रजनी साहू “सुधा” की तीन कवितायेँ

मैंनें बस्तर को बोलते सुना है ।

बस्तर कह रहा है कि, मैं
भारत के मानचित्र पर नक्सलवादियों की प्रयोगशाला नहीं हूँ ।
मेरा अस्तित्व मेरा प्राकृतिक सौंदर्य है ।
मेरी परम्पराएँ है,लोकगीत, लोकनृत्य हैं ,नक्काशीदार कलाकृति मुझमें अब भी जीवित हैं ।
कितनी प्राकृतिक औषधियों को मैने अपने अंक अब भी समेटा है ।मुझमें बहुमूल्य खनिज संपदा का प्रचुर भंडार है ।तुम नहीं जानते कितने टीलों में कितने और कैसे-कैसे रहस्य छूपे हैं ।
तीरथगढ़ का जलप्रपात, चित्रकोट का अद्भुत दृश्य, कुटम्मसर की गुफाएँ,गगनगिरी के पर्वत दंतेश्वरी देवी की छत्रछाया में मैं हूँ, इसलिए अभी मरा नहीं हूँ ।
महादानवों ने मुझमें विकृतियाँ पैदा करने के लिए कई प्रयास किए थे ,पर मैं इन्द्रावती की सिकुड़ी जलधाराओं की आस्था में जीवित हूँ ।
मुझे आकर देखो मुझसे बातें करो ।
एक तरफा संवाद कब तब ?
कब तक मैं सौन्दर्य की परिभाषा को समझाऊंगा ?
कब तक मैं प्राकृतिक और
कृत्रिमता में अंतर समझाऊंगा ।
महसूस करो जंगलों की व्यथा,
महसूस करो परम्पराओं की कथा
मैना के अस्तित्व को खत्म होते
तुम मूक दर्शक बने देखते रहे ।पर्यटन स्थलों पर मन के रंजन के साथ
आदिवासियों के मर्म पर स्पर्श करो
अपनी संवेदनाओं का ।
जो अब बचा है उसे बचाने के प्रयास में कुछ अपना योगदान दे भी दो ।
धरती कभी किसी का ऋण नहीं रखती ।
कृतज्ञता के कुछ शब्द
इन जनजातियों के जीवन से सुन लेना ।
आभावों से भरा सिर्फ एक दिन
उनके साथ जी कर देख लेना ।
विश्व विजेता का गौरव लेकर लौटोगे
यह तो तय है ।
इन भोले मानस का ह्दय जीत लेना ।
आस्था और भक्ति के संगम में अपने सुर और संगीत भीगो लेना ।
इन पर पिछड़ेपन की मुहर लगाने वालों
इनकी कला कृतियों ,
अनुठी जीवन शैली पर
कुछ शब्दों की माला पिरो देना ।
प्रकृति इन पर बहुत मेहरबान है
इनसे ईर्ष्या करने का पाप
अपने पर अभिशाप मत लेना ।
उनसे उनकी धरोहरों को खंडित कभी नहीं होने देना ।
एक बार मेरी नजर से बस्तर को जी लेना ।
रजत सी जल राशियाँ जो वृद्धावस्था में भी काव्यात्मक शैली में छटा बिखेरे हुई है ।
जिसे चीर यौवन का वरदान था कभी ।
पर्वत श्रृंखलाओं को भी चिरंजीवी होने का वरदान था ।
टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों मे गंतव्य तक पहुंचने का प्रण था ।
महुआ मंजरी ने,
मैना ने लघु आकाश में ,
गुलमोहरी शाम ने
सदियों से
अनगिनत लोकगीत गुनगुनाए थे ।
अनेक पर्णों ने ,
हवाओं के साथ वाद्य यंत्र बजाए थे ।
अद्भुत सुखद अनुभूति थी, उन गूढ़ रहस्यों की,
जो मैंने देखा अपनी दिव्य शक्ति से ।
अब तो केवल शेष है,
यदि उसे विशेष करने का ध्येय है तो,
जंगल की शोभा बढ़ाते थे
जो जीव जन्तु उनके करुण रूदन को यात्रापथ में सुन लेना
या उन्हें उनकी कथा और व्यथा
सुनाने के लिए एक भव्य आयोजन कर लेना ।
उनके स्वागत में विश्व को इकट्ठा कर लेना ।
कैसे भी करके
इनके ऊपर
नक्सलियों की नकारात्मक प्रभाव को
खत्म कर देना ।
ये बस्तर ने सभी से कहा है, पर
अनसुना करके सभी चले गए ।
बस्तर की वादियों से
फिर आने का वादा करके
यदि वहां आनंद नहीं बचा तो, और कहीं पर्यटन के लिए चले जायेंगे ,
पर तब तक
काँक्रीट के जंगल
सभी तरफ फैलकर
कड़वी भाषाओं की धरा पर कितने संंवाद बोल चुके होंगे
और आप मूक,
वधीरों की कतार में प्रकृति से नवजीवन की कटे हाथों से भीख मांगोगे ।
ये एक बस्तर का सच है
हे ब्रह्मराक्षस!
तु न जाने कितने जंगल और पारम्परिक सभ्यता को लील जाओगे ।

