कहानी-महेश्वर नारायण सिन्हा

लाल अँगूठी
हम अक्सर लंच टाईम में अपना टिफिन खाकर स्कूल कैंपस से बाहर आ जाते थे। असल में, हमारा सरकारी स्कूल था और स्कूल कैंपस जैसा कि आजकल के पब्लिक शालाओं में देखने को मिलता है, वहाँं नदारत था। हमारा कैंपस हमारा क्लास-रूम ही था, वह भी तब-तक जब तक कि गुरूजी कक्षा में मौजूद हों।
उस रोज भी मेन रोड़ की ओर हम रूख किए थे। यह निश्चित था कि हमारे मनोरंजन के लिए कुछ ना कुछ वहाँं होगा। मुँंह का जायका बदलने के लिए गोलगप्पे, देहाती मिठाइयाँ, मूंगफली, आईसक्रीम वाले हमेशा की तरह मौजूद रहते। स्कूल अहाते से लगा एसबीआई का बैंक था और सामने बस स्टैण्ड। बल्कि बस स्टॉपेज कहना ज्यादा सही रहेगा, बसें चंँद मिनटें वहांँ रूकती और चल देतीं। पास ही दो-चार घने वृक्ष थे, उसी छोटे से स्पेस में हमारे लिए तमाशे रचे जाते। अक्सर तो पहलवानों की तस्वीरें लगाए देसी दवाइयाँ बेचने वाले अपना मजमा लगाते। जब अच्छी भीड़ इकट्ठा हो जाती, तो वैद्य जी अपनी दवाइयाँ के एक-एक फायदे गिनाते। उनके बोलने में जादू होता। हम गोल घेरे में एक बार जो आ जाते, फिर घंटों सुध न रहती। भले ही वहांँ हमारे काम की चीज नहीं थी। फैक्टरी आते जाते मजदूर अपनी सायकल थामे ठहर जाते। उनका लंच समय भी यही है। अक्सर तो भीड़ इतनी घनी हो जाती कि झांँकने तक को जगह नही मिल पाती।
हमें तब खूब मजा आता जब मदारी वाले मचलते सर्प या जादूगरों के तमाशे देखने को मिल जाते। फिर तो हम लंच के बाद वाले तीन पीरियड भूल जाते और फैक्टरी के मजूर लोग अपनी ड्यूटी!
उस दिन का तमाशा कुछ अलग था। जब भीड़ कम थी तभी हमने अपनी जगह बना ली थी। एकदम आगे। वे दो लोग थे। मोटरबाईक, एनफील्ड बुलेट – मुझे अच्छी तरह याद है। यह आदमी गठा हुआ था और उसके साथ वाला दुबला-पतला सा। वह दुबलावाला काली कमीज, काली पैंट में। कुछ देर तक दोनों पैंतरा करते रहे। अपनी अटैची खोला, बुलेट बाईक को भीड़ के बीच स्टैंड पर लगाया। कुछ ही देर में काली शर्ट-पेंटवाला आदमी बाईक पर लेट गया। कुछ आराम से। गठीला आदमी, जो चाल, हाव-भाव से ही गठीला, अपने आप पर विश्वास करने वाला दिख रहा था, लोगों को सम्बोधित करना प्रारम्भ किया। भीड़ कुछ ज्यादा इकट्ठा हो चुकी थी। वह बुलेट के चारों ओर घूम-घूमकर लोगों को सम्बोधित करते हुए, एक वृत सा बनाने लगा। तब हमें इसका बिल्कुल भी अहसास नहीं था लेकिन अपने आदमी को भीड़ के बीच बैठाकर वह मास्टर की तरह इसे सम्मोहित करने लगा। उसके शब्दों के क्या मायने थे आज कुछ भी याद नहीं। शायद उस वक्त भी मुझे कुछ भी अर्थ नहीं मिल पाया हो, बस हम तो जाने के लिए, तमाशों के लिए भीड़ का हिस्सा भर हुआ करते थे। मुझे लगता है अधिकांश के साथ भी यही बात थी- दोनों, क्या चल रहा है!
