डॉ.सूर्यप्रकाश अष्ठाना ‘सूरज’ की ग़ज़लें

ग़ज़ल

साया हटकर राहगुज़र से।
अंजाना था वक्ते सफर से।।
कोई तुम्हारे ग़म ना समझे,
लेके तबस्सुम निकलो घर से।
चेहरों पे थी सबके उदासी,
देखा जिसको अपनी नज़र से।
तैरना आये तभी उतरो,
गुज़र ना जाय पानी सर से।
घर के दरीचे खोले रख्खो,
जाने हवायें आयें किधर से।
रात के ख्वाबों को मत भूलो,
सोकर उठ्ठो जब बिस्तर से।
ऊंचाई तक जाये परिन्दा,
ग़र्द झटक कर बालों-पर से।
मंजिल तक कश्ती पहुंचेगी,
बचकर जब निकलोगे भंवर से।
सोने वाले जागते कब हैं,
‘सूरज’ तो निकला है सहर से।

ग़ज़ल

नफरत की आग बुझाना हो सकता था।
जंगल में से आना जाना हो सकता था।।
अपनी अपनी करते जिम्मेदारी पूरी,
ये मौसम फिर और सुहाना हो सकता था।
कश्ती का रूख़ मोड़ लिया आहट सुनते ही,
वरना तूफां से टकराना हो सकता था।
दिल से लगा बैठा होता जो ना समझी को,
तेरी यादों में दीवाना हो सकता था।
हमदम का जीवन में जो मिलता साथ अगर,
तो मैं हर ग़म से बेगाना हो सकता था।
दिल के तोड़े से कब टूटे मंदिर मस्जिद,
रंजिश से पहले समझाना हो सकता था।
मझधारों से घबराने वालों सोचो तुम,
जीवन में कुछ खोना पाना हो सकता था।
सूरज को जो देखा करते छत पे जाकर,
रातों वाला चांद पुराना हो सकता था।
आंगन-आंगन कैद हुई है धूप सारी,
रौशन ‘सूरज’ और ज़माना हो सकता था।

डॉ.सूर्यप्रकाश अष्ठाना ‘सूरज’
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