कहानी-जंगल कथा-लोकबाबू

जंगल गाथा

प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न छत्तीसगढ़ की अमीर धरती पर गरीबी घासफूस की तरह फैली हुई थी। इसी घासफूस पर सिर उठाये एक छोटा-सा गांव आबाद है – कंडेल गांव। धमतरी जिले के इस गांव के बारे में लोग कहते हैं कि यहां कभी महात्मा गांधीजी के पांव पड़े थे।
सात-आठ दशक पुरानी बात गांववालों को अब कम ही याद है। उस पीढ़ी के लोग भी अब नहीं रहे। मगर केशव……….. केशव का नाम बच्चे-बूढ़े सभी जानते हैं। ……………वो घेंघर्रा टूरा! मनखे मन ले डर्राथे! गऊ बनात-बनात भगवान हं वोला मानुश रूप दे दिस।
पतली-दुबली काया पर लम्बी केशराशि, मटमैला श्याम शरीर, शरीर पर गंदे अजीब, अपर्याप्त कपड़े। घिघयाली ज़बान और आंखों में स्थायी भय। अठ्ठारह साल के केशव को सबके बीच अलग से पहचाना जा सकता था। पांच ही साल तो हुए हैं उसे गांव से गये। मगर अब भी कहीं वह भीगी बिल्ली सा चुपके से आ प्रकट हो तो सब उसे पहचान लेंगे। केशव के मां-बाप मर चुके थे। वह भैया-भाभी के पास रहता था। भैया ने उसे लतेलू दाऊ के यहां वार्षिक दो खंडी धान (लगभग 1200 कि.ग्राम) के बदले नौकर रख छोड़ा था। वह तीन वर्षों से यह काम कर रहा था। दाऊ की बकरियां चराने का काम। उसे यह काम भाता तो था, मगर शाम को लौटने पर दाऊ की बेगारी उसे खलती थी। विधुर दाऊ उससे पैर दबवाता, चिलम भरवाता, बिस्तर लगवाता और कभी-कभी अपने साथ बिस्तर पर खींच लेता। उसके घिघयाने पर लात जमा देता। उसके समय पर भोजन की फिक्र न भैया-भाभी को थी और न दाऊ को। एक को धान से मतलब था तो दूसरे को बेगारी से।
मानसिक रूप से कुछ अविकसित केशव से बकरी चराने के अलावा और कोई काम ठिकाने से होता भी नहीं था। उसे सब तरफ से डांट और मार पड़ती। कभी खाना न मिलने पर वह घर से बाहर घिघयाता पड़ा रहता। बिना बुलाये घर के अंदर जाने का साहस न था। बाहर के लोग भी उसकी उपेक्षा और अपमान करते। बड़े तो बड़े छोटे बच्चे भी उसका मजाक उड़ाते। अनेक बार उसने मर जाने की कोशिश की। एक गर्मी की रात वह तालाब में जा डूबा। मगर गांव का कुत्ता साथ-साथ पानी में तैरता उसे खींचता रहा। वह मर न पाया। एक बार चूहा मारने की दवा पानी में घोल पी गया, मगर मात्रा कम होने से बच गया।
सपने में अकसर उसे भूत-प्रेत दिखायी पड़ते। वह उठ बैठता। घिघयाती जबान में भजन गाने लगता। रात में उसकी बेसूरी, खौफनाक आवाज लोगों की नींद उड़ा जाती। लोग उसे चुप कराते या फिर कहीं दूर भगा देते। वह गांव से बाहर तालाब की मेड़ पर जा बैठता। गांव का वही एक लावारिस कुत्ता-जो सबका था और किसी का भी नहीं – उसके पीछे हो लेता। केशव को लगता यह कुत्ता ही उसे समझता है। उसका साथी है।

एक दिन कंडेल गांव में नागा बाबाओं का आगमन हुआ। वे चार थे। अमरकंटक से आ रहे थे। उनका असल डेरा वहीं था। वे इधर प्राचीन सप्त-ऋषियों में अंगीरा, श्रृंगी, मचकुंद और गौतम के आश्रमों की परिक्रमा पूरी करने के लिए निकले थे। कपिल, भृगु और अगस्त मुनि के आश्रम के दर्शन अमरकंटक में रोज ही हो जाते थे। दण्डकारण्य (बस्तर) के इस भाग की यात्रा के बिना परिक्रमा अधूरी थी। नागा बाबाओं को जीवन की सार्थकता इसमें दिखती। कंडेल से यह दूरी सौ किलोमीटर के लगभग थी। यात्रा पैदल थी। जगह-जगह विश्राम की जरूरत पड़ती। एक रात उन्होंने कंडेल गांव में विश्राम किया।
प्रातः चार बजे वे आगे की यात्रा को निकले। पलट कर गांव की तरफ देखा तो एक किशोर को अपना अनुगमन करते पाया। यह केशव था। नागा बाबा रूके। केशव उनके चरणों में जा गिरा। घिघियाकर बोला-महाराज, मैं घलो चलहूं। मना झन करिहौ!

