नारी लेखन : कहने की जरूरत ?
हिन्दी साहित्य में महिला लेखन का सवाल ‘दलित साहित्य’ या ‘दलित विमर्श’ की तरह आज चर्चा में है। एक पक्ष यह मानता है कि साहित्य में महिला-पुरूष जैसा विभाजन संभव नहीं है। साहित्य आखिर साहित्य होता है।उसका संबंध उसके संवेदना, अनुभव से है। दूसर पक्ष यह मानता है कि ‘स्त्री’ ही स्त्री के अनुभवों को ठीक-ठाक व्यक्त कर सकती है। ऐसा मानने वाले महिला लेखकों की एक लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करते हैं। वे उनके लेखन के मूल्यांकन के लिए एक अलग तरह की संवेदना की मांग करते हैं।
जब बात निकली है तो स्वाभाविक है कि लेखकों का ध्यान उस ओर जाये। इस बहस-मुबाहिसे में लेखिकाएं आगे हैं। ज्यादातर अपनी रचनाओं के मूल्यांकन के इस आधार को लेकर कि ‘उन्हें महिला होने के कारण ‘कव्हरेज’ मिल रहा है या महिला होने के कारण पाठकों के बीच लोकप्रियता प्राप्त हो रही है। या निरस्त किया जा रहा है तो महिला होने के कारण। महिला लेखकों में यह धारणा बनी हुई है। लेकिन स्थापित महिला लेखक इसे एक सिरे से खारिज करती है। उनका यह मानना है कि ‘‘साहित्य में महिला-पुरूष जैसा विभाजन उचित नहीं है।‘‘ जब लेखक कलम उठाकर अपने लिखने का धर्म निभाता है तब वह केवल लेखक ही होता है। स्त्री-पुरूष के शरीर से परे, धर्म, समाज और परिवार से ऊपर उठ जाता है।’’ (1) ‘‘लेखन लेखन होता है, नर या मादा के खानों में बॉटकर देखने वाली दृष्टि पूर्वाग्रह ग्रस्त है। लेखन जिस तरह पुरूष लेखक की अनुभूति है और चेतना की अभिव्यक्ति है, ‘स्त्री’ लेखक द्वारा लिखा गया लेखन (भी) उसके विशिष्ट अनुभवों और आत्मा चेतना की अभिव्यक्ति है।’’ (2)
दरअसल ऐेसी विभाजनक रेखा खींचने का कार्य ‘शोध कार्य’ के तहत किया जा रहा है। जिसके संदर्भ में मृदुला गर्ग का कहना हैं ‘‘हमें शोध से एतराज नहीं होना चाहिए, जो लेखन विशेष में नारी वादी दर्शन के विभिन्न बिन्दुओं की तहकीकात करे।’’ (3)
लेखन के क्षेत्र में नारीवादी दृष्टि महिला लेखकों की ही है। हिन्दी साहित्य में पचास के पहले तक जो कुछ लिखा गया, उसमें नारी का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं होता। नारी का शोषण, उत्पीड़न, नारी की आशा-आकांक्षा अपनी सम्पूर्णता में व्यक्त नहीं होती। इसलिए उसे निकट से देखने-समझने वाली लेखिकाएं ही इसे व्यक्त कर सकती हैं। वे यह मानती है कि ‘‘स्त्री अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होती, यहीं से उसकी परतंत्रता का आरंभ होता है। इसे पोषित करने वाले कई घटक हमारे समाज में है। परिवार, शैक्षिक संस्थाएं और मीडिया तथा अन्य माध्यम आदि स्त्री संबंधी अपनी पारम्परिक मान्यता को ही बढ़ावा देते रहते हैं, तमाम प्रकार की प्रगतिशील दृष्टियों के बावजूद ये स्त्री को परोक्षतः कटघरे में ले आना चाहते हैं जिसे तोड़ना आसान नहीं है। लेखन-जहॉ तक जीवन्त और सक्रिय रहता है वहाँ उसको सामयीकृत या सरलीकृत किया जाता है। ‘‘ (4) इसलिए नारी के शोषण, उसकी विवशता, पुरूष प्रधान समाज में उसकी स्थिति को व्यक्त करने के लिए अलग तरह के लेखन की मांग की जाने लगी है। पर इससे भी उसकी कामकाजी, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक प्राणी के रूप में उसकी छवि कम अंकित हुई। स्त्री के सेक्सुअल शोषण का चित्रण अधिक हुआ, उसके आत्म बोध, चिंतन व सामाजिक उपस्थिति का कम।
