साक्षात्कार-महेश्वर नारायण सिन्हा (पार्ट-4)

दलपत सागर बस्तर संभाग का सबसे बड़ा तालाब है। इसे ’समुंद’ भी कहते हैं। समुंद यानी समुद्र। इस तालाब का फैलाव इतना था कि उसके एक किनारे से दूसरे किनारे नजर नहीं आते थे। ये बात अलग है कि आज देश के अन्य तालाबों की तरह किसी तरह बच गया है वरना धरती के लालची लोग इस तालाब को भी पाट पाटकर अपने कब्जे में ले लेते। राज दलपत देव के नाम पर बना ये तालाब शहर के भूजल स्तर को मेंटेन करके रखता है इसलिये जगदलपुर में कभी भी पानी की कमी का मौका नहीं आता है। शहर के बीचों बीच स्थापित इस तालाब के बीचों बीच शिव मंदिर का होना भी सौन्दर्य और शक्ति व भक्ति की पराकाष्ठा है।
आज यहीं इसी तालाब में बने आइलैण्ड में बैठकर महेश्वर जी और मैं बात कर रहे हैं। शीतल जल और शीतल चांदनी! रात होने को है। आइलैण्ड में लोग अपनी हेल्थ को वेल्थ में बदलने के लिये लगे हुये हैं। और दो साहित्य पिपासु साहित्य चर्चा में।

 

सनत जैन-सर, कल हमारी बात यहां पर रूक गयी थी कि ये बात तो सोलह आने सच है कि अपनी मिट्टी से उखड़ा हुआ पेड़ कभी बढ़ नहीं सकता। परन्तु इस बात को तथाकथित बुद्धिजीवी क्यों समझना नहीं चाहते ? पक्या उनको पसंद आने वाली प्रगतिशील विचारधारा आपको साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा….अनुकूल लगती है ?
महेश्वर जी-सबसे पहली बात ये है कि ये प्रगतिशील विचारधारा है क्या, दूसरे, साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के संदर्भ में प्रश्न पूछा गया है।
थोड़ा ’करेक्ट’ करते हुये इस ’प्रगतिशीलता’ का मतलब साहित्य, समाज, अर्थनीति, राजनीति समस्त आयामों में बस ’प्रगतिवाद’ को देखना समझना होगा। सिर्फ साहित्य में इस ’वाद’ को ढूंढेंगे तो संभव है, हम बात पूरी तरह समझ नहीं पायें। बात आधी अधूरी रह जाये। ऐसी बातें पाठकों, विद्वानों, लेखक-संपादक सबके लिये जहर बन जाती है फिर अर्थ का अनर्थ निकलना और दिशा-दशा भटकना हमारी नियति बन जाती है।
जब समस्त विश्व अंधकार युग में था अर्थात प्रखर जागरण से पूर्व मूढ़ता युग में मनुष्य तर्क बुद्धि से परे एक तानाशाही अहंकार मूर्खतापूर्ण शासन से अपनी धरती शोषित थी। यूरोप क्या, एशिया क्या….हर जगह धार्मिक अहंकार (वह आज भी है ) और विशेषकर इसाई समुदाय में धर्म के नाम पर चर्च का बोलबाला हुआ करता था। आवाम भीरू थी, भगवान, गॉड या अदृश्य शक्ति से डरकर धार्मिक नेताओं की गुलामी स्वीकारते थे। इतिहास में सैकड़ों वर्षों के युद्ध की दास्तानें भरी पड़ी हैं कि कैसे एक धार्मिक सम्प्रदाय ने दूसरे धार्मिक समुदाय पर श्रेष्ठता साबित करने के लिये तलवारें उठाईं। मानव मूर्खता की जितनी प्रशंसा की जाये कम है…अनंत मूर्खता…, यदि धर्म को श्रेष्ठ ही साबित करना है तो बाहुबली की क्या आवश्यकता ? तलवार उठाने की जरूरत क्यों…? पर जिस मनुष्य ने तर्क बुद्धि को खारिज कर दिया हो उससे और क्या उम्मीद…? (किसी धर्म का पंडा-पादरी ने यह तो नहीं सिद्ध कर पाया कि ये देखो…ये रहा तुम्हारा भगवान…ईश्वर….गॉड…!)
