काव्य-मोहिनी ठाकुर

(1)
दिन को बना लिया बिछौना,
रात ओढ़ ली
अब चांद निकलने की,
हमने आस छोड़ दी,
बादलो का कारवां, यहां वहां,
भटकता रहा, रात भर जाने कहां-
उंघते सितारों को
हमने कहा- जगाकर
आओ बात कर ले
संग बैठ लें दो घड़ी
बिखरे हुए तमाम,
लम्हे समेट कर
हमने भी एक दास्तां बुनी
ख्वाबों मे एक ख़्वाब जड़ा
इक और कड़ी ख्वाब की
उसमें जोड़ दी………

(2)
जुनून जुगनुओं का है-
काबिले-तारीफ
जरा गौर से देखें
कतरा – कतरा
नूर जमा करते फिरते हैं –
रातभर
सियाही का समंदर,
भरने के लिए……
(3)
उदासियो के फूल
पानी के रेले से –
बह जाते हैं सारे दुख,
आँसुओं के साथ-साथ
दर्द, किंतु जमा रहता है
मन के किनारो पर
गीली मिट्टी की तरह –
तब जाकर कहीं,
बाद में, खिलते है उनमें –
उदासियों के,
महकते हुए, खूबसूरत फूल……….
(4)
यादों के अक्स
तरंगे उठने लगी हैं,
मन के शांत, ठहरे हुए पानी में-
हलचल सी भी हुई पानी में –
तुमने जो फेंका है –
संवाद का एक अदद कंकर उसमें,
लफ़्ज़ों के दायरे पर दायरे –
बनते चले जा रहे हैं,
तुम उनमें डूबकर तो देखो
कितने जवाब उभर आयेंगे,
उनमें – अपने आप
और कितने प्रतिबिंब, यादों के –
समा जायेंगे
थरथराते पानी में चुपचाप…………