लिफ्ट
जैसे मैं घर के अन्दर घुसता हूँ. मूसलाधार वर्षा शुरू हो जाती है। लगता है मार्केट से जल्दी लौटकर खूब बुद्धिमानी का काम किया है मैंने। थोड़ी सी देरी होती तो बरसात की निर्मम प्रहार झेलनी पड़ जाती। अपनी तो छतरी लेकर चलने की आदत ही नहीं। छतरी लेकर जहां जाता हूँ वहीं छोड़कर आता हूं। एक बार नहीं, दो बार नहीं कितनी ही बार ऐसा हो चुका है। घर में आकर श्रीमती की गाली भी सुनना पड़ती है, ‘‘कहां था तुम्हारा मन ? एक बार भूल हो सकती है, मान लिया, लेकिन यह रोज-रोज का छतरी छोड़ के आना, मुझे ठीक नहीं लग रहा है…… और क्या-क्या सुनना पड़ता। एक सीजन में कम से कम दो-तीन छतरियां खो जाती हैं। इसीलिए बरसात नहीं है तो बिना छतरी के ही घर से निकल जाता हूं। छतरी के मामले में पुरूष से ज्यादा औरतें होशियार लगती हैं। औरतें अपनी छोटी सी हेण्ड बेग के अन्दर छतरी फोल्ड करके रखती हैं और बरसात होने पर फट से निकालकर ओढ़ लेती हैं। ज्यादा धूप होने पर भी औरतें ऐसा ही करती हैं। पुरूष लोग सब तो मुझ जैसे भुल्लकड़ नहीं होते। छाते को ऐसे संभालकर रखते हैं जैसे जेवर सम्भालता है कोई।
हाँ, मैं तो अपनी ही बातें बोलते चला जा रहा था। अब आऊँ असली बात पर। मैं मन ही मन बहुत खुश हो रहा था कि बरसात में भीगने से बच गया। सोफा में धड़ाम से बैठ जाता हूं और अखबार पढ़ने लग जाता हूं। अखबार जैसा हाकर ने दिया वैसा ही है। श्रीमती जी अखबार नहीं पढ़ती। औरतों को दुनियादारी से ज्यादा अपनी घर गृहस्थी की फ़िकर होती है। जब उन को खबर जानने की इच्छा होती है तब मुझसे पूछती है। वह समझती है कि उनका मर्द जो है सब जानता है। सब बीमारियों की औषधियां, देश-विदेश की खबरें, वाद-विवाद, मत-मतान्तर मर्द को जानना ही पड़ेगा, ऐसा उनका विचार है। हाँ, दाल-चावल के भाव, नमक-तेल का भाव, सब्जी का भाव मर्द को पता नहीं होता, यह उनको अच्छी तरह पता है।
अखबार पढ़ने से ज्यादा खिड़की से बाहर झांकने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा हूं। मैं उनका विजन देख रहा हूँ जो छाता नहीं रखते। आदमी का यही स्वभाव होता है कि वह दूसरे के दुःख से बहुत मनोरंजन लेता है। मैं भी कहां कम हूं, आदमी तो ठहरा ! आम आदमी में से एक, लेकिन आम आदमी पार्टी का सदस्य मत समझ लीजियेगा। आजकल तो सब बातों में पोलिटिक्स होती है। मैं पोलिटिक्स से सदा दूर रहता आया हूँ। यही विजन मेरा भी हो सकता था। मैं भी भीग सकता था लेकिन देखिये मेरी ‘‘दूरदर्शिता।’’ मैं उनके दुःख मे शामिल नहीं हूं। उनका दुःख को मैं अपने घर की खिड़की से देख रहा हूं। अपने चालाकी पर थोड़ा गर्व होता है मुझे !