उसकी बातों में अर्थ ना सही दम जरूर था। बड़ा ओज बड़ा आवेश था उसमें। उसके तमाम हाव-भाव, मुद्राएं और उस गोल घेरे में हो रही गतिविधियाँं हममें उत्सुकता जगाती। हमें रोमांचित करती। हमारे पांँव ठहर गये। हम उस गठीले आदमी की बातें सुनते, उसकी मुद्राएं निहारते, जो अर्थहीन होते हुए भी हमें जड़ सा बना दिया था। जादू ! सम्मोहन! हम वहीं ठहर से गये थे।
भीड़ कब ठसा-ठस हो चली थी, पता ही नहीं चला। उसकी सारी बातों का एक मतलब निकलता था कि उसके पास कोई ऐसी चीज है जो षक्तिशाली है। वह लोगों के दुःख शोक, रोग, मनोकामना, सफलता, प्रेम, संतान इत्यादि की बातें कर रहा था। उसके पास ऐसा कुछ है जिसे पाकर इंसान मनचाही सफलता पा सकता है। वह अपनी जादुई चीज की ताकत नहीं, करिश्माई ताकत हमें बताना चाह रहा था। वह वहाँं लोगों के उद्धार के लिए, यानी हमारे लिए प्रकट हुआ था।
हम सब कुछ भूल चुके थे। मैं अपनी कदम, गुरूजी के डण्डे और भीड़ के पास की दुनिया। बस स्टॉप में लगातार बसों की सीटियांँ। ढाई बजे लंच टाईम खत्म होने की घोषणा करने वाली भोंपू की आवाज। पास के घने वृक्षों से आती पक्षियों की चहचहाटटें! सब कुछ! तब हमारे अस्तित्व में दो ही बातें थी – एक वह गठीला आदमी और दूसरा बुलेट पर उकडू बैठा काले लिबासवाला उसका शार्गिद जिसे अब पूरी तरह से काली चादर में ढंँक दिया गया था। उसके हाथ में कोई लाल सी जादुई चीज रख दी गयी थी।
सारी भीड़ मंत्रमुग्ध हो उसे सुन रही थी। गजब का आवेश और उत्साह का प्रदर्शन करते हुए गठिला आदमी भीड़ के किसी भले आदमी के पास जाकर ठहर गया। उसकी जेब से नोट निकालकर अपनी मुट्ठी में छिपाया और शार्गिद से पूछा,
‘‘बता मेरे हाथ में क्या ….. ?’’
थोड़ी देर सन्नाटा रहा। लोग सन्नाटे में थे। सचमुच में यह चमत्कार था। आंँखे बंद, चेहरा चादर में छिपा- क्या यह बता पाएगा!
‘‘रूपया है।’’ – काली चादर वाले ने भीतर से कहा जो अब भी उकडू बुलेट पर बैठा था। उसका उसका मास्टर भीड़ के एक कोने से पूछा, ‘‘कितने रूपए का ?’’
फिर सन्नाटा। भीड़ इस कौतुक में मगन सारी दुनिया भूल चूकी थी।
‘‘दो रूपये का है।’’ – वह चिल्लाया।
मास्टर अपनी बंद मुटठी खोलकर सबको दिखलाया। गजब! यह दो रूपये का लाल नोट ही था। सही है। एकदम सही।
वह दोगुने जोश से नोट को हवा में लहराया और भीड़ के गोल-गोल घूमने लगा।
‘‘बताओ इस नोट का नम्बर क्या है ?’’
थोड़ी देर सोचने के बाद उस काली लिबास वाले शार्गिद ने एक बार फिर सही-सही नोट क्रमांक बता दिया। मास्टर ने इसकी तफ्तीश की। एक-एक दर्शक के बीच गया, उन्हें दिखाया – ’’देखिए, दो रूपये का नोट जिसका नम्बर बिल्कुल ठीक-ठीक बताया गया। इत्मीनान हो लीजिए।’’
आश्चर्य! आश्चर्य! यह तो करिश्मा है!
जादू सर पर सवार था। उसने आगे कहा – ‘‘जानते हैं यह ताकत कहांँ से मिली ? सिर्फ इस पत्थर की वजह से। यह लाल रंगवाला पत्थर! जो यह पत्थर ऐसे ही नहीं मिला, कुदरत का करिश्मा है। कृपा बरसती है इसलिए उसके पास उपलब्ध है। यह बेचने के लिए नहीं है, नहीं, यह तो उस्ताद का अपमान होगा, बेचने पर इस पत्थर का जादुई असर जाता रहेगा। यह मुफ्त है। यह उस कारसाज़ का हुक्म है। इसे दुनिया में फैलाओं। लोगों के पैसे नहीं सिर्फ दुआएं लो। लोगों के दुःख दूर करो। मनोकामनाएं पूरी करो।
यह है वो चमत्कारी पत्थर!’’