खैर! कहना ये चाहता हूं कि इसी अंधकर युग और सोच के बीच यूरोप में बौद्धिक आंदोलन हुये। वैज्ञानिक हुये। प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हुआ। रेलगाड़ी चलने लगी। वाष्प इंजन से। हाथ के बहुत सारे काम मशीनें करने लगी। साहसी उद्यमियों ने मौके का लाभ उठाया और बदले में राजनीतिक सुरक्षा और उस राजनीति का समर्थन करना प्रारंभ किया जिससे उनका हित सधे…व्यापार! रेल पटरियां, सड़कें, वायुयान, जलयान और संचार के माध्यम ने जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन किया। उन्हीं दिनों जैसे-जैसे भौतिक स्तर पर नये-नये आविष्कार हो रहे थे और हमारा भौतिक जीवन क्रांतिकारी हो रहा था र्वैसे ही मानसिक स्तर पर भी बहुत से विद्वानों ने नये-नये विचार द्वारा तर्क सम्मत बातें करनी प्रारंभ की। रूसो, वाल्टेयर इत्यादि ने समाज-राजनीति के क्षेत्र में अपने विचार रखे जिसने आवाम को सोचने पर मजबूर किया। जो आवाम राजनीतिक सत्ता को या धार्मिक एजेंटों को अपनी गुलामी लिख रहे थे, वहीं ये सवाल भी किया गया कि- मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है मगर वह हर जगह बंधनों से घिरा है। शायद इस आशय की बातें रूसो ने कही। सोचने की बात ये है कि एक तार्किक-दार्शनिक व्यक्ति को ऐसा क्या दिखता है कि वह इस तरह के वक्तव्य -स्टेटमेंट प्रस्तुत करने को विवश होता है। रूसो, मोटेस्क्यू, वाल्टेयर इत्यादि विद्वानों की सोच का ही नतीजा था कि फ्रांस की महान क्रांति घटित होती है और समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व का नारा लगता है। राज सत्ता इन्हें अपना आदर्श स्वीकारता है, आवाम एक नयी सोच, एक नयी विचारधारा, एक नयी स्फूर्ति से ओतप्रोत होती है।
देखा जाये तो ’प्रगति’ क्या है …..! यहां साफ प्रकट होता है, मानव समुदाय अंधकार से प्रकाश की ओर….बंधन से आजादी या मुक्ति की ओर अग्रेषित है।
हमारी आधुनिक प्रगतिशीलता का सूत्र यही है। जरा अपने संविधान की प्रस्तावना पर विचार करें…बिल्कुल ये ही आदर्श है, बाद में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता इसमें जोड़ा जाता है।
यानी ये आदर्श पूरी दुनिया के आदर्श बनते हैं। आधुनिक मानव चाहे यूरोप का हो या अफ्रीका या एशिया -एक नयी आयडियोलॉजी से ओत-प्रोत है। चाहे उसका रंग जैसा हो, धर्म कोई हो, भाषा कुछ, विश्वास कुछ और भूगोल कहीं का, जाति-समुदाय जो भी रहा हो, आधुनिक स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व इस नये मनुष्य का मूल है।
इस सैद्धांतिक-वैचारिक क्रांति ने चेन में जकड़े मानव को निश्चित ही मुक्त किया -संदेह नहीं। धार्मिक सत्ता राजशाही और सामंतशाही जो कि अंधकार के प्रतीक थे- सड़े-गले थे -इन्हें उखाड़ फेंका गया।
पर एक जगह से मुक्त होने के बाद क्या वह मुक्त मानव सचमुच स्वतंत्र, समान व बंधुत्व के आदर्शों का निर्वहन कर पाया ? या एक जगह से मुक्त होकर वह मानव ने अपने अंधकार की अलग दास्तान लिखी ? मुक्ति क्या सिर्फ भौतिक सतह पर संभव हो सकी ….मानव का बौद्धिक….आत्मिक जागरण शेष ही रहा …?
उक्त प्रश्नों में ही उत्तर छिपा है। हां, मानव बुद्धिमान तो हुआ मगर प्रबुद्धता अभी कोसों दूर की कौड़ी थी। मनुष्य कोई भौतिक पदार्थ नहीं, वह भिन्न-आयामी मानसिक आत्मिक प्राणी भी है। वह भावों के अधीन है। भावनाएं उसे संचालित करती हैं। चूंकि वह अपने भावों में सिर्फ स्वयं की इच्छापूर्ति से ही आनंद की प्राप्ति का सपना देखता है, अन्य आयाम को नहीं देख पाता, अतः स्वार्थपूर्ण दृष्टि ने एक लालची और जटिल मनुष्य की रचना की। जिस टेक्नोलोजी और मशीनों के बल पर वह जीवन को सहज व सम्पन्न बना सकता था उसने उसे दुरूह व दरिद्र ही बनाया। लालच लिप्सा में तब्दील हुई, तृष्णा बुझी नहीं। शोषक व शोषित दो वर्ग पैदा हो गये। सम्पन्न देश जो अविकसित (अपेक्षाकृत) थे, उन्हें गुलाम बनाया जाने लगा। अफ्रीका, एशिया, सुदूर पूर्वी एशियाई द्वीप, इन अपेक्षाकृत, तथाकथित सम्पन्न देशों के व्यापारिक कंपनियों के गुलाम बने। कालोनियां बसायीं गयीं। भारत इसका ज्वलंत उदाहरण है।
उल्लेखनीय तथ्य ये है कि ये सब प्रगतिशील मानव कर रहा था। धार्मिक पंडों का गुलाम, सभी मशीनों के आविष्कार के बाद, सिर्फ खुद की सम्पन्नता और प्रकृति का अंधाधुंध दोहन उनके द्वारा सम्पन्न किया जा रहा था। वह अब भी जारी है। कालोनियां बसाने, उपनिवेष बनाने के तरीके बदल गये हैं, मगर सम्पन्न राष्ट्र आज भी किसी न किसी हथकंडे से विकासशील देशों, अविकसित देशों को ’ट्रेप’ कर रखा है। यह दुःश्चक्र है (बपेबपवने बपतबसम) यह टूटे कैसे -नजर नहीं आता।
यह कैसी प्रगति थी या है ? मशीनें किसी को अमीर और जनसमूह को कुचलने का, शोषण का जरिया….? अगर स्कूल-कालेजों में पढ़ाया जाने वाला यह ’पुर्नजागरण’ अध्याय है तो इसका अंश अधूरा है। बकवास है। मशीने बनाकर वह हमें ही गुलाम बना लें। और इसने किसका हित किया है -उन अमीरों का…उद्यमियों का…? या प्रकृति का…..? या व्यापक आवाम का….?
