सनत जैन की कहानी – हिलोर

हिलोर

आज तीसरा दिन था सावन की झड़ी का। पुराने लोगों का कहना था कि झड़ी सामान्यतः तीन दिन, पांच दिन या फिर सात दिन तक बनी रहती है। यानी विषम दिनों तक। अपेक्षा थी कि संभवतः आज ये झड़ी का अंतिम दिन हो। घर में घुसे घुसे समय काटना बहुत कठिन काम था। पहले दिन ही मैं बड़ी कठिनाई से निकल कर पान वाले की दुकान गया था, प्रतिदिन की तरह पान खाने। चाय के बाद यही तो एक बुराई थी जो छूटने का नाम नहीं ले रही थी।
झड़ी के पहले दिन ही वो पानवाला कल्टी मार गया था। उसकी झोपड़ी ने मुझे अपनी बड़ी सी जीभ निकाल कर चिढ़ाया।
हतभागी का घर भी ऐसा ही होगा सोच कर अपने मन को मैंने समझा लिया। चलो इसी बहाने वॉकिंग हो गयी। पर लगभग भीग चुका था मैं। ऐसा भी न था कि मेरे पास रेनकोट नहीं था पर उसे पहनना एक कष्टकारी काम था। उसके भीतर की नमीं और उससे उठती रूके पानी सी बदबू …उफ उसे झेलने से अच्छा इस बारीश में भीग जाना था।
दो-ढाई सौ मीटर की दूरी तय करते करते अनुभव होने लगा कि मेरी वो सोच सही न थी। शरीर के ऊपर पड़े कपड़ों के साथ भीतर के कपड़े भी भीग चुके थे और वो काट रहे थे। घर की दूरी मीटरों से किलोमीटर में बदल चुकी थी। किसे कोसता पान खाने के शौक को या फिर बरसात को। या उस समय को जब मैं घर से निकला था।
घर पहुंच कर ’रस्टक’ की दो बूंद पहले जीभ पर डाली तब कुछ गीले कपड़े बदलकर बैठा। टेबल पर चार छै ए-4 साइज के पन्ने पड़े थे जो पिछली रात को ही मैंने काले किये थे। उन पन्नों को घूरता हुआ मैं कुर्सी पर बैठा रहा। उन पन्नों में झांकता घुंघराले बालों वाला भोला सा मुखड़ा मुझे देखकर मुस्कुराने लगा।
बड़ी बड़ी आंखों में तैरता गीलापन, कमान सी भौंहों के दूर दूर बाल सौन्दर्य की अप्रतिम मूरत बना रहे थे। उसका सदा ही छोटी बांह का ब्लाउज पहनना मुझे आकर्षित करता था। जब से वो इस ओर नयी किरायेदार बन कर आयी है तब से, उस दिन से मुझे उसमें कुछ न्यारा सा आकर्षण अनुभव होता रहा। यूं तो मेरी सोच में सौंन्दर्य के सामने गोरे रंग का कोई विशेष महत्व न था परन्तु उसका गोरा रंग कुछ न्यारा ही था।
ये सारा न्यारापन मुझे उसमें दृष्टिगत हो रहे थे, इसे लोग मेरा पागलपन समझ सकते हैं। पर ऐसा था। सूचना के लिये ये बताना भी आवश्यक है कि मेरे दो प्यारे बच्चों का नाम चीनू और मुन्नी है। और उनकी प्यारी सी मम्मी का नाम सुलेखा! पर उस सौन्दर्य ने संभवतः पानी वाले कपड़े से स्लेट पर लिखी लिखावट को मिटाने का प्रयास किया था।
मैं एक लेखक हूं इसलिये आकाश और सूरज से जाने क्यों भारी लगाव है। सुबह उठकर छत पर बैठना और सूरज की छनकर आती धूप का गर्मी में भी आनंद लेना किसी पकवान से न्यूनतर नहीं लगता है। इमली के वृक्ष की छोटी छोटी पत्तियों के बीच से मानों सूरज अपनी उष्मा को छानकर भेज रहा हो। पत्तियो ंसे गुजरती धूप उनसे हल्का सा खट्टापन भी ले लेती थी तब तो बदन बीच में कंपकंपा सा उठता था।
मेरी छत से उसके मकान की छत पर बना कमरा और उस कमरे में उसका बैठकर कपड़ा धोना फिर ग्रामीण शैली में अपने शरीर पर कपड़े डाल कर, धुले कपड़ों को छत पर सुखाना, लाखों करोड़ों रूपयों की बारीश का मौसम अचानक से आ जाना! उसे कुछ दिनों में ही समझ आ गया था कि नैनों का एक जोड़ा उसके चारों ओर किसी मक्खी की तरह चक्कर लगा रहा है। परन्तु न तो उसने अपनी दिनर्चा बदली न ही अपने कपड़े पहनने का वह ग्रामीण ढंग!
