मेहरून्निसा परवेज़ का सम्पादकीय साहित्य

मेहरून्निसा परवेज़ का सम्पादकीय साहित्य

हिन्दी, अंगरेजी, फ्रेंच, चीनी आदि के साहित्येतिहास में,-संस्मरण, रेखाचित्र, पत्र-साहित्य, डायरी-साहित्य, साक्षात्कार, जीवनी इत्यादि को नई विधाओं के रूप में मान्य कर लिया गया है। साहित्य सृजकों ने इनके गुण-दोषों पर प्रकाश भी डालना प्रारंभ कर दिया है, जिसके आधार पर शोध-कार्य भी किया जाने लगा है।
पर जिन साहित्य मनीषियों ने इन विधाओं में साहित्यिक लक्षण देखकर, उन्हें विधा के रूप में स्वीकार किया था, उनके अतिरिक्त इन जैसी वैचारिक दृष्टि से सम्पन्न और भी विधाएं थीं, वह उस सम्मान से छूट गयी हैं जैसे ‘भूमिका’, ‘सम्पादकीय’ इत्यादि। साहित्यिक मानदण्डों की कसौटी पर इन विधाओं को साहित्य-मनीषियों, पंडितों द्वारा साहित्यिक मूल्यों के निष्कर्ष पर इनकी भी परख करना चाहिये थी, जिनमें वे सभी साहित्यिक मूल्य पाये जाते हैं। इन मूल्यों के आधार पर नयी विधाओं के साथ इन्हें भी विधा का स्थान देना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसलिए इस पर विचार होना आवश्यक है। ‘सम्पादकीय’ एवं ‘भूमिका’ में वस्तु-विन्यास एवं शिल्प-विन्यास, उत्कृष्ट स्थिति में विद्यमान है। इन मूल्यों के आधार पर ‘सम्पादकीय’ को साहित्यिक विधा की परिसीमा में भी रखना चाहिये था, किन्तु यह अभी तक नहीं हुआ है। मैं जानता हूं, अनेक विद्वान, साहित्य के पंडित मेरे विचार से सहमत नहीं होंगे और बहुत से हो सकते हैं। इस ऊहापोह के असमतल वैचारिक मतों से अपने को अलग कर, यह घोषणा करता हूं कि नई विधाओं के समान ही ‘सम्पादकीय‘ और ‘भूमिका’ भी साहित्यिक विधाएं है। इस मूल्यवान दृष्टि को केन्द्र में रखकर ही मैं मेहरून्निसा परवेज़ की साहित्यिक सम्पादकीय पर अपने अनगढ़ अव्यवस्थित विचारों को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं।
मूलतः मेहरून्निसा परवेज़ प्रसिद्ध कथाकार हैं। उनकी कहानियों-उपन्यासों से साहित्य-संसार सुपरिचित है। किन्तु समय के फेर के परिणामस्वरूप उन्हें सम्पादकीय लिखना पड़ी है, जिसे वह एक निष्ठावान सम्पादक के रूप में निर्वहन कर रही हैं। क्यों कर रही हैं ? इस संबंध में सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने ‘समरलोक’ पत्रिका के प्रथम अंक में लिखा है-
‘कई स्थितियां, मनःस्थितियां, परिस्थितियां, विडम्बनाएं अपने खट्टे खमीर से लेखक का निर्माण करती हैं। अपने परिवार से परिजनों को कब्रस्तान में दफ़न देख मन का ताल पहले ही सूख चुका था। जब अपने जवान पुत्र का शव देखा, तो मन स्तम्भित जड़वत-सा, सांस लेना भी जैसे भूल गया। सब कुछ दुर्भाग्य के अंधकार ने ग्रस लिया था। जीवन का जहाज गहरे समुंदर में डूब चुका था। असहाय दुर्बल, टूटे, थकित मन से मैंने अपने पुत्र समर की स्मृति में उसी के नाम से लोक-उत्थान के लिये समर्पित पत्रिका का प्रकाशन का बीड़ा उठाया है।’ (आत्मदृष्टि, सम्पादकीय, समरलोक, वर्ष, 3 1 पृ. 1)
