सनत सागर की कहानी -निवेश

निवेश

 

 

 

आज महावीर प्रसाद बड़े ही उन्मादी लग रहे थे। उनके चेहरे पर कई दिनों से स्थाई रूप से जमा चिन्ताओं का रेखांकन पूरी तरह से साफ हो गया था। चेहरे पर एक पुरानी हंसी उभर गयी थी।। चेहरे पर पतली पतली मूंछें तलवार की भांति चमक रही थीं। आंखों में पनियल चमक ने बड़े दिनों का सूखापन बटोर लिया था। कुल मिलाकर उनका रूप स्वरूप अंधे के हाथों बटेर लग जाने की तरह। अपनी राजसी कुर्सी पर टिके टिके ही आवाज लगाई।
’चाय मिलेगी या फिर होटल से पी आउं!’ यह दो वाक्यों का जुड़ा संदेश हवा में सवार होकर उनके राजमहलनुमा घर के आठ फीट उंचे दरवाजों पर बने रोशनदानों से होता हुआ बड़े से दालान पर बैठी औरतों तक पहुंच गया। जिसने भी सुना वह पल भर को कांप गया पर अगले ही पल चेहरे पर मुस्कान भी छा गयी। यह संदेश उनके लिये महावीर प्रसाद का आदेश कम था बल्कि उनके शांत दिमाग का परिचायक ज्यादा था।
पोते दौड़कर गोद में चढ़ बैठे, बहुएं पास आकर खिलकने लगीं। बीवी कुर्सी के पास आकर बैठ गयी। नौकर चाकर आस पास से बेमकसद गुजरने लगे तभी जोर की हवा चली तो महावीर प्रसाद के कमरे के पास लगे पेड़ हिलने लगे और उनसे होकर धूप की की कुछ किरणों ने भी प्रवेश कर लिया।
सबके सब महावीर प्रसाद की विलुप्त सी हंसी खुशी को अपने में समाहित कर लेना चाहते थे। महावीर प्रसाद ने भी अपने हाथ में घंटे सवा घंटे से लगातार पकड़ा समाचार पत्र सावधानी से तह करके रख दिया और सबके साथ एक हो लिये। चाय की सुड़कियों के साथ उनकी नजरें बार बार शून्य में ठहर जातीं। वे अपने विचारों में खो जाते। चेहरे पर उभर आई मुस्कान उसी तरह विराजमान थी जैसे मूर्तिकार कहता कि पत्थरों में सबकुछ पहले से होता है हम तो मात्र उसके आवरण को हटा देते हैं।
उस चिरायु मुस्कान के साथ वे अपने साथ सदा रहने वाली लाठी को भी भूलकर निकल गये। गांव की कुछेक सीमेंट की सड़कों पर चलते चलते वे कच्चे रास्ते पर आ गये। यह कच्चा रास्ता, रास्ता है या निस्तारी का साधन, भेद करना मुश्किल हो रहा था। जगह जगह झोपड़ियों से आती गंदगी उस रास्ते पर फैल रही थी रास्ते के साथ साथ बहते गंदे पानी से कोई परेशानी न थी पर वो गंदा पानी जब धरती के ढाल के साथ रास्ते के इस पार से उस पार जाता तो समस्या हो जाती। उस स्थिति में उस गंद सागर को हनुमान की तरह कूद कर पार करना पड़ता। बचते बचाते छींटे आ ही जाते। जिन लोगों को छूने पर भी घिन का उबाल आ जाता है उनके अवशिष्ट का छींटा! कितना भयंकर घिनापन है कोढ़ ऊपर खाज।(यहां पर करेला ऊपर नीम चढ़ा याद नहीं आता है।) मन ही मन गाली देते हुये सोच रहे थे अब ते यहां बार बार आना होगा। अबकि सरपंच से कहकर पक्की सड़क तो बनवानी ही होगी वरना ये गंदगी नहाक नहाक कर शरीर ही दो फाड़ न हो जाये।
आखिर मंजिल आ ही गयी थी। मंजिल क्या थी गांव का आखरी कोना था। इस बसती की शुरूआत के साथ ही गांव का सारा कचरा कूड़ा करकट गंदगी नजर आने लगती। आखिर गंद फेंकने की जगह भी तो होनी चाहिये न!