तीन दिन की यात्रा के बाद वे नगरी-सिहावा में भी एक रात विश्राम किया था, मगर वह जगह उन्हें पसंद न आयी थी। श्रृंगी-ऋषि की पहाड़ी का सौंदर्य नष्टप्राय था। चारों तरफ आबादी घिर आयी थी। जबकि सोंढूर बांध के किनारे मचकुंद ऋषि का आश्रम अपने चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य के साथ विराजमान था। चारों तरफ जंगल, पहाड़, …………………. केशव का मन प्रफुल्लित हो गया। ऐसा दृश्य उसने पहली बार देखा था। उसके जीवन को शायद इसी जगह की तलाश थी।……………..अब वह यहां से कहीं नहीं जायेगा।
भोजन को लेकर यहां भी उसे थोड़ा दुख था। उसके भोजन की व्यवस्था नहीं थी। युवा बाबाओं को लेकर एक भक्त दूर पहाड़ी पर चढ़ता नजर आ रहा था। केशव गिरता पड़ता उसके पीछे हो लिया। भूख उसे ठीक से चलने न दे रही थी। उस पर पहाड़ी में भालूओं और तेंदुओं का भय! जगह-जगह उनकी लीद पड़ी थी। रास्ते में एक जगह उसने बेल का पेड़ देखा। पेड़ पर बेल लटके थे। पके थे। पेड़ के नीचे भी फूटे हुए पड़े थे। अंदर का गूदा गायब सिर्फ खोटलियां। भालुओं ने गई रात यहां पेड़ से बेल तोड़ खाये होंगे। नीचे जमीन पर चारों तरफ दृष्टि डालने पर केशव को दो बेल साबूत मिल गये। केशव ने झटपट दोनों बेल उठा लिये। पत्थर पर रखकर फोड़ा और खा गया। अब शरीर में कुछ जान आयी। वह फिर युवा बाबाओं का पीछा करता आगे पहाड़ी चढ़ने लगा। अंततः वह पहाड़ी की ऊंचाई पर पहुंच गया।
उसे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि पहाड़ी पर तालाब भी है। साफ पानी से भरा हुआ तालाब। पानी जितना साफ था, नीचे उतना ही कीचड़। वह पानी पीने तालाब में उतरा तो घुटनों तक कीचड़ में जा फंसा। पानी कमर तक आ गया। कपड़े भीग गये। किसी तरह उसने कीचड़ से अपने पाँव निकाले और पानी पर तैरने लगा। उसे मजा आ रहा था। कपड़ों सहित अपने मन भर स्नान किया।
थोड़ी देर बाद वह तालाब से निकला। दूसरे कपड़े पहनने के लिए उसके पास थे नहीं। उसने आसपास बाबाओं को तलाशा, मगर उसे अपने सिवा कोई जीव नजर नहीं आया। अब क्या किया जाये ?…………..उसने अपने सारे कपड़े उतारे और दूर एक झाड़ी पर सूखने के लिए डाल दिये। निर्वस्त्र कहां घूमे! वह पास की एक गुफा में घुस गया। गुफा में एक दिशा से कूलर जैसी ठंडी हवा आ रही थी। वह लेटा तो नींद भी आ गयी। जल्दी ही उसकी नाक बजने लगी। जैसे वह मुंह से घिघयाता था, नींद में उसकी नाक से भी अजीब और डरावनी आवाज निकलती थी।
तालाब के किनारे खड़े दो मंदिरों को दिखाने के बाद, आस-पास की पहाड़ी-गुफाओं और मूर्तियों को दिखाता भक्त युवा-बाबाओं के साथ उसी गुफा के करीब पहुंचा। गुफा में अंधेरा था। बाहर सूरज की रोशनी में चौंधियाती आंखों से अंदर और घना अंधेरा प्रतीत होता था। भक्त युवा-बाबाओं को बता रहा था कि यह जो सामने गुफा है, इसके अंदर से एक रास्ता है। रास्ते से उस पार निकलने पर पूरा इलाका साफ दिखायी पड़ता है, जैसे हम हवाई-जहाज में बैठकर नीचे देख रहे हों। अन्य गुफाओं के बनिस्बत यहां ज्यादा ठंडी और मोहक हवा चलती है। मुझे तो लगता है ऋषि मचकुंद यहीं रहकर तपस्या किया करते होंगे!
भक्त के पीछे तीनों बाबा गुफा के संकरे द्वार से अंदर जाने को हुए। तभी भक्त हड़बड़ाकर पीछे लौटा। उसके साथ नागा बाबा भी गिरते-पड़ते भागे।
-क्या था, क्या था ?
भक्त सरपट भाग रहा था।
-मुझे लगता है वहां काला तेंदूआ सोया है। जल्दी भागो। यदि जाग कर पीछे आया तो पहाड़ी से कोई जिंदा नीचे नहीं उतरेगा!
बाबाओं ने कभी काला तेंदुआ नहीं देखा था। मगर जान जोखिम में डालकर उन्हें यह मंजूर नहीं था। वे एक-दूसरे को पीछे छोड़ते आगे भाग रहे थे। पीछे पलट कर देखने को भी किसी ने साहस नहीं किया। जल्दी ही वे पहाड़ी से नीचे मंदिर में हांफते-कांपते पहुंच गये। बुजुर्ग बाबा ने पूछा- क्या हुआ ?
-हम लोग एक गुफा में घुस रहे थे। वहां काला-तेंदुआ सोया पड़ा था। हम को देखकर गुर्राया। हम प्राण बचा कर भाग आये।
-जंगली जानवर है। गुर्रायेगा ही। यही उसकी जुबान है!
-बुजुर्ग बाबा उपदेश देने लगे -तुम लोग नाहक डर गये। हो सकता है वह तुम्हें देखकर नाराज न हुआ हो। तुम्हारा स्वागत कर रहा हो। इधर तो हजारों पहाड़ियां हैं। बहुत सी चर्चित हैं, पवित्र हैं। सप्तर्षियों का आवास हैं। तेंदूआ भी कोई साधारण न होगा। किसी जन्म का ऋषि होगा। ऋषि मचकुंद भी हो सकते हैं! उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से तुम्हें देखा होगा ! तुम्हारा यहां आना सार्थक हुआ, बालकों। प्रभु का नाम लो और बैठकर ऋषि मचकुंद का दस मिनट ध्यान करो !
