बस्तर क्षेत्र की उपजाऊ मिट्टी की खासीयत यह भी है कि इसने साहित्य के भी चुनिन्दे फल उगाये हैं। वर्तमान साहित्य के लिखित इतिहास या यूं कहें कि प्रकाशन कला के विकसित होने के साथ ही साथ बस्तर क्षेत्र ने अपनी उपस्थिति दर्शा दी। बीसवीं सदी की शुरूआत ने ही इतिहास के रूप साहित्य गढ़ना शुरू कर दिया। उन्हीं साहित्यकारों की कड़ी में श्रीमती मोहिनी ठाकुर का नाम भी शामिल है। अपने नाम के अनुरूप ही उनकी क्षणिकायें और कवितायें हैं जो बरबस ही अपनी विशिष्ट शैली के चलते ध्यान खींच लेती हैं। उनकी कहानियों में समाया जीवन अपनी उपस्थिति छोड़ ही जाता है। आइये उनसे बात करके जाने कि वे साहित्य के संबंध क्या सोच रखती हैं।
सनत जैन-आज के परिवेश मे साहित्य का क्या स्थान है ?
श्रीमती मोहिनी ठाकुर-साहित्य हमेशा ही समाज का दर्पण रहा है और उसका ध्येय भी यही रहता है समाज को उसके वास्तविक रूप से रू-ब-रू कराना। राजा रजवाड़ों के समय श्रृंगार रस और वीर रस पर अधिक रचनायें रची गई। आजादी के आंदोलन में देश प्रेम से ओत प्रोत कवितायें लिखी गई। और वर्तमान में जिन समस्याओं से समाज, देश जूझ रहा है उन्हीं ज्वलंत विषयों पर लिखा भी जा रहा है। सभी उन्हीं विषयों पर पढ़ना या सुनना पसंद करते हैं। जिंदगी की जद्दोजहद से लोग त्रस्त हैं, परेशान हैं और उन पर कहानियां लिखी जाती है; कवितायें लिखी जाती हैं तो आम आदमी बड़ी राहत महसूस करता है कि उसकी तकलीफों को भी बयाँ करने वाला कोई है तो सही!
सनत जैन-आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों ?
श्रीमती मोहिनी ठाकुर-वैसे तो लेखन से जुड़ी सभी विधायें प्रिय हैं कहानी, व्यंग्य, कवितायें तो हैं ही इनके अलावा मुझे क्षणिकायें लिखना बहुत पसंद है। कॉलेज के दिनो से ‘कादंबिनी’ मेरी प्रिय पत्रिका रही है। उसमें डॉ. सरोजनी प्रीतम की क्षणिकायें बड़ी प्रभावित करती थीं उन्ही से प्रेरित होकर मैंने क्षणिकायें लिखनी शुरू की। कम शब्दों में बड़ी बात कहने को मैंने चुनौती के रूप में लिया फिर उसमें मजा भी आने लगा। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में जब हर एक के पास समय की कमी रहती है, पढ़ने में सुनने में तो क्षणिकायें बड़ी सटीक विधा लगती है। लघुकथायें अधिक प्रचलित हो रही हैं। जिस बिंदु पर लंबी कहानी लिखी जाती है उसी पर 10 पंक्तियों की लघुकथा भी लिखी जा सकती हैं। मेरे ख्याल से संक्षिप्त में जो बात कही जाती है वह अधिक पैनी होती है, विस्तार में वह अपनी धार खो देती है। अब हाइकू के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है यह भी एक स्वागत योग्य विधा है और यह काफी लोकप्रिय हो रही है।
सनत जैन– सम्मान और पुरस्कार प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं या नहीं ?
श्रीमती मोहिनी ठाकुर-जहां तक मेरा मानना है कि कोई भी प्रतिभा चाहे साहित्यिक हो या कोई अन्य, किसी सम्मान या पुरस्कार की मोहताज़ नही होती। कोई भी कलाकार या साहित्यकार अपने सृजन में ही डूबा रहता है उसे उसका प्रतिफल मिले या न मिले। उसका लक्ष्य भी सम्मान या पुरस्कार पाना नहीं होता, ये अलग बात है कि सम्मान और पुरस्कार से उसका आत्मविश्वास तो बढ़ता ही है उसका सृजन और परिस्कृत होता जाता है कुंदन की तरह उसकी प्रतिभा निखर ही जाती है।
सनत जैन– बस्तर में साहित्य सृजन की क्या स्थिति है ?