बदबू के गहन झोंकों ने अब स्थाई रूप से जगह बना ली थी। नाक के बाल अब उठती धूल के जम जाने का अहसास करा रहे थे। भरी दुपहरी को सोई बस्ती में महावीर प्रसाद का यूं चुपचाप प्रवेश अपमानजनक तो था ही परन्तु अभी मान अपमान की बात सोचना भी पाप की तरह लग रहा था। क्यों इन दकियानूसी बातों को सोचकर अपना नुकसान कराना समझदारी तो नहीं हो सकती है। वैसे ऐसे मामले में सदियां बीत गई पर किसी ने भी अपना नुकसान न किया। अपने क्रोध और जातिगत ऊंचाई को व्यापार से अलग रखा। तभी तो नीच को छूने से पाप के साथ साथ गंदगी भी लग जाती है परन्तु उसके दिये पैसों में वह दूधभात होती है नीच की औरत भी अपना शरीर सौंपते वक्त अपनी नीचता घर में रखकर आती हैं। कभी कभी तो यूं महसूस होता है मानों ये सब उच्च कोटी के मर्दों का पांचों उंगली घी में और सर कढ़ाई में करने का तरीका है। इधर तो अपने घर की महिलाओं को छुआछूत में उलझाये रखते हैं और दूसरी ओर खुद मजे मारते हैं। चित भी मेरी पट भी मेरी, अंटी मेरे बाप की।
महावीर प्रसाद ने झोपड़ी से पांच फीट दूर से ही आवाज लगाई।
’मंगलू!’
आशा के अनुरूप पल भर में वह बाहर आकर खड़ा था। उसकी तेजी पर अपनी मूंछों पर ताव देते महावीर प्रसाद की आंखों की चमक तेज हो गयी।
’जी मालिक!’ दिमागविहिन सा मंगलू अचंभित हो पूछ पड़ा। सामान्यतः ये मालिक लोग यूं झोपड़ी के पास फटकते ही नहीं है। और यदि आते हैं तो कुछ न कुछ अनर्थ ही होता है। दुनिया में नब्बे प्रतिशत लोगों के साथ यूं बीतने पर भी ये बात आज तक अपशगुन की सूची में शामील न हो पाई है। सदियों से होती यह घटना इतिहास का अटूट हिस्सा बन चुकी है पर मालिक दर्शन ईश्वर तुल्य ही बताया गया है।
अनिष्ट की आशंका लिये मंगलू बाहर आया। हडबड़ी में सूझ भी तो नहीं रहा था कुछ।
’मंगलू!’ महावीर प्रसाद ने अपनी मूंछों सी वजनी आवाज में पुनः पुकारा।
’मालिक! किसी नौकर चाकर को भेज देते, यहां कहां गंदगी में आ गये! मैं खुद ही आ जाता।’ मंगलू एकदम बहता हुआ बोला।
’अरे! क्या हुआ तो! तुम भी इंसान हम भी इंसान, कोई फरक थोड़े ही है। तुम हमारा हाल चाल रोज पूछते हो, कभी कभार हमें भी तो पूछना चाहिये कि नहीं ?’ महावीर प्रसाद के हाथ की गर्मी और बातों के वजन से मंगलू पिघल गया था।
बड़े असंमजस में अपना सर हां और नहीं दोनों में हिला दिया। मालिक का यूं हाल चाल पूछना तो वरदान सरीखी बात है। पर उन्हें ऐसा करने को कहना, उसकी कहां की औकात!
’कोई चीज की जरूरत तो नहीं है ? बीवी बच्चे ठीक ठाक हैं ? बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाया या नहीं ?’ एक ही सांस में ये सब पूछकर महावीर प्रसाद ने अपने अंदर का आवेग कम कर लिया।
’जी मालिक! आपकी दया है। सबकुछ ठीक ठाक है। गरीब का बच्चा तो मजदूरी करेगा कि कलम पकड़ेगा ?’ स्वयं को धन्य मानता मंगलू गदगद स्वर में बोला। मन ही मन सोच रहा था-हो सकता है झूठ ही पूछ रहे हों पर पूछ तो रहे हैं न!
