रंग-रंगीला-बस्तर-शिव शंकर कुटारे

उल्लासमय होते है बस्तर के मण्डई-मेले

छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर अंचल घने जंगलों, उंचे पर्वत श्रृंखलाओं, मनोरम प्राकृतिक झरनों से आच्छादित है। यहां पर आदिम संस्कृतियां आज भी जीवित हैं। पारम्परिक पर्वों, लोक नाटकों, लोक नृत्यों से यहां के निवासी अपना मनोरंजन करते हैं। इनके द्वारा किया जाने वाला “पारद” (आखेट) भी मनोरंजन की श्रेणी में आता है। बस्तर में आयोजित होने वाले पर्वों में अमूस, नवाखानी और दियारी प्रमुख हैं। यह त्यौहार सम्पूर्ण बस्तर में पारम्परिक हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है। जगदलपुर में दशहरा और गोंचा पर्व के आयोजन अवसर पर सम्पूर्ण बस्तरवासियों की भागीदारी धार्मिक एकता का परिचायक है। इसके बाद प्रारम्भ होता है प्रत्येक गांवों में मण्डई मेले का आयोजन। दियारी तिहार मनाने के बाद धान की फसल कटने की खुशी में मण्डई का आयोजन होता है। बस्तर में मण्डई का आयोजन माघ महीने से चैत महीने तक किया जाता है।
यहां मनाये जाने वाले मण्डई प्रायः एक दिवसीय एवं साप्ताहिक होते हैं। नारायणपुर एवं कोण्डागांव की मण्डई सात दिनों तक तथा दन्तेवाड़ा की प्रसिद्व फागुन मण्डई सर्वाधिक नव दिनों तक आयोजित होती है।
बस्तर में सर्वप्रथम केशरपाल की मण्डई आयोजित होती है। इसके पश्चात करपावण्ड, जैबेल, लोहण्डीगुड़ा, धाराऊर, घोटिया, बस्तर, चित्रकोट आदि स्थानो में मण्डई आयोजित की जाती है। अंचल के नारायणपुर की मण्डई प्रसिद्व है। यहां एक सप्ताह मण्डई का आयोजन होता है। बदलते परिवेश में भी यहां के मण्डई का आकर्षण बरकरार है। कोण्डागांव के साप्ताहिक मेले में भी अंचल के ग्रामीण मण्डई देखने आते हैं एवं पारम्परिक आभूषण,बर्तन एवं अन्य सामग्री क्रय करते हैं। अंचल में चपका की मण्डई भी प्रसिद्व है। साठ और सत्तर के दशक में यहां वृहद् रूप में मण्डई आयोजित होती थी। चपकेश्वर धार्मिक आस्था का केन्द्र होने के कारण आज भी यहां पारम्परिक रूप से मण्डई का आयोजन होता है। दन्तेवाड़ा जिले के घोटपाल से मण्डई प्रारंभ होकर फरसपाल, नकुलनार, पालनार, कटेकल्याण तथा मेटापाल के साथ साथ अन्य गांव में भी परम्परानुसार हर्ष और उल्लास पूर्ण माहौल में मण्डई आयोजित होते हैं। बैलाडीला के तराई में आकाश नगर की ऊंची पर्वत श्रृखंलाओं के ऊपर लोहागांव के समीप स्थित तालाब देवी की पूजा आराधना पश्चात मण्डई आयोजित होती है। सुकमा क्षेत्र में रामाराम का मेला प्रसिद्व है। जगदलपुर में जिस तरह से छः सौ वर्षांं से भी अधिक समय से ऐतिहासिक दशहरा पर्व का आयोजन होता है उसी के अनुसरण में दन्तेवाड़ा में प्रसिद्व फागुन मण्डई दन्तेश्वरी माई की छत्रछाया में मनाई जाती है। दोनों जगह ग्राम्य देवताओं का सम्मान पूर्वक आमंत्रण एवं विदाई होती है। सदियों से पारम्परिक विधि विधानों से पर्व के आयोजन ने रियासत कालीन काकतीय राजवंश परम्परा को निरंतर अक्षुण बनाये रखा है। आज भी रियासत कालीन वेशभूषा, वाद्ययंत्रों की धुन बस्तर के दशहरा और दन्तेवाड़ा के फागुन मण्डई में देखने सुनने को मिलती है। निश्चित रूप से फागुन मण्डई ने दन्तेवाड़ा के महत्व को बढ़ाया है। बस्तर अंचल के जिला कांकेर में छत्तीसगढ़ी बोली के प्रभाव के फलस्वरूप मण्डई-मेले के स्वरूप में परिवर्तन नजर आता हैै। वहीं जिला सुकमा एवं बीजापुर के मेलों में सीमावर्ती प्रान्तों उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश एवं महाराष्ट्र का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। माह जनवरी में बीजापुर क्षेत्र के ग्राम जयतालूर में कोदई माता की पूजा आराधना कर मण्डई आयोजित की जाती है। बीजापुर में चिकटराज, भैरमगढ़ में भैरमबाबा, मद्देढ़ में रामनवमी ग्राम्य देवी देवताओं की पूजा आराधना कर माह अप्रैल में मण्डई का आयोजन किया जाता है।