श्रीमती मोहिनी ठाकुर-बस्तर में साहित्यिक प्रतिभाओं की कमी नही हैं। शानी ने बस्तर को पहचान दी है। लाला जगदलपुरी तो बस्तर का गर्व हैं उनका नाम बस्तर के साथ जुड़ा है तो बस्तर गौरवान्वित है। वर्तमान मे रऊ़फ परवेज़ ग़ज़ल के जैसे पर्याय है बड़ी रवानगी है उनके गीत ग़ज़लों में। वरिष्ठ कवियों में हुकुम चंद अंचिन्त्य जी का जाना पहचाना नाम है, छत्तीसगढ़ी की मिठास उनकी कविताओं की विशेषता है। कृष्ण कांत झा शिक्षाविद है; कवि, उपन्यासकार कहानीकार हैं, बस्तर पर आधारित उनकी कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। बस्तर की पहचान बनाने में नये कवियों का उल्लेख भी आवश्यक है शरदचंद्र गौड़ की रचना ‘प्यासी इंद्रावती’ की दिल्ली पुस्तक मेले में चर्चा हुई जिससे दिग्गज साहित्यकारों का ध्यान बस्तर की ओर आकर्षित हुआ। इसी श्रृंखला मे एक और पहल पिछले दिनो सनत जैन द्वारा त्रैमासिक ‘बस्तर पाति’ का लोकार्पण करके की गई जो सराहनीय है इस तरह के प्रयासों की बड़ी आवश्यकता है। एक टापू की तरह बिल्कुल अलग अलग पड़े बस्तर को अन्य प्रदेशों से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण योगदान पत्रिकाओं का ही है। विडंबना तो यह है कि विदेशी पर्यटक बस्तर भ्रमण करके यहाँ की संस्कृति, खूबसूरती, कलाकृतियाँ सहेज कर साथ लिये चले जाते हैं लेकिन हमारे ही देश में कई प्रांतो में बस्तर के प्रति बेरूखी है, यह उपेक्षा मन मे बड़ा क्षोभ भर देती है, पीड़ा देती है, जब तक हर साहित्यकार अपने इस नैतिक दायित्व के प्रति कटिबद्ध होकर, लेखन में निज पीड़ा से हटकर बस्तर के वास्तविक स्वरूप को चित्रित नही करना उसका लेखन सार्थक नहीं हो सकता।
सनत जैन– हिन्दी साहित्य से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ?
श्रीमती मोहिनी ठाकुर-हिन्दी से मेरा जुड़ाव तो शुरू से ही रहा है जब ‘साहित्य’ शब्द का मतलब भी नहीं समझती थी हिन्दी प्रिय विषय था और इसमें सर्वाधिक अंक मिलते थे। संयोग से स्नातक के बाद महाविद्यालय में हिन्दी स्नातकोत्तर कक्षा के पहले वर्ष में हमारा ही बैच था। सागर यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग के एच.ओ.डी. डॉ. भवानी प्रसाद मिश्र उद्घाटन के लिए आये थे। हिन्दी के चारों खंड में से मुझे ‘पद्य’ खंड बड़ा अच्छा लगता था। छायावादी कवियों की रचनायें मुझे अभिभूत कर जाती थीं। सुमित्रानंदन पंत, निराला, महादेवी वर्मा की कविताओं में मानवीकरण मुझे भाता था कि उसमें वर्णित भाव सजीव हो उठते थे। ‘संध्या सुंदरी’ और निराला जी की ‘गुलाब’ पर मार्क्सवादी कविता सब क्या कमाल की थीं! मैथिलीशरण गुप्त की पंचवटी तो अब तक याद करते ही सारे दृश्य मानस पटल पर स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। शायद उन सब को पढ़ते हुए उन्हीं दिनो कविता का कोई बीज मन में अंकुरित होने लगा था जो बाद में बस्तर आने के बाद यहां पर्याप्त खाद पानी मिलने के कारण धीरे-धीरे पल्लवित होता गया। बस्तर में यहां प्रकृति के निकट आने पर उसके सौन्दर्य ने मन के कवि को मुखरित करना शुरू कर दिया। यहां का ठण्डा-ठण्डा, भीगा-भीगा मौसम गाहे-बगाहे मन को भी भिगोकर चला जाता।
‘सुबह हुई खुशनुमा, मीठी सी रात हुई।
घर बैठे भीगा मन, जब भी बरसात हुई।।’
इसी तरह कविता का झरना अंतर में निरंतर अपनी गति से बहता चला गया।
अपने संदेश में उन्होंने क्षेत्र के नये साहित्यकारों को शुभकामनायें देते हुए कहा कि हमारी रचनाओं में कुछ नयापन होना चाहिए, कुछ तो विशिष्ट होना चाहिए जो स्वयं के साथ-साथ अन्य को भी आकर्षित करे।
श्रीमती मोहिनी जी ने अपने साथ हुई बातचीत में अपनी नवीनतम कवितायें भी सुनायीं।