सच्चा समर्पण
कहानीकार-सनत कुमार जैन
”मुझे सभी काम समय में पूरा चाहिए। कोई लेट लतीफी नहीं! क्या करते हो दिन भर ? 24 घन्टे होते हैं दिन भर में। उन चौबीस घन्टों में चार काम भी नहीं होता है! कभी सोचा भी है कि हमारा जीवन कितना है और कितना समय हम औचित्यहीन कार्यों में गुजार देते हैं ?” गुस्सा जरूर था भावों में, परन्तु ऊपरी तौर, पर चेहरे से प्यार झलक रहा था। नजरों में झांक कर देखा पारस ने, सुधा की आखों में गलती का अहसास था। स्त्री सुलभ आंसू भी भीतर से आ आंखों की पोरों में लटक गये थे। यूं लगा गिर ही जायेंगे। पारस समझ गया और उसने अपने मनोभावों पर काबू पाना ही पड़ा। समझ गया कोई नही समझा सकता है, शायद ईश्वर भी! बात का रूख बदल पारस ने कहा।
”तुमने अपनी साड़ी में ये जो सितारे टांके हैं बड़े ही अच्छे लग रहे हैं। काफी मेहनत करी हो। नीली साड़ी में सफेद कलर के सितारे आसमान सी शांति दे रहे हैं। कुछ भी हो तुम्हारा कलर कांबिनेशन बहुत अच्छा है। अब जरा मेरी समस्या दूर करो, काली पेन्ट में कौन सी शर्ट पहनूं ?’’
”कोई भी लाइट कलर की पहन लो, ये वाली अच्छी रहेगी!” कहकर सुधा ने एक शर्ट निकाल कर दी और सच में पारस की पर्सनाल्टी खिल गई।
ऐसा नहीं था कि सुधा समझी नहीं। उसे अब ये सब अच्छी तरह समझ आता है क्योंकि पिछले 6 सालों से समझाया जा रहा है। पर पारस को कौन समझाये कि दिन भर वो सोई नहीं रहती है। कुछ न कुछ काम घर में लगा रहता है, उन सबको निबटाते-निबटाते सारा दिन ऐसे निकलता है मानो मिनट भर का दिन हो।
और बात कुछ बड़ी न थी। पारस ने टेलर के यहां से कपडे़ लाने को कहा था जो उसने माह भर पहले सिलने के लिये दिये थे और सुधा लेने जा ही नहीं पा रही थी।
”आज मैं एक घन्टे बाद जाकर जरूर लेकर आऊंगी।’’ मन को समझाते हुए सुधा के होठों में ये बात आ गई।
’’अरे सुधा! आज तो तुम्हारा किचन एकदम साफ सुथरा लग रहा है! आज पारस नें पोंछा भी लगा दिया है क्या?‘‘ ममता ने सुधा के घर में घुसते ही कहा।
’’अरे आ ममता! अच्छा हुआ तू आ गई, जरा मार्केट जाना है पारस के कपडे़ टेलर के यहां से लाने।” सुधा ने खुश होते हुए कहा।
”चलेंगे चलेंगे, पहले सुस्ता तो लूं पचास किलो मीटर चलकर आई हूं। थकान तो दूर कर लूं।’’ सुधा सोफे में लगभग पसरते हुए बोली।
”कहां गई थी मुझे नहीं बताया मैं भी चलकर आती पचास किलो मीटर!” ममता ने हंसते हुए कहा।
”नहीं रे घर से ही आ रही हूॅं।”
”घर तो बाजू में ही है तो पचास किलोमीटर कैसे चलकर आ गई।”
”मैं हूं न 50 किलो की और एक मीटर घर की दूरी, हुआ न पचास किलो और एक मीटर!” कहते हुए हंस पड़ी ममता।
”तू नहीं सुधरेगी!’’