मेरा प्रतिदिन का काम था कम से कम दो से तीन घंटे कलम घिसना। वैसे तो कहानी लिखना मेरा मन बहलाव है फिर भी कभी कभार चार पंक्तियों की कविता भी लिख लेता हूं। कुछ दिनों से देख रहा हूं कि संभवतः मन केन्द्रित ही नहीं हो रहा है कविताओं से भरे पन्ने इस बात की साक्ष्य दे रहे थे। मैं था कि पूरे मनोयोग से उस अप्रतिम सौन्दर्य की प्रतिमा में प्राण फूंकने के प्रयास में लगा था और वह थी कि स्वयं को प्रतिमा सिद्ध करने पर तुली थी।
ऐसा न था कि वह मुझे कनखियों से देखे और मुझे पता ही न चले। वह अपनी बड़ी बड़ी आंखों के किनारों पर अपनी पुतली लाकर मुझे बड़े अच्छे से निहार लेती थी। उस समय ऐसा अनुभव होता मानों उसकी पुतलियां मेरे शरीर को छू छूकर गुदगुदी कर रही हों। मैं एकदम से उछल पड़ता। और ठीक उसी समय वह पूरी दृष्टि से मुझे सीधे सीधे देख लेती।
कई बार उसका विधवा होना मुझे दया से भर देता था। मैं अपने कृत्य पर कभी कभी आश्चर्य से भर उठता था। मुझे लगता कि क्या मैं ऐसा भी कर सकता हूं। उसी समय अपना मोबाइल का केमरा चालू करके अपना मुखड़ा देखता, अपनी आंखों को देखता, उसमें उठते उमड़ते लाल डोरों में नाग की आकृतियां ढूंढता। नागपाश अपने शरीर पर अनुभव करता।
मुझे लगता वो एक जादूगरनी है तब तो मुझ जैसे को अपने काले जादू में उलझा ली है। उसके काले लंबे घुंघराले बाल जो उसके पीठ से होते हुये मानो उसके पूरे शरीर को घेर लेना चाहते हों। वो साड़ी जो उसके शरीर पर ग्रामीण ढंग से बंधी होती थी, उनको छिपाने के लिये वो खुले बाल मानों सिपाही होते थे। वो बाल ऐसा भले ही मानते हों परन्तु उनके कारण ही तो ये लेखक मन विचलित सा हो जाता था।
अचानक मैं कुर्सी से उठा और उन पन्नों को पढ़ने लगा जो मैंने लिखे थे। पानी की बूंदों ने मानों सौगंध खायी थी न रूकने की। आर्द्रता की बास से कपड़े भी विचित्र अनुभव करवा रहे थे।
’क्या तुम मुझसे संबंध बना कर रखोगी ?’ सागर उसकी सपनीली आंखों में अपनी आंखों को लगभग घुसाता हुआ पूछा।
वह अपनी मुस्कुराहट पर मगन थी। मुस्कान मानों पत्थर पर उकेरी गयी हो।
’कुछ कहोगी या फिर यूं ही…..?’
’क्या नाम दोगे इस संबंध का ?’ उजले दांतों की पक्तियों ने मानों टंकार की।
’क्या संबंध को नाम देने पर ही संबंध बना रहेगा ? हम यूं भी तो जी सकते हैं। क्या आवश्यकता है नामकरण की। नामकरण करते ही संबंध की गरमाहट समाप्त हो जायेगी। वही यांत्रिक सांसारिक भुलभुलैया में भटकता जीवन! क्या तुम्हें लगता है ऐसे संबंध बनाना जरूरी है ?’ सागर उसके घुंघराले बालों में उंगलियां फेरना चाहता था परन्तु अब तक उनके संबंधों के बीच में ऐसी निकटता नहीं आयी थी।
’क्या एक स्त्री बिना संबंध की मान्यता के इस संसार में जी सकती है ? वह भी बिना किसी की रोक टोक के! क्या तुमने देखा ऐसा कोई संबंध ? अगर देखा हो तो बताओ। सुना भी हो तो बताओ।’ ’मैं तो तुम्हारी बेटी का भी ध्यान रखूंगा। उसके सारे खर्च, शिक्षा, दीक्षा और….’
