है। उसका दम घुटने लगता है और घबड़ाहट में वह आलोक को धक्का देकर खड़ी हो जाती है। आलोक की मुस्कान उनके चेहरे से गायब हो गई थी। प्रिया के दिल में आलोक की वही पुरानी सधी मुस्कान अटक जाती है। यादों सें बाहर आकर प्रिया ठण्डा पानी सिर पर डालती है। प्रिया को राहत महसूस होती है जैसे आग पर पानी की छोटी-छोटी बौछार पड़ती है वैसे ही प्रिया को अपना शरीर महसूस होता है। गाउन पहन कर वह दूसरे कमरे में आकर बैठ जाती है। अपने आप में खोये हुए प्रिया को काफी समय हो जाता है तभी आलोक के हाथ प्रिया के बालों को सहलाते है। आलोक ने मुस्कुराकर पूछा क्या आज भी नींद नहीं आई।
‘‘नहीं’’
‘‘क्यों तुम्हें नींद नहीं आती है ?’’ आलोक के प्रश्न पर शांत रहकर प्रिया जबाब देती है-
‘‘पता नहीं।’’
‘‘यह कोई जबाब नहीं है’’- आलोक के कहते ही प्रिया बोल पड़ी –
’’मेरे पास जवाब नहीं है।’’
‘‘तो सवाल करो। शायद सवाल करने से तुम्हें अपनी बेचैनी और छटपटाहट का पता चल जाय।’’ आलोक के इतना कहते ही प्रिया की आखों में कुछ बूंदे छलक जाती हैं। वह कहना चाहती है कि मुझे डूबने से बचा लो आलोक। मैं अपने जीवन के अधूरेपन को जबरदस्ती ढंकने की चाहत में अपना अतीत न भूल पाने के कारण वर्तमान जीवन से असन्तुष्ट हूँ। पर तुम्हें लगेगा कि मैं फिर वही व्यर्थ की बाते लेकर बैठ गई हूँ। फिर तुम्हारे पास बातें सुनने का वक्त कहाँ है। दिल की बातंे याद करके नोट नहीं की जाती हैं कि तुमने कहा बताओ क्या बात है और मैं लिखी बातें कह दूं। दिल की अपनी एक गति है वह अपने हिसाब से चलता है वह कभी सीधे असल मुद्दे पर आता है और कभी सब कुछ व्यर्थ कहने के बाद भी नहीं आ पाता है। पर यह सब बातंे मैं कैसे समझा पाऊँगी तुम्हें। तुम तो दवा के पर्चे से लेकर मरीज तक, नर्स से लेकर हास्पिटल तक सिर्फ मुद्दे की बात करते हो। इतना वक्त कहाँ है तुम्हारे पास की व्यर्थ की बातें की जाय और उन बातों से भावनाएं जोड़ी जाय। अचानक निगाह मिलते ही अहसास हुआ कि आलेाक मुझे लगातार देख रहे हैं। मैं यह आँखे बर्दास्त नहीं कर पाऊँगी । मैं वहाँ से भागना चाहती हूँ। मैंने महसूस किया मेरे होठ आलोक से कह रहे थे- मैं लॉन में टहलने जा रही हूँ। नंगे पैर पर हरी घास कितना सुकून देती है। काश ये ओस की बूदंे इन पैरों से गुजर शरीर के भीतर चली जायें और अन्दर की तपन कुछ कम कर दें। पर यह सुखद अहसास क्षणिक होता है। अन्दर तो अब….।
’‘अरे! आप चाय क्यों बना लाये।’’ आलोक को सामने से आते देखकर प्रिया के मुंह से अनायस निकल पड़ा। आलोक की गहरी नीली आँखे और होंठ मुस्कुराते हुए कहते हैं ‘‘ कभी-कभी तो पत्नी की सेवा का मौका मिलता है।’’ मुझे भी हंसी आ जाती है ढेर सारा प्यार भीतर उमड़ने लगता है। कितना ख्याल रखते हैं मेरा। जी चाहता है पास बिठाकर चूमती जाऊ तब तक जब तक भीतर सब कुछ ठीक न हो जाय। झुके हुए आलोक की शर्ट की बटन खुले थे प्रिया हाथ बढ़ाकर आलोक के सीने को सहलाना चाहती है मगर फिर वही भयावह मंजर सामने आ जाता है। एक औरत पर टूटते हुए कई जानवर। वह सिहर जाती है। जब भी वह किसी पुरूष के शरीर को देखती है उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चाहकर भी वह आलोक को पूरी तरह से अपना नहीं पाती है वह आलोक से कहना चाहती है कि इस मंझधार से मुझे निकाल लो पर शब्द अटक कर रह जाते हैं और हाथ रूके रह जाते हैं। सिर्फ कान सुनते हैं आलोक पूछ रहे हैं-‘‘मां का हाल चाल पूछा ?