’’सुधरकर क्या करना है। चार दिन की जिन्दगी है, खाओं-पीओं और ऐश करो क्या हमेशा रोते रहो।”
‘‘जिन्दगी की ये फिलॉसफी भी बहुत अच्छी है चिन्ता मत करो खुशी से रहो, क्यों छोटी सी जिन्दगी को चिन्ता की आग में जलाओ। जिन्दगी तो वो सुलगती लकड़ी है जो धीरे धीरे खुद ही जल रही है फिर हमें क्यो उसे जलाना चाहिए। सभी पलों को हसीन बनाकर हंसी खुशी गुजार दो, पर ये तभी है जब ”मनीराम” का जुगाड़ हो, वरना ये फिलॉसफी ’’फेल सभी’’ हो जाती है।’’
बातें करते करते पांच बज गये। इस बीच सोनू और गोलू आये स्कूल से। उन्हें सुधा ने खिलाया पिलाया तो काम वाली बाई आ गई और अब घड़ी पारस के आने का संकेत कर रही है। वह खाना बनाने जुट गई ममता को विदा कर।
दरवाजे की घन्टी बजी और पारस अंदर आये और अपना बैग रख फ्रेश होने चले गये, दीवार घड़ी ने सात बार बज कर बता दिया, ’पारस आ गये!, पारस आ गये!’
एक कप चाय उनके छोटे आफिस के कम्प्यूटर टेबल में रखी तब तक पारस फ्रेश हो, तैय्यार होकर, टावेल को हैंगर में टांग चुका था।
”आये मेरे कपडे़!”
सुधा घबराकर किचन में भाग गई।
”क्या करूं, कैसे समझाऊ?’’ पारस चिन्तित हो गया।
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’’आप हमेशा यही लेक्चर देते रहते हैं मैं कुछ नहीं करती, मैं कुछ नहीं करती! आपके कपड़े आप को आलमारी में यूं ही मिल जाते हैं ? सुबह नाश्ता फिर खाना, शाम को खाना क्या होटल से तैयार आता है ? इस घर में साफ सफाई अपने आप ही रहती है ?, गमलों में लगे पौधों में फूल क्या अपने आप उगते है ? सैकड़ों काम होते हैं दिन में। गिनाने लगूं तो रामायण जैसी मोटी पुस्तक बन जायेगी। उठते बैठते, चलते फिरते काम करते चलो तब कहीं जा कर घर साफ-सुथरा, सुंदर रहता है। ओर तुम्हें लगता है मैं सिर्फ सोती रहती हूं। रोज कोई न कोई बैठने आ जाता है उसको अटैण्ड करो। मुझसे शादि क्यों की, मशीन से शादि कर लेना था जब तुम्हें काम से ही मतलब है तो। .काम करके कोई जस नहीं ऊपर से चार बातें सुननी पड़ रही हैं अलग! छै साल की भड़ास विस्फोट के साथ बाहर आई और फिर जोरदार रूदन चालू हो गया।
पारस अपना सर पकड़ कर बैठ गया, उसे लगने लगा सच में वह गलत है। नारी के अंदर वास्तव में वो हथियार है जो पहाड़ को भी चूर चूर कर रेत बना देता है। हम तो पहले से ही रेत हैं। इन आसूंओं से त्रिलोक की शक्ति घबरा जाती है। ईश्वर की सत्ता हिल जाती है। मृत्यु देव भी लौट जाते हैं। ये तो बहुत भंयकर और भारी शक्ति है।
पुरूष ने जिस स्त्री का हाथ थामा है वह उसके आंसू पोंछे उसका धर्म है। एक दूसरे के दुखों को समझकर दुख बांटना कर्तव्य है। गलतियों को समझ कर झुकना आदर्श है और गलतियों को सुधारकर राह में लाना फर्ज है।
अहसास है इन बातों का पारस को, तब तो चिन्तित है अपनी जीवन संगीनी के लिए। बहुत ही ज्यादा चिन्ता है उसे सुधा की। जीवन में रोजमर्रा के काम करना ही जीवन होता है, ये सोचना सरासर गलत है। ये तो वही बात हुई कि राह में पड़ा पत्थर सोचे कि थपेड़े खाना और चलते लोगों की लात खाना ही नियति है। सच है कि यह नियति ही है पर सिर्फ उस पत्थर के लिए क्योकि वो पत्थर है उसमें सोचने समझने की इंद्रियां नहीं हैं। हम तो इंसान हैं। ब्रम्हांड की सर्वश्रेष्ठ पांच इंद्रियां से आभूषित; जिनके प्रयोग ये हम सब कुछ कर सकते हैं।