शाम चार बजे केशव की नींद खुली। बहुत गहरी नींद सोया था वह। उसने झाड़ी से कपड़े उतारे और पहन लिए। फिर सारी पहाड़ी छानने लगा। कोई न मिला। वह पुनः तालाब के करीब पहुंचा और पानी पी गया। फिर बेल उठाते-खाते पहाड़ी से नीचे उतर गया। अंधेरा हो आया था। युवा बाबा आसपास टहल रहे थे। दो-तीन ग्रामीण बुजुर्ग बाबा के साथ गांजा पीते लोक-परलोक के साथ ही जंगली जानवरों की बातें कर रहे थे। बाबा कह रहे थे- जानवरों में भेड़िया सबसे हिंसक है। उनकी टोली में यदि कोई भेड़िया अपाहिज या बीमार या कमजोर हो जाये तो बाकी भेड़िये उसे मार कर खा जाते हैं।
केशव सीधे जाकर बुजुर्ग बाबा के पांव दबाने लगा। बाबा ने अपने पैर और जरा लम्बे कर दिये। तभी किसी बात पर बुजुर्ग बाबा ने अपनी पोटली खींची और दुर्गा सप्तशती की दो रूपये वाली पुस्तिका निकालकर उन ग्रामीणों को एक-एक दे दी। अपनी पोटली बांधते हुए उन्होंने कहा- सच्चे मन से इसका पाठ करो, तुम्हारा संकट जरूर टल जायेगा।
एक ग्रामीण ने पुस्तिका उलट-पुलट कर देखी, फिर बोला- नागा बाबा, मोला माफ करना, मय पढ़ै नइ जानो !
नागा बाबा ने वह पुस्तिका ले ली और केशव की ओर बढ़ाते पूछा- बच्चा, तू कुछ पढ़ा लिक्खा है ?
केशव ने बां-बां कर ‘हां’ में सिर हिलाया तो बाबा ने वह प्रति केशव के हाथों में रख दी। केशव के मुंह से निकला – पहली किलास !
दूसरे दिन अंगीरा-ऋषि के आश्रम वाली पहाड़ी का कार्यक्रम बना। बुजुर्ग बाबा की तबीयत पूरी ठीक अब भी नहीं थी। फिर वह यहां की चप्पा-चप्पा पहाड़ी पिछली यात्राओं में छान चुके थे। अतः उन्होंने एक दूसरे भक्त को आदेश दिया कि वह नये बाबाओं को अंगीरा ऋषि की पहाड़ी घूमा आये। वह भक्त बाबाओं को लेकर अतिप्रातः चल पड़ा। केशव असमंजस में था। वह क्या करें ? उसकी ओर किसी ध्यान ही नहीं। ये लोग उसे कुछ समझते ही नहीं हैं। वह थोड़ी देर यूं ही बैठा रहा। फिर इधर-उधर टहलता रहा। युवा-बाबाओं के पीछे जाने का मन न हुआ। अतः वह मचकुंद-ऋषि की पहाड़ी पर ही फिर चढ़ गया। बेल के अलावा अच्छी छान-बिन पर उसे तेंदू के फल भी खाने को मिले। मगर जी भर भोजन की हसरत मन से जाती न थी।

नागा बाबाओं के साथ केशव को आये चार दिन हो गये थे। पीछे तो कुछ था नहीं, सिवा कंडेल के कुत्ते और दाऊ की बकरियों के। भैया-भाभी तो खुश होंगे कि उससे पीछा छूटा। मगर ये जंगल, ये पहाड़ उसे भा रहे थे। उसे लगता, वह भी जंगल का कोई एक पेड़ है या जंगल का जीव। इन पहाड़ों और जंगलों के बीच बसे हुए छोटे-छोटे गांव भी उसे इसी प्रकृति का हिस्सा लगते। अब वह अकेला टहलने दूर निकल पड़ता। कभी इस इस पहाड़ तो कभी उस पहाड़ पर वह चढ़ जाता। सरई-साल के घने वनों से होकर गुजरना उसे भला लगता। बाबा के पास गांजे के धुंये से घिरे बैठे रहने की अपेक्षा यह सब बहुत भला भी था।
बुजुर्ग बाबा की तबीयत ठीक हुई। युवा-बाबाओं को लेकर वे एक दिन मंदागिरि की ओर चल पड़े। यह गौतम-ऋषि के आश्रमवाली पहाड़ी थी। यहीं पर पत्थर बनी अहिल्या देवी स्थित थी। डोलन पत्थर था। युवा-बाबाओं को इसी पहाड़ी को देखने-घूमने की उत्कट इच्छा थी। मगर यहां अमरकंटक की तरह ऊंचे-विशाल पर्वत न सही, रहने के लिए उचित आश्रम भी न थे। मंदिरों की कमी थी। भक्तों और दर्शनार्थियों के लाले पड़े हुए थे। पूजा-अर्चना और चढ़ावा तो लगभग था ही नहीं। उधर बुजुर्ग नागा बाबा ने अभी एक-दो माह मचकुंद-ऋषि के मंदिर में रूकने के मन बना लिया था। उन्होंने युवाओं को समझाया-पर्यटन के लिए सरकार इन पहाड़ों का सुन्दरीकरण करवाने वाली है। अभी प्राकृतिक रूप में जी भर कर देख घूम सकते हो!
वे रूकना चाहते हैं तो रूकें! – युवाओं ने आपस में तय किया – मगर अब हम यहां अधिक दिनों नहीं रूकेंगे!

जिस दिन सुबह नागा बाबा मंदागिरि पहाड़ी के लिए निकले थे, उनसे एक घंटा पहले केशव बांध की ओर टहलने निकल गया था। कुछ दिन चढ़े लौटा तो मंदिर में उसे कोई भी न मिला। वह भी अंदाज से मंदागिरि की ओर चल पड़ा। सोंढूर से मंदागिरि की दूरी तीन किलोमीटर थी जंगल में अकेले चलते केशव रास्ता भटक गया। असमंजस में उनसे ग्रीष्म में सूखी पड़ी सोंढूर-नदी पार की और ग्राम – गादुल-बाहरा पहुंच गया। गांव में एक घर में शादी का मण्डप तना था। ऊंचे स्वर में टेपरिकार्डर से फिल्मी गाने बजाये जा रहे थे। शादी का कार्यक्रम हो चुका था। बारातियों के बाद गांववालों के भोजन करने की बारी थी। केशव भी खाने वालों की पंगत में बैठ गया। भोजन करने के बाद वह टहलता हुआ दूर खड़े एक आदमी के पास पहुंचा। वह आदमी बीड़ी पी रहा था। और अकेला था। शादी के इस कार्यक्रम से उसे कोई मतलब नहीं था। उसका अपना अलग कार्यक्रम था। केशव ने उससे मंदागिरि का पता पूछा। केशव की घिघियाती जुबान से पहले तो वह चौंका – ये किस जीव की आवाज है! फिर सहज होकर बोला –
– पहाड़ कि गांव?