गुलामी का स्वरूप बदला, कमरे के भीतर जकड़ा गुलाम मानुष बाहर एक ’नयी तलवार’ लेकर नये तरह की गुलामी की इबारतें लिखे। वह पूरी दुनिया में फैली।
सच तो ये है -मनुष्य उस अंधकार युग से बाहर ही नहीं है…।
इसी बीच और इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन्न विषमता ने….हां, ध्यान दें ’परिस्थितियों’ और ’विषमता’ ने मार्क्स व एंगेल्स जैसे चिंतकों ने इन आयामों पर दृष्टि डाली। शोषण को रेखाकिंत किया और गहन शोध के पश्चात आवाम (सर्वहारा) बुर्जुवा (खास, अमीर, चंद लोग जिसमें राजशाही का समर्थन था।) के हितों और मशीन यानी फैक्टरियों के बीच ताना-बाना देखा, समझा। इन्होंने मशीनों को आलोचना के दायरे में नहीं लिया, मगर मशीनों से उत्पन्न नये कस्बे, नये शोषण के तरीके इत्यादि की भरसक वैज्ञानिक व्याख्या करने की कोशिश की। एक सिद्धांत ही रच डाला। निश्चित रूप से इनके विचार ने पूरी दुनियों में तहलका मचाया और स्वार्थ में लिप्त मिलों के मालिक, तानाशाही, बुर्जुवा और आवाम के बुनियादी जरूरतों के बीच एक संतुलन का प्रयास हुआ। आवाम को कम से कम थ्योरी में बताया गया कि वो फैक्टरियों इनकी (आवाम की) मिल्कियत -हिस्सेदारी का अधिकारी है। क्योंकि श्रमिक वर्ग अपना हाड़ मांस इन मिलों -कारखानों को प्रदान करता है।
यहां मार्क्स की थ्यूरी व्यवहार में क्या होती है, इसके डिटेल में जाने की जरूरत नहीं हैं कहने का आशय यह है कि नयी समानतावादी अर्थात साम्यवादी अवधारणा तो दुनिया में धूम मचाती है और विश्व भर में इसके व्यापक असर देखने को भी मिलते हैं -मसलन, काम के घंटे कम होते हैं, स्वच्छ मजदूरों की कालोनियां बनायी जाती हैं, शिक्षा-स्वास्थ की अच्छी व्यवस्था, सही वेतन इत्यादि अनेक बातें सराहनीय व क्रांतिकारी रूप से घटित होती हैं। दुनिया भर में श्रम कानून बनते हैं। फैक्टरी एक्ट बनते हैं। श्रमिक बीमा, श्रम सुरक्षा इत्यादि अन्य-अनेक चीजें दृश्य में प्रकट होती हैं। ये सभी अपने पूर्ववर्ती दिनों की तुलना में क्रांतिकारी कदम होते हैं।
और यहां बताना आवश्यक होगा कि जिस राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, साहित्यिक (सांस्कृतिक) कला के क्षेत्र में अपने देश मे ’प्रगतिशीलता’ की बात की जाती है – तो इसी मार्क्सवादी थ्योरी के संदर्भ में की जाती है।
और मार्क्सवादी थ्योरी का आधार….?
समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व….।
धन का समान वितरण……उपनिवेशवाद का विरोध, शोषण अमान्य और अक्षम्य……स्त्री-पुरूष समानता सहित हर आयाम से समानता।
मार्क्स की भावना महान थी। इस पर कोई प्रश्न नहीं। इस थ्योरी ने निश्चित रूप से दुनिया के समक्ष एक आदर्श स्टेट- साम्यवादी राज्य की कल्पना की। यहां राज्य का हस्तक्षेप नगण्य, लगभग कबीलाई समूह की तरह हर स्टेट आत्मनिर्भर व स्वतंत्र होंगे।
पर, व्यवहार में ठीक विपरीत घटित होता है। स्टेट स्वयं सारी चीजों पर कमांड करता है और सीधा-सीधा बुर्जुवा का स्थान ले लेता है। वह स्वयं स्टेट कॉरपोरेट बन जाता है। स्टेट के एजेंट लालची होते हैं और तृष्णा में लिप्त भ्रष्ट पूंजीपतियों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। अंतिम अंजाम हमारे समक्ष है पूरी दुनिया देख रही है।
पर क्यों…? इसमें थ्योरी की क्या गलती ? जब थ्योरी अप्लाई करने के लिये स्टेट, एक ओर व्यापारी व बुर्जुवा की तरह व्यवहार करने लगता है तो वहीं सत्ता हाथ में होने के कारण तानाशाही, बल का प्रयोग अपने विरोधियों के दमन में प्रयुक्त होता है।
थ्योरी में क्या कमी रह गयी थी ?
मनुष्य एक भावपूर्ण व्यक्ति है और लालच जैसे भाव, लिप्सा का जगना, कामनाओं की उदीप्ति अनिवार्य है -क्या इस पहलू पर महान मार्क्स सोच नहीं पाये ? मनुष्य कोई रोबोट नहीं वह जितना अच्छाइयों का प्रतीक हो सकता है तो बुराइयों का भी। सत्ता ने, धन ने अधिकार ने मनुष्य को गलत ही प्रेरित किया है। सिर्फ कुछ अपवाद होते हैं जो इस मद में चूर नहीं होते।
तो क्या, एक सामान्य मनुष्य जब-तब लोभ-लाभ से परे नहीं हो जाता वह सत्ता संचालन के योग्य नहीं बन पाता….। या मार्क्स को मानव की इस कमजोरी को ध्यान में रखकर थ्योरी बनानी चाहिये थी। फिर देखा जाये तो एक सच्चे प्रबुद्ध को किसी थ्योरी की क्या आवश्यकता ? वह तो अपने संवदेनात्मक ज्ञानचक्षु से समस्त विश्व से जुड़ा है। तो ऐसे सिद्धांत क्या सिर्फ भेड़िया धसान बनकर रह जाते हैं !