इस कथन से दो मूल बिन्दु उजागर होते हैं, एक पुत्र समर की स्मृति में समरलोक पत्रिका का प्रकाशन किया गया और दो, पत्रिका प्रकाशन के पार्श्व में लोक-उत्थान का अमूल्य विचार। इस विचार-दृष्टि से प्रेरित होकर सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने जिस पत्रिका का प्रकाशन किया, वर्तमान में उसकी अवस्था पन्द्रह वर्ष की हो गयी है। प्रायः धनाड्य या शासकीय विभाग पत्रिकाओं का प्रकाशन करते हैं, पर ‘समरलोक’ पत्रिका का प्रकाशन उस नियामकों के द्वारा नहीं हुआ है। इस पत्रिका का प्रकाशन व्यक्तिगत साहस से, साहित्य-सर्जक मेहरून्निसा परवेज़ द्वारा किया गया है और उन्होंने सम्पादक का दायित्व किसी अन्य रचनाधर्मी को न देकर, स्वयं वहन किया है, समर्थता के साथ।
साहित्यिक पत्रिका के सम्पादकीय प्रायः साहित्य-सर्जक ही होते हैं, – जैसे ‘धर्मयुग’ के सम्पादक धर्मवीर भारती, ‘दिनमान’ के अजेय, रघुवीर सहाय, सर्वेदयाल सक्सेना, ‘सारिका’ के मोहन राकेश, कमलेश्वर, ‘हंस’ के प्रेमचंद, कालान्तर में राजेन्द्र यादव आदि। इसी क्रम में ‘समरलोक’ की सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ हैं, जो उल्लेखित साहित्यकार सम्पादकों के समान साहित्य-सर्जक भी है। जिनकी आशातीत सम्पादकीय हैं। उन्होंने सम्पादक-धर्म का तटस्थ भाव से निर्वहन किया है। उनकी साहित्यिक पत्रिका की सम्पादकीय में वह सभी साहित्यिक गुण और लक्षण पाये गये हैं, जिनकी साहित्यिक पत्रिका की सम्पादकीय में आवश्यकता पड़ती है।
यहां यह अभिव्यक्त करना आवश्यक है कि मेहरून्निसा परवेज़ ने समरलोक पत्रिका के मूलतः किसी-न-किसी पक्ष को लेकर विशेषांक निकाले है। यह विशेषांक,-नारी, लोक साहित्य, डाक, कथा, युवा, आदिवासी, सामाजिक सद्भाव, लोकतंत्र, लघुकथा, ऐतिहासिक, प्रेमचंद शताब्दी, उर्दू, हिन्दी कहानी, नाटक, त्यौहार, प्रेमकथा, विभिन्न भाषा, सम्पादकीय, रेखाचित्र, यात्रा, पत्र, गणिका लोकनाट्य आदि शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं। इन विशेषांकों की सम्पादकीय विषय-विशेष के अनुरूप है। मेहरून्निसा परवेज़ ने विषय-विशेष को सम्पादकीय में व्यवहारिक, सांसारिक ज्ञान-के द्वारा तथ्यों के साथ कल्पना का छोंक व्यक्त किया है। विषय-विशेष से संबंधित विशेषांक की सम्पादकीय के माध्यम से हम जैसे जिज्ञासुओं को बहुत कुछ नवीन, व्यवहारिक, साहित्यिक, सांसारिक, सामाजिक-पारिवारिक, लौकिक ज्ञान उपलब्ध होता है। इस संदर्भ-प्रसंग में ‘आदिवासी विशेषांक’ के द्वारा आदिवासियों की जीवन शैली की ज्ञानवर्धक झलक मिलती है-
‘कभी संध्या के समय जब राजमार्ग के घने जंगलों में प्रवेश करती पगडंडी पर चलते हुए, कहीं ढ़ोल-नगाड़े और मांदर की आवाज प्रभावित करती है और जैसे-जैसे कदम इनके गांव में पहुंचते हैं, तो सामूहिक नृत्य की थाप पर सुमधुर स्वर को सुनकर मनुष्य चकित रह जाता है, लगता है, सारा संगीत, एवं नृत्य मानव निर्मित न होकर पहाड़ियों एवं जंगल की स्वयं की गई अभिव्यक्ति है, जिसे अभिनन्दन के लिए सारी प्रकृति ही सिमट आई है। आदिवासियों का संगीत एक झरने की तरह कहीं भी फूट पड़ता है। चट्टानों पर उछलता है और नीचे गहराईयों में जाकर गुम हो जाता है। आदिवासी