हर व्यक्ति को कम से कम एक काम या यूं कहे उद्देश्य लेकर चलना चाहिए जिससे वह जीवन में ”कुछ” कर सके, कुछ ”अलग” कर सके। खाना, सोना ओर नित्यकर्म तो जानवर भी करता है
सर में दर्द हो गया पारस के कैसे समझाऊ
इस सुपरफास्ट दुनिया में किसी को भी किसी के भरोसे नही रहना चाहीए स्वालंबी रहना चाहिए क्योकि स्वालंबन ही एक ऐसी राह है जिससे कोई भी किसी का सहारा बन सकता है. किसी के बिना जीवन वैसे ही यादों का पहाड ढोना होता है फिर ऊपर से आदमी बगैर कमाई कैसे जीए? इसलिए स्वांलबी होना जरूरी है
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सुधा मै दो दिनों के बाद आऊगां तुम संभल कर रहना ” पारस ने सुधा के गालों में पप्पी लेकर कहा
दो दिन! क्या काम आन पडा जो दौडे भागे जा रहे हो आजकल, कभी इस गांव कभी उस गांव कभी राजधानी क्या बात है? कौन सा काम कर रहे हो? सुधा ने गुस्सा जताते हुए कहा
” बाहरी ठेके का काम है इसलिए जाना पडता है न जाओं तो कैसे काम चलेगा ” नजदीक आता हुआ पारस बोला
” ठीक है दो दिन याने दो दिन एक घण्टा भी ज्यादा नही होना चाहिए
’’क्या दो दिन ज्यादा होते हैं?’’
”नहीं दो पल के समान है यूं ही कट जायेगे. सांस ली और सांस छोडी देखो कट गये न ” सुधा ने आखों में आंसू लिए तमकते हुए कहा
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”काम कुछ बढ़ गया है और चार पांच दिन भी लग सकते हैं।” पारस ने जरा दबे स्वर में कहा, अप्रत्याशित रूप से सुधा शांत स्वर में बोली ’’क्यों मजाक करते है। जल्दी आ जाओ। खाली खाली घर अच्छा नहीं लगता है।’’
”सुधा क्या मुझे यहां मजा आ रहा है। मैं खुश हूॅं, मजे कर रहा हूॅं। मजबूरी है काम करना, इसलिए कर रहा हूॅं। खर्चे बढ़ गये हैं तो कमाने के लिए मेहनत जरूरी है या नहीं ?”
”खर्चे कम कर लो पर ये मुझसे तुम्हारा दूर रहना सहन नहीं होता है।” सुधा रोने पर उतर आई।
”खाना बंद कर देते है। सारे खर्चों की जड़ तो पेट है, उसे ही फाड़ लेते हैं। झंझटों से मुक्ति! क्यो ठीक रहेगा ये आयडिया ?” पारस ने हंसते हुए कहा ”और हां, अभी जिस गांव जा रहा हूं वहां फोन भी नहीं लगेगा क्योंकि वो थोड़ा अंदरूनी गांव है।” पारस याद दिलाता बोला।
सुधा ने रोते हुए फोन रख दिया।
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धीरे धीरे करके एक माह 20 दिन हो गये पारस की जुदाई के दिन बढ़ते बढ़ते एक एक पल, एक एक दिन की तरह गुजरता गया, सुधा मानों इतने दिनों में दो जीवन जीकर, फिर सुधा बनी है, आज तब पारस उस अनजाने काम से वापस लौटा।
”उस सुबह मैंने खाली घड़ा देखा था तुम्हें मना करती पर फिर सोचा बाहर जाते व्यक्ति को टोकना अच्छा नहीं होता इसलिए चुप रही। आगे से मैं तुम्हें याद दिला ही दूंगी।” पारस के गले का हार बनती सुधा बोली।
”अब आ क्या मुझे दबा ही डालोगी।” कहकर पारस छटपटाने का नाटक करने लगा।
’’सच में आज मै तुम्हें नहीं छोडूंगी।’’
”एक पत्नी 376 में अंदर’ कल पेपर की हेडिंग होगी।’
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”क्या बात है सारा घर साफ सुथरा दिख रहा है। सारे सामान अपनी जगह है।” पारस ने आखें फाड़ कर देखते हुए कहा।
’’सारा सामान ही नहीं जमा है सारे बाहरी काम भी हो गये हैं।’’
”बाहरी काम ? कौन से बाहरी काम ?’’ पारस ने दोहरा आश्चर्य प्रगट किया।
’’बिजली का बिल, नल का बिल, राशन, गैस, स्कूल की फीस, फोन का बिल….!’’