’उसके प्रश्नों का उत्तर दे सकोगे ? भले ही वर्तमान में वह अनभिज्ञ है पर बड़ी होगी तब तो उसके मन में प्रश्न उमडेंगे ही न! उन प्रश्नों से कहीं अधिक उसके लिये स्नेह की वर्षा कौन करेगा ? क्या संसार में ऐसा संबंध संभव है कि एक मां के साथ राग और प्रेम का अतिरेक संबंध और उसके बच्चे के साथ एक अपरिचित सा व्यवहार!’ छटपटा उठी वह अपनी बेटी के लिये। अंग भंग किये जाने की तरह। उसका कष्ट अनुभव किया जा सकता था परन्तु सागर इससे अनभिज्ञ ही रहा।
’मैं तो केवल तुमसे ही… मेरा लगाव तो केवल तुमसे ही है उसके बाद भी मैं कह तो रहा हूं न कि तुम्हारी बेटी का ध्यान बहुत अच्छे से रखूंगा। किसी प्रकार की कोई न्यूनता का अनुभव नहीं होने दूंगा।’ सागर उत्तेजित होता हुआ बोला। और वह उसे विचित्र नजरों से देख रही थी।
सामान्यतः वर्षा ऋतु में बिजलियां कम कड़कती हैं परन्तु इन पंक्तियों के पढ़ने के दौरान ऐसा हुआ। बिजली की तेज चमक में उसकी छत पर कोई आकृति दिखाई सी दी। मैं अपनी उंगलियों में फंसे पन्नों को टेबल पर रख दिया और खड़ा हो गया। उस छत के कमरे की बंद खिड़की की झिर्रियों से भीतर की हलचल का अनुभव हो रहा था। मौसम की आकुलता अब उसकी आकुलता में बदल चुकी थी। मेरे खुले शरीर पर पड़ती पानी की बूंदों ने आखिर अपना प्रभाव डालना शुरू कर ही दिया। ठंड के कंपन के साथ ही खिड़की का पल्ला खुल गया। ये समझना कठिन था कि आकाश के बादल खिड़कियों के पीछे कैसे उतर आया है। आंखों की चंचलता मन की आकुलता में बदलती जा रही थी।
तभी खिड़की बंद हो गयी।
अंतहीन प्रतीक्षा का दौर……।
’तुम विधवा हो आखिर जाओगी कहां ? तुम्हें भी तो एक आश्रय की नितांत आवश्यकता है। तुम इस आश्रय को यूं ही दुत्कार नहीं सकती।’ सागर का निरंतर वाद विवाद चल रहा था। भले ही उस स्त्री ने कोई प्रत्युत्तर न दिया, न ही कोई प्रतिप्रश्न किया।
’तुमको मुझसा आश्रय नहीं मिलेगा। निरंतर तुम्हारी आवश्यकताओं की आपूर्ति होती रहेगी।’ सागर के प्रलाप पर अचानक ब्रेक लग गया।
’क्या सिर्फ मेरी आर्थिक आवश्यकताएं ही मेरा जीवन हैं ? क्या तुम्हारी बांहों में लिपटे रहना ही जीवन का सत्य है ? तुम्हारी मादक आवश्यकताओं के लिये मैं सबकुछ विस्मृत कर दूं ? मेरी बेटी का जीवन…..?’ कसक उठी उसकी ममता।
’क्षण भर विचार करो कष्टविहीन जीवन…..चिन्ताविमुक्त जीवन…..न तो कमाने की चेष्टा करनी होगी न ही कल की चिन्ता में दुबला होना होगा…….मात्र मेरे लिये जीवन जीना होगा! क्या आज तक, अब तक मैंने तुमसे तुम्हारी स्वीकृति के बिना तुम्हारा साथ लिया है ? प्रेम के संवाद ही जीवन है केवल और केवल प्रेम के संवाद! शेष सब संसार में जीने के अनावश्यक तत्व हैं। प्रकृति में प्राकृतिक ढंग से जीने की ओर प्रकृति ही संकेत करती है। मेरी आय से तुम्हारा जीवन कंटकविहीन हो जायेगा, इनसे तुमको क्यों आपत्ति है ?’ सागर भी अपनी पूरी सामर्थ्य से समझाने का प्रयास कर रहा था।