जीवन भी वस्तुतः इसी प्रकार है। उनके जीवन की धारा को बांधा जाये या मोड़ा जाये या नहरीकृत किया जाये तो वह अपने सौन्दर्य को खो बैठता है। जिस तरह बीज से अंकुर निकलता है बाद में पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होकर विशाल वृक्ष बन जाता है, यह सारी प्रक्रिया कितनी सहज एवं अयत्नशाधित है, इसमें जल्दबाजी एवं समय से पहले फल पाने की कामना ने मनुष्य को सदैव ही छला है। आदिवासी जीवन अभी भी छलकपट से दूर प्रकृति की गोद में अभावों के बीच भी आनंदित है। पेड़ की शाखा टूटने पर भी अन्य शाखायें हरी एवं फलदायी बनी रहती हैं। ऐसे ही दूरस्थ अंचलों में बसे आदिवासी ठगे जाने पर भी शोक नहीं मनाते, क्योंकि उनकी अमीरियत की सीमा नहीं है।’ (समरलोक वर्ष 5 अंक 1 अप्रैल का 2003 पृ. 3-4)
सम्पादकीय कथन में कल्पना, यथार्थ एवं भाषा-सौन्दर्य की त्रिवेणी प्रवाहित हुई है। इस प्रकार के अंश मेहरून्निसा परवेज़ की सम्पादकीय में अनेक आसानी से मिल जाते हैं। कहानीकार-उपन्यासकार होने के कारण इस शैली का प्रयोग सम्पादकीय में होना स्वाभाविक है। इससे सम्पादकीय में चार चांद लग गए हैं।
सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ नारी हैं। वे नारी की समस्या से परिचित हैं। इसीलिये ही उन्होंने कथा-साहित्य में नारी की व्यथा-कथा, दशा को दर्शाया है। नारी की दशा को उन्होंने ‘नारी विशेषांक’ की सम्पादकीय में बेखौफ प्रकट किया है –
‘पुरूष-प्रधान समाज और बाहुबल से संचालित सत्ता की परम्पराओं ने नारी को दूसरे दर्जे पर ढ़केल दिया। उसके अधिकार एक बार छीने गये तो दोबारा नहीं लौटाये गये। पुरूष ने अत्यंत निष्ठुरता और अन्याय पूर्ण व्यवस्था तथा कूटनीति से संचालित किया। नारी एक बार कुव्यवस्था और वीभत्स जटिल ताने-बाने में फंसकर रह गई, तो कभी मुक्त नहीं हो पायी। ……….. राजतंत्र और धर्म के निष्ठुर गठबंधन ने नारी को पुरूष की दासी बनाकर रख दिया है।…………..कामवासना की पूर्ति के लिये स्त्रियों को दासी बनाकर रखा गया। युद्ध में लड़कर, जीतकर स्त्रियों को एकत्रित कर अपने रानिवासों में भर दिया जाता था। वहीं यज्ञ का पाखण्ड रचकर पाखण्डी दान-दक्षिणा में हजारों पशु तथा दासियों को दान में लेते थे।’ (आत्मदृष्टि, सम्पादकीय वर्ष 3 अंक 2 पृ.1)
सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने पुरूष द्वारा अमावनीय अस्त्र शस्त्रों से की गई नारी की दुर्दशा को, -तथ्य-सत्य के साथ हृदय विदारक रीति-नीति से उजागर किया है। यह सत्य है पुरूष के पौरूषीय व्यवस्था में नारी को वह स्थान नहीं मिला, जो उसे मिलना चाहिये था। पुरूष ने नारी को भोग्या के रूप में देखा, जिसके कारण उसे घर की चार दीवारी के कारावास से बाहर नहीं निकलने दिया। नारी को खुली सांस नहीं लेने दी। उनकी नारी-विशेषांक की सम्पादकीय नारी के पक्ष को उजागर करती है।
