अंक-4-नक्कारखाने की तूती-शिक्षा के विषयों की समीक्षा फिर से की जाय।

शिक्षा के विषयों की समीक्षा फिर से की जाय। –

आज जो शिक्षा दी जा रही है उसका व्यक्ति के जीवन से कोई तारतम्य नही है। देखिए कितना विरोधाभास है। शिक्षा दी जाती है कुछ विषयों पर, नौकरी लगती है तर्कशक्ति और जनरल नालेज पर और जीवन कटता है इन दोनों से अलग मेहनत और रोजी-रोटी के संदर्भों से! ऐसा तितर-बितर वातावरण बनाये रखने का उद्देश्य क्या है ? मात्र सक्षमों द्वारा लूटपाट जारी को छिपाये रखना ? आम जनता को रोजी-रोटी के सवाल पर उलझाये रखकर अपनी पेटी भर रहा है सक्षम समाज। जो व्यक्ति ईमानदारी से काम कर रहा है वह तो नेताओं अफसरों से निभ जाने की सोच भी नहीं सकता है। छोटे-मोटे भ्रष्टाचार से जनता खुश रहती है। और मानकर चलती है कि भ्रष्टाचार नहीं मिटाया जा सकता है। इस आम सोच की आड़ में कोई दो रूपये बचा रहा है तो कोई अरबों रूपये। शिक्षा के मायाजाल में उलझाकर जनता को हताश कर दिया गया है। कक्षा दस तक की शिक्षा के विषय वही हों जो आम जीवन में सदा काम आते हैं और नौकरियों में प्रवेश के लिए जरूरी हो।
उदाहरण स्वरूप गणित में जोड़-घटाना, गुणा-भाग, लाभ-हानि, ब्याज ही जरूरी होते हैं तो इनका अभ्यास दो वर्षों तक दो कक्षाओं में क्यों नहीं कराया जाता है ? क्यों बच्चों को सबकुछ सिखा लेने की जिद पाल रखी है। जिससे बच्चा हताश हो जाता है। कंम्प्यूटर शिक्षा जरूरी है बिजली एवं नल कनेक्शन लेने की प्रक्रिया, निवासप्रमाण पत्र बनवाने की प्रक्रिया, काम्पीटिटीव एक्ज़ाम की लिस्ट, गैस कनेक्शन लेने की प्रक्रिया आईटी रीटर्न भरने की प्रक्रिया आदि ऐसे अनेक कार्य हैं जो जीवन में निरंतर काम आते है इन्हें क्यों नहीं पढ़ाया जाता हैं ?
जो बच्चे घर में यूं ही कागज मोड़ना काटना, रंग भरना सीख जाते थे उन्हें स्कूलों में सिखाया जा रहा है। कोर्स की समीक्षा जरूरी है। पढ़ाई के घंटे कम करने की आवश्यकता है। बालमजदूरी के नाम पर बच्चों में कमाई के प्रति सोच को बंद कर देना कहां की होशियारी है ? जिन बच्चों के लिए बालमजदूरी समस्या हो सकती है उन्हें आश्रम में पढ़ाया जाये। बच्चों को बड़े होकर आखिर में जीवन यापन के लिए कमाना ही है तो उन्हें कमाने के प्रति सोच विकसित करने से रोकने का क्या औचित्य है ? आज के बच्चे डाक्टर, इंजीनियर, सीए से नीचे बनना नहीं चाहते है, जरा सा काम बोलो तो झट से पढ़ाई का बहाना बना देते हैं। ऐसे हसीन सपने बिखेर दिये गये हैं कि घर में बच्चों की मां उनके बचाव में आ खड़ी होती है। बच्चों को घर के काम भविष्य में नही करने पडे़ंगे क्या? बच्चों को पैतृक हुनर सीखना ही चाहिए क्योंकि दुनिया में जितने भी काम है वे सभी करे बिना जीवन नहीं चल सकता है। हमें हमारे पैतृक का मान बढ़ाना है और अपना लिविंग स्टैण्डर्ड बढ़ाना है, ये दोनों कैसे हो इसकी चिन्ता करनी चाहिए।
शिक्षा भारतीय जीवन शैली के अनुरूप हो क्योंकि 99 प्रतिशत लोगों को भारत में ही रहना है। शिक्षा पाकर बच्चों को इसी परिवेश में ही रहना है तो अंग्रेजों की शैली विकसित करने में सरकार सहयोग क्यों दे रही है ? बच्चे को भारत में ही रहना है तो यूरोप की कहानी पढ़कर क्या मिलेगा ? भारतीय दर्शन, भारतीय जीवन और भारतीय संस्कृति को जाने यही बहुत है। जिसे विदेश जाना हो वह विदेश जाये उसके लिए वह और पढ़े। पढाई के नाम पर बच्चों को सत्रह साल तक घसीटना कहां की बुद्धिमता है ?
