नयी कलम – श्रुति सिन्हा की कवितायेँ

 

 

मंजिल यही है पर यह नहीं

मंजिल यही है पर यह नहीं ,
शायद यह मेरी बेवकूफी हो……
यह बेमतलब की उदासी मुझे सोच में डाल देती है …..

न सोचते हुए भी यह कैसी नमी है ?
जो आँखों में आ पहुंची ….

क्या मैंने बुलाया है, जो इतनी
आसानी से आकर अपने आप ही
एक दिलचस्प सी होकर,
न रुकने वाली नदियां और सावन जैसी
बहने लगी…

आँखों में घना बादल बन जाना
और अचानक बिन बुलाये
और न चाहे पतझड़ की तरह
गिर पड़ना…

उफ़.. कितना दर्द है,
इन पानियों पर जो
आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी
आ पड़ रहे हैं, और मुझे
दुःख दे रहे …

क्या वो दुःख दे रहे,
या कहना चाह रहे कि
मेरा भी स्वागत करो,
मैं हमेशा नहीं हूँ …

’’तुम्हारी कोई भी वजह क्यों न हो
मुझे बुलाने की पर तुम्हें यह नहीं पता
कि तुमने ही मुझे दिल से पुकारा है’’..

’’आज तुमने मंजिल की चर्चा उठाई मेरे साथ
मंजिल हमेशा तुम्हारे साथ, तुम्हारे पास,
तुम्हारे करीब, और तुममें है’’..

’’आओ मिलकर तुम्हारे अनजाने
दुखी, टपकते हुए पानियों, नमियों का
जश्न मनाये ’’…

 

मुझमें ही बसा है

आओ मेरी दुनिया में तुम्हारा स्वागत है
इस भरपूर कला, राग, संगीत, ताल
और कभी न अन्त होने वाला दृश्य!

हां, जो मुझमें बसा हुआ है
हां, जो मुझमें ही समाया हुआ है!

जो मेरे भीतर भी नहीं है
जो मुझमें ही ’मैं’ है,

ये दुनिया मेरी और तुम्हारी है
जहां मैं इस ब्रम्हाण्ड में
हमेशा हमेशा के लिये
खुद मैं स्वागत कर रही हूं तुम्हारा,

तुम! ये ’तुम’ नाम का कौन है ?
जिसका मैं, मुझसे भी ज्यादा स्वागत कर रही हूं
यहां मैं हूं, वहां तुम हो,
क्या ऐसा हमारे बीच कोई ’शब्द’ हो सकता है
इस स्वागत के बाद?

नहीं, क्योंकि मैं और तुम अलग जिस्म नहीं, हम एक हैं

क्या यह ’तुम’ नामक का कोई इन्सान है ?
कोई वस्तु है ? या कुछ और ?

आह! आह! यह तो मैं ही हूं
मैं, जो मेरी दुनिया, मेरे ब्रम्हाण्ड में,
’मैं’ में तुम बनकर मुझमें खींचे चले आ रहे हो,

मुझमें, मैं में, तुम बनकर आये
और मैंने तुम्हारा
सर से लेकर अपने थिरकते पांव में स्वागत किया
मैंने कहा, आओ, अनंत मुझमें तुम बन कर मैं बन जाओ,

आह! इस अनंत की भूमि में, ब्रम्हाण्ड में, दुनिया में,
कहीं भी, किसी भी जगत में, मैं और तुम अलग नहीं,

यह प्यार है, पर प्यार जैसा प्यार नहीं
यहां आसमान है
जहां कभी बारिश बन कर,
तो कभी सूर्य की किरणें बन कर,
तो कभी भौंरा बनकर,

मैं तुम, तुम मैं बन कर नटराज रचाये
आओ कुछ पल के लिये खो जायें
जहां मैं में तुम, और तुम में मैं

हाथ की उंगलियों को डगमगाते हुये वार्तालाप कर रहे
पैरों को उछालकर जरा भी जगह न देते हुये
जहां थकने का नाम हो पर
खुद में नामोनिशान भी नहीं

वहां रचाये यह स्वर्ग

जिसे आम भाषा में कहें,
नृत्य, कला,

और हमारी, मेरी, तुम्हारी भाषा में क्या कहेंगे
इस अनंत को ?

 

श्रुति सिन्हा

छात्रा

बिलासपुर, छ.ग.