मूल्य-महेश्वर नारायण सिन्हा की कहानी

मूल्य


बड़ी अम्मा हाय-हाय करने लगी। हाय मेरे दस हजार! किसने लिए! यहीं तो रखा था, अलमारी के पहले रैक में। कहांँ गायब हो गया, सौ-सौ के एक बंडल, पूरे दस हजार! हाय मेरे पसीने की कमाई! हाय! मैं लुट गयी!
सबके चेहरे पर उत्सुकता और प्रश्न! क्या हुआ ? चोरी ? वह भी दस हजार की!
‘‘ठीक से देखिए अम्मा जी! कहीं रख दिया होगा। शादी ब्याह का माहौल है, दिमाग में पचास तरह की बातें रहती हैं। आपने ही कहीं इधर -उधर तो नहीं रख दिया।’’ छोटी जीजी बोली। उन्हें विश्वास था, पैसा कौन चोरी करेगा। सभी तो घर के लोग हैं। कौन है बाहरी यहांँ। वह भी भीतर होने वाली दुलहिन के कमरे से। जबकि चाभी के गुच्छे बड़ी अम्मा के कैद से शायद ही कभी आजाद हो। वैसे में कौन चोरी करेगा।
पर नहीं अलमारी का चप्पा-चप्पा उड़ेल दिया गया। नोटों के बंडल कहीं नहीं थे। मतलब साफ था – रूपये चोरी गये।
बड़ी अम्मा सर पकड़ कर बैठ गयी।
‘‘आखिर इस कमरे में आया कौन ? दोपहर को रीना आंटी आयीं थीं दुलहिन को मेंहदी रचाने। और तो कोई भी नहीं था।’’ छोटी जीजी दिमाग पर जोर देकर बोली।
‘‘लुपकी दाई! वह तो दिन-भर घर के हर कोने में आती जाती रहती है। जी हाँ, लुपकी दाई!’’ बुआ की बड़ी बेटी नीना ने फरमाया।
सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया। कमरे में हाँ – हूँ से छोटे-बड़े की भीड़ बढ़ गयी थी।
लुपकी दाई इस खानदान की परम्परागत दाई थी। शादी ब्याह के मौके पर दुलहन को आलता, नख-पॉलिश, नख-कटाई, बरसों में कंछी इत्यादि की रस्म अदायगी वही करते आयी थी। यह तीन भाइयों के खानदान में सबसे छोटी बेटी मिनी की शादी का वक्त था। न जाने फिर कब किसकी शादी हो, जाने फिर लुपकी दाई को नयी पीढ़ी याद करे ना करे। बूढ़े बदन पर पुरानी साड़ी, थोड़ी कमर झुकी, बड़ी लालची और जुबान से तेज।
अब तक बात लुपकी दाई तक पहुँच चुकी थी, चोरी और उस पर लगाए आरोप भी। भीड़ के बीच से ही तेज आवाज में वह अलग हाय -हाय करने लगी ‘‘हमार हाथ में कोढ़ी फूटे जो एक पैसा चुराएं हों। ई खानदान के सेवा करते आएं हैं। नौवीं शादी करा रहल हैं, जो कोई एक नया पैसा के घपला हम किए कोई बता दे।’’
‘‘दाई जी! हम सिर्फ शंका कर रहे हैं। और कोई तो इस कमरे में आया-गया नहीं।’’ छोटी बुआ अपनी बेटी के बचाव में उतर गयी।
‘‘अब हमका बतावें छोटी रानी! हम छोट आदमी! हमार तलाशी ले लीजिए। देखिए बीबीजी, हम लालची हैं, मुंँह खोल के दू रूपेया जादे मांँग लेंगे, बाकी चोरी ……? राम-राम ! नरक मिले जो हम रूपेया चोराएं हों। गऊ कसम।’’ लुपकी दाई अपनी तेज आवाज में बात या कहें सफाई देने में जुटी रही।
न चाहते हुए भी भीड़ में मौजूद कई लोगों का शक लुपकी दाई पर जो ठहरा, वह ठहर ही गया। छोटे लोग हैं, ईमान डोल गया होगा। दस हजार की रकम कम नहीं होती।