मेहरून्निसा परवेज़ को लोक-जीवन, लोक-पर्व, लोक-संस्कार, लोकगीत के प्रति अत्यधिक लगाव है। इस भावना से प्रेरित उन्होंने पर्वों से संबंधित विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं। वे तीज-त्योहार, लोक-संस्कार, लोक-जीवन को जीवन के उल्लास के लिये अनिवार्य मानती हैं, जो आज लोप हो रहे हैं, उन उछलते-कूदते झरनों के समान जो दौड़ धूप आपाधापी की भीषण ऊष्मा से विलुप्त होते जा रहे हैं। त्यौहारों अर्थात् पर्वों पर उन्होंने अपने विचार सम्पादकीय के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किये हैं-
‘रोज सूरज निकलता है, दिन निकलता है, रात होती है, पर ईद, दीवाली, क्रिसमस, होली और न्यू-ईयर भी तो रोज नहीं आते। त्योहार आते ही एक अनोखा जुनून खुमारी सी लगने लगती है, कि हर चीज सामान्य होते हुये भी, हर चीज, अनोखी और अनूठी लगती है। वह उमंग किसी भी धन और साधन से ग्रसित नहीं होती। त्योहार की एक और खास बात है कि खुशी की फुहार गरीब तथा अमीर सबको एक साथ सराबोर करती है, कोई भेद नहीं होता, सबको एक सा सुख प्रसन्नता मिलती है।’ (समरलोक वर्ष 7 अंक 4 पृ. 4)
पर्व अर्थात् त्योहार जीवन में गति का संचार करते हैं तथा कभी भी छोटे-बडे़, गरीब-अमीर में भेदभाव नहीं करते। उनके आगमन पर झोंपड़ी, घर, महल में आनंद की धारा समान रूप से प्रवाहित होने लगती है। सबके चेहरों पर चमक दिखायी पड़ने लगती है। यह मेल-मिलाप उमंग के प्रतीक हैं, जिसके संबंध में मेहरून्निसा परवेज़ सटीक लिखा है।
युवाओं का राष्ट्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वह देश के भावी निर्माता है। देश के योगदान में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पर आज अर्थात् वर्तमान में देश उनके प्रति चिंतित है। सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ को भी उनके भविष्य और कार्य-शैली के प्रति चिंता है। इस कारण से उन्होंने अभी तक ‘युवा-विशेषांक‘ तीन निकाले हैं; जिनमें सम्पादकीय के द्वारा युवाओं के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की है। उनकी चिंता का सम्पादकीय अंश इस प्रकार है-
‘आज अनियंत्रित युवा-वर्ग को देखकर धक्का लगता है। जिधर देखो उधर भीड़-ही-भीड़ दिखती है। लोग बेतहाशा भागते ही दिखते हैं। सरकारी दफ्तरों में नौकरी के लिये लम्बी कतारें, पुलिस की भर्ती में मैदानों में लगे मेले की तरह इकट्ठा लोग, किसी नेता की अगवानी के लिये स्टेशन में उत्तेजित जुलूस की शक्ल में जिंदाबाद के नारे लगाते, दंगे करते, तोड़फोड़, लूटपाट में शामिल युवा-वर्ग को देखकर हैरानी होती है।‘ (आत्मदृष्टि सम्पादकीय समरलोक वर्ष 4 अंक 4 पृ. 3)
सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने युवाओं की वर्तमान अस्थिर स्थिति-परिस्थिति पर सही टिप्पणी की है। वर्तमान में युवाओं की यही स्थिति है। अतः उनमें असंतोष, आक्रोश होना स्वाभाविक है, जो उन्हें पथभ्रष्ट कर रहा है।
