काव्य-सुनीता दमयंती

झेंपता हुआ

हर रात के बाद जागता है सूरज
ठंड के धुंधलके में
अंगार सा जलता-बुझता,
अंधेरी रात से हुयी हार पर
खिसियाया, शर्माया …
पहाड़ के बर्फीले आईने में
दिखायी देती है उसकी पहली झलक,
“स्लीपिंग बुद्ध” भी हो जाते हैं लाल
लेटी देह में झलकने लगती है यशोधरा !
पुरुष सूर्य की दृष्टि होती है आकृष्ट !
किरणों के आलोक में अपलक निहारने लगते हैं सौन्दर्य उस आकृति का
स्वर्णिम प्रपात में नहा उठते हैं पहाड़ ।
अस्त-व्यस्त सी सोयी धरती
जाग कर लेती है अंगड़ाई …
सूर्य को निकट देख ढांपती है
हरियाले अांचल से अपना उन्मुक्त यौवन ।
सूरज ठिठकता है, उलझा हुआ सा
समझता है अपनी भूल
पल भर को झेंपता हुआ
चल देता है अपनी राह …
चिड़ियों के संगीत में
मन्द सुगन्धित हवाओं में
झरनों की पायल में
जंगलों की गूंज में / और
यूकेलिप्टस की फुनगी पर
अपनी छाप छोड़ता हुआ।

सुनीता दमयंती,
26ए/1बी झील रोड़, सलीमपुर
कोलकाता
पिन-700031