भाभी
‘हम दो हमारे दो’ के सुन्दर नारे को चरितार्थ करते हुए शर्मा परिवार सुखी जीवन जी रहा है। खुद शर्माजी, पत्नी राधिका, बड़ा पुत्र रामानुजम एवं छोटा शिवम। शिवम रामानुजम से पूरे बारह वर्ष छोटा है। शर्मा परिवार गफलत का शिकार हो गया, वरना शिवम होता ही नहीं और ‘एक बच्चा, सबसे अच्छा’ की कहावत फलीभूत हो जाती।
बड़ा पुत्र इक्कीस वर्ष का हो गया है, स्नातकोत्तर की परीक्षा देगा जबकि छोटा तीसरी कक्षा में है। शर्माजी अपनी छोटी-सी नौकरी संभाल रहे हैं, साथ में पूरी गृहस्थी का भार भी। घर-परिवार की आन्तरिक व्यवस्था का भार राधिका पर है। छोटी आमदनी से घर की गाड़ी को कैसे सुचारु रूप से चलाया जाए, वह अच्छी तरह जानती है और अपने दोनों बच्चों को यह बात सिखाती भी है, परन्तु इन दिनों स्वास्थ्य उसका साथ नहीं दे रहा है। एक न एक बीमारी उसको लगी ही रहती है, पीछा ही नहीं छोड़ती। फलतः डाॅक्टरों एवं अस्पतालों के चक्कर लगते ही रहते हैं। बीमारी एक अभिशाप है, जो तन, मन और धन सभी तरह से इंसान को चूसती है, मगर उपाय क्या ? इसी वजह से शर्माजी ने राधिका की गृहस्थी का भार हलका करने के उद्देश्य से रामानुजम का विवाह कर दिया। जब घर की मुखिया खाट पकड़ ले तो कोई तो हो जो परिवार को दो जून की रोटी वक्त पर बनाकर खिला सके।
हाँ, बहू रश्मि वैसी ही आई है जैसी कोई बहू की चाहत रखता है। हर किसी की जरूरत को पूरी करने वाली। सास को यथा समय दवा देना। उसके भोजन-पानी की उचित देखभाल करना। पति रामानुजम ने भी अपनी पढ़ाई पूरी कर एक कम्पनी में छोटी-सी नौकरी पकड़ रखी है। उसका टिफिन समय पर तैयार करके देना, ससुरजी को सुबह उठते ही चाय के साथ समाचार-पत्र उनकी टेबल पर स्वतः ही नियत समय पर बिना भूले देना और सबसे महत्वपूर्ण कार्य यानि शिवम को गृहकार्य करने में मदद, उसकी रुचिनुसार टिफिन, पानी की बोतल, साफ-सुथरे धुले एवं प्रेस किए कपड़ों की व्यवस्था एवं अन्त में उसको घर से थोड़ी दूर स्कूल बस में बिठाकर ही घर लौटती है। जब शिवम स्कूल से घर लौटता है तो रश्मि ही उसे लेने जाती है, बिना नागा किए। जब शिवम की स्कूल बस उसके बस-स्टाॅप पर आती है तो उसकी भाभी चेहरे पर मुस्कान लिए वहाँ पहले से ही खड़ी मिलती है। अपने देवर की प्रतीक्षा में। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि शिवम की बस आ गई हो और उसकी भाभी उसके इन्तजार में पहले से वहाँ खड़ी न मिली हो।
कहते हैं कि समय के पंख होते हैं। वह हर समय, पल-प्रतिपल उड़ता ही रहता है। देखो न, शिवम ने देखते ही देखते बारहवीं की परीक्षा पास करली है। अब उसे इंजिनियरिंग की पढ़ाई करनी है, परन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति आड़े आ रही है। बैंक भी आजकल शिक्षा-ऋण देती है, मगर कर्ज का बोझ पहले ही कौनसा कम है। मकान ऋण, दुपहिया वाहन ऋण एवं भविष्य निधि ऋण तो पहले से ही ले रखे हैं। तो फिर अब आगे के रास्ते बंद। शिवम को मन मारकर साधारण विज्ञान स्नातक की पढ़ाई करनी होगी।