सत्तर के दशक से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हुआ। महिला लेखकों ने अपने उस छवि को तोड़कर समाज के मूल प्रश्नों से सामना करना शुरू किया। उनके लेखन में विविधता आना शुरू हुआ। जिसे महिला लेखन कह कर एक खांचे में कैद नहीं किया जा सकता। नासिरा शर्मा का ‘‘सत घरवा’’ जो साम्प्रादियकता के घेरे को तोड़कर विशुद्ध मानवीय संबंधों पर केन्द्रित है। मॉ के प्यार से हिलके अब्दुल को अपराधी समझ कर गिरफ्तार कर लिया जाता है बहु जी के कहने पर। इन्हें कौन-समझाये कि- इन बंगलो में भी अपराधी रहते हैं।’’ (5) अब्दुल को कैफ़ियत देने पर छोड़ तो दिया गया पर मॉ से नहीं मिल पाने का दुख था – वह अपने घर जाना चाहता था पर ‘‘अब कोई बस न थी, न ट्रेन का समय था, और कल मॉ का तीजा था।’’ (6) अब्दुल पुनः उसी घर में लौट जाता है।
चित्रा मुद्गल की कहानी है ‘लपटें’। इस कहानी में उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता को उभार कर किस तरह साम्प्रदायिकता की भावना पैदा की जाती है उसका उदाहरण प्रस्तुत किया है। ‘आपला मानुष’, ‘आमची मुंबई’, आमची लोक सेना’ के नाम से जन भावना को, क्षेत्रीयता को उभार कर बरसों से रचे-बसे लोगों को बाहर कर देने या अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है। जब-तब भय दोहन किया जाता है। असुरक्षित प्रवासी कहीं प्रतिरक्षा में साम्प्रदायिक हो जाते हैं भयवश उन्हीं के शरण में जाने के लिए विवश हो जाते हैं – ‘‘इन्हीं के बीच रह कर जीना-मरना हुआ तो ब्याज दण्ड हंसी-खुशी स्वीकार कर लेने में कैसी हिल-हुज्जत।’’ (7)
चित्रा मुद्गल की कहानी ‘बलि’ में सामंती शक्तियों की समाज में उपस्थिति, अंधविश्वास तथा उनके शोषण के क्रूरतम स्वरूप का चित्रण किया गया है। अपनी मंगली बेटी के विवाह के लिए गुइंयादीन जैसे गरीब के बेटे की बलि दे दी जाती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को अपनी पुत्री सोबरन सिंह जैसे नामी जमींदार के घर ब्याहना था – पंडित विन्ध्येश्वरी शुक्ल लड़की को मंगली बताते हैं। इस संबंध को अशुभ, अमंगल बताते हैं। पर बहुत आग्रह करने पर उसकी काट भी बताते हैं कि पहले किसी किशोर से उसकी शादी कर दी जाय तो यह ग्रहदशा टल सकती है। ठाकुर बलभद्र सिंह को युक्ति सूझ जाती है वह गुइंयादीन को बुलाकर उनसे ‘करूआ’ को मांगते हैं। बदले में अपने साग-सब्जी की फुलवारी उसके नाम कर देने की बात कहते हैं – ‘‘विनोबा महराज स्वर्ग सिधार गए गुइंयादीन मगर हम उनके भूदान यज्ञ के कट्टर अनुयायी ठहरे, देर से ही सही, हमने निश्चय किया है कि बलुआ काछी पर बटाई में उठी साग-सब्जी की फुलवारी का पट्टा………… हम तुम्हारे नाम कर देंगे।’’ (8) और दूसरे दिन पता चला ‘‘गंगा पार कराते समय भैंसी के पीठ में चढ़ि के बैठा ‘करूआ’ संभले-न-संभला रपट के धार में बह गया।’’ (9) ‘करूआ’ बह नहीं गया, ठाकुर साहब की मंगली बिटिया के मंगल के लिए बहा दिया गया।