सवाल उठता है।
मनुष्य एक ’सायको’ प्राणी है। ’यह साइक’ और उसकी ’चेतना’ ’स्प्रिट’ मिलकर ही उसे मुकम्मल बनाते हैं। जाहिर सी बात है चैतन्य पुरूष चोरी नहीं करेगा और चोरी करने वाला चैतन्य हो ही नहीं पायेगा। तो थ्योरी हो चाहे दुनिया का कोई ज्ञान अंततः वह ’जिसके हाथ जैसा लगा….’ वाली बात चरितार्थ होगी। चोर उसमें चोरी के रास्ते दौड़ेगा ….प्रबुद्ध उसमें प्रबुद्धता की बात! मार्क्स ने मनुष्य को सीधा-सीधा दो वर्गों में बांटा -बुर्जुआ और पब्लिक -और दोनों का ’हित’ अपना अपना होता है -जो ’संघर्ष’ की स्थायी स्थिति उत्पन्न करता है।
इन परिकल्पनाओं, सिद्धांतों पर और ना कुछ कहकर बस यही कहना चाहूंगा कि आखिर मनुष्य को चाहे तकनीक से सम्पन्न किया गया, सुविधा से अमीर किया गया, जीवन -स्तर बेहतर किया गया मगर उसके मानसिक विकास जो एक आध्यात्मिक यां सांस्कृतिक पुरूष में (सर अरविंदो, गुरू रविन्द्र, विवेकानंद इत्यादि) होनी चाहिये -लक्षित नहीं होती। थ्योरी हो, संविधान हो, कानून हो, मार्गदर्शिकाएं हों, गीताज्ञान या कुरान हो आखिरकार यह प्रबृद्ध मानव की ग्राहता पर ही निर्भर है। अतः दोष किसी ’थ्योरी’ को क्या देना ?
क्या मार्क्स बेचारे ने कहीं कहा या लिखा कि बंदूक उठाओ…..
कि विरोध करने वालों, अपनी अभिव्यक्ति करने वालों को काले पानी की सजा दो…
या फिर नक्सलाइट बनकर बम फोड़ो….
समानता, बंधुत्व, भाईचारा…वर्ग संघर्ष के नारे तब सिर्फ और सिर्फ एजेण्डा बनकर रह जाते हैं और थ्योरी सिर्फ ’कामरेड’ और ’इंकलाब’ का नारा बनकर रह जाता है।
आज इस प्रबुद्ध मानुष की विशेषकर अपने देश के संदर्भ में यही स्थिति है कि वो रहा ’राष्ट्रवादी’ -विरोध करो…ये रहा ’विश्व-बंधु’ -गले लगाओ। भारत में प्रबुद्धता की धारणा तो किसी संग्रहालय में रखे जाने योग्य है। चिराग लेकर ढूंढ लो….।
तो ये रहा विश्व-मानव! ए ग्लोबल सिटीजन!
प्रबुद्ध मानव….! विश्व बंधुत्व….स्वतंत्रता…..आदि..।
किस्सा कोताह ये कि वह मानुष धर्म के पाखंड से मुक्त होकर अब थ्योरी या राजनीति या ऐसे ही शगल का गुलाम होता है। कुत्ते के गले के बेल्ट का रंग बदलता है। बस…।
भौतिक आजादी तो प्राप्त होती है मगर मानसिक आजादी अभी दूर की कौड़ी है। चैतन्य पुरूष तो अभी सातवें लोक में बैठा है….!
मनुष्य का मन भगवान के दरबार में, आका के दरबार में…., तकनीक के गटर में…, धन की फुलझड़ी में…., वैभव की जलेबीवाली चाशनी में…सुरा सुंदरी की मिठाई भोग में….बस…..लिप्त है!
अब इस प्रबुद्ध मानव ने क्या दिया ? इस विश्व को क्या प्रदान कर रहा है….(ध्यान रहे असली केपिटलिस्ट हों चाहे बुर्जुआ वाले केपिटलिस्ट) सबने मिलकर प्रकृति का ऐसा दोहन किया है कि पिछले हजारों वर्षों से सुरक्षित प्रकृति डांवाडोल हो गयी है। धनिया बो कर रख दिया है इस वैज्ञानिक और प्रबुद्ध मा….च.. ने… सालों को स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ दिखा ही नहीं….। ये गाली इन्हीं के लिये है -जिस कोख से, जिस पिण्ड से उत्पन्न हुये हैं उसी की ऐसी-तैसी करते हैं। मादर….!
अब और क्या इस प्रबुद्ध मानव की जय-जयकार की जाये….बस, आरती उतारना बाकी है…..सब लोग सम्मान में खड़े हो जायें….!
सवाल उठता है क्या प्रगतिशीलता को हमने सही-सही परिभाषित किया ?
मशीनों का अंधाधुंध आविष्कार प्रगति मान लिया गया। तलवारें व छुरियों में धार दी गयी। मगर इस्तेमाल करने वाला यह भूल गया कि जो ताकत या तलवार उसके हाथ लगी है वह डॉक्टर की तरह किसी की जान बचाने के लिये है या बैंक लूटने या हत्या करने या दुश्मन से अपनी प्रतिरक्षा करने वास्ते ? मनुष्य का विवेक वहीं के वहीं रह गया और बंदूकें मशीनें, तकनीकी विस्तार अंधाधुंध चला। चलता जा रहा है और यह हमारी परिभाषा से आधुनिकीकरण, प्रगतिशीलता की निशानी है।
जिस प्रगति में आलीशान बंगले के बाजू झुग्गी भी हो पर दिखे तो सबको, मगर हमारी प्रगति पर सवाल नहीं उठाये।
जो प्रगति उसी मिट्टी को खराब कर दे जिससे हम अन्न व जीवन धारण करते हैं। उस वायु को दूषित करे जिस पर हम जीवित हैं उस जल को काला कर दे जिसे हम पीते हैं। उस अन्न, जल वायु, वृक्ष-सब्जी-फलों का अवैज्ञानिक उत्पादन आपूर्ति के लिये केमिलक्स, हाइब्रीड पेप्टिसाइड इत्यादि के जरिये हमारे जीवन के ’लाइफ लाइन’ को बीमार कर दे। अपनी कब्र स्वयं खोद डालें।
ऐसी प्रगतिशीलता पर प्रबुद्ध मानव सवाल ही नहीं उठाता। आश्चर्य है। युधिष्ठिर के आश्चर्य से कहीं ज्यादा!