इतना कहकर वह चमडे़वाली अपनी अटैची खोला जो लाल अंँगूठियों से भरी पड़ी थी। हथेली भर-भरकर वह अँंगूठी लोगों के बीच बांँटने लगा। वह कह रहा था –
’’छल्ले के लिए पाँंच रूपये मात्र! सिर्फ पाँंच रूपये!’’
बड़ी तेजी से लाल अंँगूठी बिक गयी। हाथों-हाथ। मुझे नहीं मालूम अगर मेरी जेब में पाँंच रूपये होते तो मैं क्या करता। पांँच रूपए ? उस जमाने में पांँच पैसे में हम पांँच गोलगप्पे खाते थे। पांँच रूपया तो हमारे लिए स्वप्न था।
हरिवंश – मेरे पड़ोसी थे, जाने कब से ठीक मेरे बगल में खड़े थे। उन्होंने भी पांँच रूपए निकाले और अँंगूठी खरीदी। हरिवंश को मैं ताऊ कहकर पुकारता था और तब वे कॉलेज की पढ़ाई करते थे। अंँगूठी को मैंने भी करीब से देखा। लाल पत्थर और सफेद छल्ला! नहीं, तब मेरी उम्र चांँदी या ताम्बे में फर्क करने की नहीं थी। बस मैंने चांँदी-सोना का नाम सुना भर था।
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, भीड़ में उपस्थित जिस किसी के पास भी कम से कम पांँच रूपये थे, उन्होंने अँंगूठी खरीद ली थी।
आज सोचता हूँ, उस अजूबे बाजार को कैसे परिभाषित करेंगे। ना विज्ञापन ना कोई ब्राण्ड! पर अद्भुत् परिणाम! एकदम-जादुई!
पर इस तमाशे का अगला दृश्य लोमहर्षक है, कम से कम उस गठीले मास्टर और उसके शार्गिद के लिए। सच, ऐसा भी होगा, हममें से शायद ही किसी ने सेचा हो!
अचानक भीड़ से निकलकर एक मोटा, स्थूल सा व्यक्ति प्रकट हुआ। उसके स्वर ने सबको खामोश कर दिया।
‘‘क्या आप बता सकते है कि मेरे हाथ में क्या है ?’’
उसका स्वर तेज था। एकदम बुलंद!
‘‘जी हाँ! मैं आपके शार्गिद से पूछ रहा हूँ। बताएं मेरी बंद मुट्ठी में क्या है?’’
लोग सन्नाटे में आ गये। ये क्या! आखिर यह सब क्या हो रहा है! अब तक तो हम अंँगूठी का चमत्कार देख रहे थे। उस लाल पत्थर का करिश्मा। लोगों के जेहन में एक सवाल तक नहीं। लेकिन इसने तो जैसे सबको जगा दिया, एक निर्दयी अलार्म घड़ी की तरह! या ‘जागते रहो’ की सीटी फूंँकने वाले बहादुर की तरह।
जागते रहो। सावधान! अलार्म! खबरदार!
