महेश्वर नारायण सिन्हा की कहानी-परिक्रमा

 परिक्रमा         अप्रैल का महीना मगर हाल बेहाल था. गर्मी का हाल अभी से ऐसा है तो न जाने आगे क्या हो! उसपर बिजली संकट! देश में कोयले की कमी पड़ गयी है, बिजली इकाइयों के पास बामुश्किल हफ्ते भर के लिए ही स्टॉक रखे हैं. बिजली कटौती अभी से चालू. सीमा आंटी तो जब देखो बाप-बाप किये रहती है. सब कुछ बर्दास्त हो जायेगा मगर गर्मी नहीं. दिनभर पंखा झलते रहती है. मगर जिन्हे पंखा, कूलर और ऐ. सी. की आदत हो, वह तो ज़िंदा पकेगा. बल्कि तल जायेगा, जैसे मछली फ्राई करते हैं. हम बच्चे उन्हें खूब तंग करते. हँसते. ठहाका लगाते, वे जितना बेचैन होतीं और बिजलीवालों को गारियाती, हमारा मनोरंजन उतना ही होता. सच तो ये था कि हम सब भी कहीं न कहीं से परेशान ही थे. छत पे जा नहीं सकते थे, तेज़ धूप .  भीतर उमस और ताप! बस, सामने बरामदे और उससे लगे छोटे से लॉन में हम कुछ तसल्ली पाते. सीमा ऑन्टी ने कुछ पेड़ पौधे लगा रखे थे, कुछ गमले में फूल -पत्तियां खिलें थे . वे नियमित उनकी देख-रेख करती. इनमे से एक जो फर्श को छोड़कर पौधा लगाया गया था, कुछ बड़ा व घना सा था. पता नहीं इस पेड़ का नाम क्या था, मगर हरी पत्तियां झुण्ड के झुण्ड लगीं थी. सफ़ेद फूल भी. रोज़ खिलते और रोज़ ही मुरझा कर झड़ जाते. फर्श के किनारे – किनारे पान के पत्ते, तुलसी का एक गमला, कुछ फूलवाले पौधे लगे थे. कह सकते हैं कि चारो तरफ सीमेंट और कंक्रीट की दुनियां के बीच ये छोटे से स्पेस, हरे-भरे, जीवन और सुकून देनेवाले! सीमा ऑन्टी यहीं फर्श पे एक मिटटी के पात्र में पक्षियों के लिए पानी रखा करती थी. और हाँ, उनके भोजन का भी इंतजाम था – चावल के दाने! झुण्ड के झुण्ड गौरैये आते, दाना चुगते, कोई पानी पीता और फिर फुर्र! वो हरा- भरा बृक्ष उनका ठौर हुवा करता. जब कभी चावल के दाने उन्हें नहीं मिलते, वे चें-चें   कर शोर करते. अपनी भाषा में ज़रूर ये कहते- चाची जान! आज क्यों भूल गयी! हम भी तो तुम्हारे बच्चे हैं. हाँ, सीमा ऑन्टी के लिए उनके पौधे, वे पक्षियों का झुण्ड, सभी उनकी संतान जैसे थे. बिजली कटौती की वे चार घंटे! वह भी तब, जब कूलर पंखे की  शख्त ज़रूरत होती- दोपहरिया से लेकर शाम पांच बजे तक! तब घर में होने का मतलब था बिना तेल- चूल्हे क़े पापड़ जैसा फ्राई होना! हम सभी बच्चे सीमा ऑन्टी क़े साथ यहीं बाहर क़े फर्श पर, छोटे-बड़े पौधों क़े बीच अपना वक़्त गुजारते. हम चटाई फैला देतें, ऊपर एक चादर, तकिया, कुशन, गद्दे, जिसे जो अच्छा लगता, अपने साथ हो लेता. मन्नू तो मुग़ल बादशाहों की तरह मसनद पे टिक जाता, पैर शाही अंदाज़ में फैलाये हुए और एक हाथ नाक क़े अंदर! न जाने उसके नाक क़े छिद्रों में कौन सा खज़ाना दबा था, वहां निराइ , गुड़ाई, खुदाई की क्रिया जारी रहती.  