‘‘ बगैर मेरी मर्जी के होंठ जवाब देने के आदी हैं। भीतर चाहे जितना तूफान हो बाहर से शान्त माहौल बनाये रहते हैं। तभी तो बड़ी सहजता से जवाब देते हैं-‘‘भूल गई पूछा नहीं।’’ आलोक पूरा जवाब चाहते थे इसलिए फिर कहा- ‘‘तुम्हे क्या हो गया है प्रिया। मुझे एक हफ्ता हो गया यह बताये कि मां की तबीयत ठीक नहीं है। मिलने नहीं जा सकती तो फोन तो कर सकती थी।’’ जानती हूँ मेरा यह जवाब आलोक की सन्तुष्ट नहीं कर पायेगा कि मैं सच में भूल गई। ‘‘तुम भूल नहीं गई प्रिया बल्कि तुमने चाहा ही नहीं। तुम दूरियाँ बढ़ा रही हो। वह तुम्हारी मां है। तुम ठीक नहीं कर रही हो प्रिया।’’
‘‘क्या ठीक नहीं कर रही हूँ मैं-’’
प्रिया के कहते ही आलोक बोल उठा-‘‘पहले भी तुम रूखी बात करती थी मां से। मैंने कई बार समझाया है तुम्हें पर अब तो तुम सम्पर्क भी नहीं करती हो। पापा बता रहे थे कि मेरे फोन से हाल चाल मिलता हैं तुम्हारा। खुद नहीं करती हो पर उनका फोन क्यों नहीं उठाती हो।’’
‘‘मेरी इच्छा नहीं होतीे है किसी से बात करने की।’’ प्रिया के कहने पर आलोक बिफर जाता है। ‘‘मुझसे भी बात करने की इच्छा नहीं होती।’’
‘मैंने कहा न किसी से नहीं’’-प्रिया यथावत बनी रहकर कहती है तो आलोक पूछ बैठता है-‘‘जान सकता हूँ मेरा अपराध क्या है।’’ आलोक के कहने पर प्रिया गहरी सांस लेती हुई कहती है-‘‘दोष तुम्हारा नहीं है। सबका कारण मैं हूँ। असन्तुष्टी मुझमें है।’’
यह असन्तुष्टी किससे है, मुझसे-आलोक जानना चाहता है पर प्रिया शांत होकर कहती है-‘‘पता नहीं।’’ आलोक इस जवाब से खीझ जाता है और कहता है-‘‘खुल के कहो ना कि मुझसे असन्तुष्ट हो। मैं भी महसूस करता हूँ कि तुम असन्तुष्ट हो। चाहे शरीर के पास आऊं चाहे मन के पास, मुझे सिर्फ एक चीज मिलती है तुममें वह है असन्तुष्टी। पर जीवन की किसी भी रिक्तता के लिए नाता नहीं तोड़ा जाता है।’’ प्रिया सीधा जवाब देती है-‘‘मैंने कौन सा नाता तोड़ा है। एक पत्नी का हर फर्ज निभा रही हूँ और….! प्रिया की बात पूरी होने से पहले ही आलोक बोल उठता है-’’मशीन बनकर फर्ज निभा रही हो। अपने को अन्दर ही अन्दर मार रही हो। मेरे पास आती भी हो तो मशीनी शरीर के साथ। प्रिया मैं प्यार करता हूँ तुम्हें। तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ।’’
‘‘मै खुश हूँ।’’ कहते हुए प्रिया खुद को टटोलती है। पर आलोक सच जानता है इसलिए कहता है-’’अपने अन्दर अपनी दुनिया बनाकर अपने आप को सबसे काट कर खुश हो तुम।’’ आलोक के इस जवाब से प्रिया तल्ख हो उठती है और तीखे शब्दांे में कहती है- ‘‘जिनसे कटने की तुम बात कर रहे हो उनके विषय में मैं बात नहीं करना चाहती।’’
‘‘कारण जान सकता हूूँ क्यों ?’’-कहते हुए आलोक अपने को संयत रखने की कोशिश करता है।