’ऐसा अनुभव होता है कि मेरा वैधव्य तुम्हारे लिये सुगम मार्ग बन गया है। तुमको मानों ऐसा प्रतीत होता है कि मैं विधवा हो गयी हूं तो मेरे लिये कौन खड़ा होगा! मैं इस संसार में नितांत अकेली हूं। तुम्हारे लिये एक सजी सजायी थाल! क्या इतना सरल है ये जीवन! क्या इतना सरल है एक विधवा स्त्री का जीवन! संसार के समस्त स्तनपायी एक ही ढंग से सोचते हैं। एक स्त्री विधवा क्या हो गयी समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने ढंग से उसे प्राप्त कर लेने की सोचने लगा! किसी एक ने भी यह विचार न किया कि उस स्त्री पर क्या बीत रही होगी जो अभी अभी ही अपने पति का वियोग सह रही है। ये वियोग जीवन पर्यन्त सहना है। इसी संसार की रीत है पति और पत्नी को अग्नि के समक्ष सात जन्मों के साथ निभाने का वचन दिलवाया जाता है। ये समाज जरा भी नहीं विचार करता कि सात जन्मों के स्थान पर इसी जन्म में और इतनी शीघ्रता के साथ साथ छूट रहा है, स्त्री कैसे जीयेगी, ऐसी विपदा के साथ कैसे उसकी आयु की पूर्णता होगी। पति तो चला गया। अपना उत्तरदायित्व छोड़कर चला गया। अपना वचन त्याग दिया। अब उसकी पत्नी…..? क्या इस समाज का ये कर्तव्य नहीं है कि वह अग्नि के समक्ष दिलवाये गये वचनों की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करे….!’
’छोड़ो ये परम्परावादी बातें! ये सारे कथन पर्यायहीन हैं। स्त्री पुरूष के मध्य शारीरिक संबंध मात्र दिखावा नहीं हैं। उनको तो ये समाज नहीं बनाया है। ये प्रकृतिदत्त हैं। क्या तुम प्राकृतिक व्यवस्था और न्याय को ललकारोगी ? इनकी पूर्ति का साधन तो होना ही चाहिये न! इसके लिये क्या संबंधों का नामकरण किया जाना आवश्यक है ?’ सागर उसके संवाद को काट दिया। उसकी अधीरता उसे सुनने ही नहीं दे रही थी। ’तुम किसी कथन का मंतव्य क्यों नहीं समझती हो ? ये जीवन है इस जीवन में मृत्यु के पश्चात का सत्य कोई नहीं जानता है। सारे केवल अनुमान ही लगाते हैं। और उन अनुमानों के लिये अपने अपने तर्क गढ़ते हैं। इतना सरल कथन समझने और आत्मसात करने का प्रयास तो करो।’ सागर अब सीमा से ज्यादा अधीर हो चुका था। अधीरता अपने कथन के समझ न पाने के कारण उत्पन्न हो रही थी। उसके कहने से ये कदापि अनुभव होता था कि वह उसे पाने उसके सानिध्य को पाने या फिर उसके तन को पाने का प्रयत्न कर रहा है।
संवादों के मध्य अल्प विराम कभी कभी पूर्ण विराम सा लम्बा खींच जाता था। समय के अपने अनुशासन होते हैं। भूख ने मुझे वास्तविक संसार में ला पटका। सागर के संवाद से मुझमें अचानक भयंकर खीज सी उत्पन्न हो गयी। कितने विचित्र ढंग के तर्क हैं उसके। उस विधवा के असमय विधवा हो जाने के दुख को आत्मसात करने के स्थान पर उसके घाव को कुरेद रहा था। कितने मशीनी ढंग से वह उस दुखियारी को उलझा रहा था। क्या कोई भी अपने दुख को एकदम से विस्मृत कर किसी दूसरे के सुख में सम्मिलित हो सकता है ? कैसे वो स्त्री अपने अद्यतन शोक को विस्मृत कर सकती है। मात्र ये अपेक्षा रखकर कि उसकी शारीरिक आवश्यकताएं उसे