बरसात ऐसी जबरदस्त है कि लोगों की छतरी उसे झेल नहीं पा रही है। दो-चार कारें भी सड़क का पानी उछालते हुए दौड़ रही हैं। सड़क में दिखती हैं तीन युवतियां एक ही छतरी से आ रही हैं। उनके शरीर का सारा कपड़ा उनके शरीर से चिपक गया है। यह अनूठा सौन्दर्य है जो बार-बार देखने को नहीं मिलता। सहानुभूति होते हुये भी मेरी आंखें उनका पीछा करती गई दूर तक। फिर मैं झेंप गया और अपने आपको कोसने लगा।
एक कार आती है और ’नदी की बाढ़’ जैसे सड़क के पानी को चिरते हुए चली जाती है। तीनों युवतियों की सलवार कमर से नीचे पूरी भीग जाती है। तीनों युवतियां ड्राइवर को कोसती हुई कपड़े हिलाने लगती हैं। बरसात थमने का नाम नहीं ले रही है। मैं खिड़की से देख रहा हूं। ज्यादातर लोग कार रिजर्व करके अपने-अपने गन्तव्य की ओर जा रहे हैं। इस बरसात् में कार भी मिले तब न ?
ये सब दृश्य मुझे उस दिन की याद दिला रहे हैं। वह दिन अथवा कहूं मेरी जीवन का एक अविस्मरणीय दिन ! आज से पैंतीस वर्ष पहले का ऐसा ही बरसात का एक दिन। उस दिन की बरसात जो थी, आज की बरसात से तेज थी। ऑफीस का सारा काम निबटाकर मैं ऑफिस से बाहर निकलता हूं। इतनी भयानक बरसात है, मुझे ऑफीस के अन्दर अहसास ही नहीं हो रहा था। जो विजन आदमी का आज देख रहा हूं उससे ज्यादा विजन उस दिन देखने का मिला था। उस दिन भी ज्यादा विजन औरतों का ही हो रहा था। औरतें और विशेषकर युवतियों की दुर्दशा देखने को मिली थी। जीवन के उत्तरार्ध मे आकर पूर्वार्ध की याद करना एक मजे की बात है। ऐसी घटना शायद अब नहीं घटेगी। सिर्फ याद बचेगी जीवन भर। पर आदमी का मन ऐसा होती है कि आनन्द को ढूँढता रहेगा आखिर दम तक। हर आदमी यही कामना करता रहता है कि अच्छे दिन आते रहे जीवन भर।
‘‘ठण्डी ! वह भी इतनी ! लीजिए चाय !’’ गरम चाय का कप हाथ में लेकर जब पत्नी सामने आती है तो मेरा दिवा स्वप्न बन्द हो जाता है। अब मैं वास्तविक धरातल पर उतर आता हूं। उसके हाथ से चाय का कप अपने हाथ में लेता हूं।
‘‘सिर्फ मुझे चाय ? तुम्हारे लिये कहाँ है ?’’ मैं बोलता हूँ। और गरम चाय के कप को अपने ठण्डे होठों से जोड़ता हूँ। ‘‘चाय सिर्फ मेरे लिये ? तुम्हारा कप भी ले के आओ न, साथ-साथ पियेंगे’’ एक घूंट पीकर बोलता हूँ मैं।
‘‘क्या मायने है…………चाय भी साथ-साथ पीना ?’’ परिहास की लहजे में वो बोलती है।
‘‘पति-पत्नी हैं न, सब काम साथ-साथ करते हैं’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘मतलब साथ-साथ, समझकर भी नासमझ मत बनो। पति-पत्नी जो हैं, खाते हैं, पीते है, बाइस्कोप देखते हैं, नाटक देखते हैं, सोते हैं, जागते हैं, दान-धर्म, तीर्थ-व्रत जो करते हैं साथ-साथ करते हैं। मेरे कहने का मतलब यही है। इसी के लिये तो शादी……………. समझ गईं ?’’