’इस बरस अपने खेतों में फसल क्यों नहीं ली ? पानी तो अच्छा गिरा था। सबने अच्छा कमाया।’ महावीर प्रसाद ने अपनत्व और बढ़ाया। ’गरीबी का रोना रोउं मालिक ? हमेशा की ही बात है। दांत है तो चना है और चना है तो दांत नहीं। बीजों के लिये पैसे जोड़े थे पर बीमारी भी तो गरीबी की बहन है न! छोटा बच्चा धन दौलत खर्च करने के बाद भी न बचा। आप सब की दया है जो जी खा रहे हैं।’ मंगलू ने अपना बेचारापन फिर से आगे रख दिया।
’क्या कर सकते हैं मंगलू, सब ऊपर से किस्मत लिखवा कर आते हैं। भगवान सबकी किस्मत में जाने क्या क्या लिख देता है, वही भुगतना पड़ता है सबको।’ महावीर प्रसाद ने किस्मत की रेखाओं को मरोड़कर हवा में उछाल दिया। अबकी मंगलू चुपचाप बैठा रहा।
सुखराम पत्रिका को टेबल पर फेंक दिया। झटके से उठ खड़ा हुआ।
’साले लेखक क्या खाकर लिखते हैं। कुछ भी! कुछ भी लिख मारा! न तो सच्चाई से कोई वास्ता है न ही सच्ची घटना है। साले, सारे के सारे बिके हुये हैं। पैसे लेकर समाज को गर्त में ढकेल रहे हैं। ये साले, कभी गांव गये भी हैं या फिर शहर में बैठ कर ही कलम घिसते हैं…..’
बड़बड़ाता हुआ स्टील की गुंडी से पानी निकाल कर दो घूंट पिया। मुंह ऊपर करके पानी पीने के दौरान उसे छत के कोने पर मकड़ी के जाले नजर आ गये। बड़ी सी मकड़ी घूमती दिख रही थी।
’हर जगह इनका ही राज है साला!’ उसकी बड़बड़ाहट में फिर से शब्दश्रृंखला जुड़ गयी।
घर का दरवाजा बंद कर ताला लगाया और चाबी अपनी काली पेंट की जेब में डाल ली। अव्यवस्थित सा पैदल ही चल पड़ा। घर के सामने का बरगद का बड़ा सा पेड़ सुबह के वक्त एक साधनारत ऋषि की तरह लग रहा था। जिसके बाल धूल से सन कर जटाजूट में बदल गये हों और उसमें विभिन्न कीटों ने अपने घर बना लिये हों।
वह एक पल को ठहर गया। सूरज की रोशनी बरगद के पीछे से आती हुयी बेहद प्यारी लग रही थी। बरगद के पीछे से सामने आकर सूरज ने मानों उसकी मंत्रमुग्धता को तोड़ दिया।
’प्रकृति भी कितने सुंदर रूप दिखाती है! लोग सौन्दर्य के दर्शन को जाने कहां कहां भटकते हैं और सौन्दर्य तो उनके घर के आस पास ही छिपा है। बस उसे देखने वाली आंखें चाहिये।’
कुछ कदम आगे बढ़ते ही उसकी चाल धीमी हो गयी।
उसे लगा कि वह रूक सा गया है। उसका मन सोच रहा था कि इस सुबह के वक्त जाना उचित होगा ? अगले ही पल मन पुनः बोला….जब वक्त मिले तब करो अपना काम….अपनी परेशानी कैसे दूर हो इस बात का हमें ख्याल रखना है।
अगले ही मानों मन से पहले कदम पहुंच गये।
’इतवारी दादा! ओ इतवारी दादा!’
उसकी दोहरी पुकार से तुरंत ही असर हुआ। उस बड़े से मकान का दरवाजा खुल गया। एक सांवली सी सुंदर नयन नख्श वाली महिला निकलकर बोली-’ जोहर दादा, बैठो! अभी दातून करके आ रहे हैं।’
साथ ही पास रखी प्लास्टिक की कुर्सी को खिसका कर उसके सामने कर दी।
वह यंत्रवत बैठ गया। घर की बाड़ी में अनेक प्रकार के पेड़ लगे थे परन्तु पौधे नजर नहीं आ रहे थे। घर का दरवाजा और उसकी चौखट और सामने की दीवारों पर लगी खिड़कियां मोटी लकड़ियों में सागौन की सिसकियां सुनायीं पड़ रही थीं।
’मीठू मीठू!’