उधर आरोप-प्रत्यारोपों से परे बड़ी अम्मा जमीन पर जो बैठी तो बैठी ही रही। सर पर हाथ रख कर। बाहर शादी का मंडप तैयार था, कुछ रस्म अदायगी की चीजें बची थीं, सब काम रूक गया। कमरे में इकट्ठा औरत समाज खुसर-फुसर करने लगी। कोई कहता, हो ना हो काम के झोंक में बड़ी अम्मा ही पैसा इधर- उधर कर दी होंगी। संभव है खर्च के लिए किसी को दे दिया होगा। किसी का ख्याल था पैसे के मामले में बड़ी अम्मा पक्का वित्त-मंत्री का बाप थीं, उनसे एक नया पैसा इधर -उधर होना पहाड़ के करवट लेने जैसा था। रूपये अवश्य चोरी गये होंगे। पता नहीं किसने चुराये। मजा यह कि चाभी के गुच्छे भी बड़ी अम्मा के कब्जे में हमेशा रहता है। चूक हो गयी होगी, शादी का माहौल है, और फिर, उमर भी एक चीज होती है।
जितने लोग उतनी तरह की बातें। इधर लुपकी दाई अपने ऊपर आए आरोपों का जबरदस्त प्रतिकार कर रही थी। उसका मुंँह जो चप्-चप् चलना शुरू हुआ बंद होने का नाम ही न ले। उसके हाथ खूब चमक रहे थे। नौजवान पीढ़ी चिढ़ गयी, चोर ही इतनी सफाई दे सकता है, कोई और नहीं।
बात अब तक बाहर मर्दों तक जा चुकी थी। ऐसी बातें चंँद सेकेंड में दुनिया का चक्कर लगा लेती हैं यह तो दो-चार कमरों वाला घर ही था। बडे़ पापा ने साफ-साफ कहा, ‘‘आप लोग अपना-अपना काम देखिए। कोई किसी के ऊपर इल्जाम नहीं लगाएगा। चोरी का इल्जाम वह भी बिना किसी सबूत के! खबरदार! आप सब अपने काम देखिए। चलिए।’’ फिर वे लुपकी दाई की ओर मुखातिब हुए तो अब भी उसी आशय का गीत भुन्न-भुन्न कर गा रही थी कि कोढ़ फूटे, नरक भोगे, उसके बदन पे काँंटा ऊगे, गऊ भक्षे जो उसने चोरी की हो।
‘‘ऐ लुपकी दाई! हम हाथ जोड़ते हैं, बुरा मत मानिएगा। यहांँ जितने लोग हैं उतनी तरह की बातें हैं। कोई और कुछ कहे हम जानते हैं कि आप पर इलजाम लगाना ही पाप है। हमें शरम है आपको यह सब हमारे घर, हमारे सामने सुनना पड़ा। आप बुरा मत मानिए और अपना काम देखिए।’’
घर में बड़के पापा का रूतबा था, इतना बोलना था कि सभी अपनी-अपनी जगह और लुपकी दाई भी पूर्ववत् अपने काम पर लग गयी।
सब चले गये और कमरे में बड़ी अम्मा भर रह गयीं थीं, बडे़ पापा ने उनसे पूछा, ‘‘सचमुच रूपए चोरी गये ? आप आश्वस्त तो हैं ?’’
बड़ी अम्मा अर्थात् उनकी पत्नी ने सर हिलाकर बताया ’’हाँ, ठीक से हमने देख लिए। हमारी याददास्त भी दुरूस्त है। रूपए चोरी गये हैं।’’
‘‘चलिए, इस बात को यहीं खतम करते हैं। शादी का माहौल है, किसी के मन में गम-गिला क्यों रहे।’’
जल्द ही माहौल फिर से शादीनुमा हो गया। लोगों को शहनाई की धुनें सुनाई देने लगी। हलवाई हलखोरन की ऊँची आवाज और पूड़ियाँं तलने की सुगंध वातावरण में फैल गयी। पूर्ववत। पहले जैसा मर्द समाज गप्पें मारने और ठहाका लगाने लगे। औरतें शादी गीत गाने लगीं। मुनेसर मिसिर को सबने यह कहते सुना ’’ऐ भाई इसमाईल बाजा! तनिक फूंँक के शहनाई बजाइए। सबसे छोटकी बेटी के बियाह है। अब नहीं बजाइएगा तो कब बजाइएगा। मारिए जोर ……….. मर्दवा …….. !’’