‘‘बस-बस समझ गई। घुमा फिराकर बात तो वही…………।’’
‘‘हाँ……….. अब समझ गई…………………….।’’
‘‘आपके साथ बैठकर चाय पीने की फुरसत नहीं मुझे …………….मैं जाती हूं चावल बिनने………………………’’ ट्रे से चाय की कप हाथ में लेती हुई कहती है।
उसके जाने के बाद फिर खिड़की से बाहर देखना शुरू कर देता हूँ। अभी तक कम नहीं हुई है बारिश। सड़क की नाली पानी से भर गई है। ओवरफ्लो हो के सड़क जलमग्न हो गयी है। हवा भी चल रही है और छींटें घर के अन्दर आ रहे हैं। उठता हूं खिड़की बन्द करने के लिये। नीचे सड़क में देखता हूं कि एक कार दौड़ रही है और एक दुकान की ओट में खड़ी युवती हाथ उठाकर कार से लिफ्ट मांग रही है। कार रूक जाती है। एक हाथ से साड़ी को ऊपर करती हुई और दूसरे हाथ से बरसात की बड़ी-बड़ी बूंदें सिर में हाथ रखकर रोकने का असफल प्रयास करती हुई कार के अन्दर चली जाती है। कार अपनी रफ़तार में आगे चली जाती है।
ठीक ऐसी ही घटना पैंतीस वर्ष पहले की। उस समय मै दार्ज़ीलिंग में नौकरी करता था। रहता था सिंहमाऱी थाना के पास में और आफीस था गोयनका रोड में। बरसात के कारण तीन बजे ही आफीस बन्द कर के निकल जाता हूं। मूसलाधार बारिश अपना करतब दिखा रही थी और रूकने का नाम नहीं। मैं खड़ा -खड़ा देखता रहा और प्रतीक्षा करता रहा बारिश रूकने का। डेरा था अपना, वहाँ से पाँच किलोमीटर की दूरी में। मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था वहाँ जाने का। सड़क नदी हो रही थी बरसात में, धान रोपने के खेत जैसी। कोई व्यक्ति भी इधर-उधर नजर नहीं आ रहा था। मैं असमंजस में पड़ जाता हूं। और कुछ समय बीतने के बाद सड़क के विपरित दिशा से एक कार दौड़ती हुई नजर आती है। मैं दोनों हाथ उठाकर रूकने का इशारा करता हूं। भाड़ा की पूछताछ करने का भी समय नहीं है। पीछे की सीट में बैठ जाता हूं। और ड्राइवर को बोलता हूँ ‘‘सिंहमारी चलो।’’
ड्राइवर टैक्सी घुमाकर सिंहमड़ी की राह पकड़ लेता है। गाड़ी थोड़ी सी आगे बढ़ी थी कि किसी का स्वर सुनाई पड़ता है। ‘‘भाई जी’’ बोल के एक युवती गाड़ी रोकने के लिये इशारा कर रही थी। उमर यही सोलह या सत्रह की होगी।
’’रिजर्व टैक्सी है।’’ बोल कर ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ाया लेकिन मैं उसको गाड़ी रोकने के लिये बोलता हूं। तेज बारिश में भीगा उसका शरीर ठण्ड से कांप रहा था। मैं कार का दरवाजा खोल देता हूं। उसके शरीर से पानी बह रहा था। सिकुड़कर वह मेरे बगल में बैठ जाती है।
उसके केश के छोर से पानी की बूँदे टपक रही हैं। उसके गाल, पीठ, कन्धे और वक्षस्थल पानी से तर है। पानी से उसकी साड़ी व ब्लाउज, बाजू और पीठ पर सट गये हैं। आँचल से मुख पोंछती है और केश को थोड़ा झटकारती है। पानी की छींटें मेरे मुख और गाल पर पड़ जाते हैं। वह लजाकर थोड़ा बोल जाती हैं ‘‘सॉरी!’’