‘‘क्योंकि समाज के ताने सुन कर थक गई हूँ मैं’’- कहते हुए प्रिया बिफर पड़ती है।
‘‘तुम थक इसलिए गई हो क्योंकि तुम भी समाज का हिस्सा बन गई हो। बेटी नहीं रह गई हो तुम।’’ आलोक ने खीझ के साथ कहा तो प्रिया बोल उठी-‘‘मैं रहना चाहती भी नहीं हूँ।’’ तब आलोक ने सख्त आवाज में कहा-’’यह तुम्हारा दुर्भाग्य है।’’
‘‘तो क्या वह मेरे मां बाप है यह मेरा सौभाग्य है। हर वक्त राह चलते यह सुनना कि यह उसी की बेटी है जिसके साथ दंगे में बलात्कार हुआ है यह मेरा सौभग्य है। पिता नपुंसक हैं, मैं उसी बलात्कार की पैदाइश हूँ यह मेरा सौभाग्य है। है न ?’’ कहते हुए प्रिया लगभग चीख पड़ती है। उसे अपने आपसे घृणा होने लगती है। आलोक अपने आप को संयत रखते हुए कहता है- तुम दूसरों के कर्मों की सजा अपनी मां को क्यांे दे रही हो। अपने आप से अपने परिवार से प्यार करो तब सब ठीक होगा।
‘‘कुछ ठीक नहीं होगा। आदर्श बखानना आसान है उस पर चलना मुश्किल। वह पीड़ा मैं जान रही हूँ तुम नहीं समझोगे।’’ प्रिया ने उलाहने में कहा तो आलोक आश्चर्य से बोला ‘‘मैं नहीं समझूंगा? बिना समझे ही तुमसे प्यार किया और शादी की है जिसे पूरी ईमानदारी से निभा रहा हूँ।’’ पर प्रिया आज बहुत कुुछ कहना चाह रही थी तभी तो कह रही थी -’’प्यार तुमने तब किया जब मेरा अतीत, मेरा परिवार नहीं जाना था। मैनें तुम्हंे जानबूझकर बताया ही नहीं था। क्या कहती मैं कौन हूँ और क्या बताने लायक था मेरे जीवन में।’’ प्रिया के कहने पर अपना क्रोध जब्त कर आलोक ने कहा-’’कुछ बताने लायक रहा हो या नहीं पर सब कुछ जानने के बाद भी तुमसे शादी की है और अपने प्यार को निभा रहा हूँ।’’
’’क्या पता समाज के सामने अपने को आदर्शवादी सिद्ध करने के लिए तुमने यह सब किया हो।’’ प्रिया के ऐसा कहते ही आलोक का धैर्य जबाब दे जाता है और वह फट पड़ता हैं-’’तुम पागल हो गई हो, तुमसे बात करना बेकार है।‘‘ आलोक चला जाता है। प्यालियों में रखी चाय ठण्डी हो गई थी। प्रिया अपने भीतर वही ठण्डापन महसूस करती है। तो क्या आलोक सही कहते है कि मैं ठण्डी हूँ। बिस्तर से लेकर रिश्तों तक, होंठो से लेकर दिल तक। मैं क्यों अपने प्यार और गृहस्थी की तिलांजली दे रही हूँ। अपने अतीत से मैं क्यों नहीं बाहर आ रही हूँ। आलोक सही कहते हैं मैं अपने जीवन को अन्धेरी खाई में ढकेल रही हूँ। खुद को अस्वीकार करते करते में हर रिश्ते से दूर जा रही हूँ। यह क्या अपने गालों पर मैं आँसूओं की धार महसूस कर रही हूँ। आलोक नाराज हैं इसलिए ? फिर क्यंू लड़ती हँू मैं? जिसे अपने शरीर के निकट एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती उसकी दूरी भी असहनीय है। क्या मेरा प्यार अभी भी जिन्दा हैं। हां जिन्दा है तभी तो माफी मांगने के लिए मैं उनके सामने खड़ी हूँ- नाराज हो गये है।’’