श्रुति हम सब में सबसे छोटी थी, बस वो तो एक जगह बैठने वाली थी नहीं, हम सब की किसी उपग्रह की तरह परिक्रमा करती. उसके मूड का कोई ठिकाना न था, कभी नाचती, कभी उछलती, कभी कूदती. बस, वह बैठना और स्थिर रहना नहीं जानती थी! चूँकि वह हम सब में सबसे छोटी थी, सब उसी को आर्डर देते. श्रुति बहन एक गिलास ठंडा पानी, बहन मेरे को निम्बू पानी, थोड़ा शक्कर घुला कर! मन्नू तो शाही आदेश फरमाता- “और मेरे कूं, बोले तो, वही, पार्ले जी बिस्किट्स क़े साथ, पीली शरबत, शरबत-ए –आज़म! समझा क्या..!” श्रुति सबका आर्डर लेती, उछलते हुए, अरे हाँ बाबा! सुन ली. अभी ले आई. मगर उसका ‘अभी’ कभी नहीं आता. हाँ, वह आर्डर पे आर्डर लिए जाती. रिमाइंडर! आर्डर पर अमल करना उसे नहीं आता था. अंत में सीमा ऑन्टी उठती और सबके लिए कुछ न कुछ बड़ा ही शानदार चीज ले आती. ठंडा पानी, शरबत, देशी मिठाइयां, बिस्किटें, मीठा-नमकीन, और भी जायकेदार चीजें. हम सब वाउ करते. और अपनी पसंद की चीजों को छोड़ दूसरे-तीसरे चीजों पर टूट पड़ते. गर्मी की छुट्टी लग गयी थी. हम सभी रिश्तेदार और कुछ पड़ोस के बच्चे जिनमे एक का नाम भूत था, वह भी हमारी मंडली में शरीक रहता. हमने पता लगाया, उसे भूत क्यों पुकारते थे, तो पता नहीं, किसने ये नाम उसे दिया, मगर सटीक नाम था. वह हम सब के बीच रहकर भी नहीं रहता. चुपचाप! चुपचाप बैठा रहता. चुपचाप खाता- पीता.  चुपचाप सुनता. वो सब कुछ करता जो हमारी मंडली करती. वह सिर्फ हमें अनुसरन करता. भूत के अलावे उसकी बहन जो उससे छोटी थी, टुइयां थी. टुइंयाँ अपने भाई भूत से एकदम जुदा थी. वह हर बात में सवाल पूछती. हर चीज में अपनी राय देती. अपनी टांग घुसेड़ती. ये नहीं वो था. ऐसा नहीं वैसा था. ये गलत है, सच कुछ और है. यानी, हर बात को अपनी ओर घूमाने  का प्रयास करती. नतीजा, जहाँ उसके भाई को हम भूत पुकारते, उसे हमने पिशाचीन नाम से नवाजा. जो भी हो, गर्मियों की छुट्टी में हम खूब मज़ा करते. खाने-पीने के अलावे उसी छोटे से फर्श की चटाई पे अनेकों खेल खेलते. सीमा ऑन्टी भी हमारे साथ होती. गुल बिजली ने तो अब बाध्य ही कर दिया था कि यहीं खुली हवा में कुछ ठौर मिले. एक बार हमने कुछ नया करने की सोची. पिशाचीन यानी टुइयां कहाँ पीछे रहनेवाली थी, तपाक से बोली- हाँ, इस बार हम कहानी सुनेंगे.…

मूल्य-महेश्वर नारायण सिन्हा की कहानी

मूल्य बड़ी अम्मा हाय-हाय करने लगी। हाय मेरे दस हजार! किसने लिए! यहीं तो रखा था,…

कहानी-महेश्वर नारायण सिन्हा

लाल अँगूठी हम अक्सर लंच टाईम में अपना टिफिन खाकर स्कूल कैंपस से बाहर आ जाते…

साक्षात्कार-महेश्वर नारायण सिन्हा (पार्ट-4)

दलपत सागर बस्तर संभाग का सबसे बड़ा तालाब है। इसे ’समुंद’ भी कहते हैं। समुंद यानी…

चीर-फाड़-महेश्वर नारायण सिन्हा-सनत जैन की कहानी गनीमत की चीर-फाड़

चीर-फाड़-महेश्वर नारायण सिन्हा-सनत जैन की कहानी गनीमत की चीर-फाड़ सनत, आपने कहानी बहुत दिनों बाद लिखी,…