– पहाड़!
– वो सामने!
– अऊ गांव?
– पहाड़ के नीचे, किनारा में!
– पहाड़ के रस्ता?
– मांदागिरि गांव के पास ले।….तुम मांदागिरि जाहू का?
– हव!
– मय उहि गांव के हौं। मय घलो जाहूं।
– त चल न! मय रस्ता भटक जाहूं।
– मोर एक साथी रात के बेबस्था बर गे हावै। आवत होही। फेर चलबो। तुम मांदागिरि म काकर घर जाहू?
– काकरो घर नाहिं! मय पहाड़ म जाहूं। नागा बाबा के शिष्य हौं। वो मन आज पहाड़ म गे हावैं। मय रस्ता भटक गेंव।
– सन्यासी हो?
– हव!
वे दोनों बीड़ी पीने लगे। इतने में उसका साथी आ गया। एक गंदी-सी युरिया खाद की थैली में प्लास्टिक का चार लीटर का डिब्बा था। डिब्बे में महुए की कच्ची शराब भरी थी। वे दोनों व्यवस्था में गादुल-बाहरा आये थे। पास आने पर उसके साथी ने पूछा – मिलिस ?
– हव! चार बोतल!
– पइसा मांगिस?
– नहिं। गांजा के बदला म दिस।……. ये कौन हे ?
– ये नागा बाबा के चेला हे। पहाड़ म जाही।
– अब त शाम हो गय। तेंदुआ खा डारहि।…….. चल हमार गांव, सबेरे उठके चढ़ जाना पहाड़!
केशव उनके साथ हो लिया। उन दोनों के पास एक ही साइकिल थी। तीनों पैदल चलने लगे। घने जंगलों के बीच उनके गांव पहुंचते अंधेरा हो चुका था। एक घर के सामने वे रूके। घर में लालटेन जल रही थी। बाहर आंगन में गाय, बछड़े, मुर्गी और सुअरों का रेल-पेल मचा था। सब इसी घर के सदस्य थे। थोड़ी दूर पर भारी मात्रा में धान-पैरा रखा था। सूखी जलाऊ लकड़ियों के कई गट्ठर पड़े थे। यह घर केशव से बाद में मिले व्यक्ति का था। उस व्यक्ति ने जानवरों के बीच रास्ता बनाया। घर के अंदर गया। लोटे में पानी, खाली गिलास, प्याज, सूखी मिर्च और नमक लेकर लौटा, उसने सारा सामान एक खाट पर रखा। टहलते जानवरों को उसने उनके अलग-अलग दड़बों में बंद किया। फिर फुरसत से आकर इन दोनों के पास दूसरी खाट पर बैठ गया। घर के अंदर से जनाना और छोटे बच्चों की आवाज बीच-बीच में आ रही थी। दूसरे व्यक्ति का घर यहां से पास ही था।
– नागा बाबा के चेला हो तो ज्ञान-ध्यानी होबे करहू!
केशव कुछ न बोला। पड़ोस में जिसका घर था, उस व्यक्ति ने तीन गिलास में कच्ची शराब ढाली। केशव ने देखा तो मना किया।
– मय दारू नई पीवंव!
– तुम अतिथि हावव। थोर किन पी लौ। शरम के बात नइ हे। हम नागा बाबा ल बताय बर नइ जाबो!
– दारू सब दुस्करम के जड़ हे जी! मय नइ पीववं!
– जंगल म रहना हय हाड़-तोड़ मिहनत करना हय। बिना उम्मीद अउ मकसद के जीना हय………….. दारू न रहै त आदमी चार दिन के बदला दू दिन म मर जाय!
– मय बीड़ी पीहुं जी!
उनमें से एक ने उसे बीड़ी और माचिस दी। फिर स्वयं का गिलास खाली किया। एक ने केशव के गिलास की शराब अपने गिलास में ढाल ली। दूसरे ने डिब्बे से अपना गिलास फिर भर लिया। वे दोनों मिर्च में नमक लगाकर बीच-बीच में चख भी रहे थे। प्याज खा रहे थे।
– हमार संग दारू पी लौ त तुमन ल खाना भी मिलहि।
– मय कभू दारू नइ पीयेंव जी!
– आज पी लौ!
– जबरदस्ती हे का जी? केशव बोला, लेकिन फिर स्वयं डर गया। रात का यह आश्रय भी छोड़ना पड़ा तो वह जंगल के अंधेरे में कहां जायेगा!
– जबरदस्ती नइ हे। हम पीवत हन। तहू ल देवत हन।…………… महुंआ के फूल मुंह म त डारे होबे ? ये वो फुल के रस है, बस!
– अच्छा, थोरकुन दे दी जी!
उन्होंने अपना गिलास फिर भरा और केशव का भी। केशव ने सांस रोकी और गट्-गट् हलक के अंदर शराब उतार ली। महुंए की तेज गंध उसे विचलित कर गई। उन दोनों ने अपना तीसरा गिलास साफ किया। इतने में खाना आ गया। भाजी, दाल और भात सभी भोजन में जुट गये। भोजन के बाद गांजे का दौर शुरू हुआ केशव का सिर चकरा रहा था। नींद भी आ रही थी। मगर उन दोनों के जागते वह सो नहीं सकता था। गांजे का दौर चलने लगा। केशव को भी उन्होंने सहभागी बनाया। एक ने कहा-
-नागा बाबा, कभू कोनो बाई संग सोय हस ?
