ग़ज़ल-नसीम आलम नारवी

मैं तो बिलकुल खुली किताब रहा,
उन को पढ़ने से इज्तिनाब रहा।।
ज़िन्दगी भर उन्हें हिजाब रहा,
उम्र भर शौक़ बेऩकाब रहा।।
जितनी पाबन्दियां बढ़ाई गईं,
शौक़ उतना ही बेहिसाब रहा।।
रास्तों के हुजूम शाहिद है।
हर क़दम ताज़ा इंकिलाब रहा।।
वलवले कम नहीं हुए यारों,
गो कि जाता हुआ शबाब रहा।।
दुश्मनों की तो एक भी न चली,
वार अपनों का कामयाब रहा।।
अब अंधेरों की फ़िक्र कैसी ‘नसीम’
देखो-देखो वो आफ़ताब रहा।।

उठिये और उठ के वक़्त के पंजे मरोड़िये
इंसानियत को यूं ही सिसकता न छोड़िये।।
बहते रहे जो वक़्त की रौ पर तो क्या किया
हां हो सके तो वक़्त के धारे को मोड़िये।।
कासा-ब-दस्त बैठे हैं शबनम की आस में
कहते हैं लोग हम से कि शोले निचोड़िये।।
मौका परस्तियों को सियासत का दे के नाम,
अख़्लाक के उसूल ख़ुदारा न तोड़िये।।
आइन्दा नस्लें जिन के सबक़ ले सकें ‘नसीम’
कु़र्बानियों की ऐसी रिवायत को छोड़िये।।

नसीम आलम नारवी
थाना चौक,
दल्ली राजहरा, छ.ग.
मो.-09406302583