खोया क्या ?
बात उन दिनों की है मै सोलह-सत्रह साल का रहा। जवानी की दहलीज पर दस्तक देते ही लाखां अरमान, ख्वाहिशें स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगी थीं। सच क्या ? झूठ क्या ? रास्ता कौन सा सही है ? और उससे भी बड़ी बात मुझे किसी की सलाह या टोकना तो इस उम्र में मेरे पैर काटने के बराबर मालूम होता था।
जतीन और मैं याने ‘‘जय’’ क्लासमेट होने के साथ-साथ दोस्त भी थे। जतीन के पापा एक व्यवसायी थे तो उसके यहां पैसा-कौड़ी की कोई किल्लत नहीं थी। पर मैं एक छोटे किसान का बेटा! जो साल में एक बार फसल पकने से ही खाद्यान हेतु बचत कर, धान, कोदो, मडिया आदि बेच, अनाज से सिर्फ और सिर्फ एक-दो महीने ही कुछ पैसा देख पाता। इसके बाद साल भर गरीबी एवं तंग हालात में दसो-महीने एक-एक रूपया के लिए तरसता मानो जैसे अकाल पड़ गया हो। फिर भी अति आवश्यक होने पर खाद्यान हेतु बचत-संग्रहीत डुसी(धान सुरक्षित रखने का बांस की खपच्चियों से बना एक बड़ा सा टोकरा) से ही एक-दो पैली धान बेच इमर्जेन्सी की पूर्ति कर पाता।
पर मेरा दोस्त तो रोज नोट गिनता था। क्योंकि उसके पापा व्यवसायी-दुकानदार होने के कारण उसे भी स्कूल आने के पहले एवं स्कूल से वापस जाने के बाद दुकान में बैठना पड़ता था। फिर क्या था ? यदि समुद्र में से एक लोटा पानी निकालते है तो क्या फर्क पड़ता है अर्थात जतिन भी दुकान की तिजोरी से रोज कुछ पैसे स्कूल खर्च के लिए रख लेता था। कुछ पैसे मतलब इतना कि जितना मेरे घर में शायद उतना पैसा दस-बारह लोगो के संयुक्त परिवार में भी नहीं होता था। जतिन ठहरा एक धनवान सेठ का बेटा और मै, एक गरीब किसान का बेटा किन्तु मैं जतिन का घनिष्ठ मित्र! इस मित्र-मण्डली में चार-पांच और दोस्त भी थे जो जतिन के राजा हरिशचन्द्र की प्रवृति के कारण पार्टिसिपेट करते थे। स्कूल के लन्च और अन्य छुट्टियों में जतिन ही हमारा लन्च बाक्स और होटल मालिक था क्योंकि हम, जो चाहे, जैसा भी मिले वैसा ही खाकर तो स्कूल का मुंह देखने आते थे। और किसी भी जीव को यदि फ्री में उसकी औकात एवं सोच से ज्यादा पसन्द का कुछ खाने को मिले तो वह स्वतः ही आवश्यकता से ज्यादा डकार जाता है।
हमारा भी यही हाल होता फिर भी शायद जतिन को हमारी गरीबी और अन्तरमन के विचारों का आकलन तक नहीं होता था। वह तो सिर्फ इतना जानता था कि हम उससे पैसा-कौड़ी के मामले में कमजोर हैं और उसे तो पैसों की वेल्यु तक मालूम नहीं थी। इसलिए शायद वह हमें कभी टोकाटाकी या मना तक नहीं करता था न ही मतलबीपन करता। हां, हम कभी-कभी उसके होमवर्क या नोट्स बनाने में मदद जरूर करते थे। और ये हमारा फर्ज भी था क्योंकि हम जतिन का नमक खाते थे। इस प्रकार मैं भी स्कूल जाने के लिए हमेशा तैयार रहता। साल में सरकारी छुट्टियों को छोड़ गिनती के ही तीन-चार दिन स्कूल नहीं जा पाता था। और साल भर स्कूल! स्कूल! और बस स्कूल!