”और क्या-क्या कर लिया ?” पारस हंसते हुए, एक हाथ ’गप’ लपटेने के अंदाज में घुमाता हुआ बोला।
सुधा की आंखें भींग गई। वह तुरंत कमरे की ओर दौड़ कर गई, दुगनी तेजी से पल भर में वापस भी आ गई। उसके हाथों में एक फाइल थी, जिसे उसने पारस के आगे खोलकर रख दिया।
पारस ने उस फाइल को अपने हाथ में लेकर देखा। सबसे पहले पेज में लाइन से माह भर में करने वाले जरूरी कार्यों की सूची थी यथा, बिजली, नल, फोन बिल, गैस, राशन, स्कूल की फीस, ट्यूशन आदि, दूसरे पेज में धोबी, आदि का हिसाब, तीसरे पेज में वार्षिक कार्यों की सूची थी इनकमटेक्स, प्रापर्टी टेक्स आदि, चौथे पेज में उसके बाहर जाने की तारीख सबसे ऊपर लिखी थी और नीचे किये गये कार्य लिखे थे। पारस ये सब देखता रोमांचित हो रहा था जो स्त्री समय पर कोई काम नहीं कर पाती थी, टालती रहती थी, उन्हीं कामों को उस स्त्री ने इतने तरीके से सूचीबद्ध किया है। सब कामों को इतनी अच्छी प्लानिंग तो वह स्वयं भी नहीं करता था। इधर सुधा के आंसू नहीं ठहर रहे थे। वो लगातार रो-रोकर आंखे सुजा रही थी।
”इतना मत रोओ सुधा! वरना तुम्हारा नाम बदलकर सुजा रखना पडेगा ?’’ पारस उसके गालों को हाथों में लेते हुए वातावरण बदलना चाहा।
’’तुमने तो मेरी मेरी कल्पना से परे वो काम कर दिखाया है जो मैं खुद भी न कर पाता था। बेहतर योजना से समस्त कार्यों की सूची बनाकर कार्यां का निश्पादन! वाह! क्या उत्कृष्ट सोच है। कार्य भी पूर्ण होगा और किसी भी चूक की संभावना न होगी। हम सभी जीवन में कार्य करते जाते हैं किन्तु कभी विचार नहीं किया इन बातों का! वाह सुधा! वाह! अति उत्तम!’’
पति की शाबासी से सुधा शरमा गई और जैसे छोटा बच्चा पोयम सुनाकर शरमाकर मम्मी की गोद में समाकर खो जाना चाहता है ठीक उसी तरह सुधा भी पारस के आगोश में समाने की कोशिश मे लग गई।
छाती से लगी सुधा धीरे से बोली ’’आपने लिखावट देखी!”