कलम के सिपाही प्रेमचंद और नयी कविता एवं प्रयोगवाद के प्रवर्तक सच्चिदानंद हीरानन वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ विशेषांकां में सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने सम्पादकीय लिखकर, उनका सम्मान किया है। उन्हें भाव विचार के श्रृद्धा-सुमन सादर समर्पित किये हैं। कथाकार प्रेमचंद पर कुछेक विद्वान साहित्यकारों और मनीषियों ने अपने को चर्चा में लाने के लिये उनके व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालने का प्रयास किया है। इसमें उन्हें सफलता भी हासिल हुई है। पर यह सभी जानते हैं सूर्य पर धूल फेंकने पर, सूर्य का प्रकाश समाप्त नहीं हो सकता, वह सदैव ही उतना ही प्रकाशमान रहेगा जितना वह पहले था। इस स्थिति में सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने तहेदिल से क़लम के सिपाही प्रेमचंद के पक्ष में सम्पादकीय के द्वारा अपने सटीक विचार बेखौ़फ व्यक्त किये हैं-
‘प्रेमचंद जी ने अपने जीवन में कितना संघर्ष किया, फिर भी निरंतर लिखते रहे हैं। आज भी लोग उन्हें कटघरे में खड़ा करते हैं। जीते जी तो सुख मिलता नहीं, मरने के बाद भी लोग विवादों में घसीटते फिरते हैं। शोषित एवं पीड़ितों के दुख-दर्द को गहराई से महसूस करने वाले प्रेमचंद को कार्य का उचित सम्मान नहीं मिल पाया है। प्रेमचंद के पात्र होरी, जोखू, घीसू आज भी हमारे समाज में उपस्थित दिखते हैं जिन्हें खुद को यह पता नहीं कि उनके दुख-दर्द को समान भाव से महसूस करके लिखने वाला दूसरा प्रेमचंद नहीं जन्मा है। सौ वर्ष पहले प्रेमचंद ने ही साहूकारों और धर्म के ठेकेदारों के शोषण एवं आडम्बर को जिस तरह बेनकाब किया था उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती।‘
इसके आगे लिखा है-
‘आज का लेखक समाज से विमुक्त हो रहा है और अपने कुचक्रों की फेरी लगाते दिख रहा है। समाज को लिखने वाले राजनीति की ओर बढ़ गए हैं। लेखक सियासत के दलदल में फंसकर रह गया है, जबकि प्रेमचंद ने अपने मुद्दों पर धर्म और राजनीति की आंच कभी आने नहीं दी। वह शुद्ध लेखक ही रहे।‘ (आत्मदृष्टि समरलोक वर्ष 6 अंक 4, जन-मार्च 2005 पृ. 4)
सम्पादक को बेबाक और मुखर होना चाहिये। बिना भय के लिखना उसका धर्म है, दायित्व एवं कर्तव्य भी। जिसका निर्वहन सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ ने किया है। वह अन्याय से समझौता नहीं करतीं। फलतः प्रेमचंद के लेखन के सद्गुणों को ईमानदारी से व्यक्त कर आज के अवसरवादी रचनाधर्मियों पर उन्होंने कटाक्ष किया है, जो अवसर का लाभ लेकर रचनाएं लिख रहे हैं।
मेहरून्निसा परवेज़ ने सम्पादकीय में नई स्व-निर्मित सूक्त्तियों का भी प्रचुरता से प्रयोग किया है, जो सायासित नहीं हैं। सूक्तियों में जीवन-दर्शन होता है। सूक्तियां अनन्त-काल तक जीवित रहकर लैंपपोस्ट के समान मानव का पथ प्रदर्शित करती हैं। सामान्य-से-सामान्य जन उनका जब चाहे तक अवसरानुकूल प्रयोग करता है तथा जीवन-पथ को प्रशस्त करता है। ऐसी ही कालजयी सूक्तियां सम्पादक मेहरून्निसा परवेज़ की सम्पादकीय में मिलती हैं- (क) जीवन के जितने नियम बनाते चलिये सब में समय का हस्तक्षेप चिपका रहता है। (ख) समय का अर्थ निर्धारित भाग्य है। (ग) समय एक व्यापक सत्ता है। (आत्मदृष्टि वर्ष 1 अंक 2 समरलोक पृ.3) स्वतंत्रता सतर्कता की कीमत चाहती है। (च) भारत में लोकतंत्र और समानता के दर्शन पर आधारित व्यवस्था के संरक्षण एवं संवर्धन अपनी कीमत चाहते हैं। (छ) लोकतंत्र की धुरी मानव है। (ज) सम्प्रदाय का परचम फैलाने वाले लोग सद्भाव की संभावनाओं को अंकुरित होते ही कुचल देना चाहते हैं।(आत्मदृष्टि वर्ष 1 अंक 3 समरलोक पृ. 3) (झ) जीवन हमेशा अनंत रहस्य तथा हादसों का पेरामिड ही होता है, जिसके भीतर नाना प्रकार के रहस्य छुपे रहते हैं।(आत्मदृष्टि वर्ष 15 अंक 3 समरलोक पृ. 4)