यह कैसा दृष्टिसम्पन्न आधुनिक, उत्तर आधुनिक, उत्तर-उत्तर आधुनिक मानव है।।
कहने की आवश्यकता ही अपूर्ण, एकांगी और दुश्चक्र पैदा करने वाली है -खासकर इस मूर्ख, अबोध तथाकथित प्रबुद्ध मानव के हाथ लगकर! तलवारें तो मिली मगर उसका क्या करना है -ठीक-ठीक ज्ञात नहीं!
अब इस तथाकथित प्रगति व प्रगतिशील मानव का अध्ययन-विश्लेषण भारत के संदर्भ में कर लें। आपने पूछा है भारत में उसकी कितनी जरूरत थी ?
उत्तर तो ’प्रगति’ की परिभाषा और हमारे आधुनिक मानव ने कहीं कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं। फिर भी भारत के संदर्भ में कुछ बातें अवश्य विचारणीय है।
मार्क्स ने अपनी अवधारणा में मशीन -फैक्टरी संस्कृति की जरूरत पर कोई शंका या टिप्पणी नहीं की। और देखा जाये तो यूरोपीय विरल बसे देशों और साल के छः महीना जहां धूप ना दिखे, वहां विस्तृत कार्य के लिये या कारखानों के लिये मनुष्य के हाथों से अधिक मशीन की आवश्यकता थी। अतः मार्क्स ने मानव-श्रम और मशीन के बीच रिश्ते पर कोई प्रश्न नहीं किया। यह उनके लिये निहायत जरूरी थी। मशीनों की दरकार निश्चित रूप से उन्हें होनी थी। आविष्कार भी वहीं हुये। पर, संभवतः मार्क्स को भी ये अंदाजा नहीं रहा होगा कि मशीनें हमारी सुविधा की जगह तबाही का कारण साबित हो सकती है। शायद इसका अंदेशा उन्हें बिल्कुल न रहा हो। मगर, प्रारंभ में ही स्वतंत्रता आंदोलन के समय, महात्मा गांधी ने भारत के संदर्भ में मशीनों की भूमिका पर ना केवल संदेह किया, अपितु हमें सावधान भी किया। उन्होंने बड़ी स्पष्टता और साफ लहजे में सिखाया और बताया कि वे मशीनों के खिलाफ नहीं हैं, मगर मशीनें जब मानव श्रम को ही गिरवी रख दे तो उस मशीन का क्या …! उन्होंने साफ कहा कि ये जो चरखा है वह भी तो मशीन है मगर यह हमारे यहां के श्रम का साथी है ना कि उनका दुश्मन! एक मशीन जो हमें बेगार कर दे उसे स्वीकार कैसे करें ?
बड़े साफ शब्दों में गांधी जी अपने देश के संदर्भ में विपुल श्रम-शक्ति, विकास एवं मशीन या तकनीक या कहें आविष्कार के संदर्भ में पैनी दृष्टि सम्पन्न थे। उन्होंने यह भी कहा कि यह धरती हमारी जरूरतें पूरी करने में समक्ष है पर मनुष्य के लालच को पूर्ण करने में नहीं। दरअसल, गांधीजी की यह दृष्टि एकेडमिक बुक पढ़कर नहीं प्राप्त हुयी थी, वह तो भारतीय पारम्परिक ज्ञान का ही पुंज था – प्रकृति से जितना लो, लौटाओ भी…! वास्तव में गांधीजी के इस निहित में भारतीय संस्कार ही मूल स्रोत रहे और टॉल्सटाय, कबीर उनके प्रिय और संस्कार से वैष्णव! बहुजन हिताय उनका आदर्श!
इन विचारों को पृथक से चिन्हित करने की आवश्यकता कम से कम भारत के किसी प्रबुद्ध को नहीं थी, या है, ये ज्ञान तो संस्कार बनकर हम भारतीयों में पूर्व से मौजूद हैं। पर यही विडम्बना घटित होती है और विश्व प्रबुद्ध मानव के समक्ष, एक मशीनी युग की चमक-दमक के समक्ष, भारतीय दर्शन, गांधी जी की सोच पर मिट्टी डाल दी जाती है। और यह काम अग्रणी होकर कौन करता है -उनके प्रिय राजनीतिक शिष्य ……….. जी…..! वो तो रूसी समाजवादी विकास चमक-दमक से ऐसे चमत्कृत थे कि उनके द्वारा सीधा-सीधा वहां का मॉडल उठाकर यहां ’रिप्लांट’ कर दिया जाता है। ना सवाल ना कोई जवाब…., ना गांधी जी ना ही स्वामी जी….!
लिहाजा भारतीय प्रगति के संदर्भ में गांधीयन अवधारणा भी एकेडेमिक बनकर रह गयी। दो अक्टूबर और गांधी निर्वाण दिवस पर गांधीयन विचारधारा पर लेख लिखे व छापे गये, भाषण दिये गये। खादी पहनकर! बस!