प्रतिवर्ष माह जनवरी, फरवरी में मनाये जाने वाले बस्तरिया मण्डई का सीधा सम्बन्ध ग्राम्य देवी देवताओं से है। देवी देवताओं की माटी बस्तर के प्रत्येक गांव में ग्राम्य देवी देवताओं का वास होता है। यहां देवालय को देवगुड़़ी कहते हैं। ग्राम्य देवी देवताओं की पूजा अर्चना विभिन्न अवसर पर की जाती है। मण्डई मेले के अवसर पर इनका विशेष मान सम्मान होता है। मण्डई के दिन सिरहाओं को देवी आरूढ़ होती है। उनके गले में प्रायः हजारी फूल की माला अर्पित की जाती है। अक्षत, चंदन, धूप, दीप, अगरबत्ती, नारियल आदि से देव पूजन किया जाता है। उनका पारम्परिक श्रृंगार किया जाता है। नगाड़ा, ढोल, तुढ़बड़ी एवं मोहरी के वाद्य धुन देवपाढ़ में देवता थिरकने लगते हैं और हर्षित होकर झूम उठते हैं। इस अवसर पर मन्नतें भी मांगी जाती है। मन्नतें पूरी होने पर देवताओं को विभिन्न सामग्री अर्पित करने का विधान है। इस अवसर पर बकरे आदि की बली भी दी जाती है। मंदिर में पूजा पाठ के पश्चात छत्र, चंवर, देव लाठ, आंगा देव आदि के साथ मण्डई में देवतागण बिहरने (भ्रमण करने) लगते हैं। स्थानीय वाद्य धुन, शंख एवं डंका से वातावरण उल्लास मय हो जाता है। इसके पश्चात मण्डई के प्रमुख रास्ते से गुजरता हुआ देव जुलूस देवगुड़ी की ओर लौटता है। रास्ते में उनका स्वागत सत्कार किया जाता है। श्रद्वालुओं द्वारा देवताओं से आर्शीवाद ग्रहण किया जाता है।
बस्तर में आयोजित किये जाने वाले मण्डई धार्मिक आस्था एवं उल्लास का पर्व है। ऐसा पर्व जो वर्ष में एक बार आता है और अनेक स्मृतियां को अक्षुण बनाए रखता है। साथ ही युवाओं के मिलन का यह सुनहरा अवसर होता है। मेहमानों के साथ मण्डई में घूमने का आनंद ही कुछ और है। दिन में विभिन्न दुकानें सजती है एवं लोग खरीददारी करते हैं। मण्डई के होटलों में बनी सामग्रियों के अतिरिक्त बस्तर का पारम्परिक मिष्ठान गुड़िया खाजा के साथ कदली (केला) चिवड़ा, गुड़, चना, लाई आदि खूब बिकता है। साठ और सत्तर के दशक में बड़े शहरों में “मीना बाजार” का आयोजन होता था किन्तु वर्तमान में मण्डई मेलों में “मीना बाजार” सर्वाधिक आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं। वर्तमान में रात के समय “मीना बाजार” मण्डई – मेलों में चार चांद लगा रहे हैंै। साथ ही अंचल के लोक प्रिय छत्तीसगढ़ी नाचा पार्टी ने भी दर्शकों का मन मोह लिया है। प्राचीन समय में हाथ से चलाए जाने वाले लकड़ी के झूलों के स्थान पर वर्तमान में विधुत से चलने वाले ऊंचे और धुमावदार झूलों ने युवाओं के उत्साह को बढ़ाया है। मेलें में महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री के अतिरिक्त सोने एवं चांदी आदि के गहने, कांसा, तांबा, जर्मन, स्टील के बर्तन, चीनी मिट्टी, काष्ट, प्लास्टिक, लोहे की वस्तुएॅं, वस्त्र, जूते, खिलौने, फूल, गुलदस्ते आदि दैनिक आवश्यकताओं के समस्त सामग्रियां मौजूद रहती हैं। मेले में खेल, तमाशे के आयोजन अब भी हुआ करते हैं किन्तु इस ओर लोगों का रूझान कम हुआ है। बच्चों में आधुनिक खिलौने का प्रचलन बढ़ा है।