 

मेरी नानी के यादों के कई गाँव

मेरी नानी के यादों के गांव बहुत से हैं ।पचमढ़ी, पिपरिया में पर्वत प्रदेश की पावस , मिट्टी की सौंधी-सी सुगंध आज भी तरोताजा कर जाती है ।
फिर उनका मामाजी के साथ राजनांदगांव आना ,फिर दुर्ग में नानी के सपनों का गांव अब भी बहुत याद आता है ।
पिताजी के बचपन में ही उनके माता ,पिता गुजर गए थे ।उनके स्नेह से मैं वंचित रही पर उनके गाँव साईंखेड़ा में हर कण स्नेह की बौछार करता है ।वहाँ शक्कर नदी में खेलना कूदना फिर तैरने का प्रयास
वाह !
क्या थे बचपन तेरे निराले अंदाज ?

शरारती बच्चों की टोली में मेरी लीडर की भुमिका रहती थी ।
खटिया खड़ी करके उस पर लटकना फिर उसके पाये टूटने पर डांट के डर से नौ दो ग्यारह होना ,बहुत याद आता है ।बावली की चुड़ैल को देखने समुह में जाना ,फिर किसी एक के चीखने पर सर पर पाँव रखकर भागना ।
मकान की नींव खुदने पर उसमें भुल भुलैया का खेल बहुत मज़ेदार हुआ करता था ।
आज एक राज की बात बताती हूँ , कुँए खुदने पर घुमावदार सीढियों से नीचे उतर कर अंतिम सीढी पर पैर डालकर पानी छू लेने का प्रयास माँ और नानी किसी को नहीं पता ।साईकिल रिक्शेवाले की सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने की कोशिश ,फिर ब्रेक लगाना भूल जाने के बाद में क्या हुआ होगा कल्पना करिए ।अमरूद के पेड़ पर अपने कभी भाई या कभी बहिन को रानी लक्ष्मी बाई की तरह पीठ मे बांधकर पेड़ पर चढ़ना फिर मम्मी द्वारा पिटाई बहुत याद आती है ।टायर में छोटे भाई बहिन को बिठाकर घसीटते हुए बहुत आनंद आता था ।

अपनी मासूम शरारतें से नानी का तंग आकर झूठमूठ में डाँटना, शायद मेरी नानी को डाँटना ही नहीं आता था ।
उनकी डाँट का कोई असर भी नहीं होता था ।
रात में कहानी सुनाते-सुनाते उनकी झपकी फिर जादू की झप्पी के बाद कहानी पूरी करने की जिद ।
समय के साथ नानी द्वारा श्रीमद भागवत पुराण, गीता,रामायण के शिक्षाप्रद बातें ,गृह कार्य में दक्षता, पाक कला में उनके नुस्खे ।
शायद अब बचपन निकल गया था ।
बचपना नहीं गया था उनके साथ शरारतों का सिलसिला जारी था ।देखते ही देखते मेरा आंगन पराया हो गया था ।
मेरी नानी मेरे ससुराल जाने के अगले दिन ही पंचतत्व में विलीन हो गईं थीं ।
मुझे अफसोस है कि
नानी के अंतिम समय मैं साथ नहीं थी ,पर वह अपना समान लेकर जाने की सूचना सपने में देकर गईं थी ।
मुझे बुलाया गया नानी की तबियत खराब है जल्दी आओ ।
घर पहुँच कर पता चला वह उनकी तेरहवीं का दिन था ।मेरी माँ सदमें में थीं ।उनके सामने मुझे रोने के मना किया था ।आज बरसों के बाद आँसुओं की झड़ी रूक ही नहीं रही ।
नानी तुम कहाँ रहती हो आजकल ,पर समय निकाल कर मुझसे अब भी मिलने आती हो, जब मैं परेशानी में होती हूँ तब मेरी नानी सपनों में आकर मुझे धीरज दे जाती है ।अगले ही दिन ऐसा लगता है कि उनका आना, मेरी सारी समस्याओं का समाधान आश्चर्यजनक लगता है ।
नानी जब मैं आऊं आपके पास मुझे वहीं प्रतीक्षा करती हुई, मेरी माँ के साथ मिलोगी ।