गांधी जी की अवधारणा से कट जाने का तात्पर्य था भारतीय संस्कृति से, भारतीय संस्कार से पृथक हो जाना। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित व्यवहारिक शिक्षा या निज भाषा में ज्ञान -इत्यादि किसी के बारे में अमल पर विचार नहीं किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शायद देश को ना गांधी की जरूरत रह गयी थी और ना ही गांधीयन अवधारणा की। गांधीजी की अवधारणा से पृथक होने का अर्थ था अपने मूल्य, अपने अस्तित्व को नकारना। अब वे मूल्य मॉडर्न मानव में देखे जाने लगे जो सूट-बूट पहनता व अंग्रेजी ओढ़ता व पश्चिमी ज्ञान -विज्ञान-तकनीक में बातें करता हो। उसका मूल्य ही बदल गया। वह नया मानव था उसके बड़े-बड़े आदर्श थे। उसकी प्रबुद्धता पर कोई प्रश्न नहीं।
एक तरफ तकनीक व मशीनें आयात की गयीं तो दूसरी तरफ देश ने इस प्रबुद्ध आधुनिक मानव का भी आयात किया। वह रहा तो अपने मूल स्थान पर ही मगर उसके विचार शब्दों में खूब आयात हुये। वह हमारी लायब्रेरियों में छा गया। विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सिगार फूंक मार-मार कर ज्ञान का धुंआ और आडम्बर का छल्लमछल्ला किया।
अब जरा ठहर कर देखते हैं कि इस प्रगतिशीलता ने हमारी जमीन पर कैसी खेती की। उसकी यहां कितनी जरूरत थी। किस तरह लागू करने की आवश्यकता थी। बहुत कहने की जगह सिर्फ कुछ ख्यालों के जरिये इन बातों को समझा जा सकता है-
-क्या जिस वर्ग संघर्ष की बात मार्क्स ने अपनी जमीन व फैक्टरी कल्चर के संदर्भ में की थी, क्या ठीक वैसी या वैसी ही मिलती जुलती तस्वीर वर्ग संघर्ष की स्थिति अपने यहां भी थी….?
-क्या जिस संघर्ष को एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बताया गया उसका अस्तित्व हमारे देश में था…? कितने देश में स्पॉट थे जिनका कल्चर-फैक्टरी-मशीन आधारित रहा था….?
-क्या भारतीय जमींदार, सामंत, स्थानीय राजा इत्यादि सचमुच में मिल मालिकों जैसा बर्ताव अपने आसामियों के साथ करते थे जैसा कि यूरोपीय कपड़ा उद्योग व अन्य कारखानों में भयंकर शोषण का मंजर था ?
-क्या देशी मार्क्सवादियों ने सिद्वांत के तर्ज पर अपने देश में -’बुर्जुआ व आम’ के बीच सीमा रेखा खींच कर स्थायी रूप से ’कुलीनतंत्र’ अर्थात शोषक व शोषित के बीच जबरन लकीर नहीं खींचा जो नितांत अव्यवहारिक और मूर्खतापूर्ण कार्य था ?
बावजूद कि देश की समस्याएं स्वतःस्फूर्त तरीके से सामाजिक जागरण के मार्फत समता की तरफ समाज अग्रेषित किया जाता और शोषण के जरिये को निर्मूल किया जाता, वरन् हमारे यहां ’थ्योरी’ को एजेडा लागू करने की मूर्खता ज्यादा जरूरी लगी। कॉलेजों में किताबों में, पत्र-पत्रिकाओं में, जनरल व शोध ग्रंथ में थ्योरी का एकेडमिक विश्लेषण ही हमारे देश में ’प्रगतिशीलता’ का मायने रह गया। किताब में पन्ने देखकर हम उन्हें ढूंढने निकल पड़े, कि किस पेड़ में ऐसे पत्ते उगा करते हैं, अब वो वृक्ष तो अपनी धरती का था नहीं, वह तो मार्क्स बाबा ने अपनी जमीन के जंगल से चुना था।
यह उल्टी बात हुयी।
फोलित ब्यूरोज….पब्लिक्स….कॉमरेड्स…..इंकलाबीस….पोलिटिक्स….पोलिटिस…..तमाम ब्यूरोज…..तमाम जरनेल्स…तमाम मेगजीन्स…तमाम आइकाइंस…., बस उस पत्ते की खोज में लगे रहे। किस पेड़ का है बे तू….!
अब वो पेड़ या प्लांट यहां मिले तब तो…? प्लांट तो खूब रोपे गये जिन्होंने लोहा, इस्पात पैदा किया -पेड़ के पत्ते नहीं।
ये पत्ते तो मिलने वाले थे नहीं, सो कुछ शोधकों ने पानी में तेजाब डालकर शोध किया और ऐसा शोध किया कि पूरा शोधन हो गया-
-पुलिस सत्ता की निशानी है, भ्रस्ट सत्ता -विरोध!
-प्रशासन सत्ता का अंग है भ्रस्ट तानाशाही -विरोध!
-बनिया-तेली, साहूकार, अग्रवाल, साहू, भ्रस्ट व्यापारी -अतः विरोध!
-पूंजीपति, पंडित, पुजारी, ब्राहमण, पिछड़े व सुविधाभोगी अतः घिनौने तंत्र की आस्था जो ईश्वर, कर्मकाण्ड का हिस्सा -अतः घोर विरोध!
-स्त्री, किसान, मजूर, छोटे व्यापारी, दिहाड़ी, दैनिक भोगी -सभी शोषित, दमित, दलित, कुचले, पीसे -अतः पूर्ण समर्थन। आंख रहे तो भी आंख बंद करके। गलती से आंख खुल जाये तो आंख फोड़कर समर्थन!
इस तरह अपने यहां वर्ग संघर्ष की वैज्ञानिक नींव रखी गयी। और एक के बाद एक मुक्ति आंदोलन प्रारंभ हुआ। कुछ उदाहरण-
-स्त्री की मांग में सिंदूर -पुरूष गुलामी की निशानी -धो डालो! (गनीमत इन्होंने सर फोड़ने की बात नहीं कही।)
-स्त्री के गले में मंगलसूत्र -पुरूष गुलामीवाला चेन -तोड़ डालो। (गनीमत इन्होंने गला काटने की बात नहीं कही।)
-हाथों की चूड़ियां -पुरूष द्वारा बंधन -फोड़ डालो। (गनीमत इन्होंने कलाई काटने की बात नहीं कही।)
-पावों की पायल -पांवों की बेड़ियां -तोड़ डालो। (गनीमत इन्होंने पांव काटने की सलाह नहीं दी।)
इस तरह इस ’तोड़-फोड़-जोड़-मोड़-छोड़ प्रणाली द्वारा स्त्री मुक्ति अध्याय लिख डाला गया।
खुदा कसम! एक सौ तैंतीस करोड़ देवताओं की दुहाई…..ऐसा टोटका ब्रांड ’मुक्ति -अध्याय’ ना कहीं देखा ना सुना…..!