सचमुच कभी-कभी शब्दों का अर्थ ब्रह्मांड के दूसरे छोर तक फैल जाता है। तब मैं छठी क्लास का एक फेल होने वाला विद्यार्थी था, जिसे गणित में कुल जमा पाँच अंँक सिर्फ इसलिए मिलते थे कि, पेपर कोरा रहता था। वे पांँच अँंक सफाई के होते। ऐसा विद्यार्थी तब भला क्या इन शब्दों का अर्थ जानता। बस तब की अपनी कैफियत कैसी रही, आज यही बताने की चेष्टा है।
उस मोटे आदमी ने घर्र से हमारी नींद हलाल कर दी। हम सब की। हम सब मनोकामनाओं के आकाश में उड़ रहे थे। हमें जादुई ताकत हासिल हो चुकी थी। हम आकाश में उड़ रहे थे।
जाहीर था मास्टर ने इस अप्रत्याशित मौके का खूब प्रतिकार किया। यह चमत्कार ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है। यह ये है, यह वो है, पर ’यह’ नहीं और ‘वह’ है मगर ये नहीं। इत्यादि इत्यादि।
पर ये दलीलें बेकार गयी। यह मोटा आदमी कौदी घास छीलने यहाँं नहीं आया था। उसका जिगर फौलादी था और भारी पत्थर की तरह मास्टर के सर पर बजाने लगा –
‘‘बकवास करते हो! जब किसी के जेब से रूपये निकाल कर बता सकते हो कि कितने का नोट है, उसका नम्बर क्या हे, तो यह क्यों नहीं कि मेरी मुट्ठी में क्या बंद है।’’
यह अलग किस्म का तमाशा था, ऐसा होते हमने कभी नहीं देखा था। एकदम कल्पना से परे की चीज। ऐसा भी हो सकता है, ना भीड़ ने, ना इस मास्टर, न उसके बाप ने ऐसा सोचा होगा।
काली लिबासवाला अब भी बुलेट पर उकडू बैठा था।
‘‘घड़ी …………।’’ उसने बस इतना ही कहा।
हम सब का ध्यान उस काली साया की तरफ खींच गया। मैंने देखा गठीले बदनवाला मास्टर, जो मोटे आदमी के शब्दों की मार को सम्भालने में लगा था, अपने शार्गिद को मुड़कर देखा, कुछ हैरान सा!
हम सब हैरान थे। मोटे की बंद मुट्ठी में सचमुच घड़ी थी। उसने अपनी मुट्ठी से घड़ी को आजाद किया, गेंद की तरह हवा में उछाला और कहने लगा, ‘‘कौन सी घड़ी और इस घड़ी का नम्बर क्या है ?’’
हम समझ गए वह मैदान हारने के लिए नहीं उतरा था, उसकी बजाने के लिए उतरा था।
उसकी बंद मुठ्ठी में घड़ी है – सही है, मगर काली चादर के भीतर से उस शार्गिद को कैसे पता चला! थोड़ी देर के लिए हम चकित थे। मगर उस मोटे ने हमें अधिक हैरान होने का मौका नहीं दिया और अपने प्रश्न घड़ी के साथ-साथ आकाश में उछालता रहा, स्वयं ही कैच करता रहा। उछालता रहा, कैच करता रहा।
‘‘जब तुम बिना देखे कि जेब में नोट रखा है कितने का नोट और नोट का नम्बर सही सही बता सकते हो तो मेरे घड़ी की कम्पनी और नम्बर क्यों नहीं।’’
मास्टर को घूंट भर पानी मिल चुका था अपना सूखा गला तर करने को, उसने फिर से कुछ ऊँची आवाज में हील-हवाला देना शुरू किया। वही, कुछ वैसा ही, लगभग जैसा कि, अभी-अभी, थोड़ी देर पहले, वही जो उसने किया था – उसकी मुद्राएं, उसकी भाषा, उसके स्वर कुछ ऐसा कह रहे थे – देखिए! ऐसा नहीं होता। वैसे होता है। उसमें ये है ‘वो’ नहीं। ऐसा है मगर वैसा नहीं। यह नहीं है वह है। अगर नहीं मगर है। जम नही जाम है।
इत्यादि इत्यादि!