वह एकदम से चौंककर उठ खड़ा हुआ। वह जहां बैठा था उसके एकदम पीछे बड़े से पिंजरे में चार तोते बंद थे।
’वाह रे आदमी के शौक! किसी की आजादी छीन कर कितना खुश होता है।’
उसकी बड़बड़ाहट खत्म भी न हुई थी कि इतवारी आ गया था। उसकी एक बाह में बिल्ली को बच्चा दबा था जिसे वह दूसरे हाथ से लगातार सहला रहा था।
’अरे सुखराम! इत्ती सुबह सुबह कैसे आना हुआ ?’ इतवारी ने मुस्कुरा कर पूछा। जबकि वह अपने प्रश्न का उत्तर अपने पास आने वाले व्यक्ति से कहीं बहुत अच्छे से जानता था।
सुखराम भी ये बात उतने ही अच्छे ढंग से समझता था। वह मन ही मन भद्दी सी गाली देकर खड़ा हो गया। और मुस्कुराते हुये नमस्ते में हाथ भी जोड़ दिये।
उसके कंधे पर हाथ रखकर इतवारी फिर से पूछा -’बताओ सुखराम! कैसे आना हुआ। घर में सब ठीक ठाक हैं। बाल बच्चे स्कूल बराबर जा रहे हैं न! पढ़ाना लिखाना जरूरी है। पढ़ेलिखे आदमी को दुनिया के लोग मूर्ख नहीं बना सकते हैं। आज के जमाने में पढ़ने लिखने से नौकरी मिले न मिले पर लोग समझदार हो जाते हैं। इसलिये बच्चों को स्कूल रोज भेजना।’
इतवारी इस बात से कोई्र मतलब नहीं रख रहा था कि सुखराम उसकी बातों से प्रभावित हो भी रहा है या नहीं, बस अपनी बात कहता जा रहा था।
अचानक वो घर के दरवाजे की ओर मुंह करके जोर कहा- ’दो कप चाय तो ले आ। क्या ये बात बोलना पड़ेगा। घर में कोई आता है तो उसको चाय पानी देते हैं कि नहीं।’ इतना कह कर सुखराम को देखकर अपनी आंखों से पूछा। अब वो बेचारा कैसे हां बोलता। अपनी आंखें नीची कर लिया।
’और तेरी मां की तबीयत कैसी है ? बहुत बीमार चल रही है कोई बताया। क्या करूं, साला काम आने का नहीं और दिन पूरा निकल जाता है। एक मिनट को भी टाइम नहीं मिलता है। सोच सोच कर रह जाता हूं एक दिन उसको देखने जाउंगा। उसको भी अच्छा लगेगा कि मामा का लड़का देखने तो आया है। पर साला टाइम ही नहीं मिलता……अरे यार! तू तो कुछ बताता ही नहीं है कि आया कैसे ?’ अचानक चौंकता हुआ अपनी बातों को विश्राम देकर वह फिर से सुखराम से पूछा।
सुखराम अपना सर नीचे किये किये बोला।
’दादा! आपके पास आदमी क्यों आता है ?’
सुखराम के प्रश्नरूपी जवाब को सुनकर इतवारी हंस दिया। और बेसाख्ता बोला।
’वो तो है ही।’
’दादा, मुझे मेरी मां का लिया हुआ कर्जा चुकाना है।’ सुखराम अपनी नीची आंखों के साथ एक ही सांस में बोल गया।
’म्याऊं!’ की एकदम जोरदार आवाज के साथ ही इतवारी की बाहों में दबा बिल्ली का बच्चा उछल कर जमीन पर गिर गया। उसकी चीखनुमा आवाज सुनकर सुखराम इतवारी की ओर देखा। इतवारी का खिला चेहरा एकदम से मुरझा गया था। ये बात अलग है कि सुखराम ये परिवर्तन होते देखने से वंचित रह गया था। बिल्ली का बच्चा अपनी आंखें भयंकर रूप से बड़ी बड़ी किये हुये इतवारी की ओर देख रहा था। सुखराम का खदबदाता दिमाग एक ही क्षण में समझ गया था। पर प्रत्यक्ष में अपने चेहरे पर शून्य ओढ़ लिया था।
’कितना कमा लिया है यार! हमको भी जरा उधार दे दो। आजकल कमाई खत्म हो गयी है घर चलाना मुश्किल हो गया है।’ यह कहते हुये सुखराम के कंधे अपना हाथ धर दिया।
’दादा! मेरी औकात कम से कम इस जनम में आपको उधार देने की नहीं है। ऐसा मजाक आप मुझ गरीब से कर सकते हैं। ये आपका अधिकार है।’ शब्दों से कहीं भारी उसके स्वर में नीरवता थी।
वह मन ही मन अपने ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि इतवारी की झूठमूठ कही बात सच हो जाये और इतवारी का घर चलना मुश्किल हो जाये। इसी बात से उसको सुकून मिल जायेगा। भले ही उसका कर्जा चढ़ा रहे।
’सुखराम तू यही सोच रहा है कि मैं जो कह रहा हूं वह सच हो जाये ओर मेरा बेड़ागर्क हो जाये ?’