प्रायः मध्य बस्तर में आयोजित होने वाले मण्डई के रात का मुख्य आकर्षण होता है उड़ीया नाट। संध्या से नाट्य मंच की रावटी सजने लगती हैं। बांस के चार खम्बों पर आधारित रावटी (मंच) खड़ा कर खम्बों में हरे छिन्द कांटे बांधे जाते हैं। इन कांटों में हजारी फूल खोंचे जाते हैं जिससे मंच की शोभा बढ़ जाती है। बस्तर अंचल में उड़ीया नाट मनोरंजन का प्रमुख साधन है। आधुनिक परिवेश में भी पारम्परिक लोक नाटक का आकर्षण कम नही हुआ है। प्राचीन शैली के इस नाट को आज भी लोग उसी अंदाज मे देखते हैं जैसे साठ और सत्तर के दशक में लोग देखा करते थे। नाट दल का प्रमुख नाटगुरू होते हैं सम्मानजनक पद पर होने के कारण उनका आदर सत्कार किया जाता है। नाटदल के सभी सदस्य उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। क्षेत्रीय वेशभूषा के अनुरूप लम्बे बाल, कानों मे बाली और धोती, कुŸार् पहने हुये व्यक्ति को हम नाटगुरू के रूप में कल्पना कर सकते हैं। गुरू चाहे जो भी हो वह पूज्यनीय होता है। नाट्य कला में पारंगत गुरू की महिमा अपरम्पार है। वह अपने पात्रों को नाटकला का प्रशिक्षण देकर उन्हें महारथ हासिल करवाता है।
इस नाट का प्रार्दुभाव हमारे पड़ोसी राज्य उड़ीसा से हुआ है, जिसका प्रभाव सीमावर्ती अंचल के साथ मध्य बस्तर में देखने को मिलता है। नाटगुरू मंच पर खड़ा रह कर यह आयोजन करवाता है। वाद्य दल उसके पीछे बैठते हैं। मंच के सामने दोनों किनारे दर्शक बैठते हैं। नाट स्थल पर नाटगुरू कथा वाचन के साथ गीत प्रस्तुत करता है जिसे वाद्य दलों द्वारा दुहराया जाता है, इसे श्रवण कर पात्र नृत्य करते हैं। प्रायः गणेश वंदना और गणेश पात्र के नृत्य से नाट का शुभारम्भ होता है। निकटवर्ती रूप सज्जा स्थल से पात्र को चादर की आड़ में मंच की ओर ले जाते वक्त शंख, डंका बजाया जाता है। मंच के प्रवेश द्वार में पहुंचने पर पात्र के सामने से चादर हटा दिया जाता है तद्पश्चात पात्र नृत्य अथवा अभिनय करता हुआ मंच की ओर बढ़ता है। बस्तर अंचल में बहुचर्चित नाट ‘मुन्दरा मांझी’ का मंचन प्रमुखता से किया जाता है। इसके मुख्य पुरूष पात्र ‘मुन्दरा मांझी’ एवं महिला पात्र ‘मैनाबती’ कहलाते हैं। अंचल का यह पारम्परिक लोक नाट ग्रामीणों के लिए कितना रोचक होता है इसका अदांजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दर्शक रात्रि 9.00 बजे से प्रातः सूर्योदय तक निरंतर बैठकर नाट का आनंद लेते हैं।
इस नाट की विशेषता यह होती है कि दर्शक मात्र दर्शक नही होता बल्कि अभिनय कला का सही आकलन करने वाला भी होता है। अच्छे अभिनय पर दर्शक द्वारा पात्र को खुशी से पुरस्कृत भी किया जाता है। दर्शक द्वारा अभिनयकŸार् के कुर्त्ते में पैसे (नोट) खोंच कर इनाम दिया जाता है, जिसे ‘मेंटल मारना’ कहा जाता है। इनाम दिये जाने वाले व्यक्ति के नाम की उद्घोषणा भी की जाती है। नाट में महिला पात्र की भूमिका पुरूष द्वारा अदा की जाती है। नाटक के पात्र पारम्परिक वेशभूषा पहन कर अभिनय करते है। मण्डई स्थल पर कई नाट का आयोजन होता है। नाट में प्रतिस्पर्धा भी होती हैं जिसका आंकलन प्रायः पात्रों के अच्छे अभिनय तथा नाट स्थल पर सर्वाधिक भीड़ को दृष्टिगत रखते हुये किया जाता है।


शिवशंकर कुटारे
जी0ए0डी0/जी0-05
कलेक्ट्रेट कालोनी
नारायणपुर(छ0ग0)
मो.- 9406294695