कुछ पल इसी तरह बीते। भीड़ में कइयों ने सोचा होगा कि अब वह शागिर्द घड़ी का क्रमांक और कंपनी का नाम बता देगा, लेकिन काली मूर्ति बता मूर्तिवान बना चुप रहा।
मोटे आदमी ने रौब से कहा, ‘‘खबरदार! अभी के अभी अपना बोरिया-बिस्तर समेटो और लोगों का पैसा वापस करो। अभी। वरना पुलिस बुलाता हूँ और यहीं सबके सामने तुम्हारी लूंँगा और ऐसी लूंँगा कि याद रखोगे, नगीने और छल्ले हमेशा के लिए भूल जाओगे। दफा हो यहांँ से……।’’ मोटे ने घड़ी अपनी कलाई में बांधी। उस जमाने में ज्यादातर चमड़े के बेल्ट हुआ करते थे मगर मुझे अच्छी तरह याद है उसने स्टीलवाली वाली चेन पहन रखी थी।
मास्टर समझ गया उसका भंडाफोड़ हो गया है। चुपचाप यहांँ से निकल लो – इसी में भला है।
जिस तेजी से उसकी अंँगूठी हाथों-हाथ बिकी थी, उसी तेजी से हाथों-हाथ वापिस भी हुई। उसने तत्काल सभी को रूपये वापिस किए और लोगों ने उसकी अंँगूठी।
चंँद मिनटों में ये तमाशा खत्म हो गया। सारी अँंगूठी उसी चमड़े की अटैची में पैक हुए। फिर वह अपने शार्गिद के सर से काली चादर उतारा।
सर झुका, भीड़ से नजरें चुराते हुए काली लिबासवाला शार्गिद उठ खड़ा हुआ। हम सबने देखा – मानों वह गहरी निंद्रा से उठा हो, एकदम गहरी निंद्रा से, आंखे मिचता।
भीड़ से अब कुछ भिन-भिन सी आवाज आने लगी सन्नाटा टूट चुका था। तमाशा हम बस जो सम्मोहित होकर देख रहे थे, अब हमें समय और स्थान का ख्याल आने लगा था। ढलती धूप हमारे चेहरे पर गिर रही थी। स्कूल की छुट्टी भी शायद होने वाली थी और हम बस स्टॉप की ओर से बसों की आवाजें और खलासियों की सीटी भी हम सुनने लग गये थे।
वो दोनों अपनी अटैची सम्भाले, बुलेट स्टार्ट की और भीड़ ने बा- इज्जत उन्हें विदा किया। ससम्मान रास्ता दिया। जब तक वो चले नहीं गये बोला नहीं डर रहा शायद ये कि किसी ने भी उस एक के सिवा कोई सवाल नहीं किया। चीजें बेचते वह या चीज वापिस करते वक्त सिर्फ लोगों ने आज्ञा मानी । चुपचाप ! बिना किसी सवाल या शंका के!
नहीं! ऐसा नहीं था कि किसी ने आज्ञा नहीं मानी। मैंने देखा कि हमारे पड़ोसी हरिवंश ताऊ ने तो खरीदी हुई अंँगूठी अपनी जेब में छुपा ली थी। उन्होंने उसे वापिस नहीं की थी।
क्यों ? – मेरे भीतर स्वाभाविक जिज्ञासा थी कि मैं जानूँ। आखिर अंगूठी उन्होंने क्यों वापिस नही की ? भीड़ हट चुकी थी और मैं हरिवंश ताऊ के साथ घर की ओर चल पड़ा था। मजदूरों का रेला हमारे साथ-साथ लौट रहा था, वे घंटी बजाते और कुछ गीत गाते। रास्ते भर मैं इधर-उधर की भूमिका बांँधता रहा और यह पूछने की हिम्मत जुटाने का अभियान करता कि वो सवाल दागूंँ – क्यों आपने अंँगूठी रख ली, एकदम से चोरों जैसे!
मगर मैं चुप रहा। हिम्मत नहीं हुई या पता नहीं उनकी आस्था का कौन सी अदृश्य दीवार थी जिसे मैं लांँघ नहीं पा रहा था। या फिर उनके प्रति सम्मान! के मेरे पड़ोस के ताऊ थे। अक्सर उनके यहांँ मकर संक्रांति के दिन दही-चूड़ा और तिल के लड्डू खाया करता था। शायद इस लिहाज के कारण। या फिर, मेरा मन यह जानता था कि, ऐसे सवाल उनके दिल को चुभेंगे। शायद यह रहस्य मेरा मन जानता हो। ठीक-ठीक कह नहीं सकता। बस, मैं इस बाबत् कुछ पूछ नहीं पाया और घर आ गया।
जब हम घर पहुँचे तब सूरज ढल चुका था। बच्चे मैदान में और गलियों में धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। कुछ बूढ़े चौराहों पर बैठे तम्बाखू मल रहे थे।
मैंने मन ही मन विचार किया, आज नहीं, कल आपके घर आऊँंगा और अपने सवाल पूछूंँगा।
रात को नींद आने के पहले तक वही सवाल मेरा पीछा करता रहा। हरिवंश ताऊ ने आखिर उस अंँगूठी में क्या पाया, क्या देखा कि अपने साथ लिए चले आए। मैं उस मोटे आदमी और मास्टर तथा उसके शार्गिद की बात लगभग भूल ही चुका था।
कल आया और परसों भी। नरसों भी आया। अब रोज मैं हरिवंश ताऊ के घर अपनी हाजिरी बजाता। वहाँ वही एक सवाल!