– नइ त…………..काबर जी?
– दुनिया ल ओकर बिना कइसे जान पाहू ?
– ये जरूरी हे का जी?
– अगर संसार ल पकड़हू नइ त छोड़हू काला? संयासी बने के पहिले संसार ल जान त लौ!
– मय जान गेंव जी!
– का जान गे?
– यही के, ये दुनिया आनी-जानी हे। कुछु अपन नइ हे।…………………सबला एक दिन मरना हे!
-अगर मरना तय हे, अउ कुछु अपन नइ ते, दूसर के घलो कुछु नइ हे!…………………..फिर त मजा लूट के मरना ठीक हे!
-दारू आदमी ल तामसी बना देथे। तुम नई……ये दारू बोलत हे!
-दारू त अब तुम घलो पीये हौ। तुमहु तामसी हो गय!
– मय त आप लोगन के मनराखन वास्ते पी गेंव। मगर भगवान सब देखत हे। वो दण्ड दिही।
– कोन ल दण्ड दिही, जी!
– हम तोला दारू घलो पीयान अऊ दण्ड घनो पान ?………………अच्छा देखत हन, दण्ड कोन पाथे!
गांजे की पाइप में अंगार डालने के लिए एक चिमटा पास रखा था। हाथ भर लम्बा। एक व्यक्ति ने चिमटा उठाया और ‘झम्म’ से केशव की पीठ पे दे मारा। केशव घराबकर उठ खड़ा हुआ। दूसरे व्यक्ति ने पहले वाले से चिमटा छीन लिया!………….अरे अइसे नइ…………………..अइसे लगा!
दूसरे ने झमा-झम केशव को पीटना शुरू कर दिया। केशव को लगा, अब यहाँ खैर नहीं। ये लोग उसे मार ही डालेंगे। वह प्राण बचाकर अंधेरे में भागा। पहाड़ और साल-वृक्षों के बीच अंधेरा और घना लगा रहा था। केशव असमंजस में था। किधर भागे। कहां छिपे। कुछ ही दूर पर उसे एक घर नजर आया। इस घर के बाहर भी धान-पैरा का ऊंचा टीला था। उसने पलट कर देखा। मारने वाले दोनों व्यक्ति पीछे नहीं थे। उसने झटपट पैरा हटाया। घुसने और छिपने की जगह बनायी। रात भर वह वहीं पड़ा रहा। शरीर चिमटे की मार से व्याकुल था, नींद नहीं आयी। सुबह की पहली किरण के सथ वह पैरा से बाहर निकला। आसपास कोई दिखाई न दिया। वह धीरे-धीरे सामने खड़े मंदागिरि पर चढ़ने लगा।

सुबह शराबियों का होश ठिकाने आया। वे जंगल के आदिवासी थे। एक सन्यासी को अकारण मारने का पाप मन में डर पैदा कर गया। अपनी करनी पर पछतावा हुआ। उन्होंने मंदागिरि ग्राम में उसकी तलाश की। वह कहीं न मिला। अतिप्रातः साल के बीज बटोरने निकली एक महिला से उनकी मुलाकात हुई। उससे पूछताछ की। उस महिला ने बताया कि घंटा भर पहले उसने एक लड़के को मंदागिरि पहाड़ पर जाते देखा है। वे दोनों भी पहाड़ पर चढ़ने लगे। जब ये मंदागिरि पर पहुंचे तो सुबह के नौ बज रह थे। गर्मी की धूप अभी से तेज होने लगी थी। एक गुफा के सामने छाया में उन्होने केशव को लेटे हुए देखा। वह अपनी घिघियाती जुबान से दुर्गासप्तशती का पाठ कर रहा था। अपनी आहट पाकर वह कहीं भाग न जाये, इसलिए ये दबे पांव उसकी ओर बढ़ने लगे। पहाड़ पर साल के अलावा, तेंदु, गुलशुखरी, बेल, आंवला, आदि के वृक्ष खडे़ थे। वृक्षों से लगी अनेक लतायें लटक रहीं थीं। भ्रम होता था, ये लतायें जमीन से ऊपर गईं या ऊपर से जमीन पर आईं हैं! एक मोटी लता पर उनके पांव पड़ गये। वह लता आंवले के वृक्ष पर चढ़ी थी। आंवले की एक डाल पर, जिसमें लता ने भी अपना विस्तार किया था, मधुमक्खी का एक छत्ता लटक रहा था। लता हिली तो छत्ता भी हिल गया। क्रोधित मधुमक्खियों ने उन दोनों पर धावा बोला।
यक-ब यक वे चिल्ला पड़े। केशव घबरा कर उठ खड़ा हुआ। उन्हें अपनी ओर बेतहाशा भागते देख वह थर-थर कांपने लगा। इस पहाड़ पर चढ़ने-उतरने के रास्ते पर तो वे दोनों ही थे। और किसी रास्ते की केशव को खबर नहीं थी। अभी-अभी ही तो वह इस पर चढा़ था। पहाड़ की भुलभुलैयाओं और रक्त-सिराओं से अपरिचित था। पीछे खाईं थी। भागने का कोई मौका नहीं था। नागा बाबा और उसके युवा शिष्यों का भी ऊपर कहीं अता-पता न था शायद वे कल संध्या को ही पहाड़ से उतर कर चले गये थे। केशव आंखें बंद कर एक चट्टान के सहारे खड़ा हो गया।उसके ओंठ बुदबुदाने लगे-हे भगवान, हे गौतम ऋषि, ये मानुष जात ले बचा।
मगर वे दोनों मानुष-जात दौड़ते हुए केशव के करीब पहुंचे और उसके चरणों से लिपट गये। अपने छत्ते से अधिक दूरी अथवा पर्याप्त मजा चखा देने की तृप्ति अथवा संयोगवश मधुमक्खियों ने उनका पीछा छोड़ दिया। अपने छत्ते में लौट गयीं। दर्द से कहराते शराबियों ने केशव को दण्डवत प्रणाम किया। क्षमा मांगी। निवेदन किया कि उनकी रात की गलतियों को माफ कर नीचे गांव चले। वह जब चाहे, उनके यहां रहे। उसके भोजन-पानी का सारा प्रबंध वे दोनां करेंगे। मगर केशव ने गर्दन हिला कर लौटने से इंकार कर दिया। रात की पिटाई उसे अच्छी तरह याद थी।
वे दोनों शराबी वापस लौट गये। गांव पहुंचकर उन्होंने केशव की बड़ी प्रशंसा की। उसे चमत्कारी, गुणी सन्यासी बताया।……………..मधुमक्खियों ने कैसे उन पर आक्रमण किया था और वे फिर कैसे केशव के कहने पर वापस लौट गई थीं! केशव पहुंचा हुआ बाबा है! देखने और बोलने में अजीब लगता है तो क्या हुआ। उसके हाथों में बड़ा जस है। वह मंदागिरि पर ही रहना चाहता है। उसे कोई कष्ट नहीं होना चाहिये। हम गांव वालों की जिम्मेदारी है। वह हमारे पहाड़ पर डेरा डाले है। यह हमारा और मंदागिरि का सौभाग्य है। अब जो भी व्यक्ति मंदागिरि पर जाये, अपने साथ एक बाल्टी पानी और खाने का कुछ सामान जरूर साथ लेकर जाये!
