सामाजिक समरसता के दीमक

नक्कारखाने की तूती

यह शीर्षक हमारे उन विचारों के लिए है जो लगातार हमारा दम घोंटते हैं परन्तु हम उन्हें आपस में ही कह सुन कर चुपचाप बैठ जाते हैं। चुप बैठने का कारण होता हैं हमारी ‘अकेला’ होने की सोच! इस सोच को तड़का लगता है इस बात से कि ‘सिस्टम ही ऐसा है क्या किया जा सकता है। और ऐसा सोचना पागलपन है.’ हर पान की दुकान, चाय की दुकान और ट्रेन के सफर में लगातार होने वाली ये हर किसी की समस्या होती है, ये चिन्ता हर किसी की होती है। और सबसे बड़ी बात कि समस्या का हल भी वहीं होता है।

पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 11.00 पी.एम. दिनांक-14 जुलाई 2022

सामाजिक समरसता के दीमक
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

दृश्य-1
’ये राशन का मोटा चावल कौन खाता है ? भाई! 35 किलो चावल मिलता है 1 रूपये की दर से। उसे बाजार में बेच देता हूं। फिर उस पैसे कोई चीज खरीद लो।’ उसने अपने हाथ मटकाते हुये अपनी बात कही। उसकी बात सुनकर सागर की आंखें चौड़ी हो गई।
’डर नहीं लगता है ऐसा करते हुये ?’
’डर ? इतनी सी बात के लिये क्या डरना! वैसे भी भोजन का अधिकार तो सरकार ही देती है।’
दृश्य‘2
’पांच लाख में से दो लाख दो और तीन लाख अंदर कर लो। ये फायदा है इस कार्ड का।’
’हंय! ऐसा भी होता है ?’
’तो और क्या! कई प्रायवेट नर्सिंग होम वाले करते ही हैं। साल के कुछ लाख कमा लो हींग लगे न फिटकरी!’
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समाज में व्याप्त भ्रस्टाचार और विसंगति के अगर हम कारणों को ढूंढने जायेंगे तो पता चलेगा कि सरकार की योजनाएं ही गंगोत्री हैं इनकी। सरकार गरीबों के लिये सुविधाएं और छूट प्रदान करती है। और गरीबों के नाम पर कुछ सफेदपोश उसे लूट का जरीया बना देते हैं। इस लूट के व्यापक प्रभाव का अध्ययन और उपाय ढूंढे उससे पहले तो हमें एक महत्वपूर्ण बात चिंतन करनी चाहिए कि गरीबों के नाम चल रहीं तमाम योजनाएं और छूट क्या सिर्फ गरीबों के लिये ही आवश्यक हैं अन्य किसी वर्ग के लिये ये समस्यायें नहीं हैं ?
दो टाइम भरपेट भोजन करने का अधिकार क्या सिर्फ गरीब का ही है ? समाज के अन्य वर्ग को भूख नहीं लगती है ? या फिर अन्य वर्ग लाइलाज रोग से ग्रसित होकर मजबूर नहीं हो सकते या दुर्घटना आदि से कभी वो परेशान नहीं हो सकते ? व्यापारी वर्ग को घाटा होने पर क्या वे लाचार नहीं हो सकते ?
भोजन का अधिकार यदि समाज हर किसी का बनाया जाय तो भ्रस्टाचार के अनेक धंधे बंद हो जायेंगे। ये बात अलग है कि सरकार ये लगेगा कि समाज से वे रोजगार खत्म हो गये। सस्ता अनाज बांटने के सामाजिक दुष्प्रभावों में है कामचोरी, सस्ता अनाज बेचकर दारू सेवन, गरीबी को जीने का सहारा बना लेना। इसके बाद सस्ता अनाज खरीदने वाले व्यापारी, उंचें अनाज में मिक्स करने वाले व्यापारी, चोर बाजारी आदि।
