मेरा घर नहीं है
कि जब से सर पे मेरे ‘सर’ नहीं है
बहुत बेफिक्र हूं कुछ डर नहीं है।
तुझे भी साथ ले चलता मैं लेकिन
भरी दुनिया में मेरा घर नहीं है।
मरे सीने में हैं तूफां हजारो
मगर आंखों में समन्दर नहीं है।
रहा जो दौड़ता खुशियों के पीछे
खुशी उसको ही मयस्सर नहीं है।
भयानक आग सी हर सू लगी है
तबाही के सिवा मंजर नहीं है।
जहां मैं पूजता इंसां को ‘साज’
कोई मस्जिद कोई मंदिर नहीं है।
हम वतन की बात
करता नहीं है कोई भी हमसे वतन की बात
बातें हिमालिया की या गंगोजमन की बात
हिन्दू की बात है या मुसलमां की बात है
गर बात नहीं है तो नहीं हमवतन की बात
हर कोई अपने-अपने इरादों पे चुस्त है
अपने ही दायरे में हैं अब फिक्रो-फन की बात
उठता है धुंवा अब मेरे गुलशन से क्या कहूं
अब आग उगलती है हरेक अंजुमन की बात
इस दर्जा फर्क दिल में उठाया गया है ‘साज’
भूले हैं लोग बाखुदा राम ओ किशन की बात
ज्ञानेन्द्र साज
संपादक
‘जर्जर कश्ती’
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