ये सिर्फ ’एक ही’ अध्याय की बात है। इति शुभम्……!
अब जरा आपके प्रश्न ’प्रगतिशील आंदोलन’ की हिन्दी साहित्य के संदर्भ में थोड़ी चर्चा की जाये। वैसे तो ऊपर बहुत सारी बातें स्पष्ट हैं फिर भी कुछ खास विद्वानों को बधाई देना जरूरी है कि उन्हेंने जिस तरह हमारे लिये ’साहित्य-पथ’, ’रोड़ मैप’, ’राष्ट्रीय राजमार्ग’, ’साहित्य की पगडंडियां’, ’कविता -कहानियों के कुएं और खाई’, ’विचारों के खण्डहर’, ’सनसनाती धारदार तलवार की मूठें’, ’उबलते और खौलते पानी में डूबी हुयी भारतीय नारी’, ’विचारों की जहरीली नागिन’…….इत्यादि-इत्यादि सड़कें, पुलें, राजमार्ग और पथ-प्रदर्शिकायें प्रस्तुत की गयीं;
पहला सवाल-
-क्या साहित्य किसी ग्रंथ / थ्योरी का अंश है या जीवन का अंश…?
-साहित्य, कला, संगीत, विचार, संस्कार, भाषा….बोली -व्यवहार किसी ग्रंथ से पैदा हुये हैं या इन व्यापक चीजों ने इन ग्रंथों की रचना की ….?
-व्यष्टि क्या पूर्णतः स्वतंत्र इकाई है, जो इस प्रकार समष्टि को बनाती है या समष्टि व्यापक व अनंत है जो व्यष्टि को अस्तित्व प्रदान करती है ?
-क्या कला, संगीत, साहित्य, बोली-भाषा सदियों, हजारों सालों की परम्परा नहीं ? अपनी परम्परा को पूरी तरह पृथक कर एक आधुनिक ग्रंथ जो अपनी मिट्टी का नहीं, किस तरह वह अपना अक्स हो सकता है ?
हमारे यहां इतिहास व परम्परा को मिथक मान लिया गया। उनसे घृणा की हद तक पृथक या अलगाववादी व्यवहार किया गया।
इस वृहत वर्षों, सैकड़ों-हजारों साल की चेतना में बसी बातें साहित्यिक मूल्य अचानक खारिज कर दिये जाते हैं। फिर एक ’लिबास’ ओढ़ा-बिछाया जाता है जो किसी ग्रंथ की कॉपी है। कॉपी-पेस्ट, कार्बन कॉॅपी वाली मूल्य एक ओढ़ी संस्कृति, मुखौटेवाली संस्कृति जन्म लेती है -प्रबुद्ध मानव द्वारा।
ध्यान रहे वह जीवन से नहीं निकला है, जीवन को ओढ़ाया गया है।
साफ है -हमारा साहित्य जीवन से नहीं बल्कि हमारे जीवन को ही किसी ग्रंथ में ठेल दिया जाता है! वहां से जो चेहरा रंग पाता है -धब्बानुमा! ना हम मूल हो पाते हैं ना चूल!
अब उनके ‘स्रोत’ से स्त्री-मुक्ति तो हो गयी, मगर वास्तव में वह एक ’कटी पतंग’ बन कर रह गयी। क्या सचमुच स्त्री या पुरूष इस कदर स्वतंत्र हो सकता है अपनी जड़ों से कट कर….!
समय परिस्थितियां, परम्परा, समाज को कोई मायने नहीं और क्या सिर्फ एक स्त्री के ग्रंथ पढ़ लेने से वह ’मुक्त’ हो जाती है ? और उस मुक्ति की परिभाषा क्या ? पति से इतर प्रेमी-प्रेमियों के साथ स्वछंद बिहार! एक निजी व्यक्तित्व का हित, स्वार्थ कामनाएं चलिये पूर्ण हुआ -वह उसकी आजादी है, पर क्या जीवन व हमारा संस्कार इतना एक रेखीय है ? वह इतना सपाट -सीधा…! वाह रे ज्ञानी! आपको अधिकार तो खूब लेंस लगाकर दिखे मगर इस आजादी में कहीं कर्तव्य भी तो हो! समाज, परिवार, बच्चे (जो भविष्य का नागरिक हो वाला है), सगे सम्बंधी, माता-पिता….कई-कई सवाल हैं। इस आजादी में वे कहीं नहीं…..। पतंग तो धागे में बंधकर आकाश में उड़ती है, मगर इनके ग्रंथों की भारतीय नारी….? उसे उड़ना तो है मगर बिना किसी गैर से बंधे…। गजब…। इसलिये भाई साहब ने फरमाया-
बंधन उतार फेंको….
डोर तोड़ डालो…
बेड़ियां काट डालो…..
पर्दा से बे-पर्दा हो जाओ….
तुम स्वयं अपना चीर हरण करो….
उनकी इस मुक्त स्त्री में स्त्री की ममता…
स्त्री का प्यार…
स्त्री की प्रतीक्षा….
स्त्री का त्याग….
स्त्री मर्यादा..
ये सारी चीजें मिथक थीं -हैं। इनका इस आधुनिकता से कोई मतलब नहीं। वह ना पत्नी है, वह ना मां है, वह ना बहन है, वह ना सखी है,….वह तो बस एक कटी पतंग है! लूट लो…भाईजान…..अरे सिगारवाले…., काले चश्मावाले……पानवाले…..तम्बाकूवाले, खम्भावाले, पलंगतोड़ पान खाने वाले जांबाज मर्द कहां गये….शिलाजीत वाले विदेशी ब्रांड…..आपकी विश्वगंधा को आप जैसा अश्वगंधा चाहिये….रजनीगंधा को आप जैसा गधागंध चाहिये…. तोहफा कुबूल कीजिये जहांपनाह….!