ये सारी बातें एवं चर्चाएँ परिवार में चलती रहती है। शिवम भी सुनता है और उसकी भाभी भी, परन्तु निदान किसी के भी पास नहीं। निदान है। निदान हर समस्या का होता है। उसके लिए चाहिए शत-प्रतिशत प्रयास, खुले और साफ मन से। त्याग और समर्पण भाव से प्रयास। परिवार में छाए अंधकार के बीच बिजली चमकी। एक रोशनी प्रकटी। एक आभा झलकी। जब शर्माजी, राधिका और रामानुजम चर्चा में लीन, परन्तु बिना हल मुँह लटकाए बैठक में बैठे थे, तभी रश्मि अपने सारे स्वर्ण-आभूषण लेकर वहाँ उपस्थित हो गई और बड़ी ही मिठास, स्नेह, विनम्र एवं आत्मीय शब्दों में सविनय प्रार्थना की-
‘‘माँ-बाबूजी, ये मेरे गहने पूरे परिवार के हैं। यदि ये शिवम भैया की पढ़ाई में काम नहीं आए तो फिर इनका क्या उपयोग ? आजकल गहने पहनता ही कौन है ? समय-असमय मैं नकली आभूषणों से काम चला लूँगी। लालजी यदि कामयाब हो गए तो परिवार में गहनों की क्या कमी रहेगी ? माँ-बाबूजी, गहनें तो केवल दिखावटी आभूषण होते हैं। असली गहनें तो आपके ये दोनों बेटे हैं। परमात्मा इन्हें स्वस्थ रखें। इन्हें कामयाबी दें। इनके स्नेह में उतरोŸार श्रीवृद्धि हों। यही मेरी हार्दिक इच्छा एवं मनोकामना है।’’
गहनों से भरी डिबिया रखकर रश्मि घर के अन्दर चली गई, परन्तु आज वह परिवार के सभी सदस्यों के दिल में उतर गई। यही तो होता है अवसर और यही होती है असली पहचान। जो परिवार की समस्या को अपनी समझे और विपŸिा में साथ दें। तभी तो पता चलता है कि यह इंसान अपना है। नहीं तो दिखावटी और थोथी मनुहार की यहाँ कोई कमी नहीं है। सजग और दिलेर इंसान उसे लपक लेता है, जबकि प्रमादी और स्वार्थी व्यक्ति मुँह ताकते रह जाते हैं और वक्त हाथ से निकल जाता है। कहते हैं कि ईश्वर शुभ और नेक कार्य करने के लिए अवसर सभी प्राणियों को देता है। कोई उसे पकड़ लेता है तो कोई उसे छोड़ देता है, गँवा देता है। रश्मि ने कमाल कर दिया।
शिवम जिसे रश्मि देवर होने के नाते स्नेह से लालजी कहकर पुकारती है, ने इंजिनियरिंग काॅलेज में प्रवेश ले लिया है, लेकिन काॅलेज उनके घर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर है। यदि वह वहाँ रहे तो कमरे का किराया और खाने-पीने का खर्च बहुत ज्यादा पड़ेगा, इसलिए शिवम ने लोकल ट्रेन से रोज घर से काॅलेज आने-जाने का निश्चय किया है। ताकि परिवार पर आर्थिक बोझ और अधिक नहीं पड़े। शिवम लंच के वक्त जब अपना हैण्ड-बैग खोलता है तो उसकी भाभी के हाथ के बने परांठे, सब्जी, सलाद व फल बड़े करीने से रखे हुए एक टिफिन में मिलते हैं। बिना चूके, बिना भूले और वह भी हैण्ड-बैग के एक निश्चित खण में। चाहे आँखें बंद करके निकाल लो।
ऐसा व्यवस्थित रख-रखाव देखकर शिवम की आँखें डबडबा आती हैं। उसका हृदय अपनी भाभी के प्रति एहसान से द्रवित हो जाता है, भारी हो जाता है। वह सोचता है कि इस जीवन में क्या कभी मैं भाई-भाभी का कर्ज उतार पाऊँगा ?