केशव को मंदागिरि- पहाड़ पसंद आ गया था। मंदागिरि पर दो-तीन जगहें ऐसी थीं, जहां गर्मी में भी थोड़ा-बहुत पानी चट्टानों के बीच भरा रहता था। जंगली फलों के वृक्ष और कंदमूल भी बहुत थे। सबसे गजब यह पहाड़ ही था, जो ऊपर बहुत ही आकर्षक और कुछ-कुछ समतल था। इसी पर अजीबोगरीब आकृतियों की चट्टानें थी। इन्हीं चट्टानों में लोग ऋषि पत्नी अहिल्या, भीम का हथियार, डोलन पत्थर, धान कुटने का बरतन, रौताइन आदि का आरोपण करते थे। चारों तरफ का नजारा और ताजी मनभावन ठंडी हवा छोड़कर वापस नीचे आने का मन न करता था। प्रकृति से जिनका जुड़ाव नहीं है, उनकी बात अलग है। केशव तो प्रकृति का ही अंग था। उसके लिए खुशी की एक और बात यहां थी। आबादी की अभाव!
केशव जल्दी ही प्रसिद्ध हो गया। पहले ग्राम मंदागिरि, मेचका, गादुलाबाहरा फिर खालगढ़, लीलांज आदि ग्रामों में उसकी प्रसिद्धि फैली। बाद में दूर-दराज के गांव में भी उसका नाम चमत्कारी-बालक के रूप में लिया जाने लगा। सांकरा, नगरी-सिहावा, मैनपुरी से से भी लोग उसके दर्शन को आने लगे। मंदागिरी पर चढ़ने वाला व्यक्ति अपने साथ भेंट की सामग्री के अलावा एक बाल्टी पानी लेकर जरूर चढ़ता। बाहर से आये दर्शनार्थियों को पानी और प्लास्टिक की बाल्टी का इंतजाम ग्राम मंदागिरि से ग्रामीणों द्वारा करवा दिया जाता। दर्शनार्थियों से उन्हें कुछ मिल जाता। लौटते समय बाल्टी वापस कर दी जाती। ग्राम मंदागिरी के भाग जाग गये। नये-नये दर्शनार्थियों, जान पहचान और रिश्तेदारों के आने से मंदागिरि ग्राम में एक नयी हलचल शुरू हो गयी। ग्रामीण बढ़ा-चढ़ा कर केशव से अपनी निकटता का बखान करते न थकते। केशव के नये-नये चमत्कार वे स्वयं गढ़ते और लोगों को चमत्कृत करते।
मंदागिरि पर्वत पर एक बड़ा सा पत्थर का कोटर था। दर्शनार्थियों द्वारा लाया गया पानी उसी कोटर में डाल दिया जाता। एक बड़ी सी गुफा में जो दूसरी ओर खाई में खुलती थी, भेंट की सामग्री, भोजन आदि रख दिया जाता था। वहीं एक गुफा मे ऋषि-गौतम की मूर्ति थी। लोग वहां पूजा-अर्चना करते। केशव के प्रत्यक्ष दर्शन भी करना चाहते, मगर यह मुश्किल था। इधर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी और उधर केशव की घबराहट।
वह लोगों से बात करने से बचता। लोग तरह-तरह के सवाल करते। उसे उत्तर न सूझता। वह मौन धारण कर लेता। अकसर वह अलग-अलग गुफाओं में छिपा बैठा नागा बाबा की दी दुर्गासत्पशती का हिज्जा कर-कर पाठ करता। उसके पल्ले कुछ पड़ता नहीं था, मगर मन को तसल्ली मिलती। इधर उसके दर्शन को आये लोग प्रतीक्षा करते-करते थक जाते और पर्वत से यूं ही नीचे उतर जाते। कुछ हठी दर्शनार्थी विभिन्न गुफाओं में उसे तलाशने लगते। केशव एक से दूसरी गुफा में जा छिपता। कम ही लोग उसे ढूंढ पाते। जिसे उसके दर्शन हो गये, वह अपने को धन्य समझता।

बुजुर्ग नागा बाबा को मचकुंद आश्रम में छोड़कर बाकी युवा-बाबा अमरकंटक लौट गये थे। बुजुर्ग बाबा ने मंदागिरि पर केशव के होने और उसकी प्रसिद्धि के किस्से सुने तो वह घबरा गये। अब इस इलाके में उनकी उपेक्षा न होने लगे! वह एक दिन अकेले ही मचकुंद-आश्रम से मंदागिरि की ओर चल पड़े। जब नागा बाबा मंदागिरि पर जा पहुंचे तो उन्हें एक अन्य व्यक्ति वहां नजर आया। उसने पर्वत पर अपना स्थायी आवास बना रखा था। यह रमेशर था। गादुल-बाहरा का रहवासी। बुजुर्ग था, मगर किशोर केशव का अंधभक्त बन गया था। शाम के चार बज रहे थे। दर्शनार्थी प्रायः सुबह से दोपहर तक ही रहते थे। रमेशर चौबीस घंटे पहाड़ पर पड़ा रहता। खाने-पीने की उसे भी चिंता न थी। चढ़ावा केशव और उसके लिए काफी होता। अपने खाने के बाद वे दोनां बाकी भोजन जंगली जानवरों के लिए भी छोड़ दिया करते थे।
रमेशर नागा बाबा को पहचानता था। पुराना भक्त था। देखते ही दौड़कर उनके चरणों में लोट गया। बाबा ने पूछा-रमेशर, तुम्हारी टांगें तो बेकार हो गई थीं, चल फिर नहीं पाते थे। लोगों ने बताया था! यहां तुम पहाड़ पर चढ़े दौड़ रहे हो?
