ग़ज़ल-विक्रम सोनी

1.
समंदर में तूफां ये मौजें ये धारें।
कहां चल दिये बेखुदी के ये मारे।

उसूलों की ख़ातिर जीये हैं मरे हैं,
हल़क से कहां तक कोई ज़ह़र उतारे।

नगर दोस्तों का चलन दुश्मनी का,
कहां पर जीयें हम मुहब्बत के मारे।

हुए तल्ख़ अब आईनों के भी तेवर,
बदलते हैं रह-रहकर चेहरे हमारे।

नहीं होने वाला है घर तेरा ख़ाली,
बुज़ुर्गों की ख़िदमत मुक़द्दर संवारे।

ख़्यालों की दुनिया ये ख़्वाबों की बस्ती,
बर्फ़ की छतों पे किसने सूरज उतारे।

2.
घर से बाहर निकलने वाले थे।
हम तो बारिश में जलने वाले थे।

धूप को क्या समझ लिया तुमने,
चांद तारे निकलने वाले थे।

आंधियों ने हवा के रूख़ बदले,
दूर तक हम तो चलने वाले थें।

शाख़ पे जिसकी घोंसले न बने,
वो शजर कैसे फलने वाले थे।

मेरे जख़्मों के जितने मोती थे,
तेरी आंखों में ढलने वाले थे।

आदमी बनके आदमी ही रहूं,
रंग गिरगिट बदलने वाले थे।

3.
देख उनवां समझ फ़साने को।
सब हैं तय्यार संग उठाने को।

दिल दिमाग़ों का अब गुलाम हुआ,
होश वाले हैं दिल दुखाने को।

ग़म की आंखों के अश़्क सूख गये,
रिश्ते होते हैं क्या निभाने को?

मेरा दुख मेरा है तेरा क्यों हो,
पास कुछ भी नहीं सुनाने को।

मेरे सज़दे तेरी रज़ा मांगे,
क्या करूं मैं तेरे ख़जाने को।

4.
अब नज़र मेरी बस सहर पर है।
देखना धूप किसके घर पर है।

ज़ख़्म भरना कोई गुनाह नहीं,
क्यों ये तोहमत मेरे ही सर पर है।

बरसों पहले जो हमसफ़र था मेरा,
उसकी ख़ुशबू मेरे सफ़र पर है।

अब ना चल पायेगा तेरा जादू,
हर नज़र बस तेरे हुनर पर है।

कैसे हक दूं कि वो मसीहा है,
जिसका हर वार मेरे सर पर है।

विक्रम सोनी
नागपुर
मो.-09975741971