इस बीच शर्मा परिवार को एक जोरदार झटका लगा। लम्बी बीमारी के पश्चात् सभी को रोते-बिलखते छोड़कर राधिका चल बसी, भगवान की प्यारी हो गई। लाखों रुपयों का चिकित्सा खर्च और दवाइयाँ भी उसे बचा न सकी। रामानुजम ही अपनी माँ की अस्थियों को हरिद्वार में पावन गंगा माँ में विसर्जित करके आया। समस्त धार्मिक रीतिरिवाजों, परम्पराओं एवं कार्यकलापों से निवृŸा होकर परिवार पुनः पटरी पर आने लगा, लेकिन शर्माजी अस्वस्थ रहने लगे। प्रायः यह देखा गया है कि पुरुष के अकस्मात चले जाने से नारी तो दुःख-वेदना झेलकर अपना शेष जीवन जैसे-तैसे व्यतीत कर लेती है, मगर नारी के चले जाने पर पुरुष असहाय हो जाता है। अकेलापन अधिक महसूस करता है। ये तन्हाइयाँ ही उसे कचोटती है और मानसिक आघात देती है। फलस्वरूप वह अधिक समय तक दुनिया का सुख भोग नहीं पाता और उसकी चूँ बोल जाती है। शर्माजी के साथ भी यही हुआ। फिर वही धार्मिक रीतिरिवाज, वही परम्पराओं का पालन, वही हरिद्वार में अस्थियों का विसर्जन। देखते ही देखते परिवार में माता-पिता रूपी वृक्षों की छाया सिर पर से हट चुकी है। एक सूनापन आ गया है। माँ-बाप के बिना परिवार कितना अधूरा है यह महसूस होने लगा। रश्मि भाभी शिवम के लिए लगभग माँ का स्थान ले चुकी है, परन्तु कोई किसी का स्थान पूर्णतः ले पाता है क्या ? उŸार नहीं में होता है।
एक बात अच्छी हुई। शिवम की पढ़ाई पूरी हो गई और उसकी नौकरी भी लग गई। नौकरी कठिन है। उसे सुबह छः बजे घर से निकलना पड़ता है और लौटते-लौटते रात के दस बज जाते हैं। उसका नाश्ता और लंच का टिफिन रश्मि सुबह बहुत जल्दी उठकर तैयार करती है। जरूरत होने पर जब वह अपना बैग खोलता है तो बैग के अलग-अलग खणों में यथा- एक में उसके आवश्यक कागजात जैसे परिचय-पत्र, ड्राइविंग लाईसेंस, रेलवे का पास इत्यादि रहते। दूसरे खण में नास्ते का छोटा टिफिन, तीसरे में लंच का बड़ा टिफिन एवं बगल वाले खण में पानी की बोतल। यदि वह आँखें बंद करके निकाले तो भी उसे वही चीज हाथ लगेगी जो उसे चाहिए। ऐसा सुव्यवस्थित इंतजाम देखकर अपनी भाभी के प्रति कृतज्ञता से उसकी आँखें पनीली हो जाती हैं।
इन चार वर्षों में इस परिवार में खुशियों के कुछ पल भी आए। हँसने-खिलखिलाने के कुछ हेतु पैदा हुए। रामानुजम-रश्मि के दो वर्ष के अन्तराल में दो सुन्दर-सुकोमल सी बेटियाँ हुई हैं, निहायत ही खूबसूरत। शिवम चाचा ने ही नाम रखे- सुखदा और सुफला। परिवार में सभी की बेहद लाडली और चहेती। उन्हें खेलते-मुस्कराते देखकर सब के मन कुलांचे भरने लग जाते हैं। कोई भी उन्हें एक घड़ी भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहते। जिन्दगी पटरी पर चल निकली है। शिवम की शादी हो गई और स्थानान्तरण भी। अब वह सपत्नी पुणे में रहता है।
रश्मि, रामानुजम, सुखदा और सुफला नासिक में रहते हैं। दोनों परिवार में काम होने पर कभी भी अन्यथा हर रविवार को सायं फोन पर बात हो ही जाती है। वार्ता में दोनों भाई एवं भाभी ही हिस्सा लेते हैं, देवरानी सुषमा इसमें हिस्सा रुचि लेकर नहीं लेती। कभी-कभार औपचारिकता निभा देती है। सुषमा की सगाई के वक्त उसके पिता ने उसकी तारीफों के पुल बाँध दिए थे कि मेरी बेटी सुन्दर, सुशील, सुघड़, सुशिक्षित, स्वस्थ एवं सर्वगुण सम्पन्न है। इनमें सुन्दर तथा स्वस्थता को छोड़कर शेष गुणों का तो नितान्त अभाव ही है। अकाल है। एकदम सूखा। फिर भी दोनों भाई एवं रश्मि भाभी परिवारों में अटूट-बंधन के लिए चार-छः महीनों में एक दूजे के पास आते-जाते रहते हैं। वैसे पुणे से नासिक है ही कितनी दूर।