जया जादवानी की कहानी ‘शाम की धूप में’ देश के विभाजन से प्रभावित विस्थापित एक सिन्धी परिवार की कहानी है। अपने वतन को त्यागकर, सब छोड़कर जान बचाकर आने वाले इन लोगों में गज़ब की जिजीविषा है। वे कभी-जीवन संघर्ष में हार नहीं मानते। जहां भी बसे वहीं अपनी मेहतन, लगन से उठ खड़े हुए। पर पराजित हुए तो अपनों से। लाखों की प्रापर्टी बनाने वाला सेठ दो जून की रोटी के लिए तरसता है। अपनी पत्नी से वह कहता है- ‘‘क्या तुम सोच सकती हो, जिस आदमी ने लाखों की प्रापर्टी बनाई, वह दो जून के लिए महंगा है। ये मेरे बेटे हैं। …………….जिन्हें मैंने हर पीर-फकीर से झोली फैला कर मांगा, इनके साथ भी यही होगा।’’ (10) कारखाने का मालिक बुढ़ापे में सायकल सुधारने वाले हम उम्र राजू से कहता है ‘राजू मुझे कोई काम मिल सकता है ?’’ (11) उसे लगता है ‘‘सुबह जो भुलावा देती है, शाम उसे आहिस्ता से वापस ले लेती है।’’ (12)
नासिरा शर्मा की कहानी ‘वही पुराना झूठ’ फ़र्ज अदा करने के नाम पर लड़कियों को जिस-तिस के पल्ले बांध देने के खिलाफ है। ग़फूर की मॉ कहती है – ‘‘हमने गांठ बांध ली कि आँख मूंद करके लड़कियों को ब्याहने वालों की हमें तरफदारी नहीं करनी है। अगर शादी बेहतर जगह नहीं होती है तो न हो, कम से एक बार मिली जिंदगी को वह जी तो सकती है।’’ (13) उसके पुत्र ग़फूर ने यह क़सम खाई थी कि वह हर मुसीबतज़दा औरत की मदद करेगा।’’
अपने कर्तव्य से मुक्त होने के लिए रज्जो बी जाहिदा का हाथ जिस किसी से पीले कर देना चाहती है। वह मालदार बूढ़े अंधे से उसे बांध देना चाहती है पर जाहिदा हाथ छुड़ाकर कलकत्ते की भीड़ में खो जाती है। रज्जो बी अपने मुहल्ले के लोगों को बताने के लिए झूठ का सहारा लेती है। वह सपने में देखती है कि जाहिदा सरौता चलाती उन लड़कियों के बीच पहुंच गई है जिन्हें गफूर ने संरक्षण दिया है और स्वयं को तसल्ली देती है।’’
महिला कथाकारों की कहानियों में जहॉ एक ओर मध्यम वर्गीय समाज में शिक्षित, नौकरी पेशा स्त्रियों के अधिकारों के प्रति सज़गता आई है तो अपने आस-पास गुजर करने वाली महरियों, चौका बासन, या मजदूरी करने वाली महिलाओं तथा बच्चों के प्रति भी असीम करूणा दिखाई देती है। शुभदा मिश्रा की कहानी ‘या जसुमति की दुख’, मुंजल भगत की ‘काली लड़की का करतब’ इसी तरह की कहानी है। जहां भूख, गरीबी सामान्य जन की संवेदना को खत्म कर देती है। जीने के लिए अपने बेटे-बेटियों को या तो गिरवी रख देना पड़ता है, या उनका सहारा लेना पड़ता है।
‘‘काली लड़की का करतब’’ में लेखिका ने लिखा है – ‘‘संसार और समाज में पहला कदम धरने से पहले औरत को उसके औरत होने का एहसास करा दिया जाता है।’’ (14) भूख से तड़पती लड़की माता-पिता का पेट भरने करतब दिखाते पट्ट हो जाती है। महारानी एक बार किसना के ‘हवस’ का शिकार हो गई है। अबोध महारानी अपने पिता से भी डरती है। करतब करते लड़की को भूख से मरते देख वह सीख लेती है। अपने बापू से कहती है – ‘‘बापू मैं साया सुथनी पहनूंगी।’’ मैं सामने वाली बीबी के घर झाड़ू पोंछा करूंगी। (15) भुंईयां को लगा वह निपट अकेला नहीं है।’’