जीवन में जो आवश्यक है वहां तक की पढाई पंद्रह साल की उम्र तक खत्म की जाये उसके बाद सीधे विशेषज्ञता वाली पढाई हो। कुछ के चक्कर में सभी को दौड़ाने का क्या मतलब है ? पढ़ाई के नाम पर बच्चों को शिथिल करके बीमार बनाने की क्या तुक है ? दसवीं तक की शिक्षा में बच्चा जीवन में आवश्यक सबकुछ जान जाये बस, ये हो शिक्षा। क्या सभी को सरकार डाक्टर बनने का या इंजीनियर बनने का अवसर दे सकती है ? न तो अवसर दे सकती है न ही संभव है न ही सभी को डाक्टर बनाने से समाज चल सकता है तो फिर बच्चा स्वतंत्र, ग्यारहवीं से जो पढ़ना चाहे वह पढ़े।
नौकरी में शामिल होने की, एक ही परीक्षा हो वो भी निशुल्क। दो बार या तीन बार परीक्षा देने का मौका मिले। इस प्रक्रिया के चलते नौकरी के लिए चालीस साल की उम्र तक अपने आप को किसी आस में डालकर जीवन यूं ही बिता देने की प्रक्रिया खत्म होगी। जीवन का अमूल्य समय बेकार ही नष्ट न होगा। सामाजिक परिवेश सुधरेगा। अभी इसी नौकरी के चलते बच्चों की शादी तीस-बत्तीस-पैंतीस में हो रही है। उम्र के दूसरे दौर की आपाधापी में वह सोच नहीं पाता है पर जब वह साठ का होगा तो बच्चा बीस का। अगर बच्चा भी पैंतीस में नौकरी पाया तो व्यक्ति अपनी उम्र की पचहत्तरवें साल में अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होगा। ये कैसा घटिया भविष्य है ?
अठारह साल की उम्र तक बच्चा या तो नौकरी में या फिर धंधे में जायेगा, उसकी ऊर्जा का उपयोग होगा। नौकरी ढूंढने के चक्कर में मां-बाप-परिवार से दूर होता बच्चा उनके दिल से ही दूर हो जाता है। एक ओर तो ऊर्जा की आपूर्ति हमेशा बनी रहे इसके प्रयास लगातार चल रहे हैं और दूसरी ओर मनुष्य का ऊर्जायुक्त स्वर्णिम काल अनावश्यक विषयों में उलझाकर उसकी ऊर्जा को नष्ट करने पर जोर दिया जा रहा है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा नितांत आवश्यक है। कर्मयोगी बनाने की जगह बच्चों को अलाल और दूसरों पर राज करने की प्रवृत्ति पैदा करने की अग्रसर कर रही है यह शिक्षा! शिक्षा का पर्याय सरकारी नौकरी या नौकरी ही हो गया है। दूसरों के सीने पर चढ़कर राज करने वाला जीवन जीने की लालसा में अपने जीवन का बारह बजा देना कहां तक उचित है ? जीवन में कमाया इसलिए जाता है कि सही वक्त पर सही भोजन की व्यवस्था हो इसके लिए दुनिया भर का ताम-झाम किया जाना वह भी जीवन के एक तिहाई हिस्से में। जरा हम सब मिलकर विचार करें।
जीवन जीने की इस पद्धति के निर्माता हम हैं न कि यह प्राकृतिक पद्धति है। इसका हल जल्द से जल्द निकालना होगा वरना परिवार में दंतहीन व्यक्तित्य का परचम फैल जायेगा। मां-बाप अशक्त और बेटा करे नौकरी की मशक्कत!
वर्तमान हमारी सोच को इस कदर उलझा रखा है कि हमारे पास हमारे लिए ही सोचने का वक्त नहीं है। हम भीड़ में चलने की तरह चल रहे हैं औरों के धक्कों से। हमारी विचारधारा, हमारा व्यक्तित्व क्या हो यह भी हमें कोई लात मार कर सिखा रहा है। क्या यह उचित है ? क्या यह सब होना चाहिए ? ‘हम’ अनेक ‘मैं’ से मिलकर बना है इसलिए ‘मैं’ को जिन्दा रखकर हम अपना जीवन जीयें।