जीवन को दिशा देने वाली अनेक सूक्तियां मेहरून्निसा की सम्पादकीय में हैं, जिससे जीवन की वास्तविकता का बोध होता है। सामान्य और विशिष्ट-जन उनसे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकाश से मानव जीवन सुखी हो सकता है, साथ ही जीवन मार्ग को आसानी से तय कर सकता है। सम्पादक की सम्पादकीय से सूक्तियां एकत्रित करने पर एक सूक्ति की पुस्तक बन सकती है।
मेहरून्निसा परवेज़ की सम्पादकीय में वर्णनात्मक, विचारात्मक, काव्यात्मक, चित्रात्मक आदि शैलियों का संगम है। यह शैलियां सम्पादकीय को रोचक तथा बोधगम्य बनाती हैं। चित्रात्मक और विचारात्मक शैली के नमूने, भाषा-गठन के सौन्दर्य को व्यक्त करने में सक्षम हैं यथा-
क- चित्रात्मक शैली :- ‘सावन की लगातार बारिश नमी के बाद खुला आसमान और चमचमाती पसरी धूप के चितकबरे बिछे कालीन को देखकर कितना सुख और सुकून मिलता है। गरम धूप के सेंक लेने को मन मचलने लगता है।‘(समरलोक वर्ष 4, अंक 3, पृ.3)
ख- विचारात्मक शैलीः- ‘आज नारी का अस्तित्व भी दुर्लभ पक्षी मैना की तरह क्यूं समाप्त होता जा रहा है। संसार जब से बना है, उसके पीछे जाल क्यों फेंका जाता रहा है? पवित्रता सिद्ध करने के लिये आज भी अग्नि में चढे़ गरम कढ़ाही में तेल में हाथ डालना पड़ता है। जंजीरों में कैद रखा जाता है। बेकरी में भूना जाता है या फिर मंत्री और अफसरों की हवस के कारण मौत की सुरंग में फेंका जाता है। हमेशा उसके गुणों के कारण ही, उसे दुख दिया गया।‘ (समरलोक वर्ष 6 अंक 1 पृ. 4)
इन अंशों में सम्पादक ने चित्रात्मक और विचारात्मक शैली की गुणवत्ता से सम्पादकीय में चार चांद लगा दिये हैं, जिसे एहसास और महसूस किया जा सकता है।
मेहरून्निसा परवेज़ की सम्पादकीय की भाषा सहज, सरल और बोधगम्य है। इसका निर्माण हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा के शब्द-विन्यास से हुआ है। इस भाषा को उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा अर्थालंकारों ने अलंकृत किया है और मुहावरों के छोंक ने व्यंजक तथा स्वादिष्ट बनाया है। जिसे अस्वाद स्वाद लेकर आनन्दित हो सकता है। यह सच है अलंकारों के योग से भाषा रोचक हुई है, यह सम्पादक की भूमिका का कमाल है।
उल्लेखित विवेचित सम्पादकीय संबंधी, विषय एवं शिल्प संबंधी तथ्यों की सत्यता के आधार पर कह सकते हैं कि मेहरून्निसा परवेज़ की सम्पादकीय में वे सभी गुण एवं विशेषताएं हैं, जो साहित्य-विधा में होती हैं। इन गुण और विशेषताओं के कारण उनकी सम्पादकीय साहित्यिक-विधा की कोटि अर्थात श्रेणी में आती हैं, इसमें दो मत नहीं हैं।
लक्ष्मण सहाय
लक्ष्मीगंज, लश्कर,
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