विवश कर ही देगीं। उन शारीरिक आवश्कताओं के चलते वह सारे सांसारिक संबंधों को त्याग देगी। यहां तक कि अपनी बेटी को भी विस्मृत कर देगी। मूरख सागर किस अपेक्षा से ये विचार रखता है, जिस आत्मबल को भूल कर वो स्त्री अपनी बेटी को विस्मृत करेगी क्या उन्हीं के बूते वह किसी अपरिचित को स्वीकार कर लेगी ? ऐसा कैसे हो सकता है। मानवीय लगाव को मानवीय मोह को जब त्याग देगी तो किस मानवीय गुण के चलते वह सागर को स्वीकार कर लेगी।
मैं सागर को समझ ही नहीं पा रहा था। वो एक ओर तो उस विधवा से सहानुभूति रखता है तो दूसरी ओर उसकी बेटी से एकदम वैरागी हो जाता है। ये तो उसके सद्चरित्र होने का चिन्ह तो नहीं है। सागर अपने परिवार के होते हुये भी पराई स्त्री को अपने साथ रखना चाहता है। सागर ये कैसा दृष्टांत प्रस्तुत कर रहा है पराये दुख में दुखी होने का। वो उसकी बेटी पर सुख की चादर क्यों नहीं डालता है ? संसार के पूरे दुखियारे मृत्यु को प्राप्त तो नहीं हो गये हैं जो वह केवल और केवल इसी विधवा स्त्री का दुख देख पा रहा है। उस स्त्री के अर्न्तमन में उठती दुख की लहरें और संसार सागर में नितांत अकेले हो जाने की विडम्बना! यदि डगमग डगडग भी उसकी नैया चलती होती तो वह विश्वास भी कर लेती अपने सुनिश्चित भविष्य के लिये।
क्या एक स्त्री को मात्र हम उसके शरीर के सहारे ही स्थापित सकते हैं ? और तब, जब उस पर दुखों को पहाड़ टूट पड़ा हो तब इस सोच को क्या कहा जाये, किस तरह इसे परिभाषित किया जाये।
कैसा विचित्र चरित्र है इस सागर का। ये न्याय नहीं कर पा रहा है सांसारिक अनुशासन का। अपनी कहानी के माध्यम से इस चरित्र को पाठकों तक पहुंचाना उचित न होगा। समाज को मैं कैसा संदेश देना चाहता हूं! व्याभीचारी समाज की परिकल्पना सांसारिक पटल पर दृष्टांत बनाकर प्रस्तुत करूं ? एक स्त्री को मात्र भोग का साधन…..! यही तो अवचेतन मन में कीलित कर रहा हूं मैं।
अगले ही क्षण टेबल के सारे पन्ने टुकड़ों में बदल चुके थे। कुछ समय पूर्व जिन पन्नों से आकर्षक मुखड़ा अपने लहराती केशराशि के साथ मंद मंद मुस्कुरा रहा था वह अब छिन्न भिन्न अवस्था में वर्षा के पानी में धुल चुका था। घुल कर अंतर्ध्यान हो चुका था।
सागर भले ही व्याप्त हो संसार सागर में परन्तु अपनी कलम से उसकी व्यापकता का विभूतिगान असंभव है। कलम का कर्तव्य तलवार की भांति कच्चे सूत के सहारे गर्दन पर लटका था।
आकाश में अंधेरे की कालिमा अपना शक्ति प्रदर्शन कर रही थी।
तभी पुनः सौदामिनी ने अपनी उपस्थिति प्रस्तुत की। उसकी छत का वो कमरा और उस कमरे की खिड़की खुले थे। जो कुछ समय पूर्व बंद थे. बरसते पानी में मानों एक मूरत स्थापित थी उस छत के बीचों बीच! रह रह कर सौदामिनी अपनी चमक से उसके अंग प्रत्यंग का दर्श करवा रही थी। बरसा की बूंदें मानों उसकी भीतर समा जाने को आतुर हो रहीं थीं।
किंकर्तव्यविमूढ़ सा मैं खड़ा था। तरह तरह के वाहनों के हार्नों की ध्वनियां समझने ही नहीं दे रहीं थी कि………।