झील एकदम शांत थी। नीरव और निःस्तब्ध। कहीं कोई हलचल नहीं। तभी इसमें कहीं से एक कंकर आ गिरा- ‘छपाक’ और पानी में हलचल पैदा हुई और लहरें जाग पड़ी। रामानुजम के गले में दर्द रहने लग गया। स्थानीय डाॅक्टरों को दिखाया। कुछ दवाइयाँ दी, परन्तु दर्द कम नहीं हुआ। आजकल तो भोजन का एक निवाला निगलने में भी तकलीफ होती है। मुम्बई जाकर अस्पताल में जाँच करवाई तो उन्होंने टाटा मेमोरियल अस्पताल में रेफर कर दिया। कैंसर घोषित होते ही रोगी वैसे ही नाम सुनकर अधमरा हो जाता है। यहाँ तो पूरा परिवार ही बेसुध-सा हो गया। पता चलते ही आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा। पाँव जमीन में धंसने लगे। रिपोर्ट पर चर्चा करते शिवम के ओठ सूख रहे हैं तो भाभी रश्मि को लग रहा है कि नाव मझधार में हिचकोले खा रही है और साहिल का पता नहीं है, दूर-दूर तक।
टाटा मेमोरियल में इलाज चल रहा है। रामानुजम बीमारी से और फिर उपचार से असह्य पीड़ा भोग रहा है। पैसा पानी बनकर बह रहा है लेकिन जीवन की गारन्टी नहीं। डाॅक्टर कहते हैं कि पहले लाते तो उपचार संभव था। अब तो देर हो चुकी है। उनको कौन पूछे कि पहले कब ? क्या, बीमारी होने से पहले ? उनको कौन समझाए ?
पूरे साल भर तक असहनीय पीड़ा, कष्ट और वेदनाएँ झेलकर रामानुजम इस दुनिया से कूच कर गया, सबको रोते-बिलखते छोड़कर। शिवम तो रो भी नहीं पा रहा है। वह आँसू बहाएगा तो फिर रश्मि भाभी एवं सुखदा-सुफला के अश्क कौन पोंछेगा ? आदमी कितना मजबूर है कि वह रोना चाहता है फिर भी रो नहीं पाता। आँसू बहाना भी उसके वश में नहीं, जबकि डींगे वह बहुत हाँकता है कि मैं ऐसा कर दूँगा, वैसा कर दूँगा। वह एक साँस लेता है लेकिन दूसरे की कोई आशा और गारन्टी भी नहीं है कि वह ले पाएगा या नहीं।
अबकी बार शिवम गया, भैया की अस्थियाँ लेकर हरिद्वार। जैसे ही अस्थियों को उसने माँ गंगा के पावन जल में प्रवाहित की, अन्दर से हूक उठी। आँखों से गंगा-जमुना की अविरल धारा बह निकली, अपने सारे किनारे तोड़कर। वहाँ उसके आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं था। ‘हरिद्वार’ शब्द से ही उसे चिड़ होने लगी।
धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं का पालन करते करीब एक माह बीत गया नासिक में। वापस पुणे जाकर नौकरी संभालनी है। इस एक माह के दौरान शिवम अपनी भाभी को मन की तसल्ली एवं हौसला देता रहा। कहता कि भाभी तुम अकेली नहीं हो। चाहे मुझे देवर मानना या अपना बेटा समझना, दुःख की हर घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूँ, जबकि देवरानी सुषमा अपनी जेठानी से नपी-तुली ही बात करती है कि कहीं ज्यादा अपनापन दिखाया तो जिम्मेवारी गले में न आ जाय। यह जिम्मेदारी का ढ़ोल यदि एक बार गले बंध गया तो इसे जिन्दगी भर बजाना पड़ेगा। इसलिए वह हर बात से किनारा करने लगी और पानी के आडे़ पाल बाँधने का काम पहले से ही करने लग गई।
रश्मि एक स्वाभिमानी औरत है। तभी तो उसने अपने देवर-देवरानी से कहा- ‘‘मैं यहाँ कोई काम ढँूढ़ लूँगी, जिससे हम तीनों का जीवन-निर्वाह भी होता रहेगा, बच्चियाँ पढ़ती रहेंगी और मेरा उचटा मन भी लगा रहेगा।’’
