सुनील श्रीवास्तव की कविता

मेरा शहर

सुबह देखता हूं
शाम देखता हूं
पुराने शहर का नया मंजर देखता हूं।
मिला करते थे जो कभी
मुस्कराकर गले
उन्ही हाथों में छिपे खंजर देखता हूं।
हाईवे का जामा पहने
कीचड़ भरी सड़कें
जमीनों को लीलते
इस्पाती इरादे
कभी जहां खेला था कंचा
रौशनी सी नहाई
नवयौवना सी उन गलियों में
अपनी कहानी की छुअन देखता हूं।
सुबह देखता हूं
शाम देखता हूं
पुराने शहर का नया मंजर देखता हूं।
लोगों की प्यास बुझाता
नदी का किनारा
वे मादक हवाएं
जो चूमा करती थीं
पनिहारियों की गोरी पिण्डलियां
उन हवाओं में अब
जहर ही जहर देखता हूं।
सुबह देखता हूं
शाम देखता हूं
पुराने शहर का नया मंजर देखता हूं।
सिर झुकाए
बापू के प्रिय भजन सुने
मुनाफे का चुइंगम चबाते
लोगों के मौन आध्यात्म का दैनिक अभ्यास
उन बंद आंखों में सोखे हुए उजालां को
नींद से जगाता हूं
पूछता हूं
एक मासूम सवाल-
शाम ढले
टूटी-फूटी झोपड़ियों से निकलती
मादर की थाप और
तुड़बुड़ी की टुक-टुक से
सुर-तार-लय मिलाती
किशोरियों की आवाज वो मिठास
वो प्यार भरा निवेदन
कि ‘आसा हो बाली फूल, बिहा घरे जीबू’
कहां है ?
कहां है ?
सुबह के
ताजे टपके महुए बटोरते
और
कीचड़ में हरियाली बुनते वो हाथ
झुरमुट की छांव में
पसीने सुखाती वह पीठ
खामोशी भरे तुम्हारे उत्तर में
तुम्हारा अभिनय अच्छा है,
बिल्कुल सच्चा है
क्योंकि
तुम्हारे सामने व्यवस्था का सिपाही
बंदूक लिए बैठा है
समय के गाल पर रूके हुए आंसू
हरियाली को चिढ़ाते
ये
कैक्टस; क्यों उगते हैं इन वादियों में
सूरत चाहे जो भी हो
खोट नीयत में देखता हूं।
रोशनी को तरसती
इन आंखों से
इस शहर को बंजर देखता हूं।
सुबह देखता हूं
शाम देखता हूं
पुराने शहर का नया मंजर देखता हूं।

सुनील श्रीवास्तव
10-वर्गीस कॉलोनी, सुप्रिमा, धरमपुरा रोड
जगदलपुर जिला-बस्तर छ.ग.
फोन-09425599858