 

बस्तर से संवादों की श्रृंखला

ममतामयी आँगन पर पहुँचकर
भाई द्वारा बस्तर पर्यटन जाने की सौगात वाह!
मेरी अभिलाषा का इस तरह शीघ्रता से साकार होना मन विश्वास नहीं कर पा रहा था ।
मेरे जीते जागते गुड्डे गुड़िया मेरे भाई-बहिन और उनके बच्चे और मेरे बच्चों के साथ उनके नजरिए से मुझे बस्तर देखने की आतुरता थी ।
अगले ही दिन
हम सभी रवाना हो गए
रास्तों में विशाल वृक्षों और उससे लिपटी लताएँ,
छनकर आती हुई रोशनी ,
सूखे पत्तों की सरसराहट और मौसमी किरदारों का कौतूहल से यायावरों को देखना ।
जंगलों की जंगली भाषा में गहन अभिव्यक्ति अनुभव हो रही थी ।
उनकी भाव भंगिमा से लग रहा था मानो कि सभी पर्यटकों के आने की प्रतीक्षा में आँखें बिछाकर बैठे हैं ।
दिशाओं से नमन करती हवाएँ स्वागत गीत गा रही थीं ।
प्रतीक्षा की समय सीमा समाप्त और प्राकृतिक सौन्दर्य की सीमा में प्रवेश हो चुका था ।
मन बचपन में लौटना चाहता था और
तेज कदमों नें दूरियाँ कम कर दी और
इंद्रावती के जल को
मैंने अंजुली में भर लिया ।
शीतल जल में
मृदुल संवेदनाएँ अंतस को स्नेहिल स्पर्श कर रही थीं ।
वही सदियों पुरानी आत्मीयता से बस्तर से एक बार फिर संवाद स्थापित हुआ ।
इतने में आकाश का झुककर अभिवादन करना अत्यंत सुखद लगा ।
जाड़ों के दिन गुनगुनी धूप , रातों को स्पष्ट दिखाई देते टिमटिमाते तारों की रोशनी, अलाव की गरमाहट ।
इन सभी स्मृतियों को मैं बहूमूल्य धरोहर की तरह अपने मन मस्तिष्क में समेटते चलती रही ।
महानगर के झमेलों से दूर तुषार कणों के मखमली अहसास
प्रकृति की प्रकृति को समीप से देखना
बार- बार
एक स्वप्न जैसा लग रहा था ।
चित्रकोट के
झरनों से आती रूपहली बूंदें इंद्रधनुष की छटा और कलकल का स्वर
नौकाविहार !!!!
उस अद्भुत दृश्य और
अपने भावों को
पिरोने के लिए पहली बार शब्द कम हो रहे हैं ।
तीरथगढ़ की सिकुड़ी जलराशि में एक व्यथा थी ।
वहाँ का कण-कण बहुत कुछ कहना चाहता था । पगडंडियाँ मेरा राह रोककर खड़ी थीं ।
मैंने फिर आने का वादा कर उनसे अनुमति ली और
मैं ममता के आँगन में आ गई ।
वहाँ अदृश्य आँखें हमें निहार रही थीं ।
वो मुझे देख रही थी
मैं उसे महसूस कर रही थी पर देख नहीं पा रही थी ।
शायद
मेरे अंतिम पड़ाव पर वो
मुझसे मिलेगी मेरी जन्मदात्री
खैर
अब मैं लौट आई हूँ
अपने कर्मक्षेत्र में ।
अब भी उन स्मृतियों की
सौंधी सुगंध
मुझे तरोताज़ा कर जाती है
और
मैं जी उठती हूँ फिर से
पिछली बार की तरह ।

 


रजनी साहू “सुधा”
मुंबई 

मो-9892096034