दो दिन बीत गये और सब कुछ शुभ-शुभ सम्पन्न हो गया। लड़की विदाई समारोह भी खुशी-खुशी निपट गया। खानदान की आखिरी शादी थी, बेटी विदाई पर आंँखे गीली हुई, जो सामान्य बात थी।
इस बीच तमाम उन रस्मों पर जिनमें लुपकी दाई का हक बनता था, घर के मेहमानों से खूब लल्लो-चप्पो कर-कर के पैसा एंठी। जब हल्दी का समय आया और प्रत्येक के हल्दीक्षेपण के बाद लुपकी दाई को नेग देना होता, तो किसी ने पचास दिए तो सौ की फरियादी करती। कोई ग्यारह की हैसियतवाला होता तो उससे ‘कुछ और’ जेब ढीली करने को कहती। कुछ कंजूसों से तो झगड़़ भी जाती। पीठ फेर लेती। कहती ‘‘करोड़ो के मालिक हैं, चेक काट के दीजिए, ई का है सौ टकिया! बड़का हरियर पत्ता दिखाइए, छोटका में मत फुसलाइए। अब कहांँ – केकर बियाह में आवेंगे। इहे तो आखिरी बा।’’
उसे देखकर जरा भी यह प्रतीत नहीं होता था कि सभी मेहमानों के सामने उस पर चोर होने का आरोप लग चुका था। उसके लिए तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं और लोग भी खूब मजा लेते। चारों ओर से टिप्पणियाँं व फब्तियांँ कसे जाते। बैंक मैनेजर साहब की बारी पर तो हल्के व पुराने नोट पर इतनी फब्तियांँ मिली थी। बेचारे को हजार का एक नया लाल नोट निकालना पड़ा गया।
सूजी भैया चिल्लाए ‘‘ऐ लुपकी! हमार कमीशनवा याद रखिएगा…, हमरा योगदान है एह में…।’’
खूब ठहाके लगे। जबकि युवा पीढ़ी के बच्चे अंजू, रवि, रिंकू और नीना ‘‘शेम-शेम’’ कहते। छीः! कितनी लालची है। बुढ्ढी!
बेटी विदाई के बाद आज दिनभर जो जहाँं थे वहीं सो गये। लुपकी दाई भी घर नहीं गयी थी। कल से धीरे-धीरे मेहमान विदा लेंगे। जो बहुत दूर के रिश्तेदार थे, वे जा चुके थे। घर के सदस्य इतनी जल्दी कैसे चले जाते। अभी तो बहुत सारी बातें फुरसत में बतियानी बाकी थीं।
टेंट वाला अपनी कुर्सियांँ, टेबल धीरे-धीरे सरकाना प्रारंभ कर दिया था। बर्तन गिन-गिनकर ठेलों में रखे जा रहे थे। सारे आराम और थकान से परे छोटू मामा एक-एक सामानों की तसदीक और इत्मीनान होने के बाद ही विदा करते। चाहे कितना भी ध्यान रखो, कुछ ना कुछ कम पड़ ही जाता है। चम्मच, प्लेटों, गिलासों का कम पड़ना आम बात थी। दर्जन भर चम्मच मिस हो गये हैं तो दस ग्लास टूट गये या नहीं मिल रहे। दो-चार प्लेटें गायब हैं।
पर, यही तो शादी-ब्याह का माहौल है। चम्मच या ग्लास गायब होने का इल्जाम किस पर लगाया जाए। कितनी मूर्खतापूर्ण भरी बात होती, मगर दस हजार! बड़े पापा चिंतित थे। उनकी चिंता का कारण कुछ और रहा होगा। बड़ी अम्मा भी दस हजार रूपयों का शोक नहीं छोड़ सकी होंगी।
शाम ढल चुकी थी और कोयले की भट्ठीवाली आंँच में रिंकू, अंजू, नीना और रवि को याद किया। वे चारों लगभग हम उम्र, एक साथ ही रहते थे। पता चला वे कहीं गये हैं। बड़े पापा ने आदेश दिया वे जैसे आएं उनसे मिले। जरूरी काम था। फिर वे भाइयों-रिश्तेदारों के साथ गप्पें मारने लगे।
लगभग आठ बजे रात्रि वे चारों बड़े पापा के साथ बैठे। बडे़ पापा ने बड़ी अम्मा को बाहर जाने को कहा, उन्हें एकांत में उन चारों से कुछ बातें करनी थी।