और चारों दिशाओं….., दसों आयामों से आवाज आयी – कुबूल है…..कुबूल है….कुबूल है!!!
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अब जरा इस प्रगतिशील मानव की नियति या भविष्य को अनुमान पर विचार कर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। प्रगतिशीलता या प्रगतिशील आंदोलन अपने आप में कोई चीज नहीं होती, चूंकि उसे उत्पन्न करने वाला वाहक और ग्राहक यह सब एक मानव ही है अतः मानव ही प्रगतिशील, आधुनिक या उत्तर आधुनिक होता है।
इस आधुनिक मानव के प्रभावों को हम ऊपर देख चुके। अब तक के तमाम चिंतन एशो-आराम, सुविधा और स्वार्थ के इर्द-गिर्द संचालित हैं। वह एक रेखीय हैं इसमें स्वयं के लाभ के अतिरिक्त किसी दूसरे के लाभ की बात, बड़ी-बड़ी बातें तो खूब की जाती है, मगर ये सब एक पाखंड बन कर रह गया है। सीधा सा कारण है -अन्य आयामों को इसमें शामिल नहीं किया जाना! हमेशा, चाहे स्त्री मुक्ति हो, पब्लिक हो, व्यापार हो, आविष्कार हो, तकनीक हो -सदैव बिना विश्लेषण के इनकी पूजा की गयी है। प्रकृति के तत्व स्त्री-पुरूष के आपसी रिश्ते, मनुष्य व प्रकृति के बीच के रिश्ते, अमीर व गरीब के बीच के रिश्ते, मानव के मनोविज्ञानिक व आत्मिक सच -सब के सब अनदेखे किये गये हैं। वह आज भी किसी पागल, किसी लीडर, किसी करोड़पति को, किसी सक्षम मनुष्य को नहीं दिख रहा। वो अब प्रगतिपथ पर कहां जा रहा है। भविष्य है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का! भविष्य हैं आधुनिक रोबोंटो का! भविष्य है सुपर कम्प्यूटर्स का जो किसी चीज के मार्फत इस आधुनिक मानव के शरीर का हिस्सा होगा। वह आधुनिक मानव कब खाये, कब पीये, कब सोये, कब रोये और कब हंसे…..कब कौन सी दवा ले – क्योंकि यह चिप, सुपर इंटेलिजेंट हैं, डॉक्टर से लेकर उसक गुरू-गाईड सबकुछ! वह आपका ब्लड प्रेशर बतायेगा, शरीर का टेम्पेचर, शरीर के पानी और प्रेस्टीज की मात्रा सबकुछ….! यानी यह ’सुपर-डुपर’ होगा तो आपको निर्देशित करता रखेगा।
बंदर के साथ खेलते-खेलते मदारी भी बंदर जैसी हरकत करने लग जाता है। यह वर्तमान मनुष्य मशीनों से खेल रहा है, खेल निरंतर जारी है। खेल और खिलाड़ी में भेद अधिक दूर नहीं।
तो यह है भविष्य का मानव! आई. टी. एप्प का मानव! आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का मानव!
हजारों, लाखों करोड़ो वर्षों से विकसित मानव जीन, डी.एन.ए., जिसमें प्रकृति के तत्व, मानव, मानव मस्तिष्क व उसकी सद्य-प्रवाहित ऊर्जा जिन तत्वों से बनी व विकसित हुयी वह अभी ही इसी एक रेखीय प्रगतिशील मानव के जीव से नदारत हैं।
-वह अनाज नहीं पचा पाता…..(मादर….. प्लास्टिक पचा जाता है।)
-वह दूध नहीं पी पाता…..(मादरजात दूध छोड़कर दारू, ड्रग्स, जहर सब पी और पचा जाता है।…)
-वह सुबह की ठंडी हवा में नहीं सैर कर पाता…..(रात भर साला पार्टी -सार्टी करता है, सुख के समंदर में डूबा रहता है।)
-वह नितांत अकेला नहीं रह पाता….(मादर….जुल्मी है, तन्हाई उसे काटती है, स्वयं को छोड़कर मादरजात चांद, मंगल, अमेरिका, हवा महल, हर जगह मौजूद रहता है।)
दूसरों, गैरों के सुख के बारे में ख्याल भी नहीं करता, उसकी बीवी, बच्चे भी स्वतंत्र इकाई हैं व आजाद हैं – ये सभी गैर हैं….(मादर….के लिये सिर्फ और सिर्फ उसी का शरीर, उसी का मन ही उसका अपना है, बाकी गये तेल लेने…..)
प्रकृति व प्रकृति के तत्व उसकी रखैल, उसकी दासी है। उसे घमंड है कि जैसी विपदा आये वह उसे झेल लेगा। दुनिया की सारी सुविधायें जो उसके पास है। किडनी चेंज करवा लेगा, तिल्ली की मरम्मत करवा लेगा, खून चेंज कर डालेगा, बॉन मेरो ट्रांसप्लांट कर डालेगा….अपना सेक्स यानी कि लिंग भी चेंज करवा लेगा….वह सम्पूर्ण है। वह सक्षम है। प्रकृति तो उसकी ठेंगे से….!
किस्सा कोताह ये कि इस अत्याधुनिक-अत्याधुनिक, उत्तर-उत्तर-उत्तर महामानव की यही निशानी है कि दुनिया चाहे इधर से उधर हो जाये, दुनिया चाहे नष्ट हो जाये….। वह तो नष्ट करने पर तुला बैठा ही है। दुनिया रहने लायक ना रहे, वह अमर है व अमर होकर मंगल-चांद पर डेरा डालने वाला है। इस तरह, यह है नियति या महान भविष्य ऐसे महामानव का!
तो आपका क्या ख्याल है….यह प्रगतिशील आंदोलन, प्रगति करता जाये….करता जाये!