दिन कटते गये। अब हम भी कुछ बड़े हो गये थे। हमारी सोच, भावना, जरूरत, विचार-परिवेश, आवश्यकता सबकुछ बदलने लगे थे। अब लन्च टाइम में सिर्फ होटल में मिलने वाले भजिये या बिस्कीट खाना बोगस एवं बोरियत वाला लगने लगा था और चाय पीना तो खड़ुसपन या कहे पुरानी सोच लगने लगी थी। और फिर इन्सान के पास पैसा खर्च करने को हो तो वह जल्दी ही अपनी सोच एवं मांग के अनुसार अपने खाने-पीने की जरूरतों को भी बदलता है। हमारे साथ भी वही हुआ ! हम नाश्ता के बाद चाय की जगह छुप-छुपकर पिछवाड़े में सिगरेट पीने लगे और फिर ये सिलसिला रोज चलता रहा। अब नाश्ता कर पानी-पीना भी दुश्वार लगने लगा तो फिर चिकन-रोस्ट पार्सल बंधवाकर स्कूल से दूर सुनसान खेत में या फिर एक-दो किलोमीटर दूर जंगल में पिकनीक जैसे माहौल में हम छः-सात दोस्त बैठे होते। इसके बाद स्कूल से दूसरे पहर में गायब रहना हमारी आदत होती गयी। पानी की जगह चिकन-रोस्ट के साथ देशी-शराब पीने लगे थे और साथ में धूं-धूं उड़ाते सिगरेट! कभी-कभी तो अंग्रेजी-अद्धी जिसे गांव में चेपटी कहते हैं, का भी जुगाड़ हो जाता था।
मैं अपने गांव से लगभग दस किलोमीटर दूर एक बड़े-गांव जहां बारहवीं कक्षा तक का स्कूल था वहां पढ़ने जाता था। क्यांकि मेरे गांव में तो सिर्फ आठवीं कक्षा तक का स्कूल था। और जतिन तो उसी बड़े-गांव के एक सेठ का एकलौता बेटा था और दो बहने थीं। हम लोगों ने ग्यारहवी कक्षा तो जैसे-तैसे पास कर ली किन्तु बारहवीं कक्षा में भी हमारी आदत नहीं सुधरी और वही सिलसिला चलता रहा। जबकि ‘बारहवीं बोर्ड एग्जाम है’ हमको पता होते हुए भी। मैं तो पढ़ाई में होशियार था ही फिर जी जतिन के पैसो से लफुटगिरि, गलत संगत में पढ़कर कमजोर होने लगा था। फिर भी स्कूल से घर आकर पढ़ाई जरूर करता था। मै मुफ्त में मिली दावत को तो खाता गया; गलत से गलत खान-पान तक, नशा करने कब पहुंचा, पता ही नही चला। और इधर मेरे बूढ़े मां-बाप खून पसीना एक कर खेती में रात-दिन जुतकर मुझे पढ़ाई के लिए भेजते रहे। मुझे उनकी भावनाओं एवं आशाओं का कभी सुद(याद) नहीं पड़ा। और खुद के कैरियर-भविष्य का तो पता ठिकाना ही भूलकर अंधा हो गया था।
जैसे-तैसे बोर्ड की परीक्षा निपट गयी। अब गर्मियो में, मै गांव में ही रहकर अपने मां-बाप के पुरकति(पुस्तैनी) खेती-बाड़ी के कार्यो में हाथ बंटाता था। किन्तु मुझे जतिन के साथ बिताये, खाये-पीये वे सभी पल चल-चित्र की भांति चित्रित होकर उसके साथ फिर से उन्हीं लम्हों में बैठने को प्रेरित करते थे। हमारा मन भी कितना स्वार्थी और लालची होता है जो अपना कर्तव्य भूल मुफ्त की रोटी खाना चाहता है। किन्तु मैं अपने घर-गांव से किसी भी बहाने से जतिन के पास नहीं जा पा रहा था।
गर्मी की छुट्टियों का डेढ़-दो माह होने को था। कुछ ही दिनों में पता चल ही गया। पर ये क्या मेरे वो सभी लंगोटिया साथी फेल हो गये और जतिन भी लगभग सभी विषयों में फेल हो गया था। हां थोड़ी-बहुत तसल्ली मुझे जरूर हुई क्योंकि मैं मां-बाप को नाक कटने से बचा लिया था किन्तु दोस्तों के लिए दुःख के साथ अफसोस था। मै पास हो गया था वो भी लगभग प्रथम श्रेणी 62 प्रतिशत के साथ।