लेकिन एक अकेली औरत के लिए यह इतना आसान है क्या ? वह भी एक वैधव्य जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री के लिए। दोनों बेटियों के स्कूल का समय अलग-अलग। एक प्रातः सात बजे जाती है तो बारह बजे घर लौटती है। दूसरी बारह बजे जाती है तो पाँच बजे लौटकर घर आती है। रश्मि सुबह आठ बजे घर से निकलती तो सायं छः बजे ही लौट पाती है। बच्चियाँ दिन भर घर में अकेली रहती हैं। अकेलापन खलता है। बड़ी बेटी सुखदा अब काफी बड़ी दिखती है। यह दुनिया कितनी जालिम है, बताने की जरूरत नहीं। रश्मि स्वयं इन असामाजिक तत्वों, मनचलों एवं समाज के भूखे भेड़ियों से बच-बचाकर आती है तो फिर इन मासूमों की तो बात ही क्या ? पलक झपकते ही जो नहीं घट जाय वह थोड़ा है। दो बरस तक कैसे भी करके जैसे-तैसे झेला। फिर हिम्मत जवाब दे गई। देवरानी के स्वभाव से पूर्ण रूपेण विज्ञ होने से उनको बिना बताए ही वह दोनों बेटियों को साथ ले अपने मायके इन्दौर चली गई। वहाँ जाकर शिवम को सूचित किया और उनको समझाया और तसल्ली दी कि भाई-भाभी ने उन्हें यहाँ बुला लिया है।
हाँ, यह बात सच है कि भाई-भाभी ने उसे बुलाया था, पर इसमें उनका स्वार्थ निहित था। भाभी का पाँव भारी था और उसे एक दाई एवं धाय की जरूरत थी, जो प्रसव के पूर्व, प्रसव पर और प्रसव पश्चात् उसकी सेवा-चाकरी कर सके। रश्मि अपनों पर भरोसा करने वाली औरत है। अतः विश्वास कर लिया। भाभी का जैसे ही काम निकला, उसका रंग बदलने लगा। पहले चाय-पानी, नाश्ता एवं दोनों वक्त का भोजन बनाने का दायित्व उस पर था। उसमें जुड़ते-जुड़ते पानी भरने, बर्तन माँजने, झाडू-बुहारी, कपड़े धोने एवं पोंछा लगाने तक के कार्य सम्मिलित हो गए। मजबूरी इंसान से क्या-क्या नहीं करवाती। झांसे में लेकर ये सब कार्य वे नहीं करवा रहे हैं, बल्कि उसकी किस्मत करवा रही है। भाग्य जो नहीं करवाये वही थोड़ा।
मजबूर होकर वह मजदूर बनने को भी तैयार है, मगर उसकी बेटियों का भविष्य उसे यहाँ अंधकारमय लगने लगा। वे पढ़ने बैठती है तो मामी को अखरता है, खलता है, बेवजह उन्हें कोसती है, ताने मारती है, दुभाँत रखती है, रोटियाँ गिनाती है, खाना खाती है तो कहती है भकोसती है। अपना पराया करती है, जो रश्मि को मंजूर नहीं है। आँखों देखते हुए यह अत्याचार कैसे सहा जाए। आखिर वह इंसान है कोई जानवर नहीं।
फलस्वरूप फोन पर शिवम से बात की- ‘‘लालजी, यहाँ मेरा मायका हुआ तो क्या हुआ ? गुलामी की जिन्दगी गुजारना एक अभिशाप है। यहाँ हमारा शोषण हो रहा है। मैं तो सहन कर लूँगी, मगर बच्चियों के साथ यह दोगला व्यवहार बरदाश्त नहीं होता। आप केवल वहाँ पुणे में मेरे लायक कोई काम ढँूढ़ देना। कम किराये पर केवल सिर छिपाने लायक एक कमरे की व्यवस्था होने तक आपके घर में आसरा चाहूँगी, बस। जीवन में आगे बढ़ने के लिए ये रोड़े हैं, बाधाएँ हैं, लेकिन मैं हारूँगी नहीं। इनको सीढ़ियाँ बनाकर आगे बढूँगी।’’
शिवम ने भाभी को ढ़ाढ़स बंधाया। हिम्मत और हौसला बढ़ाया और तुरन्त बच्चियों सहित पुणे आने के लिए कहा। अन्धे को क्या चाहिए ? केवल दो आँखें। रश्मि बच्चियों को लेकर अपनी भाभी को राम-राम कह पुणे चली आई।
शिवम अपनी भाभी एवं भतीजियों को लेने रेलवे-स्टेशन ही आ गया था। सुखदा एवं सुफला अपने चाचा से लिपट गई। मानो बन्दरिया के बच्चे अपनी माँ से लिपटे हों, चिपके हों। भाभी को विदीर्ण, तेजहीन एवं वैधव्य वेष में देखकर वह अपना आपा खो बैठा और निरीह हो फूट-फूटकर रोने लगा। भाभी ने उसे खूब समझाया तो भी उसका सुबकना चालू था।