सभी चुप थे। रवि और रिंकू ग्यारहवीं व बारहवीं के छात्र थे, नीना और अंजू क्रमशः नौवीं और ग्यारहवीं की छात्रा थी। सब के सब कान्वेंट या पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले! चारों चौंकन्ने थे, संभवतः कुछ डरे हुए भी, क्योंकि बड़े पारा एक गम्भीर किस्म के प्राणी थे। इस तरह सम्मन जारी कर किसी को अपने समक्ष हाजिरी देने का फरमान शायद पहले नहीं किया था। बच्चे जानते थे, वे बहुत कम बोलते थे। लल्लो-चप्पो वाली बात तो उनमें जरा भी नहीं थी।
‘‘मैं ये नहीं पूछूंँगा कि तुम सब ने पैसे चोरी किए या नहीं। मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूँ कि आखिर तुम सबने ये किया क्यों! किसलिए रूपए चुराए ?‘‘-बड़े पापा ने सीधा और गहरे स्वर में सवाल किया। चारों सन्न रह गये। चुप।
वो रिंकू की ओर देख रहे थे, उनमें सबसे बड़ा, बड़ी बुआ ही का सबसे बड़ा लड़का था। क्या कहते हैं, खानदान का पहला चराग!
‘‘मैं कुछ पूछ रहा हूँ ……..।’’ स्वर गंभीर था।
सभी चुप थे। उनमें से किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कुछ कहने की, ना ही यह कहने की कि बड़े पापा! आप यह क्या कह रहे हैं। हमें कुछ समझ में नहीं आया।
कमरे में सन्नाटा पसरा रहा। सबके सर नीचे थे। थोबड़ा लटका। बकरे के माफिक!
‘‘क्या मैं ये बताऊँ कि तुमने क्या किया उन पैसों का। कहांँ खर्च किया, कैसे खर्च किया। बताऊँ ?’’ उनका एक-एक शब्द उन चारों के कि कलेजे में हथौडे़ की तरह बजता प्रतीत हो रहा था।
वो कहें तो क्या कहें ! मुंह से बकार फूटे तो कैसे!
‘‘मुझे नहीं पता हम सब से क्या कमी रह गयी। रिंकू ? खुलकर कहो, हम सब संभवतः अपनी गलती सुधार लें।’’ हथौड़े की चोट जारी थी। बाहर टेंट की छाँंव में बैठे रिश्तेदारों को पता नहीं था कि अन्दर क्या हो रहा है। एक जज बिना किसी आरोप-प्रत्यारोप और सबूत के सीधा इल्जाम लगा रहा था, मानों अभियुक्त स्वयंसिद्ध हों। जिसे सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं थी। मानों नया युग नये लोग स्वतः सिद्ध थे कि वे क्या हैं और कैसे हैं।
‘‘तुम चारों के मुंह से महंगी शराब को मैं सूंघ सकता हूँ। दो दिन तक तुम सब ने शहर के मॉल में जो गुलछर्रे उड़ाए, मुझे सब पता है। अब तुम चारों बताओं, तुम्हें क्या दण्ड मिलना चाहिए।’’
बहुत देर के सन्नाटे के बाद रवि के मुंँह से बकार फूटा, ‘‘सॉरी बडे़ पापा ……..।’’
‘‘सॉरी ! इतनी आसानी से कह दिया! शायद तुम सब को नहीं पता तुमने क्या किया है। मेरे सवालों के जवाब दे रहे हो या तुम्हारी पोल सबके सामने खोलूंँ …….।’’ बड़े पापा के स्वर में क्षोभ था।
‘‘सॉरी……. अब ऐसा नहीं होगा।’’ यह नीना की धीमी आवाज थी।
‘‘क्यों, नीना क्यों ? तुम एक समझदार लड़की हो और कानूनन भी तुम सब को पीने का अधिकार नहीं, सब के सब अठारह के नीचे हो। अभी तुम सब के मुंँह से निप्पल वाले दूध की गँंध गयी नहीं, और यह शराब, ऐश-पानी ! यह है तुम्हारे लिए रूपये की कीमत ?’’ प्रतीत होता था वे भीतर से फट जाएंगे, इन बच्चों के दुष्कर्म से!