पारस अबकी चिंहुक उठा आष्चर्य से। आज मानों पारस के आश्चर्य में डूबने का दिन था और सुधा का आश्चर्य में डूबाने का दिन था। सारी फाइल कम्प्यूटर द्वारा छपी हुई थी। सारे पेज कम्प्यूटर प्रिन्टर द्वारा टंकित थे।
”य-ये किसने लिखा है कम्प्यूटर से ?” पारस आश्चर्य से हकला सा गया। व्यक्ति जब जानता है कि उसके प्रश्न का उत्तर क्या है बावजूद उसके सामने वाले से पूछता है तो हकला सा जाता है।
इतनी ज्यादा विदाई के बाद मिलन का रूदन चलने के बाद भी मुस्कराने का सफल प्रयास किया और नजरें झुका कर बोली- ”तुम्हारी ये धीरू बोझ पत्नी ने!” बोझ पर विशेष जोर दिया।
खुशी के अतिरेक से पारस पगला सा गया और पुनः बाहों में ले लिया सुधा को। ये समय रोमान्च से रोमान्स की ओर बढ़ चला।
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शाम को शहर के सबसे ऊंचे होटल में डिनर करते हुए सुधा से पारस ने पूछा-”पर तुमने ये सब क्यों किया ? मैं तो आकर कर ही लेता इन कार्यों को। करने की जबावदारी तो मेरी थी।”
”दो दिन तो कट गये जुदाई के। तीसरा दिन पहाड़ बनने लगा। चौथा दिन अंतहीन रेगिस्तान, जिसमें मैं अकेली भटक रही थी। तुम्हारा वियोग, मेरी वेदना बढ़ाता गया। तुम्हारे लिए मेरी चाहत को मैंने मापने का असफल प्रयास किया। चाहत अनंत थी तो फिर मैंने वियोग को तुम्हारी हर बातों में डुबो कर, तुम्हारा हमारा मिलन बना दिया। जो तुम्हें अच्छा लगता था वो किया, जो तुम्हे अच्छा लगता था खाया और………..”
”और…. और क्या ?” सागर ने उत्सुकता से पूछा,
’’तुम्हें जो अच्छा लगता था उन्हें करने की आदत डाली।’’
”……..”
”…….’’
मिनट दो मिनट की चुप्पी के बाद पारस ने कहा-”मुझे जो अच्छा लगता था वही किया ?”
’’नहीं, जो जीवन में जरूरी था वह किया। पर प्रेरणा स्रोत तुम थे इसलिए तुमने जो कहा वही किया।’’
”और कम्प्यूटर ?”
”मैंने और ममता ने साथ जाकर सीखा, घर के कम्प्यूटर से प्रैक्टीस करी। और माह भर में ही सीख गई क्योकि प्रेरणा स्रोत, प्रकाशस्तंभ जो तुम्हारे जैसा था। जो कुछ किया जो कुछ सीखा वो तुम्हारे कथन के अनुसार मतलब समझ कर ही सीखा। न दिखावे में सीखा, न ही चिढ़ से सीखा। तुमने इस सुधा को सुध दिलाकर सुधा बना दिया।’’
आज पारस के सर पर से जाने कितना भार उठ गया, खुद उसे ही नहीं मालूम। अपनी होशियार पत्नी के गर्व की अनुभूति थी या फिर भार हटने पर उत्पन्न हल्कापन, जो उसके पांव धरती पर ही नहीं पड़ रहे थे और वह उड़ा चला जा रहा था।
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बात-बात में रोती सुधा, अब कमजोर नहीं लगती पारस को, बल्कि उसका रोना उसकी कमजोरी को बहाकर निकाल देता उसके मन से और दुगुना उत्साह पैदा करता सुधा के मन में–
और सच कहा जाय तो पारस को तभी विश्वास होता सुधा पर जब वो दो चार बूंद आंसू न टपका लेती, अन्यथा उसके द्वारा कोई भी कार्य करने पर पूर्णता पर संदेह रहता………..
वाक्य को आगे बढ़ाने के लिये सागर, कई बार अपनी कलम को पन्ने पर दबाकर, रंगड़कर लिखने का प्रयास किया परन्तु वह असफल ही रहा। अपनी कलम की ओर देखा, उसकी रीफिल खाली हो चुकी थी।
’ओ तेरी की, कलम की रीफिल तो कहानी के खत्म होने के पहले ही खत्म हो गयी। अब क्या करूं मैं!’ अपने टेबल की दराज में खोजने पर दो तीन कलम और मिलीं पर वो भी खाली रीफिल वाली।
’चलो छोड़ो, ऐसे ही भेज दूं इस कहानी को पत्रिका में छपने के लिये। पाठक कौन सा जानता है कि मैं और क्या बताना चाहता था। वह तो इतनी कहानी से ही अपने संदर्भ ढूंढ लेगा……!’