सुखराम चिहुंक उठा उसके मन को कैसे इतवारी ने पढ़ लिया। वह एकदम से घबरा गया। अपने चेहरे और माथे पर उभर आये पसीने को पोंछने के लिये कंधे पर पड़ा गमछा उपयोग किया।
इस बीच इतवारी उसके कंधे से अपना हाथ हटा लिया था और वो आसमान की ओर देखकर बोला।
’पर बेटा! कुत्तों के चाहने से हाथी मरा नहीं करते। उसके लिये शेर होना जरूरी है। कितना पैसा लाया है बता, तब बताता हूं हिसाब किताब क्या है।’ मीठू के पिंजरे तक पहुंच कर इतवारी पूछा।
सुखराम की रगों में बह रहा रक्त खौल उठा। परन्तु वह अपनी औकात जानता था इसलिये अपने ही रक्त से पानी बना कर उबलते रक्त को ठण्डा करने लगा।
कुछ पलों की चुप्पी के बीच मात्र जंगल के पंछी और सन्नाटा ही बोलते रहे।
’दादा! आखिर मुझे भी तो कर्ज का हिसाब मालूम होना चाहिये न!…..तब तो मैं कर्जा चुका पाउंगा।’
’अच्छा अभी हिसाब पूछने आया है। वही तो मैं कहूं कि कहां डकैती मार कर आया है जो मेरा कर्जा चुकाने पहुंच गया।’ पिंजरे का मीठू जोर जोर से चिल्ला रहा था। शायद उसके तन तक इतवारी के हाथ में पकड़ी पेड़ की डण्डी पहुंच चुकी थी।
सुखराम तिरछी नजर से उस बिल्ली के बच्चे को देखा जो अब तक जमीन पर घायल पड़ा था। वह सोच में पड़ गया। अपने से ही कह उठा ‘देख सुखराम, तेरे चक्कर में आज जाने कितने जीव घायल होंगे या मारे जायेंगे। मात्र अपने कर्जे का हिसाब पूछने से ही ये हमारे रिश्ते में दूर का मामा इतना तिलमिला गया।’
पिछले कई वर्षों से किश्त पटाते पटाते मां बेचारी अधमरी हो गयी है। जाने कितना पैसा पटाया है। आज भी इस कुकुर इतवारी के कर्जे को पटाने के नाम पर बीमार पड़ी है। बात बात पर कहती है इतवारी का कर्जा चुक जाये तो चैन से मेरी अर्थी घर से निकले। मेंरे जीते जी मेरा कर्जा चुक जाये।
’दादा, बता दो कम से कम मां चैन की मौत मरे।’ आखिर उसके मन के भाव मुंह में आ ही गये। इतवारी एकदम से पलट कर आया और उसकी शर्ट का कॉलर पकड़ कर बोला। बोला क्या जोर से चिल्लाया।
’तो क्या मैं तेरी मां को मार रहा हूं ? मैं गया था तेरी मां के घर कर्जा बांटने ? औकात न थी तो कर्जा लिया ही क्यों ?’
एकदम वही स्थिति सुखराम की थी। ठीक उतना की उबाल उसके खून में था। शरीर से निकलने वाली गर्म हवा भी कहीं ज्यादा गर्म थी। आंखों में लालिमा भी उससे कहीं गहरी थी। और होती भी क्यों नहीं आखिर वो उस मामा से बीस बरस छोटा भी तो था। जवानी हिलोर मार रही थी।
हाथ उसके मनो मस्तिष्क की चंगुल से निकल से गये थे पर वह जाने कैसे शांत ही खड़ा रहा। उसका मन मान ही नहीं रहा था कि ये उसका रिश्ते में मामा लगता है। वह उसे बस आश्चर्य से देखे जा रहा था। उसकी आंखों में भय नहीं था, न ही शोषण की पीड़ा थी। इतवारी का क्रोध से भरा हिलता तन और उसके शर्ट की कॉलर में बढ़ता दबाव उसकी आंखों को जाने कब बंद कर दिया।