‘‘मैं पुलिस बुलाता हूँ। तब तुम्हे एहसास होगा कि तुमने क्या किया है। जी हाँ, तुम सब जानते हो मैं ऐसा कर सकता हूँ।’’ बड़े गुस्से में वे बोल रहे थे।
पुलिस का नाम सुनते ही चारों सकते में आ गये। दोनों लड़कियाँं रोने – सुबकने लगीं।
‘‘मैं कैसे तुम सब का चेहरा देखूंँ। तुम्हीं बताओ। आज चोरी, कल डाका, परसों हत्या! यही करने वाले हो न! वह भी वे सब जिन्हें कोई कमी नहीं। पॉकेट मॅनी, स्टैंडर्ड स्कूल, कार, स्कूटी, घर में ए.सी., दुनिया की सारी सुविधाएं मौजूद क्या किया जाए तुम सब का ………….!’’
’’मैं इसका जवाबदार हूँ। मुझे सजा दीजिए। मैंने बहकाया मगर पुलिस मत बुलाइए, सॉरी ……।’’ रिंकू गीली आवाज में प्रार्थना करता प्रतीत हुआ।
‘‘हाँ बड़े पापा! हम सब को बड़ा आदमी बनना है, बड़ा अफसर। नीना डॉक्टर बनेगी, मैं चार्टेड एकाउटेंट…….., हमारा कैरियर बरबाद हो जाएगा, वी प्रॉमिस….अब ऐसा नहीं होगा।’’ अंजू ने फरियाद किया।
‘‘बस हम जरा भटक गये। अलग ढँंग से ऐश-पानी करने का मन किया। हमने सोचा, रूपए तो बेकार पड़े हैं। हम अपना शौक पूरा कर लें।’’ रवि बोला।
बड़े पापा कुछ नहीं बोल पाए। क्षोभ और गुस्सा पीते हुए उनका चेहरा देखने लायक था। उन्हें देखकर डर लगता था। दुःख और गुस्सा क्या होता है, यह वहीं उनके चेहरे से जाना जा सकता था। बच्चों की चोरी से ज्यादा उनकी सोच उन्हें सीधा जमीन में दफन किए जा रही थी। इन लड़के-लड़कियों को क्या कहें जिनकी सोच ही ऐसी है। वे चुप रहे। सन्नाटा। फिर बोल पड़े –
‘‘तुम सबने रूपए का यही मूल्य लगाया। धन का वैल्यू मात्र यही है।’’ अचरज से उन्होंने कहा। एक दवा का डब्बा जो पास ही पड़ा था, बीच टेबल पर रखकर पूछा, ‘‘बताओं, इसकी कीमत क्या है ? वास्तवितक कीमत।’’ रवि डब्बा पे एमआरपी देखकर बोला, ’’सौ रूपए।’’ बड़े पापा ने शेष तीनों की ओर देखकर पूछा ’’क्या यह सही है ? सही मूल्य है ?’’ सबने देखा और कहा, ‘‘हाँ, सौ रूपये मात्र।’’
‘‘नहीं।’’ बड़े पापा ने कहा, ‘‘इसकी वास्तविक कीमत उस रोगी से पूछना जो मर रहा हो और इस दवा से उसे जीवन मिले। वही बताएगा इसका वास्तविक मूल्य! यह वैल्यू है प्राईस नहीं। तुम सब की नजर में दस हजार मात्र चंद घंटो का ऐश-पानी है।’’ वे कहते गये, और वे सब सुनते गये, ‘‘काश तुम सब इसमें जीवन देख पाते। किसी जरूरतमंद को भेंट कर दिया होता, पर नहीं …..।’’ वे चुप हो गये। क्षोभ।
‘‘सजा तो मिलेगी। मिलनी चाहिए। अचानक सबकी ओर जलती आंँखो से देखा, ‘‘जानते हो सभी क्या सोच रहे हैं, वे सब लुपकी दाई को ही चोर समझ रहे है। सच है ?’’