‘‘कोई बात नहीं ! ’’ उसको राहत दिलाने के लिए मैं बोल देता हूँ। मन मे क्षोभ, अपनी भूल पर थोड़ा सा पश्चाताप, उसके ऊपर लाज और पास में बैठे जवान पुरूष की झेंप, ये सब उसको बहुत कमनीय बना रही थी। मुझे लग रहा था गौर से देखूं उसको, जेब से रूमाल निकालकर उसका गाल पोंछ दूं लेकिन ये सब करना शिष्टाचार के खिलाफ था। मैं शिष्टाचार और अनुशासन में बंधा आदमी, ये सब नहीं कर सकता था। फिर भी किसी तरह, बाहर देखने के बहाने से उसको देखा करता था कभी-कभी। बुलाने का मन होता है, पता और नाम पूछने की इच्छा होती थी पर मेरा लजिला स्वभाव, संकोच से मजबूर था। उस पर अपना अहं भी था जो उसके मेरे बीच में दीवार बनकर खड़ा था। मुझे लग रहा था कि वो भी अव्यक्त बोली में मुझे धन्यवाद दे रही थी लेकिन बोल नहीं पा रही थी।
‘‘कहाँ उतरेंगी आप ?’’ मौनता मैं ही तोड़ता हूं।
‘‘लेबोड़ ग्राउण्ड के पास।’’ कोमल स्वर बोलता है उसका।
‘‘घर यहीं पर ?’’
‘‘नहीं। किराये के घर पर रहती हूं पढ़ने के लिए।’’
‘‘कहां पढ़ती हो ?’’
‘‘सेन्ट जोसेफ कॉलेज में।’’
‘‘किस इयर में ?’’
‘‘फर्स्ट इयर में।’’
‘‘अपना घर कहां है ?’’
‘‘तकभर टी इस्टेट। थर्ड डिवीजन, गोदाम धूरा।’’
बातों का मीठा सिलसिला शुरू हुआ था कि मेरा गन्तव्य आ पहुंचा। मैं उतरता हूं गाड़ी से, सिंहमारी थाना के पास। ड्रायवर को रूपये देकर बोलता हूं ‘‘इनको अपने घर तक पहुंचा देना।’’
ऐसे हुई हमारी पहली भेंट! बरसात थोड़ी कम हुई थी। लम्बे-लम्बे कदमों से चलकर सड़क पार करता हूं और अपने डेरे के सामने खड़ा होता हूं। एक बार पीछे मुड़कर देखने की इच्छा होती है। गाड़ी आगे वाले मोड़ तक पहुंच चुकी थी। गाड़ी मेरी नजरों से ओझल हो जाती है, मैं उधर ही देखता रहता हूं। न जाने कितनी देर में मेरी सोच भंग हो जाती है और मैं घर के अंदर दाखिल हो जाता हूं।
कमरे में उठापटक की आवाज से मेरे सोचने का क्रम टूट जाता है। चावल बीनकर टिन के डिब्बे में भर रही है मेरी श्रीमती। आज का अखबार फोल्ड करके टेबल पर रख देता हूं।
‘‘आज की ताजा खबर क्या है ?’’ श्रीमती पूछती है।
‘‘कैसी खबर ?’’
‘‘खबर ठीक है, बहुत बढ़िया है। देश उन्नति कर रहा है। हमारे दुःख के दिन चले गये, अच्छे दिन आ रहे हैं और क्या चाहिए ?’’
‘‘ये तो पुरानी खबर है। नयी खबर सुनाइये न।’’
‘‘देखती हो, बरसात हो रही है जमकर। इतनी तेज बरसात देखकर तुम्हें उस दिन की याद नहीं आती है ?’’
‘‘सोच रही हूं कि उस दिन आप मुझे लिफ्ट नहीं देते तो आज मैं यहां ये चावल नहीं बीन रही होती….’’
‘‘हां, मैं भी यही सोच रहा हूं।’’
देव भंड़ारी
एच.एल.डी. रोड
कलिम्पोंग
जिला-दार्जीलिंग
मो.-08101181053