‘‘नाराज ? किस पर ? तुम पर ! तुम्हें नाराजगी, गुस्सा, प्यार इन सब शब्दों के मायने पता हैं ?’’ जूते का रिबन बांधते हुए आलोक ने कहा तो प्रिया अन्दर से द्रवित हो गई और कहा-‘‘अच्छा माफ कर दीजिए। आज घर चली जाऊँगी और कोशिश करूंगी कि ऐसा कुछ न हो जिससे आप दुखी हों।’’ आलोक तिरछी निगाहों से देखकर सच जानना चाहता है पर प्रत्यक्ष में कहता है-’‘मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ। जीवन को जियो प्रिया। शादी के पहले तुम्हारी असन्तुष्टी, तुम्हारी पीड़ा मेरी बाहों में आकर खत्म हो जाती थी पर अब लगता है मेरी बाहें तुम्हारे दुख को नहीं थाम पाती हैं। कहने से हर दुख पिघल जाता है। अन्दर ही अन्दर रखने से लावा बन जाता है। अगर मुझमे कोई कमी हो तो कहो।’’ प्रिया का गला भर आता है वह आलोक की बाहों में समा जाती है और कह उठती है-‘‘तुममे कोई कमी नहीं है आलोक, मैं ही अपने आपसे, अपने अतीत से छुटकारा नहीं पा रही हूँ। मुझे डूबने से बचा लो। तुम्हारे प्यार के सिवाय मेरे पास कुछ नहीं हैं।’’ आलोक प्रिया के आँसू भरी आँखों को चूम लेता है। प्रिया अपने भीतर ठण्डक महसूस करती हैं और अपने को आलोक की बाहों में ढीला छोड़ देती है। अपनी बाहों में भरकर उसे तब तक सहलाता दुलारता है जब तक वह सो नहीं जाती है। आलोक यथावत बैठा रहता है कई दिनों बाद प्रिया सोई थी वह उसे उठाना नहीं चाहता है। सोकर उठते ही प्रिया की निगाह घड़ी पर जाती है। उसने आश्चर्य से पूछा-‘‘आज आप क्लीनिक नहीं गये?’’ प्रिया के चेहरे पर हल्की मुस्कान आलोक को अच्छी लगती है। वह अपनी बांहो का घेरा और कस लेता है। प्रिया अपना सिर आलोक के कन्धे पर रख लेती है और गहरी सुकून की सांस लेती है। आलोक उसे मां से मिलने के लिये तैयार होने को कहता है और क्लीनिक फोन करके अपने न आने की सूचना दे देता है। प्रिया अपने को अन्दर से तैयार करती है कि वह सामान्य रहे। अपने को सहज रखते हुए प्रिया घर में आगे बढ़ती है पर दरवाजे पर आने से पहले ही उसके पांव ठिठक जाते है। मां का क्रन्दन उसे बाहर से ही सुनाई दे जाता है-‘‘मेरी सजा लगता है मेरी मौत के बाद ही खत्म होगी।’’
’’आभा! जब गुनाह तुमने नहीं किया तो फिर सजा कैसी? आज तक समाज से तुमने साहस के साथ लड़ा हैं’’ पापा के कहते ही मां का रूआंसा स्वर उभर आया-‘‘समाज से लड़ लिया पर अपनों से हार गई। अपनी ही औलाद न मुंह देखना चाहती है और न ही भूले से यह पूछती है कि मां जिन्दा है या मर गई।’’
‘‘आभा ! प्रिया अभी नादान है वह आज नहीं तो कल जरूर समझेगी। समाज के तानों ने उसे सच देखने ही नहीं दिया है। कहीं न कहीं वह खुद सजा भुगत रही है। पहले तो वह बलात्कार की अनचाही पैदाइश है इस गम से तो उबर जाये तब तो वह तुम्हारे दर्द के बारे में सोचेगी। समय पर छोड़ दो सब ठीक हो जायेगा।’’ पर पापा का यह कहना मां को समझा नहीं सका-‘’कुछ ठीक नहीं होगा। प्रिया की उम्र के साथ उसकी नफरत भी बढ़ती जा रही है। वह मेरे कारण न बचपन जी सकी और न आज जी पा रही है मेरे गुनाह की छाया उसके जीवन को ढंक दे रही है।’’ मां की बात सुनकर पापा के स्वर में रोष आ जाता है।-‘‘वह तुम्हारा गुनाह नहीं है उनका गुनाह है जो अपने को मर्द कहते हैं। पर मैं उन्हें नपुंसक मानता हूँ।’’ मां ने कहा- आप बहुत अच्छे हैं। पहले अहसास नहीं था पर आप से जाना है कि प्यार में बड़ी ताकत होती है। आपके दिये हुए साहस से ही समाज को जवाब दे पाई हूँ। आपको याद है कालोनी में मिसेज शर्मा ने जब आपको नामर्द कहकर हमारा मजाक उड़ाया तो आप का हाथ थामते ही न जाने कहां से शब्द आते गये और मैं उन्हें ऐसा जवाब दे पाई जो मैं खुद शायद कभी सोच नहीं पाती जो कह गई-मिसेज शर्मा क्या शरीर के गणित से मर्द शब्द बना है। आपका पति मर्द है इससे आप को खुशी मिल रही है पर क्या आप जानती हैं कि उसी मर्द ने मेरे ऊपर मर्दानगी दिखाई थी। आपके आँखे फाड़ लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती आपकी निगाहंे गवाह हैं कि आप अपने पति की मर्दानगी से शर्मिन्दा हैं। मेरे अतिरिक्त और भी अनेक सच आपको पता है बस नाम आभा की जगह नीलम या निलोफर है। पर मेरी आँखों में अपने पति के लिए कोई शर्म नहीं है क्योंकि मैं जानती हूँ कि दिन के उजाले और रात के अन्धेरे में भी हमारे बीच सिर्फ प्यार है और यहां मौजूद हर शख्स के पास वह नहीं है। जो मेरे पास है। दुनिया का सबसे अच्छा पति और सन्तुष्ट प्यार।’’
‘‘आभा तुमने ठीक कहा था। वह तुम्हारा साहस था मेरा तो सिर्फ साथ था।’’ पापा के कहने पर मां कह उठी- ‘‘नहीं सिर्फ आप के कारण। उस घटना के बाद तो मैं आपसे निगाह भी नहीं मिला पा रही थी पर आपने जताया कि गुनाह मेरा नहीं है। मुझे इंसाफ दिलाने के लिए आपने क्या नहीं किया। लोगों ने आप को नपुंसक कहा, प्रिया को बलात्कार की पैदाइश कहा जबकि आप भी जानते थे कि प्रिया आपकी संतान है। आप सब सहते गये। तब तक लडे़ जब तक उन गुनहगारों को सजा नहीं मिली।’’
‘‘फिर भी उन्हें सजा दिलाने में लम्बा समय बीत गया। उन गुनहगारो की सख्त सजा दिलाने के लिये और अपनी पत्नी के प्यार के कारण मैंने यह सब किया, कोई अहसान थोड़े ही था। तुम्हारा साथ और साहस जरूर……’’ प्रिया इससे आगे पापा के कहे एक भी शब्द नहीं सुन पाई और उल्टे पांव घर वापस आ गई। प्रिया की पूरी दुनिया ही उलट गई थी। उसे अपने आप से घृणा हो रही थी। आज उसे अहसास हुआ कि वह कितनी छिछली सतह पर जी रही थी। बेचैनी और घबराहट की स्थिति में वह बैठ जाती है। पसीना पोंछने के लिए वह जैसे ही तौलिया उठाना चाहती है वैसे ही बिस्तर पर उसे मां की क्षत-विक्षत देह दिखाई देने लगती है। वह चीख उठती है। अपनी बदहवास स्थिति का पता उसे कुर्सी से टकराने से होता है। आलोक दौड़कर उसे गिरने से बचाता है। प्रिया की निगाहे जैसे ही आलोक से मिलती है वैसे ही पापा साकार रूप में उसके सामने आ जाते हैं। वह आलोक की अंाखों में पापा को देखती है वैसे ही असहाय, पीड़ा छुपाये हुए पापा। आलोक और पापा एक जैसे हैं, प्यार के लिए सब कुछ करने को तैयार और मैं ?अपनी ही दुनिया में सब भूलकर उन्हे सताती रही। भीतर की टीस बाहर आने के लिए छटपटाने लगती है पर भावों के वेग को वह आँसू बनने से रोकने का प्रयास करती है। प्रिया सोचती है पापा की आँखे कैसी दिखती होगीं जब पत्नी के बलात्कार की घटना याद आ जाती होगी। सामने से आने वाली हर आँख पत्नी के बलात्कार को पुनः दिखाती हांेगी और प्रतिदिन उसी घटना की पुनरावृत्ति होने पर पापा ने कैसे सहा होगा और सब सहने के बाद मां के सामने सामान्य होना कितना असहज