सबने सर हिलाया। जी। सही है।
‘‘क्या यह अन्याय नहीं ?’’ उनके इस सवाल पर सभी के सर झुके रहे।
‘‘उनसे माफी मांँगों, और उन सबके सामने जहांँ वो जलील हुई थी। न्याय का तकाजा यही कहता है। लुपकी दाई सहित सबको बुलाओ और जिस तरह ईश्वर के दरबार में कनफेस करते हैं, लुपकी दाई से क्षमा मांँगों। तुम सबके सामने सिर्फ दस मिनट का समय है, वरना बीसवें मिनट यहां पुलिस की गाड़ी होगी।’’ इतना कह कर बड़े पापा उठकर बाहर आ गये।
बड़े पापा अगले दस मिनटों तक बाहर चीजों का जायजा लेते रहे, मानां कुछ हुआ ही नहीं। तभी लुपकी दाई ने पुकार लगायी, ‘‘बड़े मालिक!’’ वो बड़े पापा को बड़े मालिक ही कहकर बुलाती थी।
इस बार लुपकी दाई के अलावा बड़ी अम्मा, वे चारां और बड़े पापा मौजूद थे। छूटते ही और मौका माकूल होते ही लुपकी उबल पड़ी, ‘‘ई काहे अन्हेर कर रहे हैं बड़े मालिक! लड़का सब से गलती नहीं होता है का! राम! राम! हमसे माफी मांँगे कह रहे हैं। आऊर सबके सामने। राम! राम! अरे हम छोटे आदमी, छोटे जात! हमार चेहरा पर एगो करिखा लग गया तो का हो गया। हम पर तो घरे-घर चोरी के इल्जाम लगते रहता है। ई पाप हम नहीं होने देंगे। गलती हो गया तो हो गया ! फिजूल मुरदा मत उखाड़िए, सभे चोरी वाला बात भुला गया है।’’
‘‘मेरे ऊपर कृपा कीजिए। ऐसे शब्द न कहिए लुपकी दाई। मैं अपमानित महसूस करता हूँ।’’ बडे़ पापा उससे क्या तर्क करते, वह तो गंवार थी, अनपढ़। उनकी समझ को ‘ठीक’ करना मुश्किल था, पर उन आरोपियों का क्या, जो आज की कम, भविष्य की चिंता अधिक बन गए थे । ये नागरिक ही नहीं, सम्माननीय नागरिक बनने वाले थे – डॉक्टर, प्रोफेसर, प्रशासक ।
उन्होंने गहरी सांँस ली, ‘‘ठीक है।’’ फिर चारां के चेहरे पर अपनी नजर घुमायी मानों कहना चाहते हों, देखा! ये है तुम्हारी गंदी और लालची औरत! फिर प्रकट होकर कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम यह एय्यासी -आवारापन तुम सब में कहांँ से आया, आबाद हो या बर्बाद, यह सब तुम्हारे ऊपर है। मगर इंसाफ अभी नहीं हुआ। तुम सब अपने बारे में तय करोगे, किस तरह जीना है और कैसे।’’ फिर वे बड़ी अम्मा की तरफ मुखातिब हुए ‘‘ये लीजिए सौ के एक बंडल! जाकर मेहमानों के बीच कहिए कि पैसा मिल गया। गलती से जेवरों वाले लॉकर में रख दिया था। जो निरपराध हैं, उन्हें बा-इज्जत बरी तो करना ही होगा।’’ वे कमरे से जाने लगे कि बड़ी अम्मा ने अपना मुंह खोला, ‘‘नहीं। ये चारों यह काम करेंगे। खुशी से और ताली बजा-बजाकर ये चिल्लाएंगे कि रूपये मिल गये। जैसा कि बच्चों का स्वभाव होता है। ये लो नीना ….।’’ उन्होंने नीना के हाथ में रूपये रख दिए। सब जाओं और खुशियों का इजहार करो ।
नीना रूपए नहीं थाम सकी और बड़ी मम्मी के गले लिपट गयी, ‘‘सॉरी बड़ी मम्मी! हमसे यह नहीं हो पाएगा …, सॉरी …, इतनी बड़ी सजा मत दो ….।’’ वह सुबकने लगी।
शायद रूपये ने अपना वास्तविक मूल्य बताना शुरू कर दिया था!