वे घर आकर परिवार के साथ रहने लगे। मौन हो तो भी पशु-पक्षी भी आपस की भाषा जान जाते हैं, समझ जाते हैं। फिर ये तो इंसान हैं। रश्मि ने पाया कि शिवम वही है जो पहले था, मगर सुषमा के स्वभाव, व्यवहार एवं भाषा में और अधिक निम्नता एवं गिरावट आई है। उनका यहाँ आना उसे तनिक भी भाया नहीं है, रुचा नहीं। उसे लग रहा है कि ये फिर से मेरी छाती पर मूंग दलने आ गईं। उनका यहाँ आना उसे फूटी आँख भी नहीं सुहा रहा है। बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है।
शिवम अपनी भाभी के लिए उसके योग्य काम, कमरा एवं उसी के अनुरूप बच्चियों के लिए स्कूल ढूँढ़ रहा है। अपने प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर रहा है। उधर सुषमा को जेठानी एवं बच्चियों का घर में रहना, खाना-पीना, उठना-बैठना खल रहा है, चुभ रहा है काँटांे की तरह। उसे ये अपने नहीं, बल्कि गले आई बला लग रही है। अपने सुख-चैन एवं स्वतंत्र जीवन में बाधाएँ नज़र आ रही हंै, जबकि उसे पता है कि ये यहाँ अस्थाई तौर पर रह रही हैं। व्यवस्था हो रही है और होते ही चले जाएँगे। एक नारी होकर भी नारी की पीड़ा नहीं समझ पा रही है। उसकी अन्तर्मन की व्यथा नहीं समझ रही है। नित्य तंज कसे जा रहे हैं, व्यंग्य एवं उपहास किया जा रहा है। सुनते तो आए हैं कि नारी में दया, ममता, करुणा, निर्मलता और लुळताई आदमी के बजाय ज्यादा होती है, मगर यहाँ तो उसका दूसरा ही रूप देखने को मिल रहा है। फिर क्या वो पुरानी बातें और कहावते झूठी है ? और यदि सच है तो इन बेचारियो को रोजाना तंज, उलहाने, व्यंग्य और ताने क्यों मारती है। इन अधमरी को क्यों मार रही है।
इन सभी बातों को लेकर शिवम ने उसे बड़ी आत्मीयता से समझाया भी- ‘‘देखो सुषमा, यह आफत किसी भी इंसान पर आ सकती है। सोचो, यदि यह पर्वत-सी पीड़ और दुःख भाभी की जगह तुम पर पडा़ होता तो तुम उनसे क्या अपेक्षा रखती, बस वही इनको चाहिए, इससे अधिक और कुछ नहीं।’’ मगर उस चिकने घड़े पर क्या असर होने वाला था। तिरिया हठ ने बड़ों-बड़ों को झुका दिया है। फिर शिवम कौनसे खेत की मूली है। सुषमा तो छर्रे वाली बन्दूक है, जो दिन भर चलती ही रहती है और बेचारी उन तीनों को घायल करती रहती है। निकृष्टता और दुष्टता की कोई सीमा नहीं होती। इससे ज्यादा उसे और क्या समझाएँ ? मुँहफट के कौन मुँह लगे ? कीचड़ में पत्थर फैंकने वाले के छींटे जरूर लगते हैं और वह पछताता है। वही बात यहाँ हुई।
एक दिन तो हद ही हो गई। जैसे ही शिवम काम पर से घर लौटा तो सुषमा मर्यादा की सारी सीमाएँ तोड़कर उस पर बरस पड़ी और ऐसेे-ऐसे शब्द बाण छोड़ दिए जो किसी भी इंसान को घायल कर दें- ‘‘शिवम, मैं खूब समझती हूँ। तुमने जानबूझ कर इन्हें यहाँ बुलाया है। इनके लिए कमरा ढूँढ़ने का तुम केेवल बहाना बना रहे हो। तुम तो यह चाहते हो कि ये सब यहाँ रहे और मैं तुम्हारी भाभी की गुलामी ताउम्र करती रहूँ। यह यहाँ पटरानी बनकर रहे और मैं इसकी दासी। साफ-साफ कह देती हूँ, इस घर में या तो मैं रहूँगी या फिर यह मेरी सौतन! कान खोलकर सुन लो।’’
सुषमा की ऐसी दुस्साहस भरी हुँकार सुनकर रश्मि ने अपने कानों में अँगुलियाँ डाल ली। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। एकदम निःशब्दता। शर्मिन्दगी एवं लज्जा के भाव उसके चेहरे पर साफ तैर रहे थे। एक इंसान इतना भी नीचे गिर सकता है, व्यवहार में, बोलचाल में। अपनी चाची के मुख से ऐसे घिनोने शब्द सुनकर बच्चियाँ भी सहम गईं। उनकी देवी जैसी माँ पर ऐसे लांछन लगाने से पहले उसे कुछ तो सोचना था, लेकिन मरता क्या नहीं करता ? अपनी मजबूरी समझकर झूठा इलजाम सुनने के पश्चात् भी वे सब चुप रही। उस भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा ?