रमेशर ने गद्गद् होकर कहा- केशव महाराज के कृपा है, बाबा! पहिले चार कदम चले म मोर टांग दुखन लागत रहाय। केशव महराज के दर्शन करे के एक दिन इच्छा होइस! घर ले निकलेंव त फेर पाछु पलट के नइ देखेंव। पांव के दुख पहाड़ चढ़ै म घलो नई जनाइस। सब केशव महराज के कृपा हे!
नागा बाबा ने आसपास नजर दौड़ाकर रमेशर से केशव के बारे में पूछा तो रमेशर ने उन्हें बताया कि अभी दो घंटे और रूकना पड़ेगा। वह स्वयं प्रकट हो जायेगा। उसकी खोज करना बेकार है। अकेला जाने कहां-कहां चला जाता है। छिप भी जाता है। दर्शनार्थियों से मिलना उसे अच्छा नहीं लगता। कभी मन होता है तो खुद बाहर आ निकलता है। आजकल तो वह बातचीत भी नहीं करता। जाने कौन-सी जड़ी-बूटी उसने चख ली है कि उसकी जुबान बंद हो गई है।………………मगर अब तो इस जंगल पहाड़ के जानवर भी उसको इज्जत देते हैं। सब उसे पहचानने लगे हैं। परसों रात को आश्रम में हम धूनी रमा कर बैठे थे। एक काला तेंदूआ आया। धूनी के दूसरी तरफ बैठ गया। मैं तो डर के कांपने लगा। मगर केशव आंखे बंद किये पड़ा रहा। कुछ देर बाद आंखे खोली और अजीब-सी आवाज निकाली। वह भयानक जीव उठा और पीछे पलट कर गायब हो गया। फिर वह दिखा नहीं। दूसरे तेंदूए अकसर कभी-भी रात में यहां आ निकलते हैं। केशव के पास से ऐसे गुजर जाते हैं जैसे वे तेंदुए नहीं गांव के कुत्तें हों। भालू तो रात में लगभग रोज आते हैं। भेड़िये और लकड़बग्घे भी आ जाते हैं। अपने भोजन से बचा हम उनके लिए पत्थर पर रख देते हैं। वे आते हैं और खाते हैं। थोड़ा-बहुत वे वापस में झगड़ भी लेते हैं। मगर फिर लौट जाते हैं। हमारा कुछ नुकसान नहीं करते!……. आप थक गये होंगे! बैठिये, मैं आपके लिए पानी-शरबत लाता हूं।
संध्या के छह बज रहे थे। सूरज डूब चुका था, मगर रोशनी अभी भी थी। केशव प्रकट हुआ। नागा बाबा को देखकर ‘बां-बां’ करता हुआ पास आया और बाबा के पैर छू लिये। नागा बाबा ने उसे आशीर्वाद दिया! इशारे से केशव ने नागा बाबा से कहा कि आप यहां कुछ दिन रहिये। यहां कोई तकलीफ नहीं होगी!

एक दिन रिसगांव के आदिवासी केशव के दर्शन करने को आये। उन्होंने कुछ दिनों पहले एक हिरण का शिकार किया था। हिरण का मांस तो उन्होंने खा लिया था, मगर समस्या थी, खाल का क्या करें? तय हुआ कि इसे केशव महराज को भेंट कर दिया जाये। नागा बाबा के रहते ही उन्होंने केशव को वह खाल भेंट कर दी। नागा बाबा की नजर उस खाल पर जम गयी। एक हफ्ते तक वह मंदागिरि में रहे, उसी खाल पर बैठते-सोते रहे। एक दिन नागा बाबा वापस मचकुंद-आश्रम सोंढूर जाने को उद्धत हुए। केशव को अपने साथ चलने को कहा। केशव का मंदागिरि से नीचे उतरने का मन न था। बाबा की जिद में एक दिन के लिए सोंढूर जाने को तैयार हो गया। चलते समय नागा बाबा ने हिरण की खाल अपनी बगल में दबा ली। केशव ने मना किया, मगर गुरू बाबा नहीं माने।
दूसरे दिन, दोपहर बारह बजे वे सोंढूर के करीब पहुंच रहे थे। आगे-आगे गुरू बाबा, पीछे-पीछे केशव। अचानक दो वन-रक्षकों ने आकर नागा-बाबा को पकड़ लिया। वे वन रक्षक कानून के पक्के पुजारी थे। धर्म और धार्मिकों से उन्हें मतलब न था। बाबा से उन्होंने हिरण की खाल जब्त कर ली। एक ने उनका हाथ पकड़ लिया। पास ही उनका आफिस था। उन्हें खींच कर ले चलने लगे। वहां रेंजर-साहब बैठे थे। नागा बाबा ने वन रक्षक से हाथ छुड़ाते हुए कहा- हिरण की यह खाल मेरी नहीं है। मुझे तो केशव ने भेंट किया है!
