विद्या गुप्ता की कवितायेँ

कविता-1

शुक्रिया….!! पावस तुम आए 

घर गगन तक पावन
सोंधी माटीगंध भर लाये
पतझड़ हुए मन के आंगन में
रेगिस्तान हुए जीवन में
धूल धूसरीत नील गगन में
इंद्रधनुष रंग लाए
शुक्रिया पावस तुम आए
 सम्वेदना के उजड़े उपवन में
स्नेह के सूखे सावन में
भाव रहित पाषाण भवन में
पलभर त्यौहार बना आए
शुक्रिया पावस तुम आए
वर्तमान के रूखे स्वर हैं
खीज खीज से भरी दोपहर है
उलझा उलझा हर प्रहर है
मलय झकोरो के साजो पर
रिमझिम संगीत भर लाये
शुक्रिया पावस तुम आए
तन के रंग गए वृंदावन
मन के हरे हुए हैं मधुबन
महक उठे रिश्तो के चंदन
स्याह रात के अंबर पर तुम
सौदामिनी बन छाए
शुक्रिया पावस तुम आए
धरती का तन तपा तपा था
अंतर बाहर धधक रहा था
आसमान भी श्वेद भरा था
प्यासे अधर दिशा दिगंत के
प्यास बुझाने  ओ पावस
तुम जलधारा भर लाये
कविता-२

द्वार पर

आहट हुई
अर्धविराम ने कहा
आधी किताब खत्म हुई….!!
अरे, अभी तो मैंने
कुछ भी नहीं पढ़ा
बस कहीं अपने तक ही
सीमित रहा ,
नहीं जान पाया
मेरी चीख के अतिरिक्त
और भी कोई चीख रहा है
नहीं जान पाया
मेरे फांस की चुभन में
डूब गई किसी की फांसी
अनजान रह गया
सांसो का घुट जाना
मेरे आंसू
मुझे डूबाते रहे
और कोई पास ही
समुद्र में डूबता रहा
कहां जान पाया मैं …??
भूख को ही ले लो
सिर्फ दो रोटी ने मेरी
पूरी चेतना को गिरवी रख लिया
नहीं दे पाया दो कौर उन्हें
जिनकी आंते टूट रही थी
अर्धविराम के बाद
सोच रहा हूं
मुझे देखना था घर के बाहर
कम से कम
खिड़की ही खुली रखना थी
कुछ तो मुझे सुनाई देता…!!
किचन की
चम्मच करछूल के अतिरिक्त
या दिखाई देता
अपनी चादर की सलवटो के अतिरिक्त
कुछ और भी
ऐठन, मरोड़ या तड़प जैसा
पता नहीं कहां खड़ा हूं
मुझे दरवाजा खोल देना चाहिए
विद्या गुप्ता दुर्ग