ऐसे कटु एवं निन्दनीय वचन सुनकर शिवम तो तमतमाया था, मगर रश्मि ने मामला संभाल लिया और उसने विपत्ति एवं आपदा की वेला टाल दी, मगर उसके मन में ज्वार-भाटा उठने लगा। वह अन्दर ही अन्दर घुटने लगी। बाहरी सूनापन इंसान को उतना नहीं लीलता, जितना अन्दर का। एक विधवा अपना वैधव्य निकाल रही है, लेकिन लोग निकालने दें तब ना। उसे लगने लगा कि विधवा का जीवन जीना कोई हँसी-मजाक नहीं, अपितु दुधारी खड़ग पर चलना है और हर हाल में कटना है। चन्दन को सूखा घिसो तो वह भी आग पकड़ता है। जबकि उसे शीतल कहा गया है।
जिसे सांत्वना, हिम्मत एवं दिलासा की सख़्त जरूरत थी, परन्तु उसे मिले तंज एवं लांछन। अन्दरूनी घुटन से शरीर में रोग लगा बैठी जो उसे दीमक की तरह अन्दर ही अन्दर खाए जा रहा है। जैसे मूंग में घुन लगने के पश्चात् वह खोखला हो जाता है अर हाथ लगाते ही पिचक जाता है। एक स्वाभिमानी औरत अपनी बेइज्जती बरदास्त नहीं कर पा रही है। अन्दर ही अन्दर घुटते रहने से, सुषमा द्वारा कही गई बातों को दिल पर ले लेने से और अपने पति के बिछौह की पीड़ में उसे जो बीमारी लगी तो शनैः शनैः उसे मौत की ओर धकेलती रही और वह कुछ ही दिनों में भगवान की प्यारी हो गई। वह इतनी मजबूत औरत होते हुए भी ये सब झेल नहीं पाई। इसका मतलब यह है कि उसने कितना अत्याचार, तानें और टोर्चर सहे होंगे। जो भोगता है वही उस पीड़ा का बखान कर सकता है।
एक कहावत है कि कुमाणस कमाता है, मगर बाप के मरने के पश्चात् और औरत कमाती है अपने पति के मरने बाद। वही बात यहाँ सुषमा पर लागू होती है। सुषमा जब घर में रश्मि की तस्वीर देखती है, अनाथ बच्चियाँ- सुखदा-सुफला को देखती है, शिवम के मुँह से उसके लिए भाभी द्वारा किया हुआ त्याग, सेवा और अच्छे कामों की तारीफें सुनती है तो पछतावे के आँसू सुषमा की आँखों से स्वतः ही टपक पड़ते हैं, टपक…. टपक..। पर अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत। वे खेत चुग भी गई और फुर्र से उड़ भी गई। कुछ तड़़प ऐसी भी होती है जो इंसान को तड़पने भी नहीं देती।
शिवम और सुषमा के सामने अब यक्ष-प्रश्न सुखदा और सुफला का है। वे रात-दिन इनकी चिन्ता में घुलते रहते हैं। उधर शादी के इतने वर्ष बीत गए, मगर अभी तक सुषमा के आस नहीं बंधी। पहले बच्चे के लिए अभी भी वे तरस रहे हैं। यह भी एक चिन्ता का विषय है। निदान के लिए महिला चिकित्सक से जाँच करवाई। उसने बताया कि कोई गम्भीर वजह नहीं है। गर्भाशय का मुँह टेढ़ा है। एक छोटे-से आॅपरेशन से इसका इलाज हो जाएगा। चिंता जैसी कोई बात नहीं है।
एक रात पति-पत्नी दोनों सो रहे थे। शिवम ने पूछा- ‘‘सुषमा, तुम्हें चिकित्सक को दिखाना है। वैसे तो मुझे छुट्टी मिलती नहीं है। कल रविवार का अवकाश है, चलें क्या ?’’