मैं यह कल्पना करता कि आज लाल नगीने वाली सफेद छल्ले में जड़ी अंँगूठी उनके रिंग फिंगर में देखूंँगा और फिर पूछ डालूंँगा। पर आश्चर्य की तीन दिन बीत गये और हरिवंश ताऊ ने उस अँंगूठी को धारण अब तक नहीं किया था। मेरी जिज्ञासा तीव्र हुई और उनके घर की आलमारियों उनकी पुस्तकों के रैक टेबल-दराज या उनका पर्स, उनकी कमीज पैंटों की जेबों की चुपचाप तलाशी लेना शुरू किया यह जानने के लिए कि अंँगूठी आखिर है कहाँं। पहना तो क्यों नहीं। यह कि वह जादुई अंँगूठी कहांँ गायब हो गया ? या, यह सब कुछ मेरा ही एक भ्रम था, अन्य लोगों की तरह हरविंश ताऊ भी अंँगूठी वापिस कर चुके हों। मगर नहीं रास्ते भर वे अँंगूठी अपनी जेब से निकाल निकाल कर बडे़ प्यार से निहारते रहे थे। मैं भी देखता। एक बार छुआ भी था।
नहीं ! भ्रम का सवाल नहीं।
साफ-साफ पूंँछ लेने की हिम्मत मेरे भीतर कहीं से भी दाखिल हो नहीं रही थी। कहांँ गयी वो अँंगूठी ? इस नये सवाल ने पुराने सभी सवालों को ध्वस्त कर दिया। मेरे खेल और पढ़ाई का अधिकांश समय हरिवंश ताऊ के घर भेंट होने लगा। मेरी चोर निगाहें उनकी चोरी पकड़ कर सामने लाने को बेताब थी।
हममें हर तरह की बातें होती, लेकिन ना मैं अँंगूठी के बारे में कुछ पूछता ना उन्होंने ही हमें कुछ बताया। अँंगूठी और उस तमाशे के बारे में एक लफ्ज हमारी बात नहीं होती। इस बीच जैसे ही हमने लाई और गुड़ की बनी मजेदार मिठाइयों का पहले जैसा मजा लिया।
महीना बीत गया। सवाल ने धीरे-धीरे अपना तेज कम कर दिया था। दिन ढल चुका था, सांँझ करीब थी। तभी मैंने ऐसा कुछ देखा जिसकी कल्पना ना मैंने की थी ना मेरे बाप ने।
अब तक उस अंँगूठी को लेकर मेरी कल्पना……कई चक्कर काट चुकी थी…….कई तरह के प्रोजेक्शन! कई प्रक्षेपण। कई-कई संभावनाएं कई-कई कयास, मसलन ’ये’ हुआ होगा उस अंँगूठी के साथ मसलन इस कारण ताऊ अंँगूठी नहीं पहनते होंगे। वगैरह-वगैरह! मगर हकीकत इन सबसे पृथक निकली। और यह सब मैंने अपनी फटी आंँखों से देखा।
हरिवंश ताऊ के कमरे में एक कोने में एक छोटा सा पूजागृह था। वहाँ दो-चार छोटे-छोटे भगवान की तस्वीरें फ्रेम में जड़ी थी और एक रामायण की पोथी जो लाल कपड़े में लपेटी हुई थी। यहीं ताऊ रोज सवेरे-साँंझ अगरबत्ती दिखाकर मंत्रों का उच्चारण किया करते। मैंने उन्हें पूजा करते कई बार देखा था। मगर हैरानी मुझे इस बात पे नहीं थी, हैरानी तो हुई उस लाल पत्थर वाली अंँगूठी को देखकर जो बड़े पवित्र भाव से लाल कपड़े में लिपटी उस रामायण पर रखी हुई थी। जिन्हें रोज-रोज अगरबत्तियों का धुआंँ पिलाया जाता रहा था।
मर गये बाप।
तो अब समझ में आया! जी! तो कहांँ मैं उस अंँगूठी को उनकी जेब और पर्स में ढूंँढता फिर रहा था।
उस एक दृश्य ने पिछली कई मेरे सवालों के जवाब दिए लेकिन फिर एक नए सवाल ने साथ-आखिर यह सब क्या था, और क्यों ?