यहां यदि हम वास्तवक समाजवाद की स्थापना करते हैं और समाज हर व्यक्ति को सस्ता अनाज मिलने की व्यवस्था करते हैं तो सस्ते अनाज की वजह से सामाजिक विसंगति का प्रभाव बेहद कम होगा। जिसको सस्ते अनाज से पेट भरना है वो सस्ते से भरेगा जिसको महंगा खाना है वह महंगा खायेगा। जब कोई गरीब अपने सस्ते अनाज को बाजार में बेचने जायेगा तो फिर उसे कौन खरीदेगा। फिर दारू पीने के लिये काम करेगा। तो कामचोरी खत्म होगी। राशन बेचने वाले फिर किसको बेचने के लिये चोरी करेंगे ?
और सबसे ज्यादा समाज की सोच में ये परिवर्तन आयेगा कि समाज के एक वर्ग को मुफ्तखोरी नहीं करवाई जा रही है। बल्कि सामाजिक न्याय की बात हो रही है। जो तथाकथित अमीर बेचारे मजबूरी में सस्ता अनाज भी महंगे में खरीदते थे वे बेचारे आसानी से जी पायेंगे।
ठीक इसी तरह गरीबों को इलाज के लिये पांच लाख दिये जायेंगे और अमीरों को पचास हजार! अब क्या बीमारी अमीर गरीब देखकर आती है क्या ? समाज के हर वर्ग को मुफ्त इलाज की सुविधा दी जानी चाहिये। सबको एक समान छूट प्रदान की जानी चाहिये। ताकि वक्त पड़ने पर तथाकथित अमीर वर्ग भी अपना जीवन आत्मसम्मान बचा सके। जब सबको छूट एक तरह की होगी तो समाज जागृत होगा तब वे कफनखसोट नर्सिंग होम भी जागेंगे जो चोरी से ही चलते हैं।
इसी तरह गरीब को सस्ती बिजली अमीर को महंगी बिजली। अब क बिजली भी किसी के लिये अलग अलग तरह से उपयोग की जाती है ?
व्यवसायिक बिलजी से ही व्यक्ति कमाकर घर चलाता है और उसकी दर ही ज्यादा है। जबकि हर बिजली की एक ही दर होनी चाहिये जिससे बिजली चोरी काम बंद होगा, पारदर्शिता बढेगी। क्या ये संभव है कि आप हर घर पर नजर रखकर ऐसी चोरी को रोक सकते हैं ? कितने प्रकार की बिजली आपके इर्द गिर्द घूम रही है देखिये। घरेलु 100 यूनिट, 200यूनिट आदि, व्यवसायिक 100 यूनिट 200यूनिट, कृषि हेतु, कृषि अलाइड, औद्योगिक, अस्थाई, क्रेशर हेतु, फार्म हाउस हेतु, स्कूल आदि वाली, धार्मिक, शादी वाली, अस्थाई कृषि आदि आदि। इनमें से कौन किस तरह वाली को कहां से कहां उपयोग कर रहा है पता लगाना मुश्किल है वो भ्रस्टाचार के माहौल में। यानी एक तरह से सरकार खुद पहले चोर बना रह है फिर पकड़ रही है। इससे अच्छा तो हर काम के लिये बिजली की दर एक समान हो ताकि चोरी करने की मानसिकता ही न बने। बेकार का अमाला चोरी के नाम पर चोरी को ही बढ़ावा देकर खुद की जेब न भर पाये।
वैसे भी सामाजिक समरसता के वृक्ष में ये अलग अलग दरों ने और सब्सिडीयो ने मट्ठा डाल रखा है। समाज का एक वर्ग गरीबों को इसलिये ही अपने हक का लुटेरा मानता है कि उसे काम करके जीने का परिणाम या सिला उसे ही भुगतना है गरीबों के लिये अपनी कमाई देकर।
और गरीब इसे ही अपने जीने का धंधा मान कर जीवन काट लेता है।
खैर! काफी रात हो चुकी है। अंधेरा हर ओर फैल चुका है।