रहा होगा। क्या पापा मां को वैसे ही स्वीकार कर पाये होंगे जैसे उस घटना के पहले करते थे। मां के पास जाते ही वह घटना मस्तिष्क में कौंध नहीं जाती रही होगी। तब पापा भी आलोक की तरह अपने को संयत रखते रहे होंगे। और मां…? क्या वह पूरे जीवन में एक पल भी उस घटना को भूल पाई होंगी। जब कभी आलोक मेरे साथ जबरदस्ती कर जाते है तो शरीर का हर हिस्सा दर्द उभार जाता है। उस समय जी चाहता है कि किसी धारदार चीज से शरीर के हर हिस्से को धीरे-धीरे काट दूं शायद बहता खून तपिश से चैन दे दे, या कोई ऐसा स्क्रबर हो जिससे पूरे शरीर को रगड़ दूँ इतना रगड़ दूँ कि वह छिल जाये और उससे रिसते खून की ठण्डी लहर तपिश को दूर कर पाये। फिर मां की तपिश तो दूसरी और गहरी थी। प्रिया के मस्तिष्क में शरीर को रगड़ती मां का अक्श उभर आता है। पर क्या वह बहता खून तपिश को कम कर पाता होगा। अपनी गर्म और जलती त्वचा को सहलाती मां क्या कभी ठण्डक महसूस कर पाई होगी ? नहीं। प्रिया के सामने बर्फ के पानी से भरी बाल्टी और उस ठण्डे पानी से नहाती अपनी तस्वीर उभर आती है पर यह क्या यह चेहरा तो मां का है। हरी घास पर नंगे पांव चलती मां, ओस की बूदों से भीतर शीतलता का इन्तजार करती मां, आँखो में आँसू लिये हुए मंा बेचैन छटपटाती मां। और न जाने कितने अक्श प्रिया की आंखो के आगे घूम जाते हैं। वह जानती है कि दर्द और तपिश का रिश्ता क्या है। जब यह आज तक उसके अन्दर से नहीं जा सका है तो मां कहाँ दूर कर पाई होगी इन्हें। कहने में कितना छोटा शब्द है ‘दर्द’ पर अपने अहसास में उतना ही बड़ा और गहरा है। कुछ दर्द के निशान दिखाई पड़ते है और कुछ के नहीं। जो नहीं दिखाई पड़ते हैं वही ज्यादा गहरे होते है। मां का दर्द छुपाये हुए चेहरा मेरा पीछा नहीं छोड़ता है। हॉस्टल में रहने पर भी मां की आँखें और उनका चेहरा मैं कभी भूल नहीं पाई। जीवन में बलात्कार की पैदाइश शब्द इतना हावी हो गया कि अपने जीवन से ही भागती रही। भागते-भागते अनजाने में मां को कितना दर्द दे गई मैं। बलात्कार की पैदाइश होने का दर्द तो याद रहा पर जिसने बलात्कार की पीड़ा सही उसे मैं भूल गयी। क्या कभी मैं उस दर्द को महसूस कर सकती हूं़। मैं क्या कोई भी स्त्री यह नहीं महसूस कर सकती है। प्रिया रोना चाहती है पर आँसू आँखों में अटक जाते हैं। वह चीखना चाहती है पर शब्द बाहर नहीं आते हैं। वह आलोक को देखती है असहाय, निरूपाय और किंकर्तव्यविमूढ़। आलोक प्रिया के चेहरे को देखता है और द्रवित हो जाता है प्रिया का ऐसा चेहरा आज तक नहीं देखा था। वह उसे घर ले जाता है और बाहर ही छोड़कर चला जाता है। प्रिया जानती है वह अन्दर नहीं आयेगा क्योंकि उसे पता है कि प्रिया को समय चाहिए। प्रिया दरवाजा खोलकर अन्दर जाती है। बिस्तर पर मां और उनके बगल में पापा कुर्सी पर बैठे रहते हैं। तीनों की निगाहंे एक दूसरे से मिलती हैं। हर आँखो में भोगी गई सजा बंूदो में रखी रहती है।

डॉ. शुभा श्रीवास्तव

(एम0ए0, पी.एच.,डी0)
शुभा स्टेशनरी मार्ट
एस. 8/5-5-1गोलघर कचहरी, वाराणसी पिन-221002 उ0 प्र0
मो.- 9455392568

मो. 09424286572