लवलीन की कहानी ‘बहुस्याम’ तथा लता शर्मा की ‘मर्दाना कमजोरी’ पहली नज़र में स्त्रीवाद कहानी लगती है, पर ये दोनों कहानियाँ गंभीर यथार्थवादी तथा समाजशास्त्रीय अलोचकीय दृष्टि की मांग करती है। जब वह कहती है – तुषार जी! यह स्त्रियों की सहज आकाक्षाएं हैं जो सिर्फ हमारे औरत होने के कारण, सामाजिक स्थितियों की जड़ता के कारण मूलभूत मानवीय सदिच्छा न होकर अश्लील लालसायें बता दी जाती हैं। औरतों के लिए सेक्स फार दे सेक ऑफ सेक्स कभी नहीं होता।’’ (16) नवलीन पुरूष प्रधान, समाज के उत्पीड़न से बचने के लिए ‘सिस्टरहुड’ एकजुटता का आव्हान करती हैं। वे नई पीढ़ी में एक ओर परपीड़क समाज को बहिष्कार की बात करती हैं तो दूसरी ओर नई पीढ़ी में आत्म विश्वास भर देना चाहती हैं। उनका मानना है कि ‘‘पीड़ित को ही उठ कर खड़ा होना होगा।’’ वह पुरूष विरोधी नहीं है। वे कहती हैं कि ‘‘हमें समान समझ वाले स्त्री-पुरूषों से मित्रता कर अपने-अपने लिए निजी समाज बनाना चाहिए जो इस उत्पीड़क बाहरी समाज का विकल्प बन सके।’’ (17) लता शर्मा की कहानी ‘मर्दाना कमजोरी’ सचमुच ‘मार्दाना कमजोरी’ को व्यक्त करती है। छै चित्रकारों के चित्रों के माध्यम से अपने शोधार्थी पुरूष मित्रों व गुरूता के गंभीर गर्त में डूबे निर्देशक की नियत को व्यक्त करती है। यह कहानी एक बड़े सच को उकेरती है। जहॉ एक स्त्री को उनके सहकर्मी उठते-बैठते उनके स्त्री होने का अहसास कराते हैं। लेकिन एक स्त्री जब मर्दानी कमजोरी जान जाती है तो वह उन सभी को ध्वस्त करती है। मुस्कुराती मोनालिसा का राज यही है। ‘‘विकृति या दुर्बलता, जो कुछ भी है, कानों के बीच में है। टांगों के बीच नहीं। उसी तथ्य को रेखांकित करती है मोनालिसा।’’ (18)
इस तरह हिन्दी में महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित अनेक कहानियां हैं, जिसे महज़ महिला लेखन कहकर टाला नहीं जा सकता। महिला लेखिकाओं में विचाराधात्मक प्रतिबद्धता की कमी ज़रूर दिखाई देती है। नमिता सिंह, कात्यानी, नासिरा शर्मा जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो यह स्थिति वर्तमान है। फिर भी इन कहानियों में समय की सच्चाईयां तो हैं। जो अपने अनुभव की आँच से हर पाठक को तपायेगी व पाठक की दृष्टि को यथार्थ की खुरदरी जमीन तक ले जाने में समर्थ होगी। अब इसे महिला-पुरूष के अलग-अलग खांचे में डालकर देखने की आवश्यकता नहीं है। जो रचना अपने समय के सच को अपनी सम्पूर्णता में व्यक्त करती है उसे स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ-(1) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-26 (2) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-21 (3) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-25 (4) शिखा बेहरा-समकालीन हिन्दी कविता में नारी स्वातंत्रय पृष्ठ-26 (5) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-134 (6) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-134 (7) उदभावना-कहानी विशेषांक अंक 39, 40 -1996 पृष्ठ-21 (8) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-91(9) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-91 (10) अर्धशती विशेषांक हंस-1997 पृष्ठ-34 (11) अर्धशती विशेषांक हंस-1997 पृष्ठ-35 (12) अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य-हंस-2000 पृष्ठ-60 (13) इंडिया टुडे-साहित्य वार्षिकी-1995-96 पृष्ठ-72(14) अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य-खण्ड-1 (15) हंस-2000 पृष्ठ-94, 95 (16) हंस फरवरी-2002 पृष्ठ-78 (17) हंस फरवरी-2002 पृष्ठ-78
थानसिंह वर्मा
शांति नगर, गली नं.-2
राजनांदगांव, छ.ग.
मो.-09406272857