तब सुषमा ने कहा- ‘‘गुस्सा न करो तो एक बात पूछूँ ?’’
‘‘पूछो। वैसे तुम मेरे गुस्से से कब से डरने लगी ?’’
‘‘नहीं, मैं जो पूछने जा रही हूँ वह एक यक्ष प्रश्न है।’’
‘‘हाँ-हाँ, पूछो।’’
‘‘मैं मेरी चिकित्सा नहीं करवाऊँगी।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘मतलब यह है कि बच्चे पैदा करने के लिए चिकित्सा वह करवाती है जिसके बच्चे नहीं हो या जिसे और बच्चे चाहिए।’’
‘‘तो तुम्हारे कौनसे बच्चे हैं ? भांग खा ली है क्या ? तुम नशे में तो नहीं हो ?’’
‘‘नहीं शिवम, मैं पूरे होश में हूँ। कौन कहता है कि हमारे बच्चे नहीं हैं। ये देखो, बगल में दो-दो बेटियाँ सो रही है, हमारे पर भरोसा करके। हमें अपने माँ और बाप समझ कर।’’
‘‘क्या कहती हो सुषमा ?’’
‘‘हाँ शिवम, मैं सत्य कह रही हूँ। ये हमारी ही बच्चियाँ हैं, हमारी ही औलादें हैं, अब ये ही हमारे बेटे हैं और ये ही हमारी बेटियाँ। मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे, जो अपना-पराया करती रही और इसी अक्ल एवं विवेक की कमी के कारण मेरी लाखिणी जेठाणीजी को गँवा बैठी।’’ और वह सुबकने लगी।
‘‘नहीं-नहीं सुषमा, आँसू मत बहाओ। सुबह का भूला यदि सायं घर लौट कर आता है तो वह भूला नहीं कहलाता।’’ और वह उसीकी ओढ़नी से उसके आँसू पोंछने लगा।
बोलने-चालने और सुबकने की तेज आवाज़ें सुन सुखदा-सुफला डर कर यकायक जाग उठीं। उठते ही सुषमा ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। अश्कों की लड़ियाँ टपक-टपक कर धरा को छू रही है। ऐसा मार्मिक दृश्य जीवन में पहले कभी नहीं देखा।
नारी हृदय पिघल उठा। दया, करूणा, ममता, कोमलता, शीतलता, गहराई और क्षमाशीलता ये सब तो नारी की प्रकृति है। कुदरत प्रदŸा स्वभाव है। नारी का धर्म है। यह कुदरत का वरदान है। फिर वह इनसे दूर कब तक रहती ? तभी तो उसने कहा- ‘‘शिवम, प्रकृति जिसे हम ईश्वर भी कहते हैं, नारी का सृजन करते वक्त उसे अतिरिक्त क्षमाशीलता, सहनशीलता एवं दयालुता का दायित्व दिया है। जिसे वह कुछ वक्त के लिए भूल तो सकती है, परन्तु हमेशा के लिए दबा नहीं सकती। यही सच्चाई है। जिसे मैं अब समझ पाई हूँ। आज तक मुझसे जो ओछा व्यवहार और बर्ताव हुआ उसके लिए मुझे अफसोस और शर्मिंदगी है। मैं तुम्हें भरोसा दिलाती हूँ कि मैं अपनी इन दोनों बेटियों को मेरी आँखों और हृदय से कभी दूर नहीं करूँगी……।’’ कहते-कहते उसका गला भर आया।
इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे ज्येष्ठ-आषाढ़ के भीषण ताप एवं लू के थपेड़ों में कहीं से अकस्मात बदली आकर बरस गई है और अपनी ठण्डी फुहारों से धरा को तृप्त कर दिया है। साथ ही पहली बरखा से मिट्टी से उठने वाली सौंधी महक की भाँति तन-मन को महका दिया है।
माणक तुलसीराम गौर
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