गुरू-बाबा के आचरण पर केशव को दुख और आश्चर्य हुआ। गुरू के साथ उसे भी घेर लिया गया। आफिसर ने दोनों के खिलाफ संरक्षित जानवर मारने और खाल रखने के आरोप में चालान पेश कर दिया।….. …….. हाथ से खाल गई और मन से चैन। धमतरी में इन दोनों की पेशी हुई। मुकदमा चला। अंत में दोनों को छह माह की सजा हुई।
अचानक आई इस विपत्ति से मंदागिरि की रौनक जाती रही। मंदागिरि पर वही सनातन सन्नाटा छा गया। पहाड़ पर पानी और चढ़ावा लेकर चलने का क्रम टूट गया। दर्शनार्थियों के दर्शन दुर्लभ हो गये। रमेशर भी मंदागिरि छोड़कर अपने गांव गादुल-बाहरा लौट गया। उसका कहना था, मंदागिरि के जानवर अब हिंसक हो गये हैं।

छह माह की सजा भोग कर नागा बाबा और केशव बाहर आये। नागा बाबा ने मंदागिरि और सोंढूर के मचकुंद-आश्रम से तौबा कर ली। वह इधर लौटे नहीं। कुछ कहते वह लापता हो गये। कुछ कहते, वह धमतरी से ही सीधे अमरकंटक के लिए रवाना हो गये। जो भी हो, इतना सच है कि फिर दण्डकारण्य के इन जंगलों और पहाड़ों ने उनका चेहरा दोबारा नहीं देखा।
और केशव! वह धमतरी से वापस मंदागिरि पहुंचा। मगर अब पहाड़ पर चढ़ने की उम्मीद नहीं हुई वह विक्षिप्त-सा हो गया। उसके बाल औरतों की तरह लम्बे और अस्नान की वजह से बालों में जगह-जगह गांठे पड़ गई थीं। किसी की दी हुई लाल साड़ी लपेटे वह घूमता-घिसटता मंदागिरि के आसपास के गांवों में दिखायी दे जाता। मंदागिरि से उतरने के बाद उसका मान भी उतर गया था। छह माह की जेल ने उसकी बाकी कसर पूरी कर दी।
जंगल के छोटे-छोटे गांव-टोले में घूमते उसे कभी कोई खाना दे जाता। लोगों की भीड़भाड़ से, उनके सवालों से वह और ज्यादा बिदकने लगा था। उसे वो ही जगहें भली लगतीं, जहां बिना सवाल किये भोजन मिल जाता। भोजन के पहले या बाद में जहां सवाल उछलने की सम्भावना होती, ऐसी जगहों पर वह जाता ही न था।

एक दिन भिलाई नगर से मास्टरों की एक टोली जंगल-पहाड़ घूमने उधर पहुंची। इनकी मोटर साइकिलों की आवाज से भयभीत केशव खालगढ़ के एक घर की ओर छिप गया। भोजन मिलने की आशा से वह अभी-अभी जंगल से इधर निकलता था। मगर मास्टरों की पैनी नजर उस पर पड़ ही गयी। केशव भागने को हुआ। मगर मास्टरों ने उसे घेर लिया। पढ़े-लिखे लोगों से घिर कर केशव कांप गया।
उन मास्टरों में एक सेन मास्टर थे। आम लोगों की तरह उनके एक हाथ में ज्ञान-विज्ञान और दूसरे में लिजलिजी आस्था का पिटारा था। केशव की पूर्व-प्रचलित प्रसिद्धि उन्हें ज्ञात थी। उन्हें विश्वास था, केशव में अब भी वह शक्ति है। केशव को देखते ही वह मोटरसाइकिल से उतरे! घिरे हुए केशव के पैरों में माथा टेक उन्होंने व्यथित स्वर में कहा- हे केशव महाराज, मुझे मेरी पारिवारिक और नौकरी में आयी मुसीबतों से रक्षा करो।…………महाराज!
केशव भयवश आंख बंद किये था। ऐसे मौके पर ऐसे आस्थावादियों को उल्लू बनाने का पाठ वह कभी सीख न पाया था। वह स्वयं संकटग्रस्त और दयनीय था। उसने मन ही मन भगवान को याद किया। दुर्गा-सप्तशती के पदों को उच्चारने की कोशिश की! उसके होंठ हिले।
केशव के होठों को हिलते देख सेन मास्टर ने समझा, उन्हें आशीर्वाद दिया जा रहा है। उन्होंने फिर पांव छूए। जेब से इक्कीस रूपये निकाले, गिने और केशव के पैरों के पास धर दिये।
इतने में आसपास मोटर साइकिलों में बैठे दूसरे मास्टर भी केशव के करीब आने के लिए अपनी गाड़ियां खड़ी करने लगे। उन्हे मुफ्त के ‘कीमती’ आशीर्वाद से वंचित रह, ठगे जाने का भय सता बैठा। इधर केशव का भय यक-ब-यक शक्तिशाली हुआ। सेन मास्टर ने जैसे ही पांव छोड़े, उसने घने जंगल की ओर दौड़ लगा दी। उसे इस बात की सुध भी नहीं रही कि इस बेतहाशा दौड़ के कारण उसकी लिपटी हुई साड़ी खुल गई है! वह दिगम्बर हो चुका है!

लोकबाबू
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रिसाली
भिलाई नगर
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मो. 09977030637