ताऊ मेरे लिए पूरी तरह अबूझ बने रहे। मुझे अब तो और गहरे रहस्य से भरे हुए!
मैं रातों को सोचता, पिछले बीते दिनों में हरिवंश ताऊ के साथ ऐसा क्या कुछ चमत्कारिक हुआ। अब तो स्पष्ट था कि वो उसकी पूजा कर रहे हैं। उनका घर, घर के छज्जे, दीवार, दरवाजे, खिड़कियांँ सब वैसी। अपनी जगह सलामत! हरिवंश ताऊ भी अपनी जगह सलामत। वही कुर्ते, वही पैजामा, वही उनकी मूंँछे और बाल। उनका भोजन भी वही। उनका जूता भी वही। सबेरे उठता तो उनके छत की ओर देखता कि किसी पंँछी ने सोने के अण्डे तो नहीं दिए। या कहीं वो चांँदी की बरसात तो नहीं हुई। सिवाए सूखे पत्तों के मुझे वहांँ और कुछ नजर नहीं आता। अलबत्ता कभी-कभार छज्जों पर कौवें कांँव-काँंव करते जरूर दिख जाते। मैं अब भी किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में था। हरिवंश ताऊ से कहीं ज्यादा। चमत्कार तो एक पल की धारणा है जाने कब घट जाए।
पर, सालों बीत गये। मैं इन बातों को धीरे-धीरे भूल सा गया। पर हाँ, न जाने क्यों हमारे बीच इस बारे में कभी भी कैसी भी बात नहीं हुई। ना मैंने कोई प्रश्न पूछा ना ही उनकी ओर से कुछ बातें हुई और एक दिन हरिवंश ताऊ उच्च शिक्षा के लिए कहीं दूर चले गये, शायद दिल्ली। कहते थे आईएएस बनना है। फिर हम भी किसी और कालोनी में रहने लगे। मैं बच्चे से जवान हुआ और आज रिटायर हो चला हूँ। बचपन की सारी बातें लगभग समृति से ओझल हो चुकी हैं।
एक बार कहीं कुछ पढ़ते हुए अचानक वो गाँव के हरिवंश ताऊ की तमाम स्मृतियांँ जेहन में ताजा हो गयीं। हमने कहीं पढा-अटूट विश्वास का नाम आस्था है। बिना आस्था ईश्वर कहांँ!
आस्था! ईश्वर!
प्रतीत हुआ मानों उन पंँक्तियों में बचपन के सारे सवालों के जवाब मिल गये हैं। हरिवंश ताऊ के जरिए उत्पन्न सारे सवालों के जवाब! मैंने देखा है अटूट विश्वास! जी हाँं। वह उनकी अँंगूठी। वह उनकी पूजा भावना। चाहे कोई चमत्कार हो ना हो।
मेरे लिए यह सब किसी चमत्कार से कम नहीं था। हाँ! मुझे मिल गये मेरे बचपन के अनुत्तरित प्रश्नों के हल! बिलकुल ठीक यही। जी!
मैं उत्साह से चमक उठा मानों सनातन से छिपा हुआ खजाना ढूंँढ लिया है।
पुस्तक की उन पँंक्तियों को अंडरलाईन किया।
आस्था! ईश्वर! अटूट विश्वास!
हाँ। उस एक पँक्ति ने मेरे भीतर फिर से उन दृश्यों को जिंदा कर दिया था। लाल अंगूठी, गठीला मास्टर और काली लिबास में उकडू बैठा वह शार्गिद और वह मोटा फौलादी आदमी……. हवा में उछलती वह घड़ी…………।
मुझे सब कुछ याद आने लगा।
वह उछलती घड़ी…….. उस घड़ी ने एक अद्भुत् समय की व्याख्या की थी। उसने हमें बताया था कि कैसे एक पल में पत्थर भगवान बन जाते हैं।
उस घड़ी ने हमें यह भी बताया था कि कैसे दूसरे ही पल भगवान फिर से पत्थर में तब्दील हो सकते हैं।
लेकिन वो घड़ी हरिवंश ताऊ के बारे में मौन थी – वह क्या था – अटूट विश्वास या अटूट अंधविश्वास ?
पता नहीं।