आज मैं खुद पे और मेरे कर्मो पे शर्मिन्दगी महसूस कर रहा था तो मन में कई प्रश्नों के बवंडर उठते जा रहे थे। और मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मैं जतिन और अन्य दोस्तों से मिल सकूं। मैं अनायास ही कई सवाल खुद से करते हुए एवं खुद ही से अपने सवालो के उत्तर पूछते-ढूंढते-सोचते गांव की ओर हताश कदमों से चल पड़ा था। फिर अचानक किसी ने खबर दी कि तुम्हारे किसी एक दोस्त ने फेल होने के कारण आत्महत्या कर ली। मेरा सिट्टी-पिट्टी गुम होकर नाड़ी-ठण्डा हो गयी। क्योंकि मैं और मेरे दोस्त ने पहले ही खुद के पैरों में कुल्हाड़ी मार ली थी जो आज घाव बनकर मौत के रूप मे आत्महत्या तक पहुंच चुकी थी।
फिर तो होश आते ही मेरे मशीनी मस्तिष्क में सवालों के अम्बार लग गये और इस कृत्य के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान लिया तथा उस दोस्त की दुःखद अन्तिम यात्रा तक में शामिल नहीं हुआ। और अन्य बचे-कुचे दोस्तों के बारे में दुःख ही दुःख में डूब गया। जतिन का क्या है वह तो फेल होने पर भी अपना व्यवसाय सम्भाल ही लेगा पर क्या अन्य दोस्त भी अपना जीवन किसी तरह काट ही लेंगे या फिर ………? के सवाल से सन्न रह गया। और मैं….? क्या होगा मेरा भविष्य ? मैं क्या करूंगा ? क्या खाऊंगा ? मेरे मां-बाप के सपनों का क्या होगा ? जतिन और अन्य दोस्तों के मां-बाप अपने बच्चो से कोई आरजु नहीं की होगी क्या ? क्या हमें अपने त्वरित-स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने मां-बाप परिवार के सपने-ख्वाहिशां को रौंदने का अधिकार है ?
आज वर्षो बाद मै अपने सभी दोस्तों से दूर फिर यह सोचकर महसूस कर रहा हूं कि आदमी को सुख के पल बहुत मिलते हैं। पर क्या वही गटर-मस्ती ? सोचने को तो वह बहुत कुछ सोचता हूं। पर क्या हम खुश तो दुनिया खुश! जी हां , ये तो आज की मानसिकता और ख्याल है भला लोग क्यों दूसरां का सोचे क्योंकि हम तो सिर्फ और सिर्फ अपने लिये जीते हैं। भले ही क्यों न घर में मां बीमार रहे, हमें तो घर की नहीं अपनी खुशी प्यारी है। अरे हम तो यंग जनरेशन हैं ! जियो तो बिन्दास ! ये हमारी अदा है!! भला कैसे मां और बाप की सोचें ? ये आज के डेट में कामन है। भला हम इन्हें समझाने वाले पंडित कौन होते हैं। इनका टेलेन्ट जो माता-पिता से भी बढ़कर है। अरे भाई आज का जनरेशन बदल रहा है। ये पुरानी बातो एवं ख्यालों में बिल्कुल भी विश्वास नही करते न ही पुराने चीजों पर चाहे वह पुराने हो चुके अर्थात बूढ़े मां-बाप ही क्यों न हो ! उन्हें उनकी कोई परवाह नहीं ? आखिर आज के युवा मार्डन जो हैं। सच ! खुदा तुम मानव मस्तिष्क को इतना विकसित किये जा रहे हो कि मै तो क्या ? सारी दुनिया अपनी मर्यादा एवं दायित्व भूल गयी। अरे भई ये तो कामनसेन्स की बातें हैं।
जी हां मेरी मानसिकता बहुत बदल चुकी है। पता नहीं आपका क्या हाल है ? मैंने तो जिन्दगी में हमेशा आगे की सोची, पीछे क्या रखा है मैंने तो जाना ही नहीं। मुझे और आपको सिर्फ और सिर्फ भविष्य प्यारा लगता है। भविष्य ही सब कुछ है। भविष्य ही ईश्वर लगता है। और आने वाला कल हमें हर नजर में खुशियों से भरा लगता है चाहे उसका अन्जाम कुछ भी हो। हमने आगे बढ़ने की चाहत में पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा न जाना कि पीछे हमारी भी विरासत थी! कहानी भी! हमने इस मुकाम तक पहुंचकर ये भी नही जानना चाहा कि हम इस मुकाम को पाने तथा पहुंचने के लिए कितने खट्टे-मीठे रास्तों से गुजरे और उससे भी बढ़कर कितनी मेहनत करनी पड़ी ? कितनी ठोकरें खाइंर् ? कैसे मुश्किल हालातां का सामना करना पड़ा ? कई गलतियां की और उससे भी बढ़कर आखिर खोया क्या ?
जय मरकाम
ग्राम-मारडुम,
ब्लॉक-लौहण्डीगुड़ा
जिला-बस्तर छ.ग.
9770506034